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Vakri Grah
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Vakri Grah

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दैवज्ञ शिरोमणि डॅा० भोजराज द्विवेदी ज्योतिष, मंत्रा तंत्रा व अध्यात्म विद्या के जाने-माने लेखक, लब्ध् प्रतिष्ठित पत्राकार व भविष्यवक्ता हैं। एम.ए. संस्कृत दर्शन प्रथम श्रेणी में रहकर सर्वोच्च अंक लिए तथा सम्प्रति जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर मे ही वराहमिहिर ज्योतिष को लेकर शोधकार्य कर रहे हैं। ज्योतिष विषय को लेकर ‘अज्ञात-दर्शन’ नामक एक समाचार-पत्र का सम्पादन गत 17 वर्षों से कर रहे हैं। ज्योतिष में आपको ढेरो मानपत्रा अनेक स्वर्ण पदक प्राप्त कर चुके हैं तथा कई नागरिक अभिनंदन हो चुके हैं। आपको केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री श्री माखनलाल फोतेदार द्वारा डॉक्टर ऑफ ऐस्ट्रोलोजी की उपाधि मिल चुकी है तथा पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह द्वारा अंग वस्त्रा, मुकुट एवं स्वर्ण पदक भी प्रदान किया गया। आप देश-विदेश के अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की अध्यक्षता भी कर चुके हैं तथा सिंगापुर, हांगकांग, अबूधबी, दुबई, शारजाह एवं अनेक मुस्लिम राष्ट्रों की भी यात्रा कर चुके हैं। ज्योतिष विषय को लेकर पचास से अधिक रेडियो वार्ता, एक हजार लेख व डेढ़ हजार से अधिक भविष्यवाणिया प्रकाशित होकर सत्य प्रमाणित हो चुकी हैं। ज्योतिष-क्षेत्रा में अपने दर्जनों स्तरीय पुस्तकें लिखी हैं जिनमें से एक यह दुर्लभ पुस्तक आपके हाथों में है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateOct 27, 2020
ISBN9789352966530
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    Vakri Grah - Bhojraj Dwivedi

    है?

    चिन्तनिका-1

    विषय प्रवेश

    फलित ज्योतिष में ‘वक्री ग्रह' को लेकर जब भी चर्चा होती है, अनेक प्रकार की किंवदन्तियां, चर्चाएं और कपोल कल्पनाओं को लेकर बात वहीं पर खत्म हो जाती है, प्रायः जहां से शुरू हुई थी। ग्रह के वक्री होने पर जातक विशेष के जीवन में क्या घटना घटित होनी चाहिए? ग्रह विशेष जिस राशि या जिस भाव में वक्री हुआ है, उस भाव या राशि विशेष का फलादेश प्रामाणिक रूप से क्या होना चाहिए? इस पर प्रायः ज्योतिष मौन हो जाते हैं, चुप्पी साध लेते हैं, और टालमटोल करने लग जाते हैं। क्योंकि वक्री राह को लेकर फलित ज्योतिष में विशेष कुछ भी नहीं लिखा गया है तथा न ही इस विषय पर कहीं से कोई स्वतंत्र ग्रंथ की उपलब्धि होती है।

    संस्कृत में वक्री का अर्थ होता है कुटिल। घुमावदार रास्ते से चलने वाला छल-कपट करने वाले व्यक्ति को वक्री कहा जाता है। अंग्रेजों में (Retrograde) शब्द विपरीत, उलटा या पीछे की ओर जाने वाली क्रिया के रूप में काम आता है तथा किसी भी नक्षत्र व ग्रह के पिछली ओर की (उलटी) गति को ‘रिट्रोग्रेडेशन' (Retrogradation) कहा जाता है परन्तु वास्तव में ग्रह, जो कि किसी एक आकर्षण घेरे में निश्चित गति से लगातार घूमते रहते हैं, वे कभी वक्री नहीं हो सकते। वे कभी उलटे नहीं चलते। यदि एक क्षण के लिए ऐसी कल्पना कर भी ली जाये तो ऐसी स्थिति में तत्काल सारी सृष्टि और भू-मण्डल का नाश हो जायेगा। व्यावहारिक तौर पर मान लीजिए हम किसी वाहन में तेज गति से एक निश्चित दिशा की ओर जा रहे हैं, उस स्थिति में ऐसा कभी नहीं हो सकता कि हमारा वाहन एकाएक उलटा विपरीत दिशा में चलने लग जाय। यकायक विपरीत दिशा में गति देने के लिए वाहन को पहले तेजी से ब्रेक लगाना पड़ेगा। तेज गति में चलने वाले वाहन पर एकाएक रोक लगा देने से जिस प्रकार की भीषण दुर्घटना व कम्पायमान स्थिति की कल्पना की जा सकती है, ठीक उससे लाख, करोड़ गुणा अधिक भीषण भूकम्प व दुर्घटना की आशंका पृथ्वी या किसी भी ग्रह के यकायक रुकने से क्षण मात्र में घटित हो सकती है। फिर भी हम ज्योतिषी लोग ग्रहों की गणित के माध्यम से पंचांगों में, जंन्त्रियों में व एफेमेरीज में ऐसा लिखते आ रहे हैं कि अमुक ग्रह फलां तारीख को वक्री होगा और फलां तारीख तक मार्गी होगा। कई बार हम ज्योतिषी लोग वेध यन्त्रों की सहायता से एवं नंगी आंखों से भी आकाश में देखते हैं और अनेक बार ग्रह उलटे घूमते हुए, पीछे की ओर जाते हुए दिखलाई देते हैं। तब हम कहते हैं कि आज तो फलां ग्रह वक्री हो गया। वास्तव में हम जब किसी ग्रह के वक्री होने की बात कहते हैं, तो यह उस ग्रह विशेष की प्रत्यक्ष स्थिति का तुलनात्मक विवेचन होता है -जो दृष्टि की भ्रांत- धारणा से हमें दिखलाई पड़ता है। उदाहरणार्थ हम जीवन में कई बार रेल-यात्रा करते हैं और कई मित्रों को इस बात का अनुभव भी होगा कि जिस ट्रेन में हम बैठे हैं, उसके समानान्तर पटरी पर जब कोई दूसरी ट्रेन भी चलने लग जाय और जो ट्रेन हमारे समानान्तर चल रही है, उसकी गति हमारी ट्रेन से कुछ कम हो तो ऐसा लगता है कि सामने वाली ट्रेन पीछे की ओर जा रही है। जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। इसी प्रकार से जब पृथ्वी की गति अपनी धुरी पर अपने समानान्तर चलने वाले ग्रह से तेज होती है तब पृथ्वी पर निवास करने वालों को पृथ्वी के समानान्तर चलने वाला ग्रह पीछे की ओर जाता हुआ दिखलाई पड़ता है, और हम कहते हैं कि ग्रह वक्री हो गया। वक्री ग्रह वास्तव में एक दृष्टि भ्रम है, किन्तु व्यावहारिक तौर पर ग्रह कभी वक्री नहीं होते। ग्रह कभी उलटे नहीं चलते।

    ज्योतिष की भाषा में जब हम किसी ग्रह को ‘वक्री' कहते हैं, तो वास्तव में ऐसी स्थिति उस ग्रह की पृथ्वी की तुलना में मन्द गति होने की सूचना देती है और ऐसी स्थिति में उस ग्रह विशेष की शक्ति कुछ कम मानी जाती है।

    वक्री ग्रह कुण्डली में जातक विशेष के चरित्र-निर्माण की क्रिया में सहायक होते हैं। जिस भाव और राशि में ग्रह वक्री होते हैं, उस राशि व भाव-सम्बन्धी फलादेश में काफी कुछ परिवर्तन आ जाता है। सूर्य और चन्द्रमा-दो ऐसे ग्रह ,हैं जो कभी वक्री नहीं होते। क्योंकि इनकी गति समानान्तर रूप से हमेशा पृथ्वी की गति से तेज (शीघ्रगामी) रहती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर उस गति से चल रही है जिस गति से उसके समानान्तर कोई अन्य ग्रह चल रहा है। तब पृथ्वी वासी को ऐसा प्रतीत होगा कि अमुक ग्रह चलते-चलते स्थिर हो गया है। परन्तु ऐसा होता नहीं। क्योंकि ‘वक्री ग्रह' और ‘स्थिर ग्रह' प्रत्यक्ष रूप से गति के अन्तर-प्रत्यन्तर के कारण आंखों से दिखलाई देने वाली भिन्न-भिन्न स्थितियां मात्र हैं। इस ग्रह स्थिति को भलीभांति समझ लेने के बाद ही हमें वक्री ग्रहों से वायुमण्डल एवं पृथ्वी वासी लोगों पर होने वाले प्रभाव का सूक्ष्मता से अध्ययन करना होगा।

    चिन्तनिका-2

    ग्रहों का वक्रत्व

    जैसा कि विषय प्रवेश में स्पष्टतः आपको बताया जा चुका है कि कोई भी ग्रह अपनी निश्चित गति से अपने कक्ष (Orbit) में भ्रमण करता हुआ, पलट कर उलट (वक्री) नहीं चलता। सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हुए प्रत्येक ग्रह का अपना अलग-अलग परिभ्रमण-पथ एवं गति है। ये सभी ग्रह अपने-अपने परिभ्रमण-पथ में एक दम गोल न घूमकर अण्डाकार वृत में घूमते हैं। प्राकृतिक नियमों के अनुसार किसी भी दो ग्रहों का परिभ्रमण काल एक समान नहीं होता तथा न ही उनकी गति ही एक जैसी होती है। इसी प्रकार से प्रत्येक ग्रह का परिभ्रमण-कक्ष (Orbit) भी एक जैसा न होकर एक दूसरे से छोटा-बड़ा होता है। प्रकृति की यह बड़ी विचित्रता है कि ये सभी ग्रह अपनी अलग-अलग कक्षाओं में, अपनी अलग-अलग गतियों में होते हुए भी सूर्य की आकर्षण शक्ति के कारण एक ही दिशा में निर्बाध गति से घूमते रहते हैं। इन ग्रहों के साथ-साथ पृथ्वी भी बार-बार अपने परिभ्रमण पथ पर गतिशील है, अतः कई बार आकाश मण्डल पर दृष्टिपात करने से हमें ऐसा लगता है कि कोई ग्रह किसी से आगे चल रहा है तो कोई ग्रह पीछे चल रहा है। इसी तरह कोई ग्रह हमें समान गति के कारण कुछ समय के लिए स्थिर भी दिखलाई देता है। ज्योतििषयों ने ग्रहों की इन अलग-अलग स्थितियों को समझने के लिए कुछ तकनीकी शब्दों का प्रयोग किया है। जब कोई ग्रह अपनी तेज गति के कारण राशिमण्डल में किसी अन्य ग्रह को (Overtake) करके पीछे छोड़ देता है तो उस समय उसे ‘अतिचारी' कहते हैं। जब कोई अपनी धीमी गति के कारण पीछे की ओर खिसकता हुआ दिखलाई पड़ता है तो उस ग्रह को ‘वक्री' कहते हैं। जब वह ग्रह विशेष वापस आगे की ओर बढ़ता हुआ प्रतीत होने लगता है और अपने वक्रत्व को छोड़ देता है तो उसे उस समय ‘मार्गी' कहते हैं। इसी प्रकार जब कोई ग्रह समान गति के कारण कुछ समय के लिए स्थिर-सा दिखलाई पड़ता है, तो उस काल विशेष में ज्योतिषी लोग उसे ‘स्थिर' अस्त एवं निस्तेज ग्रह भी कहते हैं।

    यह प्राकृतिक नियम है कि कोई भी ग्रह जब सूर्य या पृथ्वी से तुलनात्मक निकटतम स्थिति में आ जाता है तो उसकी गति तेज हो जाती है। सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते समय हमारे सौरमण्डल का कोई ग्रह जब पृथ्वी की दिशा में पूर्वाभिमुख होता हुआ सूर्य से ठीक 90 डिग्री के समकोण (वर्गात्मक) स्थिति में में आ जाता है तो उसकी गति क्रमशः तेज-तेज.... और तेज होती चली जाती है। इसी प्रकार से जब यह ग्रह पश्चिमाभिमुख होकर ज्यों-ज्यों पृथ्वी की दिशा व कक्षा से दूर होता चला जायेगा, त्यों-त्यों यह धीमा.... और धीमा चलता हुआ प्रतीत होगा। वैज्ञानिकों की यह मान्यता है कि वास्तव में ग्रहों की गति में कोई परिवर्तन नहीं आता। चूंकि पृथ्वी भी इन ग्रहों के साथ-साथ उनकी दिशा में ही अपने परिक्रमा-पथ में धनुषाकार लम्ब-वृत्त में घूमती रहती है इसलिए कभी ग्रह आगे की और चलते हुए तो कभी ग्रह पीछे की ओर चलते हुए, तो कभी ग्रह धीमे, तो कभी तेज चलते हुए से प्रतीत होते हैं।

    हिन्दी या संस्कृतनिष्ट भारतीय पंचांगों में जब ग्रह वक्री होता है तो उस ग्रह के आगे क्रॉस का निशान लगा दिया जाता है जबकि पाश्चात्य ऐफेमेरीज में उन ग्रहों के आगे ‘R' शब्द लगा दिया जाता है। ग्रह के पुनः मार्गी हो जाने पर हिन्दी भाषी पंचांगों में ‘मा' शब्द लिख दिया जाता है जबकि पाश्चात्य पंचांगों या ऐफेमेरीज में उस ग्रह के आगे ‘D' शब्द लिख दिया जाता है। जब ग्रह न तो वक्री होता है न मार्गी तो उसके आगे किसी प्रकार का कोई चिह्न नहीं होता। जिन पंचांगों या एफेमेरीज में दैनिक ग्रह स्पष्ट दिये हुए होते हैं, उनमें हम कई बार देखते हैं कि जब किसी ग्रह की अंशात्मक गति पूर्व दिन की तुलना में घटने लग जाती है तो वह ग्रह वक्री हो जाता है। जब यह अंशात्मक गति प्रतिदिन के हिसाब से वापस बढ़ने लग जाती है तो ग्रह मार्गी कहलाता है। यह गणितागत स्पष्टीकरण है।

    उदाहरणार्थ निर्णयसागर पंचांग में संवत् 2042, फाल्गुन कृष्ण 12 दिनांक, 7 मार्च, 1986 को मीन राशि गत बुध के अंश कम होने लग गये। उसी दिन से बुध ‘वक्री' कहलाने लग जायेगा। यह बुध उलटा चलते-चलते 26 मार्च, 86 को कुम्भ राशि में 26 अंशों तक उलटा चलता चला गया। फलतः पंचांग में आपको लगातार क्रॉस के निशान मिलते चले जायेंगे। दिनांक 2 अप्रैल, 1986-संवत् 2042 चैत्र कृष्ण अष्टमी बुधवार को इस ग्रह की गति में परिवर्तन होना शुरू हो गया तथा यह पुनः अंशात्मक गति से वृद्धि को प्राप्त करता हुआ कुम्भ राशि के अन्तिम अंशों की ओर बढ़ता हुआ चलने लगा, तब यह बुध ग्रह मार्गी कहलाने लगेगा। यही गणितागत स्पष्टीकरण है। इसी प्रकार इसी वर्ष 1986 में पंचांग या एफेमेरीज को देखने से पता चलेगा कि 20 मार्च को शनि वृश्चिक राशि की 7/16/1/35 डिग्री से पीछे हटने लगा तो

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