Sex Samasya Aur Samadhan (सैक्स समस्याएं और समाधान - सैक्स संबंधी रोग और उनका इलाज )
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Sex Samasya Aur Samadhan (सैक्स समस्याएं और समाधान - सैक्स संबंधी रोग और उनका इलाज ) - Dr. Satish Goyal
धर्म
स्त्री और पुरुष
स्त्री और पुरुष दोनों ही मानव जाति के अंग हैं । दोनों की शारीरिक रचना और स्वभाव आदि में काफी भेद है । साफ तौर पर स्त्री का मुख बड़ा कोमल और दाढ़ी-मूंछ रहित होता है । इसके ठीक विपरीत पुरुष का मुख कठोर और दाढ़ी-मूंछ से भरा होता है। स्त्री प्रकृति से ही कोमल होती है । उसका स्वर भी मृदु होता है तथा अंग-प्रत्यंग भी अपेक्षाकृत छोटे ही होते हैं। कोई-कोई महिला इसका अपवाद भले ही हो, आम तौर पर तो यही अन्तर होता है ।
पुरुष को स्त्री उपरिलिखित, कोमलता, मृदुलता आदि बहुत भाती है, किन्तु इसके विरुद्ध महिलायें कठोर अंग वाले, दाढ़ी-मूंछ वाले और मजबूत मांसपेशियों वाले पुरुष को ज्यादा पसन्द करती हैं। विरोधी तत्त्वों में यह रुचि न केवल शरीर अपितु दोनों के मन और स्वभाव के विषय में भी सही है । स्त्रियाँ लज्जावान और संकोची स्वभाव की होती हैं और पुरुष निर्भय संकोच रहित और साहसी होता है । अपवाद तो सर्वत्र ही पाए जा सकते हैं ।
इसके विपरीत आकांक्षा का एक प्रकृत कारण होता है, वह यह कि जिसमें जिस वस्तु का अभाव होता है, वह उसके लिए ही लालायित रहता है । पुरुष यदि यह समझते ही कि वे ही स्त्रियों पर मोहित होते हैं तो यह मात्र भ्रान्ति है। स्त्रियां भी उसी मात्रा और अनुपात में पुरुषों पर मोहित होती हैं । दोनों की एक-दूसरे के प्रति गहरी इच्छा और कामना होती है । यह मान्यता प्रचलित है कि प्राणी जगत में विशेषतया मानव प्राणी में स्त्री हृदय होती है और पुरुष मस्तिष्क। इस प्रकार दोनों एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। दोनों विद्युत की ‘ऋण' और ‘धन' (पॉजिटिव और नेगेटिव) तरंग के समान हैं । एक तरंग आकर्षण करती है तो दूसरी तरंग अपकर्षण।
संसार की सभी जातियों में स्त्री-पुरुषों के प्रेम एक समान नहीं दिखाई देते। अफ्रीका के हब्शी-जन जो संसार के स्त्री-पुरुषों में बहुत ही कुरूप होते हैं, उनमें स्त्री-पुरुषों के परस्पर प्रेम और उत्सर्ग के सर्वोत्तम उदाहरण पाये जाते हैं, जबकि फ्रांस में जिसे संसार में सौंदर्य और शृंगार की धरती माना जाता है, इस प्रकार के प्रेम और उत्सर्ग के उदाहरण बहुत ही कम मात्रा में पाए जाते है ।
प्राचीन भारतीय शास्त्रकारों के मुताबिक पुरुष की तुलना में स्त्री में पुरुष की चाह आठ गुनी होती है । किन्तु हमारा समाज पुरुष प्रधान है अतः उसने अपने लिए कुछ ऐसे नियम बना लिए हैं जिनके कारण स्त्रियां पुरुषों पर आश्रित हैं और उन्हें शारीरिक तथा आर्थिक रूप में पुरुषों की ओर देखना पड़ता है । इसका एक परिणाम यह हुआ है कि जहां अनेकों महिलाओं को एक ओर पति-परायणा और सती-साध्वी होने के कारण आजीवन वैधव्य का दुःख सहन करना पड़ता है, वहीं दूसरी ओर बहुत सारी ऐसी स्त्रियां भी हैं जिन्हें समाज के क्रोध को ओढ़ना पड़ता है और वेश्यावृत्ति का आश्रय लेकर अपना पेट भरना पड़ता है । इसके विपरीत हमारे समाज में पुरुष इस प्रकार की वेश्यावृत्ति तो नहीं करता, हां स्त्रियों के शरीर का मनमाने ढंग से भोग जरूर करता है । प्राचीन काल में इसको नियोग नाम दिया गया था। यही कारण था कि उस युग में सन्तति को माता की सम्पत्ति माना जाता था, पिता की नहीं।
प्रारम्भ में तो स्त्री-पुरुषों की इस नैसर्गिक प्रवृत्ति के लिए समाज में किसी प्रकार की कोई मर्यादा नहीं थी। कालान्तर में ज्यों-ज्यों समाज में नीति-नियमों और रति-रिवाजों का प्रचलन बढ़ता गया तो एक ऐसा वक्त आ गया जिसमें स्त्री-पुरुष के सर्वप्रधान अंग गुप्तांग के रूप में प्रचलित हो गए।
एक समय ऐसा भी आया कि जब धार्मिक अंधविश्वासों के कारण मानव कई प्रकार की रूढ़ियों में बंध गया। उसके जीवन का लक्ष्य दुर्गम हो गया। यह कठोर बन्धन मर्यादा की सामान्य सीमा को पार कर देने का कारण बना और मानव की इस नैसर्गिक प्रवृत्ति ने धीरे- धीरे व्यभिचार का रूप धारण कर लिया । कहीं-कहीं इस व्यभिचार को सामाजिक मान्यता और संरक्षण दिया जाने लगा। भैरवीचक्र और निशा-निमन्त्रण अथवा इसी प्रकार के अन्य समारोहों के उदय का यही कारण रहा है । एक जमाना था जब बेबीलोन की नारियों को देवी के मन्दिर में आकर किसी भी परपुरुष की संगिनी बनना पड़ता था। यह उनका धार्मिक विश्वास था । भारत के मन्दिरों में भी देव-दासियों की पुरानी परिपाटी लगभग ऐसी ही रही है ।
वेश्याचरण अर्थात पुरुष से किसी प्रकार का शुल्क लेकर उसके एवज में सहवास की मंजूरी के विषय में एक पाश्चात्य विद्वान डॉक्टर एलिस का कहना है कि यह गलत है कि उसने (स्त्री ने) कुछ रुपयों के बदले शरीर को बेचा। स्वपुरुष द्वारा शरीर का उपभोग करने का यह कार्य तो सभी पत्नियां प्रायः करती हैं । उसके विनिमय में वे पाती हैं, घर, वस्त्र, गहने, भोजन और जीवन की सुरक्षा। आचार-विचार की दृष्टि से वेश्याओं का यह मुफ्त संभोग भले ही बुरी नजर से देखा जाए, पर वेश्या तो एक ऐसी स्त्री है जिसे हमारे ही समाज ने काम-सम्बन्धी अनुग्रह अस्थायी रूप से भिन्न-भिन्न पुरुषों को बड़े सहज रूप में विक्रय करने को विवश कर दिया है ।
प्राचीन भारत में ऐसी स्त्रियों को ही समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता था। पुरुषों की तुलना में उनका स्थान निज नहीं माना जाता था। मन्दिरों की देव-दासियों को तो बहुत ही पवित्र माना जाता था। कुछ वेद-भाष्यकारों ने इसको वेद-विहित भी बताया है जिनमें सायण का नाम प्रसिद्ध है । यजुर्वेद में प्राप्त ‘पुंश्चली' शब्द को उन्होंने व्यभिचारिणी अर्थ किया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण में इसकी विस्तार से व्याख्या की गई है । यह विषय चूंकि विवादास्पद है अतः हम इसकी पुष्टि नहीं करते । भरत के नाट्य शास्त्र में ‘जाया-जीव' शब्द का अर्थ किया गया है - स्त्री द्वारा अर्जित आजीविका। वाल्मीकि रामायण में भी ऐसा जिक्र मिलता है कि राम के राजतिलक के मौके पर वेश्याओं को आमंत्रित किया गया था। उनकी गणना मंगल सामग्री के रूप में की गई है और जब राजतिलक के अवसर पर राम की शोभा-यात्रा निकली थी तो उस समय ‘रूपा-जीवा' अर्थात् वेश्यायें, उस यात्रा में शामिल की गई थीं, श्रीमद्भागवत् में भी दो यज्ञों के अवसर पर वेश्याओं की उपस्थिति का जिक्र मिलता है । तब युग की बात न भी करें तो बौद्ध ग्रंथों में आम्रपाली नामक वेश्या की चर्चा मिलती है । इसी प्रकार जैन ग्रंथों में भी वेश्याओं का उल्लेख मिलता है । कालान्तर में वेश्या हमारे साहित्य का विशेष अविभाज्य और अविच्छिन्न अंग और रूप बन गई थी । ज्योतिष शास्त्र में यात्रा के समय ऐसी स्त्री के दर्शन को शुभ माना गया है ।
मुगलों और अंग्रेजों के वैभव-काल के दौरान इस प्रकार की प्रचलित प्रवृत्ति का उल्लेख करना समय और स्थान का अपव्यय करना होगा। मुस्लिम और ईसाई साहित्य में स्त्री के जिस घिनौने रूप और कामुक शरीर की चर्चा की गई है उसके विषय में कुछ न कहना ही अच्छा होगा ।
इसमें भी सन्देह नहीं कि इसी जमाने में और इन देशों में ही यौन रोग सर्वाधिक प्रचलित रहे हैं । विजेता के रूप में भी जहां-जहां ये जातियां गईं उन देशों को इनकी यह जघन्यतम देन रही है । पदार्पण करते ही वह देश यौन-रोगों में ग्रस्त हो गया।
स्त्रियों में एक विशेषता यह है कि वे आत्मा को शरीर की अधीनता में रखने में पुरुषों की अपेक्षा अधिक पटु होती हैं । बुद्धि के आदर्शों में प्रायः उनमें कम विश्वास होता है । स्त्री-पुरुषों के कार्य क्षेत्र भले ही भिन्न-भिन्न हों तथापि दोनों में काफी समानता है । दोनों के ही कार्य समान रूप से महत्त्वपूर्ण आवश्यक और आयोन्याश्रित हैं । स्त्री-पुरुष पृथक-पृथक रहने पर अपूर्ण ही है । वे एक होकर ही पूर्ण है । यही सृष्टि का क्रम है जो आदि काल से प्रचलित है और अनन्त काल तक प्रचलित रहेगा । दोनों को सदा एक दूसरे की जरूरत बनी रही है और बनी रहेगी। यह एक जीवन-सत्य है । हम इसे झुठला नहीं सकते।
कामांगों का परिचय
प्रत्येक पुरुष और नारी को एक अवस्था विशेष के आने पर कामांगों से प्रभावित होने वाले अथवा शारीरिक रचना तंत्रों और जिन से काम-वासना का सम्बन्ध है तथा जो काम-तृप्ति में प्रमुख एवं सहायक अंग का कार्य करते हैं इन सभी अवयवों का सही-सही ज्ञान होना बेहद जरूरी है । इस जानकारी के अभाव में मनुष्य कभी-कभी भयंकर भूलें तक कर बैठता है, जिनका सुधार कठिन ही नहीं अपितु असम्भव भी हो सकता है । अतः यह हम सभी का नैतिक कर्त्तव्य है कि हम यथासमय इन अंगों के विषय में अपनी सन्तति को जरूरी जानकारी दे दें ।
व्यक्ति की किशोरावस्था से ही उसके शरीर में कुछ नये परिवर्तन आरम्भ होने लगते हैं । पुत्र और कन्या की इस किशोरावस्था में कुछ-कुछ अन्तर है । कन्या की किशोरावस्था लगभग 12 वर्ष से आरम्भ हो जाती है जब कि पुत्र की किशोरावस्था 14 अथवा 15 वर्ष से आरम्भ होती है ।
इस अवस्था में पुरुष के दाढ़ी-मूंछें तथा कुक्षियों जिन्हें ‘बगल' कहते हैं और लिंग के आसपास छोटे-छोटे बाल उगने आरम्भ हो जाते है । इसी अवस्था में स्त्रियों के स्तन उभरने लगते हैं । उनकी भी कुक्षियों में बाल उगने के साथ-साथ योनि के आसपास भी बाल उगने शुरू हो जाते हैं । इसी अवस्था से किशोरी का स्वभाव भी खुद-ब-खुद शर्मीला सा होने लगता है ।
यह वह अवस्था है जब किशोरी को रजोदर्शन होते हैं । अब वह मासिक धर्म की स्थिति से गुजरने लगती है । यह रजोदर्शन (मासिक धर्म) फिर उसको अक्सर हर बाईस दिन के अन्तर पर होने लगता है । शरीर स्थान और स्वभाव के अनुसार तथा अनुवांशिक परम्परा के मुताबिक इसकी अवधि में थोड़ा-बहुत अन्तर भी पाया जाता है ।
ये सभी लक्षण पुरुष और स्त्री के युवावस्था में प्रवेश के लक्षण माने जाते हैं । इस अवस्था में किशोर और किशोरी दोनों में स्वाभाविक अक्खड़पन और चंचलता भी दीखने लगती है ।
इसी आयु में किशोर अथवा किशोरी एक-दूसरे को काम की दृष्टि से देखने, परस्पर छूने, साथ-साथ खेलने आदि के लिए लालायित दिखाई देते हैं । वे एक-दूसरे को तिरछी आंख से अथवा घूरकर देखने एकान्त में वार्तालाप करने के लिए लालायित होकर बार- बार एक-दूसरे के विषय में ही विचार करने अथवा अपनी जानकारी के आधार पर परस्पर सम्भोग का विचार करने लगते हैं । ऐसी अवस्था में इन सभी कार्य-चेष्टाओं और क्रियाओं का सीधा प्रभाव उनकी सोच-शक्ति पर पड़ता है । उनका मस्तिष्क तत्काल ही इसकी सूचना उनके कामांगों तक जिनको गुप्तांग भी कहते हैं पहुंचा देता है और उसके परिणामस्वरूप वे सभी अंग सहसा उत्तेजित होने लगते है ।
ऊपर जिन क्रियाओं का वर्णन किया गया है उनकी संख्या आठ है । शास्त्र में इन आठों को काम की अवस्थाएं कहा गया है । अज्ञानवश जो कोई किशोर या किशोरी इसकी चपेट में आ जाते हैं उनके शरीर पर इनका बुरा प्रभाव पड़ता है । कभी-कभी तो जब इनकी गहनता बढ़ जाती है तो वे स्वयमेव स्खलित होने लगते हैं और फिर उसके कारण उनमें दुर्बलता आने लगती है, स्मरण-शक्ति नष्ट होने लगती है और अन्त में यह सब एक खास किस्म के रोग का कारण बन कर व्यक्ति को रोगी बना देते हैं । यहीं से यौन रोग की शुरुआत होती है ।
जो युवक-युवती अपनी काम-वासना पर नियन्त्रण नहीं रख पाते वे कृत्रिम साधनों से अथवा अप्राकृतिक रूप से अपनी काम-वासना की तृप्ति करने लगते हैं । इसका प्रभाव भी उन पर अच्छा नहीं पड़ता । वह विनाशकारी होता है । उसका भयंकर परिणाम युवतियों की गर्भ स्थिति के रूप में हो जाता है । जो युवक-युवती पहले से रोगग्रस्त है, विशेषतया संक्रामक रोग से ग्रस्त हैं सहवास के समय उसका प्रभाव तो उसके साथी पर भी पड़ता है और वह भी रोगी बन जाता है । यह इसका एक दुष्प्रभाव है ।
कुमारी अथवा अविवाहित कन्या का गर्भ धारण करना हमारे समाज में घृणित माना जाता है । उसके बुरी दृष्टि से तथा हेय दृष्टि से देखा जाता है । उसका परिणाम यह होता है कि कन्या स्वयं या उसके अभिभावक कन्या के गर्भपात कराने को बाध्य होते हैं । यह कार्य समाज से छिपकर किया जाता है । इस प्रक्रिया में यदि किसी नौसिखिये लेडी डॉक्टर या अनुभवशून्य नर्स के द्वारा यह गर्भपात कर दिया गया तो लेने के देने भी पड़ जाते है । लड़की की जान तक जा सकती है । हो सकता है वह सदा-सदा के लिए बांझ ही बन जाए।
आज के पाश्चात्य भौतिक सभ्यता के युग में और पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के छात्रावासों में इस प्रकार का यौनाचार प्रायः देखा जाता है । युवक-युवतियों का स्वच्छ विचरण करना इसमें सहायक होता है । यही वजह है कि इस विषय पर मतभेद हो गया है कि युवक-युवतियों को स्वच्छन्द और एकान्त में साथ-साथ मिलने- जुलने दिया जाए अथवा नहीं ।
स्वच्छन्द विचरण की अनुमति भले ही न दी जाए किन्तु उनको यथावसर कामांगों, वासना और यौन-विकार के सम्बन्ध में जानकारी अवश्य दी जानी चाहिए, जिससे कि व अपने जीवन में सावधान रह सकें ।
पुरुष जननेंद्रिय की संरचना
यह एक जाना गया तथ्य है कि पुरुष की जननेंद्रिय शरीर के भीतर की अपेक्षा बाहर होती है जब कि नारी की जननेन्द्रियां शरीर के भीतर होती हैं । यद्यपि स्त्री और पुरुष दोनों के ही कुछ अंग ऐसे हैं जो शरीर के बाहरी भाग से भी सम्बन्ध रखते हैं और कुछ शरीर के भीतरी भाग से भी। इन सभी अंगों का स्त्री और पुरुष दोनों को ठीक प्रकार से ज्ञान होना चाहिए।
सैक्स से सम्बन्ध रखने वाले पुरुष के अंग हैं :
लिंग और अण्डकोश। ये शरीर के बाहर से सम्बन्ध रखते