Marriage Manual (मैरिज मैनुअल - युवा दंपतियों के लिए सैक्स गाइड)
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Human touch finds its crescendo in sexual act. One can achieve this through various paths divinity. The ultimate including taste of pudding lies in eating it. No one can teach how to make love. Even the novices without any advice become perfect lovers.
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Marriage Manual (मैरिज मैनुअल - युवा दंपतियों के लिए सैक्स गाइड) - Dr. Satish Goyal
समाधान
यौन-शिक्षा परिचय
यौन-शिक्षा का अर्थ है-प्रत्येक व्यक्ति को-विशेषकर युवक और युवती को यौन- सम्बन्धी प्रत्येक उस आवश्यक बात का ज्ञान प्राप्त हो जिसे ग्रहण कर वह अपने भावी जीवन को सफल समृद्ध एवं सुखमय बना सके ।
स्त्री-पुरुष का परस्पर मिलन ही ‘सैक्स' है । जीवन का मुख्य आधार है उत्पत्ति और सैक्स के बिना उत्पत्ति असंभव है ।
वस्तुतः सैक्स को दाम्पत्य जीवन की नींव कहा जा सकता है इसलिए जीवन की उत्पत्ति सुख और विकास के लिए इसे अनिवार्य मानना होगा । सैक्स के नाम पर संकोच लज्जा भय अथवा घृणा का दृष्टिकोण उचित नहीं ।
सैक्स वह सब कुछ है जिससे आपके जीवन का निर्माण होता है, जिससे आपका शारीरिक व मानसिक विकास होता है । सैक्स आपको प्रेम करना सिखलाता है आपके लिए मनोरंजन का साधन भी बनाता है और आप पर उत्तरदायित्वों का बोझ भी डालता है । इसलिए सैक्स जैसे महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य विषय पर प्रत्येक दृष्टि से-सामान्य भावात्मक एवं वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त होनी चाहिए। जिससे आपके जीवन में कोई अभाव न रहे और आप अपनी सन्तान के भावी जीवन का सुखद निर्माण कर सकें । स्मरण रहे सैक्स की जानकारी का अभाव आपके जीवन का सबसे बड़ा अभाव है । सैक्स एवं रतिक्रिया के विषय में विचार करने से भी जीवन में सैक्स के महत्व का परिचय मिलता है । रतिक्रिया सैक्स का ही एक अंग है । यदि मानव-जीवन में सैक्स का उद्देश्य मात्र सन्तानोत्पत्ति ही होता और इसके साथ प्रेम आनन्द तृप्ति एवं मनोरंजन आदि भावनायें न जुड़ी होती तो स्त्री-पुरुष रतिक्रिया तभी करते जबकि उन्हें सन्तान की आवश्यकता महसूस होती । किन्तु क्या आप तभी रतिक्रिया का सम्पादन करते हैं जबकि आपको सन्तान की इच्छा होती है? तब आप संतति-निरोध के उपाय ग्रहण क्यों करते हैं? निश्चय ही सैक्स का यह रूप है प्रेम का स्नेह एवं आत्मसंतोष का।
आप में से कितने ही स्त्री-पुरुष इस बात की शिकायत करते हैं कि आनन्दमय रतिक्रिया का उनके जीवन में प्रायः अभाव ही रहता है । युवक वर्ग की तो यह एक आम समस्या है कितने ही पुरुष यह शिकायत करते है अपने बारे में कि उनमें यौन-शक्ति का अभाव है वे अपनी स्त्री को सन्तुष्ट नहीं कर पाते; शीघ्र स्खलित हो जाते है लिंग प्रवेश से पूर्व ही स्खलित हो जाते है यौन उत्तेजना ही नहीं होती एक से अधिक बार संभोग की इच्छा नहीं होती । प्रथम मिलन के क्षणों से भय है नपुंसकता की शिकायत है-आदि ऐसे कारणों से रतिक्रिया आनन्दमय नहीं हो पाती । आनन्दहीन रतिक्रिया की समस्या से पीड़ित इतने पुरुष हैं कि कहना संभव नहीं किन्तु अपनी लज्जा संकोच और भय आदि के कारण वे नीम-हकीम लोगों से गुमराह किये जा रहे हैं । इससे समस्या का समाधान नहीं होगा बल्कि वे और अधिक चिंतित और परेशान हो उठेंगे । जानकारी के अभाव के कारण उनके लिये ऐसा संभव नहीं है । किन्तु ऐसे अधिकांश पुरुषों की यह समस्या उनकी अपनी उत्पन्न की हुई है जो वास्तव में कोई समस्या नहीं है । सैक्स तकनीक की जानकारी का अभाव ही इस समस्या की उत्पत्ति का प्रधान कारण है ।
रतिक्रिया क्या है इसका सफल व सही सम्पादन किस प्रकार हो स्त्री-पुरुष का एक दूसरे के प्रति क्या कर्त्तव्य हो एवं सम्भोग के बारे में ऐसी दूसरी बातों की जानकारी न होने पर आप सफल सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते और परिणाम यह होता है कि आपको कई तरह की शिकायतें उत्पन्न हो जाती हैं और आप सुखकर संभोग से दूर ही रह जाते हैं । अतः आपके लिये सैक्स-तकनीक का पूर्ण परिचय प्राप्त होना आवश्यक है । सैक्स के प्रति अज्ञानता ही इन सभी समस्याओं का मूल है ।
अनेक व्यक्तियों की यह धारणा गलत है कि जैसे-जैसे आयु बढ़ती है वैसे ही सैक्स समाप्त होता जाता है । संभव है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में एवं विशेष कारणों से कुछ व्यक्तियों के साथ ऐसी बात हो किन्तु प्रायः देखा गया है कि अधिक आयु में भी अनेक स्त्री-पुरुषों में अधिक यौनेच्छा पाई जाती है । कुछ मनोविनोद एवं सामाजिक कारणों से भी हम स्वयं ही अपना ध्यान सैक्स की ओर से हटाने लगते है और यदि ये कारण बीच में न रहें तो निश्चय ही सैक्स की भावना जीवन भर एक सी बनी रहे । जीवन और सैक्स का अत्यन्त निकट का सम्बन्ध है जो आरम्भ से अन्त तक जिन्दगी के साथ-साथ चलता है ।
सैक्स ही वह भावना है जो स्त्री-पुरुष के आकर्षण का केन्द्र है और जिस पर सृष्टि का विकास टिका है । सृष्टि का विकास सन्तानोत्पादन की क्रिया पर निर्भर करता है और यह क्रिया सैक्स द्वारा ही सम्पादित होती है । प्रकृति ने स्त्री-पुरुष दो भिन्न लिंगों का सृजन किया है । दोनों में भिन्न विशेषताएं भरी हैं और दोनों में एक-दूसरे के प्रति आकर्षण की भावना को जन्म दिया है तथा दोनों के शारीरिक मिलन को सृष्टि के विकास का आधार बनाया है । प्रकृति ने सैक्स की भावना प्रदान कर मानव को इस योग्य बनाया है कि सन्तानोत्पादन कर सृष्टि के विकास में सहयोगी सिद्ध हो सके । प्रकृति का यह उद्देश्य ही सैक्स के महत्व को उजागर करता है । हम कह सकते हैं कि सैक्स के बिना मानव जीवन अपूर्ण एवं महत्त्वहीन है ।
मानव-जीवन में सैक्स का उद्देश्य मात्र सन्तानोत्पत्ति ही नहीं है बल्कि मनोरंजन का भी एक विशिष्ट साधन है । स्त्री-पुरुष सैक्स द्वारा जो मनोरंजन प्राप्त करते है वह मन एवं मस्तिष्क को शान्ति प्रदान करने वाला होता है । आज के उलझे हुए संसार में इसका महत्व और भी अधिक बढ़ गया है । प्रत्येक स्त्री-पुरुष के जीवन में सैक्स महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है और अन्य क्रियाओं के साथ-साथ मनोरंजन की बहुमूल्य घड़ियां प्रदान करता है । सैक्स मनोरंजन के सभी साधनों में सर्वोपरि है । स्त्री-पुरुष एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं प्रेम करते हैं इसलिये कि सैक्स मानव-जीवन में प्रेम अंकुरित करता है सुख एवं सन्तोष उपलब्ध कराता है तथा जीवन को रुचिपूर्ण एवं रसमय बनाता है । स्त्री-पुरुष का प्रेम सैक्स का प्रतीक है । सैक्स के बिना स्त्री पुरुष का प्रेम अपूर्ण है नीरस है ।
सैक्स ऐसी अद्भुत और सुखद अग्नि है जो बिना बताए ही भड़क उठती है और जिसमें मनुष्यत्व परम आनन्द प्राप्ति की आकांक्षा से प्रवेश करके तृप्त हो उठता है । सैक्स की भावना के उदय होने में मनुष्य की अन्त -भावना ही मुख्य स्रोत है । यदि कोई व्यक्ति हीनभावनाओं से त्रस्त है तो वह सैक्स के विषय में आगे नहीं बढ़ सकता ।
प्राणिमात्र में कामोत्तेजन का अनुभव यौवन आगम के समय होने लगता है । काम वासना स्वाभाविक विकास है । स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध भौतिक पहले है-सामाजिक पीछे । भिन्न लिंगी होने के कारण दोनों को एक दूसरे की भूख है । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । दोनों को एक दूसरे की भूख शान्त करनी होती है । पारस्परिक शारीरिक उत्तेजना होने पर जब स्त्री-पुरुष की ज्ञानेंद्रियां परस्पर मिलकर घर्षण करने लगती हैं तो यह सम्भोग क्रिया कहलाती है । ‘सम्भोग' ही वह महत्त्वपूर्ण एवं प्रकृत क्रिया है जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व की पारस्परिक भूख और आकांक्षा को तृप्त करती है । वास्तव में यही एक प्रधान प्रमुख क्रिया है जिसके लिए स्त्री और पुरुष का नर-नारी का जोड़ा मिलाया जाता है । संभोग-क्रिया सिखाई नहीं जाती यह तो स्वाभाविक और प्रकृति प्रदत्त है । शरीर मन और आत्मा इन तीनों वस्तुओं की तृप्ति इसी सम्भोग-क्रिया से प्राप्त होती है । शारीरिक मानसिक और आत्मिक तीनों ही मूलाधारो पर स्त्री-पुरुष के जीवन की सफलता निर्भर है । इन्हीं आधारों पर स्त्री-पुरुष का प्रेम असाधारण रूप से स्थिर होता है । यह प्रेम शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक सम्पूर्ण चेतनाओं से ओत-प्रोत होना चाहिए । वैवाहिक जीवन में स्थायी सुख और उत्तम स्वास्थ्य पति-पत्नी के सम-सम्भोग पर ही निर्भर है । जहां सम्भोग की क्रिया ठीक-ठाक है वहां परस्पर एक-दूसरे के और भी निकट आने की तीव्र लालसा प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है इससे यह स्पष्ट है कि सुख और प्रेम का अटूट सम्बन्ध ही सम्भोग है ।
स्त्री नारीत्व की देन से परिपूर्ण होती है । वह कोमल स्निग्ध आकर्षक और सुधावर्षक होती है । जो स्त्रियां गोरी और सुन्दर हैं वे तो सुखदात्री हैं ही परन्तु काली साँवली साधारण नाक-नक्श वाली स्त्री को भी यदि थोड़ा सा सजा-संवार दिया जाय तो वह भी काम-सुख प्रदान करने वाली हो जाती हैं । सैक्स का आनंद प्राप्त करने के लिए प्रायः पुरुष परनारी की ओर ताक-झाँक करते रहते हैं । चाहे वह परनारी से सम्बन्ध बना लेने के प्रयत्न में अपनी अप्रतिष्ठा अपने समय का अपव्यय अपने शरीर में यौन रोगों को बसा लेना तथा धन के अपव्यय आदि अनेकानेक दुरभिसन्धियों का शिकार हो जायें ।
क्या सहवास-सुख इतना अपवित्र है कि उसे प्राप्त करने के लिए सब खतरे और मुसीबतें उठाई जायें? स्थिर गृहस्थ जीवन, अक्षय और स्थाई-प्रेम गहरी आन्तरिक एकता तथा आनन्द के पारस्परिक समान आदान-प्रदान से बढ़कर संसार में दूसरी कोई उपलब्धि (नियामत) नहीं है ।
परनारी से सहवास करना व्यभिचार की सीढ़ियों चढ़ना है । सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते मनुष्य व्यभिचार की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है । वहां पहुँचकर उसे शान्ति नहीं धधकती ज्वाला पश्चात्ताप और उमड़ते आँसुओं का समुद्र मिलता का यह दावा है कि वह संसार के समस्त चराचर प्राणियों में श्रेष्ठ है । उसने अपने बुद्धिबल से समस्त प्राणियों पर विजय भी प्राप्त कर ली है और वह समस्त अचर प्रकृति का स्वामी भी बन बैठा है फिर भी जो भौतिक तथा स्वाभाविक सुख प्रत्येक प्राणी को प्राप्त है वह सब उसे प्राप्त नहीं है इसका कारण व्यभिचार की प्रवृत्ति ही है ।
काम-विज्ञान के विषय में प्राचीन काल से ही बहुत अध्ययन किया गया है । काम-विज्ञान एक विज्ञान (Science) है जिसका सम्बन्ध मशीनों से नहीं शरीर की उपस्थ इन्द्रियों से है जो अत्यन्त कोमल हैं परन्तु जीवन की यथार्थता में सशक्त है । भारत में सर्वाधिक प्रामाणिक कामशास्त्री वात्स्यायन माने जाते हैं जो ईसा की पहली व छठी शताब्दी के बीच हुये थे । उनका मूल नाम मालिंगा या मृलाना था वात्सायन उनकी पारिवारिक उपाधि थी । बाधृष्य तथा अन्य प्राचीन ऋषियों के ग्रंथों के सार-स्वरूप अपने विद्यार्थी-जीवन के अध्ययन-काल में उन्होंने जन-साधारण के लिये ‘कामसूत्र' की रचना की थी । ‘कामसूत्र' में एक स्थान पर वे कुन्तल के राजा सतकर्णी सातवाहन के कामवेग की एक भूल का संकेत इस प्रकार करते हैं-
"राजा सातवाहन ने कामान्ध होकर अपनी पत्नी मलयवती पर कटारी का प्रहार किया जिससे वह कोमलांगी मर गई । अतः काम-वेग के अधीन होकर किसी पुरुष को स्त्री पर बल प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिये । विलक्षण और बुद्धिमान पुरुष जो दूसरों की भावनाओं को समझने वाला तथा सब कार्यों को यथासमय व यथावसर करने वाला है वह दुर्लभ प्राप्त स्त्री पर भी विजय प्राप्त कर सकता है ।
जो व्यक्ति संयमित ज्ञानसहित और स्वपत्नी-सहवास तथा रतिक्रिया करता है उसके मुख पर शुद्धता की आभा रहती है क्योंकि उसमें काम-सम्बन्धी विकार नहीं होता संयम और ज्ञान होता है । यह काम-विज्ञान का रहस्य है कि प्रबल रचनात्मक कामुकता श्लेस्मीय झिल्ली मांसपेशीय चमड़ी में प्रभावित होकर नेत्रों द्वारा कामभाव प्रकट करती है । कामभाव और शुद्धता की आभा को स्त्रियां बहुत शीघ्र पहचान जाती है ।
स्त्री-भोग की सामर्थ्य प्राप्त करने के लिये प्राचीन काल में देहसिद्धि और लौहसिद्धि की साधना में अनेक सिद्ध लगे रहते थे । ‘कुच-स्तवन-यौवन, ममयज्वर, नितम्ब दर्शन, उमुख यौवना, आलिंगन, अधरामृत, अनंगकाम, रमण, रतिसुखम् रतिअभेद, रतिचक्र लावण्य सीत्कार, सूरत, मृदुगात्रलता, बाला, सुभग, सौकुमार्य, स्त्रीरत्न आदि काम रहस्य की बातों का विस्तृत वर्णन भविष्य पुराण रतिरहस्य श्रृंगार तिलक , निषिध, कृट्टनीमिते सादर, नैषधकाव्य आदि प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मिलता है ।
वात्स्यायन काम अथवा सैक्स की व्याख्या इस प्रकार करते है- ‘पांच जननेन्द्रियों-नेत्र कान नासिका, जिह्वा और स्पर्श की जिस सम्मिलित यौन क्रिया द्वारा मस्तिष्क मन और आत्मा (शरीर) को आनन्द की प्राप्ति हो वही ‘काम' है । यह कार्य चेतना के मूल और लक्ष्य की प्राप्ति से सीधा सम्बन्धित है । धर्म और अर्थ जीवन में निस्सन्देह आनन्द प्रदाता हैं परन्तु जैसे भूखे शरीर के लिए भोजन और पौधों के लिये बीज नितान्त आवश्यक हैं उसी भांति तन की भूख के लिये यौन क्रिया द्वारा मैथुन अर्थात् ‘काम' भी आवश्यक है । धर्म और अर्थ के साथ-साथ काम भी संसार-चक्र चलाने का एक विशिष्ट उपादान है और चूंकि इसका सम्बन्ध यौन-इंद्रियां से है । अतः इस वैज्ञानिक और प्राकृतिक दुर्लभ ज्ञान को बुद्धिमत्तापूर्वक ही ग्रहण करना चाहिये ।
सहवास-क्रिया में प्रत्येक पुरुष अधिक-से-अधिक समय तक वीर्य रुकने की अभिलाषा रखता है; परन्तु बहुत कम लोग अपनी आशा पूरी कर पाते है । चार-पाँच मिनट भी वीर्य-क्षरण न हो तो बहुत बड़ी बात समझनी चाहिए । कोई पाँच मिनट कोई दस मिनट कोई पंद्रह मिनट तक रुकने की कला जानते हैं परन्तु जो पुरुष लिंग-प्रवेश करते-करते ही वीर्य-क्षरण कर लेते हैं उनके दुर्भाग्य को कोई नहीं समझ सकता । वे बड़ी धौंस और उमंग में भरकर अपना प्यार उड़ेलने स्त्री के पास आते हैं परन्तु तैयारी करते-करते ही चिड़िया उड़ जाती है ।
पूर्ण यौवनकाल तक विवाह होने की आयु तक अर्थात् पच्चीस वर्ष की आयु होने तक पुरुष अपनी यौन दृष्टि को अपने विकास की ओर मोड़कर रखें । सहवास-चिन्तन करना, उपस्थ इन्द्रियों को स्पर्श करना, उत्तेजित करना, नारी शरीर को घूरकर देखना या सहवास के आनन्द का चिन्तन बिल्कुल न करें । पच्चीस वर्ष की आयु होने पर या विवाह करके ही सहवास करें । इतनी तपस्या करने के बाद ही वह इतना सक्षम हो सकता है कि पच्चीस मिनट तक सम्भोग कर सके, उसके बराबर संसार में कोई सुखी नहीं है ।
हस्तमैथुन, कामकेलि, व्यभिचार अथवा बालमैथुन आदि कुटेव में पड़कर तो स्तम्भन शक्ति रह ही नहीं सकती । न दवाइयां खाने से स्तम्भन बनता है । शरीर में स्वाभाविक शक्ति रहना सबसे बड़ी बात है । ज्ञानेंद्रियों के कोमल तन्तुओं को सुधारकर पूर्ववत् शक्तिशाली बना देना बहुत योग्य चिकित्सक का ही काम है ।
यौवन के उदय होने पर आवाज की तंत्रियों में परिवर्तन होता है । तंत्री पहले से बड़ी और मोटी हो जाती है और आवाज परिवर्तित हो जाती है । इस परिवर्तन का मूल कारण यौन-विकास है ।
सम्भोगरत होने के आरंभ से लेकर क्रिया समाप्त होने तक स्त्री-पुरुष दोनों ही काम-सुख की आनन्दानुभूति प्राप्त करते है । पुरुष वीर्य-क्षरण होने पर क्रिया-हीन होकर सन्तुष्ट हो जाता है, परन्तु स्त्री वीर्य क्षरण होने के बाद भी संभोग क्रिया की अनुभूति प्राप्त करती है । इसका कारण स्त्री की योनि से प्रवाहित होने वाला वह द्रव है जो योनि को लिंग प्रवेश की सुविधा देता है तथा जिसके प्रवाहित होने पर वह संभोग क्रिया के लिए उद्यत होती है । यह द्रव वीर्य-क्षरण के पश्चात् तक भी धीरे-धीरे रिसता रहता है और स्त्री को इससे सुखानुभूति होती है । इसी से स्त्री यह चाहती है कि पुरुष अभी कुछ देर और संभोग क्रिया करता रहे, जिससे उसे घर्षणसुख भी प्राप्त हो । अंततः स्त्री भी क्षरित होती है, परन्तु उसमें पुरुष की अपेक्षा अधिक समय लगता है । स्त्री यदि पुरुष से प्रथम क्षरित हो जाये तब भी वह पुरुष के वीर्य-क्षरण तक संभोगरत रहकर आनन्द की प्राप्ति करती रहती है परन्तु पुरुष वीर्य-क्षरण होने पर कभी संभोगरत नहीं रह सकता, क्योंकि उसकी इन्द्रिय शिथिल होकर ढीली पड़ जाती है । यदि स्त्री और पुरुष दोनों ही स्वस्थ और पुष्ट हों और संभोग समाप्ति दोनों के एक साथ क्षरण होने पर हो तो वह संभोग अप्रतिम महान सुखदायक और तृप्ति कारक होगा । इससे दोनों में ही प्रेम की वृद्धि होगी । संभोगरत होने पर पुरुष की कामेच्छा प्रबल रहती है-स्त्री की अपेक्षाकृत कम, परन्तु उसी दिन पुनः संभोगरत होने पर स्त्री की कामेच्छा प्रबल रहती है, पुरुष की कम । इसका कारण यह है कि स्त्री धीरे-धीरे उत्तेजित होती है । पुरुष उत्तेजित होते ही क्रिया में संलग्न हो जाता है और वीर्य-क्षरण के पश्चात् अलग हो जाता है जबकि स्त्री की उत्तेजना घर्षण क्रिया में और भी बढ़ती है और वह अधिक-से-अधिक घर्षण चाहती है । उसी दिन अधिक संभोगरत होने पर पुरुष की आक्रमण क्रिया घटती जाती है और स्त्री की बढ़ती जाती है । इसके विपरीत पुरुष-वीर्य और शारीरिक शक्ति की कमी भी इसके कारण है।
चुम्बन-क्रिया भी एक कला है और इस क्रिया को कला की-भांति सीखना चाहिए । चुम्बन करने के अंग माथा, आँख, गाल, गला, स्कन्ध-प्रदेश, स्तन, होंठ और जीभ हैं । दांतों के बीच में लेकर धीरे से काटना और जीभ के अग्रभाग से स्पर्श करना ही चुम्बन-क्रिया है । अधिक जोर से काटना उचित नहीं है ।
आनंदानुभूति और कामोत्तेजना धीरे-धीरे दबाने, चूसने और स्पर्श करने से ही होती हैं परन्तु चुम्बन से पूर्व अंग खूब स्वच्छ कर लेने चाहिए । मुंह की लार गालों के चुम्बन में अपना प्रभाव छोड़ देती है; जिससे उन पर हल्की झाँई पड़ने लगती है । इसलिए गालों का चुम्बन लेने समय मुंह की लार को रोकना चाहिए । मुंह और जीभ को धोकर स्वच्छ करना चाहिए और चुम्बन-अंगों को होना चाहिए । हैवलाक एलिस चुम्बन की प्राक्कीड़ा ( Courtship)का विशिष्ट स्वाभाविक यौन परिधीय मानते हैं क्योंकि इससे यौन-उद्दीपन होता है । योनि-चुम्बन और लिंग-चुम्बन भी स्वाभाविक है क्योंकि वे अन्य प्राणियों से प्रचलित हैं । यौन उद्दीपन होने पर यौन मिलन की इच्छा स्वभावतः जागृत हो जाती है । चिड़ियों का चोंच से चोंच मिलाना कुत्तों का एक दूसरे को चाटना और धीरे से काट लेना कीड़ों में सुओ का मिलना चुम्बनत् क्रियाएं ही हैं ।
संभोग से उदासीन स्त्री के हावभाव का अध्ययन भी करना चाहिए । प्राक्कीड़ा तथा सही आसन करने से उदासीनता दूर हो सकती है । संभोग करने से पूर्व प्राक्कोड़ा करना आवश्यक अंग है । इसकी पहल पुरुष ही करता है स्त्री