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Sampurna Scientific Vasstu
Sampurna Scientific Vasstu
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Ebook1,197 pages12 hours

Sampurna Scientific Vasstu

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About this ebook

Vaastushaastra is a science. Vaastu Defects should be removed scientifically only. Any type of Charm, Puja, Yantra-Mantra-Tantra, Shri Yantra, etc. do not work to remove Vaastu defects. If the Vaastu defects exist in a religious place then devotees do not prefer going there, however, the God Himself resides there.
Vaastu defects can only be removed by changing the construction of the building. 100% Positive results can be obtained if the Vaastu defects are removed properly. All other alternates will only waste money & time.
Shri Kuldeep Saluja, the author, has a special interest in Vaastu & Astrology. He has studied these subjects for 30 years in a scientific manner and many times has challenged the orthodox & traditional beliefs too. He keeps all his advices scientific. He has not only advised in India but also in more than 60 countries of the world.
He has published "Pyramid Vaastu-Shirf Dhokha" a very successful book in addition to 284 books on Vaastu & Fengshui. His work has been published by many famous publishing houses of the country. His articles also have been published in many Indian magazines and in many languages.
Staying in a Vaastu suitable house and carrying out business activities in a Vaastu suitable place, can only lead to a happy, simple & wealthy life. This book can make your dreams come true.
Similarly students who seek deep and practical knowledge of the Vaastushaastra will also be benefited by this book.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateApr 15, 2021
ISBN9789352961528
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    Sampurna Scientific Vasstu - Kuldeep Saluja

    -लेखक

    वास्तुशास्त्र: एक परिचय

    किसी व्यक्ति के जीवन में कोई परेशानी चल रही हो, तो उसके दिमाग में अन्य बातों के अलावा एक बात और आती है कि जिस मकान में वह रहता है या जहाँ वह कारोबार कर रहा है, कहीं उसमें वास्तुदोष तो नहीं? जब कभी घर खरीदने या बनाने की बात आती है तो आज इस सन्दर्भ में सबसे प्रचलित शब्द है, ‘वास्तु’।

    वास्तुशास्त्र वेदयुगीन विज्ञान है। यह किसी धर्म या सम्प्रदाय से नहीं, बल्कि सार्वभौमिक सत्य से जुड़ा हुआ है, जिसे हजारों वर्ष के अनुसंधान के बाद विद्वान ऋषि-मुनियों द्वारा लोकोपयोगी बनाया गया। वास्तुशास्त्र पृथ्वी से निकलने वाली ऊर्जा को, वास्तु पुरुष कहकर सम्बोधित करता है, (जिसमें पुरुष का अर्थ है पृथ्वी में प्रवेश करने वाली अतिसूक्ष्म विलक्षण ऊर्जा का भौतिक स्वरूप।) इसलिए पृथ्वी की ऊर्जा को साकार माना जाता है।

    वास्तुशास्त्र हमारे जीवन के हर क्षेत्र में सुधार लाने में सहायक है। इसकी सहायता से निवास स्थान, व्यवसायिक स्थल या ऑफिस इत्यादि का वास्तुदोष निवारण करने पर चमत्कारिक, सुखद परिणाम देखने को मिलते हैं। इसी कारण पूर्व के इस सदियों पुराने विज्ञान की प्रसिद्धि आज चारों ओर फैल रही है बल्कि पश्चिमी देशों में भी यह अत्यन्त लोकप्रिय होता जा रहा है।

    वास्तु सिर्फ भवनों की बनावट के बारे में नहीं अपितु यह भवन में रहने वालों को सुखद एवं समृद्ध जीवन प्रदान करने के लिए कुछ जगह छोड़ने एवं बाकी जगह पर सही दिशा में निर्माण करने के साथ-साथ सजावट की भी कला है। जब निवास या कार्य-स्थल व्यक्ति के अनुकूल होंगे, तभी वह मानसिक रूप से शांत होगा। जिससे उसकी कार्यकुशलता में वृद्धि होगी और उन्नति भी होगी। कहने का तात्पर्य यह कि वास्तु एक ऐसा विज्ञान है, जिसके माध्यम से प्राकृतिक ऊर्जा का अधिकतम लाभ लेकर सुखी जीवन जिया जा सकता है।

    भवन निर्माण में एक टीम की जरूरत होती है। पहले इस टीम में मुख्यतया आर्किटेक्ट व इंजीनियर की भूमिका होती थी। विकास के साथ-साथ इसमें एक कड़ी और जुड़ी इंटीरियर डिजाइनिंग की, साथ ही भारत में लगभग 1990 के प्रारम्भ से इसमें प्रवेश किया वास्तु ने। वास्तु यानी भूमि व भवन से जुड़ा एक ऐसा विज्ञान, जिसमें वातावरण में व्याप्त ऊर्जा के समुचित उपयोग द्वारा सुखद व स्वस्थ जीवन के लिए दिशा-निर्देश मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि वास्तु इस देश के लिए कोई नई विधा है, बल्कि यह सदियों पहले हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा गहन अध्ययन के बाद प्रचलन में लाई गई। इस विधा पर चीन के विद्वान भी बहुत पहले से कार्य कर रहे थे, उन्होंने भारत की इस प्राचीन धरोहर का भी गहन अध्ययन किया व अपने देश की भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस शास्त्र को अपने देश के लिए रचा, जिसे फेंगशुई कहते हैं।

    सवाल पैदा होता है कि हमारी इतनी प्राचीन, समृद्ध तथा वैज्ञानिक रूप से सशक्त विधा समय के साथ लुप्त क्यों हुई? इस प्रश्न का उत्तर अत्यन्त सरल है। पहला कारण यह कि प्राचीनकाल में मौखिक शिक्षा का प्रचलन था, लिखित परम्परा बहुत बाद में आई। दूसरा यह कि ऋषि-मुनियों ने इस गूढ़ विज्ञान को आम जन तक पहुँचाने के लिए इसके वैज्ञानिक पक्ष को नैपथ्य में रख इसे धार्मिकता से जोड़ दिया ताकि धार्मिक आधार पर इन नियमों का पालन हो। नतीजा यह हुआ कि समय के साथ नई पीढ़ी इसे अंधविश्वास समझकर नकारती गई।

    सृष्टि की उत्पत्ति से मनुष्य सरल और सुखद जीवन जीने का प्रयास कर रहा है। इसके लिए विश्व के सभी महाद्वीप के लोगों ने अपनी-अपनी भौगोलिक स्थिति के अनुसार अपने आवास बनाए। ज्ञान और विज्ञान की तरक्की के साथ-साथ धीरे-धीरे गांवों का स्थान शहरों ने और छोटे-छोटे घरों का स्थान बहुमंजिला इमारतों ने ले लिया।

    वास्तुशास्त्र किसी भी भवन या भूमि के आकार, अनुपात, दिशा तथा आस-पास के वातावरण में पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाए रखने की प्राचीन कला है, जिसका प्रभाव मकान, दुकान, कारखाने, स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला, सार्वजनिक कार्यालय, धार्मिक स्थान, नदी-नाले, श्मशान भूमि, अनैतिक स्थान (जैसे जुआघर, शराबखाने, वेश्यालय इत्यादि) और यहाँ तक कि सड़क, चौराहा, तिराहा, गली, मोहल्ला, शहर अर्थात् पृथ्वी पर हर जगह समान रूप से पड़ता है।

    जमीन के खाली टुकड़े पर ऊर्जा बिना किसी रुकावट के बहती रहती है। जब हम उस टुकड़े पर निर्माण करके दीवारें बनाते हैं, दरवाजे-खिड़कियाँ लगाते हैं तब निर्बाध रूप से बह रही उस ऊर्जा में रुकावट आने पर एक असन्तुलन पैदा हो जाता है। इस असन्तुलन को संतुलित करने के विज्ञान आधारित नियम को ही वास्तुशास्त्र कहते हैं। सुखद एवं सफल जीवन को सुनिश्चित करने के लिए मुख्य द्वार का स्थान और पृथ्वी पर बहने वाली ऊर्जा के निर्बाध बहाव में सामंजस्य बहुत आवश्यक है। अपने घर पर इस अद्भुत ज्ञान को अपनाकर आप जीवन को सरल एवं सुखद बना सकते हैं। ध्यान रखें अच्छा प्लॉट और अच्छा भवन चौकोर या आयताकार ही होता है।

    आजकल जब भी कोई व्यक्ति नया घर बनाता है तो उसकी बाहरी व आंतरिक साज-सज्जा पर ध्यान देने के साथ-साथ कोशिश करता है कि उसे अधिक से अधिक सुख-सुविधा का लाभ भी मिले, परन्तु इस बात पर कभी भी गम्भीरता से विचार नहीं करता कि क्या यह भवन उसके जीवन में सुख, समृद्धि, प्रसिद्धि, स्वास्थ्य और शांति का मार्ग प्रशस्त करेगा? हम महल में ही क्यों न रह रहे हों, जहाँ सभी प्रकार की भौतिक सुख-सुविधाएँ तो उपलब्ध हों, परन्तु मन की शांति न हो, स्वास्थ्य अच्छा न हो, परिवार विभिन्न प्रकार की अनावश्यक परेशानियों से त्रस्त रहता हो, पारिवारिक जीवन दुःखी एवं तनावग्रस्त हो, परिवार में एक के बाद एक दुर्घटनाएँ हो रही हों तो बताइए ऐसे महल में रहने से क्या लाभ?

    आजकल के भवनों की बनावट पुराने जमाने के भवनों की बनावट से बिल्कुल भिन्न होती जा रही है। पुराने समय के भवनों की बनावट में बहुत कम वास्तुदोष होते थे। आजकल अधिकांश भवनों की बनावट में वास्तुदोष होते हैं। पिछली शताब्दी के मध्य तक न तो घरों के अन्दर टॉयलेट और सेप्टिक टैंक होते थे न ही भूमिगत पानी के स्रोत। (पानी की टंकी, कुओं, बोरिंग इत्यादि) लोग शौच आदि के लिए जंगलों में जाया करते थे और पानी भरने के लिए किसी कुएँ पर। भवनों के आकार आयताकार हुआ करते थे और फर्श समतल होता था। इस प्रकार की बनावट वाले घरों में रहने वालों का जीवन निश्चित ही सुखद एवं सरल था। आबादी बढ़ने के साथ-साथ गाँव कस्बों में बदल गए और कस्बे महानगर में। आज जंगलों का दूर-दूर तक पता नहीं है। अतः शौच या दिशा मैदान जाना असुविधाजनक होने लगा। ऐसी स्थिति में घर की बनावट में एक बदलाव आया। घर के पिछवाड़े ही अलग से टॉयलेट ब्लॉक बनाया जाने लगा। तब तक सेप्टिक टैंक चलन में नहीं आए थे, इसलिए मैला साफ करने के लिए जमादार आते थे। उस वक्त तक भी स्थिति ठीक थी, परन्तु वर्तमान में बढ़ती आबादी व घटती जमीन के कारण प्लॉटों के साइज छोटे हो गए हैं। इसके बावजूद हर आदमी घर बनाते समय व्यक्तिगत निजता का ध्यान रखते हुए सभी प्रकार की सुख-सुविधा की चाह रखता है। ऐसी स्थिति में चाहे 30 X 50 का ही प्लॉट क्यों न हो, उसमें एक भूमिगत पानी का स्रोत तथा एक से अधिक टॉयलेट के साथ एक सेप्टिक टैंक अवश्य होता है। घर की जिस दिशा में टॉयलेट होता है वहाँ नकारात्मक ऊर्जा ज्यादा होने से वह स्थान दोषपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि टॉयलेट सम्पत्ति वाले कोने में बन जाए तो घर की आर्थिक स्थिति खराब हो जाती है और यदि कीर्ति वाले भाग पर बन जाए तो अपयश का सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार भूमिगत पानी का स्रोत और सेप्टिक टैंक सही जगह पर बन जाएं तो लाभकारी होते हैं और यदि गलत जगह बन जाएं तो वहाँ रहने वालों के जीवन में उथल-पुथल मचा देते हैं। ऐसे कई अन्य वास्तुदोष वर्तमान में बन रहे भवनों में देखने को मिलते हैं।

    हमें हमारे आस-पास ही वास्तु के अनेक उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। जैसे किसी परिचित के घर जाने पर हमारा मन प्रसन्न हो जाता है और वहाँ बार-बार जाने का मन करता है, इसके विपरीत किसी दूसरे परिचित के घर पर जाने पर घुटन महसूस होती है, भारीपन लगता है, वहाँ से जल्दी आने का मन करता है और फिर कभी उनके यहाँ जाने की इच्छा भी नहीं होती है। इसी प्रकार हम अपने आस-पास देखते हैं कि पड़ोस के ही किसी मकान में आकर रहने वाले किरायेदार, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करते हुए, अपना स्वयं का एक शानदार मकान बनाते हैं और किराये का मकान छोड़कर अपने नए मकान में रहने चले जाते हैं। कई मकान ऐसे भी होते हैं, जिसमें जो भी परिवार रहने आता है, वहाँ आते ही उनके परिवार में दुःखद घटनाओं का सिलसिला चल पड़ता है। परिवार के सदस्य आर्थिक, शारीरिक व मानसिक रूप से परेशान रहते हुए एक दिन मकान छोड़कर चले जाते हैं। कभी-कभी भव्य भवन का निर्माण कर उसमें निवास करने वाले आर्थिक रूप से सम्पन्न होते हुए भी वंशहीन रह जाते हैं। कालान्तर में उस भवन का उपभोगकर्ता न होने से वह भवन खण्डहर में बदल जाता है। कई फैक्ट्री मालिकों को अपनी फैक्ट्री शुरू करते ही श्रमिक समस्याओं, दुर्घटनाओं, सरकारी छापों आदि से परेशान होकर फैक्ट्री बंद करनी पड़ जाती है। इसके बिलकुल विपरीत छोटे से स्थान पर कार्य शुरू करके कुछ लोग शीघ्र सफलता प्राप्त कर अपना कारोबार काफी बढ़ा लेते हैं, बहुत धनवान हो जाते हैं, और सुख-समृद्धि भरा जीवन व्यतीत करते हैं।

    यदि किसी झोपड़े को वास्तु अनुरूप बनाया जाए तो वहाँ रहने वाले व्यक्ति को अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परेशानियाँ नहीं उठानी पड़ती हैं। उसका परिवार तरक्की करता है और जीवन धीरे-धीरे सुखद होता चला जाता है। इसके विपरीत यदि किसी बंगले का वास्तु बिगड़ जाए तो वहाँ रहने वाले कितने ही धनवान क्यों न हों, पर उन्हें अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं। धीरे-धीरे उनके ऐश्वर्य और मान-सम्मान में कमी आने लगती है, साथ ही शारीरिक, मानसिक व आर्थिक कष्ट बढ़ने से उनका जीवन दुःखद होता चला जाता है। कुछ वास्तुदोष ऐसे होते हैं, जो शीघ्र ही अपना कुप्रभाव दिखाना शुरू कर देते हैं, अतः इन वास्तुदोषों को सुधारने में कभी भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।

    आम लोगों में भ्रांति है कि वास्तु अनुरूप भवन निर्माण करना बहुत महँगा होता है, जगह बर्बाद होती है, परन्तु यह बात पूर्णतः गलत है। सच तो यह है कि वास्तु अनुरूप भवन बनाना सस्ता पड़ता है और जगह की बर्बादी बिलकुल भी नहीं होती है। देखा जाए तो एक-एक इंच जगह का उपयोग सही तरीके से होता है। छोटे प्लॉट पर भी वास्तु अनुरूप बना मकान बड़ा-बड़ा व खुला हुआ नजर आता है।

    ध्यान देने वाली बात यह है कि वास्तु में इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि, जिस भवन में आप निवास कर रहे हैं, वह भवन आपका अपना है या किराये का, स्थायी निवास स्थान है या अस्थायी निवास। (जैसे किराये का घर, फ्लैट, दुकान, अस्पताल, होटल इत्यादि) वास्तु हर जगह पूर्ण रूप से प्रासंगिक होता है। उदाहरण के लिए आप किसी नाव में यात्रा कर रहे हैं और उस नाव में सुराख हो जाए तो आप निश्चित ही डूब जाएँगे। अब वह नाव आपकी अपनी हो या किराये की या आप सिर्फ नदी पार करने के लिए उसमें बैठे हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अतः जो जिस मकान में रहता है या कारोबार करता है उस स्थान के वास्तु का शुभ, अशुभ प्रभाव उस पर पड़ता है।

    इसी के साथ वास्तु के ज्ञाता को भी हमेशा वास्तु में दो चीजों के प्रति विशेष संवेदनशील होना पड़ता है। एक, जो लोग वहाँ रहते हैं उनकी जरूरतें क्या हैं? दूसरी, उस परिसर की जरूरत क्या है? क्योंकि भवन आखिर उस व्यक्ति के लिए ही है, जो वहाँ रहता है। वास्तु का योग्य ज्ञाता वही है जो उपलब्ध साधनों के भीतर ही भवन मालिक की आवश्यकताओं की पूर्ति और वास्तु सिद्धान्तों का उचित समन्वय करता है।

    क्या है वास्तु?

    मनुष्य की सबसे पहली आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान होती है। वह मकान जहाँ मनुष्य रहता है या उसका उपयोग करता है, उसी को आम बोलचाल की भाषा में ‘वास्तु’ कहा जाता है ।

    वास्तु संस्कृत भाषा का शब्द है। महान विद्वान वामन शिवराम आप्टे द्वारा रचित ‘संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश’ में वास्तु शब्द का विश्लेषण इस प्रकार बताया गया है ।

    पुल्लिंग, नपुंसक लिंग तथा वस् धातु में तुण प्रत्यय लगकर वास्तु शब्द का निर्माण हुआ है। इसका अर्थ है - घर बनाने की जगह, भवन, भूखण्ड, स्थान, घर, आवास, निवास, भूमि। वस् धातु, तुण प्रत्यय से, नपुंसक लिंग में वास्तु शब्द की निष्पत्ति होती है।

    हलायुद्ध कोष के अनुसार:

    वास्तु संक्षेपतो वक्ष्ये गृहदो विघ्नाशनम्।

    इशानकोणादारम्भ्य हयोकार्शीतपदे प्यज्येत्।।

    अर्थात्, वास्तु संक्षेप में इशान्यादि कोण से प्रारम्भ होकर ग्रह निर्माण की वह कला है, जो घर को विघ्न, प्राकृतिक उत्पातों और उपद्रवों से बचाती है।

    अमरकोश के अनुसार

    गृहरचना वच्छिन्न भूमे।

    गृहरचना के योग्य अविच्छिन्न भूमि को वास्तु कहते हैं।

    तात्पर्य यह है कि किसी भी प्रकार के भवन निर्माण के लिए उपयुक्त जगह को वास्तु कहते हैं। वास्तु वह विज्ञान है, जो भूखण्ड पर भवन निर्माण से लेकर उस निर्माण में उपयोग होने वाली वस्तुओं के बारे में उचित जानकारी देता है।

    समरांगणसूत्र अनुसार

    समरांगणसूत्र धनानि बुद्धिश्च सन्तति सर्वदानृणाम्।

    प्रियान्येशां च सांसिद्धि सर्वस्यात् शुभ लक्षणम्।।

    यात्रा निन्दित लक्ष्मत्र तहिते वां विधात कृत्।

    अथ सर्व मुपादेयं यभ्दवेत् शुभ लक्षणम्।।

    देश पुर निवाश्रच सभा विस्म सनाचि।

    यद्य दीदृसमन्याश्रम तथ भेयस्करं मतम्।।

    वास्तु शास्त्रादृतेतस्य न स्यल्लक्षणनिर्णयः।

    तस्मात् लोकस्य कृपया सभामेतत्रदुरीयते।।

    अर्थात्, वास्तुशास्त्र के अनुसार भली-भाँति योजनानुसार बनाया गया घर सब प्रकार के सुख, (धन-सम्पदा, बुद्धि, सुख-शांति और प्रसन्नता) प्रदान करने वाला होता है और ऋणों से मुक्ति दिलाता है। वास्तु की अवहेलना के परिणामस्वरूप अवांछित यात्राएँ करनी पड़ती हैं, अपयश, दुःख, निराशा प्राप्त होती है। सभी घर, ग्राम, बस्तियाँ और नगर वास्तुशास्त्र के अनुसार ही बनाये जाने चाहिए। इसलिए इस संसार के लोगों के कल्याण और उन्नति के लिए वास्तुशास्त्र प्रस्तुत किया गया है।

    चीन, हांगकांग, सिंगापुर, थाईलैण्ड, मलेशिया आदि देशों में वास्तुशास्त्र को ‘फेंगशुई’ के नाम से जाना जाता है। लैटिन भाषा में वास्तुशास्त्र को ‘जियो मेषि’ कहा जाता है। तिब्बत में वास्तुशास्त्र को ‘बगुवातंत्र’ कहते हैं। अरब में इसे ‘रेत का शास्त्र’ कहते हैं।

    वृहत् संहिता और मत्स्य पुराण में वर्णित वास्तु के आचार्यों के नाम

    प्राचीनकाल के प्रसिद्ध आचार्यों के नाम विश्वकर्मा, भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, अग्निरुद्ध, मय, नारद, विपालाक्ष, पुरंदर, ब्रह्मा, कुमार, शौनक, गर्ग, वासुदेव, वृश्पिति, मनु, पराशर, नंदीश्वर, भारद्वाज, प्रहलाद, नग्नजित, अगस्त और मार्कण्डेय हैं। वर्तमान समय में विश्वकर्मा और मय सर्वाधिक चर्चित आचार्य हैं।

    वास्तु के प्राचीन ग्रन्थ

    मनसार में 32 वास्तु ग्रन्थों का उल्लेख है, उनमें से कुछ ग्रन्थों के नाम इस प्रकार है - समरांगणसूत्रधार, मनुष्यालय-चन्द्रिका, राजवल्लाभम् रूपमण्डम् वास्तु विद्या, शिल्परन्तम, शिल्परत्राकर मयवास्तु, सर्वार्थ शिल्पचिन्तामणि। मयभत, विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र, मनसार, वृहत् संहिता, विष्णु धर्मोत्तर, अपराजित पृच्छ, जय पुच्छ, प्रसाद मण्डन, प्रमाण पंजरी, वास्तुशास्त्र,वास्तु मण्डन, कोदण्ड मण्डन, शिल्परत्न, प्रमाण मंजरी आदि। अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्य वेद की गणना प्राचीनतम वास्तु-शास्त्र में की जाती है। ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर वास्तुपति नामक देवता का उल्लेख किया गया है।

    वास्तुशास्त्र का वास्तुदेव

    हमारे देश में ऋषि-मुनियों व विद्वानों ने मनुष्य की भलाई के लिए जिस कार्य को लाभदायक और उचित समझा, उसे धर्म का चोला पहनाकर समाज के सामने प्रस्तुत कर दिया। सामान्यतः देखा गया है कि कोई भी व्यक्ति (चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो) अपनी धार्मिक परम्पराओं को तोड़ने की हिम्मत नहीं करता है, साथ ही हमारी मानसिकता भी कुछ ऐसी है कि जब कोई हमें पुराने ग्रन्थों का वास्ता देकर बात करता है तो हमें उस बात पर शीघ्र ही विश्वास भी हो जाता है ।

    इसलिए जब ऋषि-मुनियों ने यह पाया कि, वास्तु अनुरूप भवन में रहने से कई लाभ हैं तब जन-समुदाय के लिये वास्तुदेवता की कल्पना की गई ताकि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालनकर मानव सुखद एवं सरल जीवन व्यतीत करे। वास्तु देवता एक भूखण्ड पर निर्मित भवन का अधिष्ठाता होता है। वास्तुशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में वास्तुपुरुष की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कई कथाएँ प्रचलित हैं। इनमें सबसे ज्यादा प्रचलित कथा विश्वकर्मा जी द्वारा कही गयी है (सन्दर्भ विश्वकर्मा प्रकाश) जो इस प्रकार है।

    विश्वकर्मा जी ने कहा - संसार के कल्याण की इच्छा से वास्तुशास्त्र को कहता हूँ ।

    त्रेतायुग में एक महाभूत जन्मा था, जिसने अपने सुप्त शरीर से समस्त भूवन को आच्छादित कर दिया था। उसे देखकर इंद्र सहित सभी देवता विस्मित और भयभीत होकर ब्रह्माजी की शरण में गये और बोले-‘हे लोकपितामह! महाभय उपस्थित हुआ है, हम लोग कहाँ जायें, क्या करें?’

    ब्रह्माजी बोले-‘हे देवगण ! भय मत करो। इस महाबली को पकड़कर भूमि पर अधोमुख गिराकर तुम लोग निर्भय हो जाओगे। इसके बाद क्रोधित देवगणों ने उस महाबली भूत को पकड़कर धरती पर अधोमुखी गिराया तो वह वहीं स्थित हो गया। इसे समर्थ ब्रह्माजी ने वास्तुपुरुष की संज्ञा दी है।

    इस तरह तीन-चार प्रकार की भिन्न-भिन्न कथाएँ वास्तु पुरुष के उत्पत्ति के सन्दर्भ में वास्तु ग्रन्थों में वर्णित हैं, लेकिन सभी कथाओं का सार यह है कि प्रत्येक भू-खण्ड में जीवन शक्ति होती है, अतः उसके सभी भाग (अंगों) को पूर्ण रखने तथा भू-खण्ड को स्वच्छ, साफ व व्यवस्थित रखने से ‘वास्तु पुरुष’ नाम की यह प्राण ऊर्जा उसमें हमेशा व्याप्त रहेगी। उस भू-खण्ड में वास्तु सिद्धान्तों के अनुकूल भवन निर्माण से उसमें रहने वाले सुखद एवं सरल जीवन व्यतीत कर सकेंगे।

    ‘मत्स्यपुराण के अनुसार वास्तु पुरुष के 45 अंगों को 45 देवताओं ने दबा के रखा था और प्रत्येक अंग पर एक-एक देवता बैठ गये और उस अंग के अधिष्ठाता बन गए। जो इस प्रकार है -

    उसका सिर व दोनों भुजाएँ क्रमशः उत्तर-पश्चिम NW एवं दक्षिण-पूर्व SE में स्थित है। वास्तुपुरुष के बारे में परिकल्पना है कि वह उत्तर-पूर्व, ईशान कोण NE में अपना सिर ओंधा किये हुए हैं। पैर दक्षिण-पश्चिम के मध्य नैऋत्य कोण SW में है।

    किसी भी भूखण्ड पर जब चारदीवारी बन जाती है तब वह एक वास्तु कहलाता है। किसी भी भू-खण्ड के छोटे-से टुकड़े को यदि चारदीवारी बनाकर अलग किया जाता है तो उसमें वह सभी तत्व व ऊर्जा पाई जाती है जो एक बड़े भू-खण्ड में होती है अर्थात् एक चारदीवारी के भीतर स्थित छोटे से छोटा भू-खण्ड भी सम्पूर्ण पृथ्वी का एक छोटा-सा रूप ही है। वास्तुपुरुष उस भूखण्ड पर निर्मित भवन का अधिष्ठाता होता है, जिसका मुँह उत्तर-पूर्व के मध्य ईशान कोण में स्थित रहता है। यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो यही दिशा सूर्य की प्रातःकालीन जीवनदायी ऊर्जा पाने का स्रोत होती है जिसे वह अपने आँख, नाक, मुँह के माध्यम से प्राप्त करता है।

    इसीलिए उत्तर-पूर्व का भाग अर्थात् ईशान कोण को अधिक खुला रखा जाता है ताकि इसके शुभ परिणाम मिल सकें। वायव्य कोण में वास्तु पुरुष का बाँया हाथ होता है। बाँयें हाथ के पास ही हृदय होता है। इस वायव्य कोण से हृदय को क्रियाशील रखने के लिए ऑक्सीजन मिलती रहती है। आग्नेय कोण की तरफ वास्तु पुरुष का दायां हाथ होता है, जहाँ से वह ऊर्जा प्राप्त करता है और दक्षिण नैऋत्य कोण में इसके पैर होते हैं, उसे बंद रखा जाता है ताकि विभिन्न कोणों से मिलने वाली ऊर्जा संग्रहित हो सके।

    भारतीय वास्तुशास्त्र

    भारतीय वास्तुशास्त्र का मूल आधार विश्वव्यापी पंचतत्त्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और हमारा शरीर भी इन्हीं पाँच तत्त्वों से बना है। इन महातत्त्वों के अनुरूप घर को बनाना, सजाना, सँवारना ही वास्तु कहलाता है। वास्तुशास्त्र, पृथ्वी पर रहने वाली चुम्बकीय प्रभाव की धाराओं एवं सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा का वैज्ञानिक तरीके से उपयोग कर अधिकतम लाभ प्राप्त करने का विज्ञान है, इस हेतु यह हमारा मार्गदर्शन करता है, जिससे सूर्य से मिलने वाली सकारात्मक व ऋणात्मक ऊर्जा का सही अनुपात में उपयोग कर हम सुख, शांति, समृद्धि और वैभव प्राप्त कर सकें। यदि आप पाँच तत्त्वों में से तीन तत्त्व पृथ्वी, जल व अग्नि के साथ सामंजस्य बैठा लें तो वायु और आकाश के साथ सामंजस्य अपने आप बैठ जाता है।

    वास्तु में सूर्य का महत्त्व

    सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार सूर्य है, जिसकी ऊर्जा पूरे ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करती है। सूर्य की ऊर्जा से ही पृथ्वी पर जीवन है। इस कारण वास्तुशास्त्र में पूर्व व उत्तर की दिशाओं को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है, क्योंकि सूर्य से मिलने वाली सकारात्मक ऊर्जा का मुख्य द्वार पूर्व दिशा ही है। किसी भी घर या भवन में सूर्य की ऊर्जा का आगमन ईशान कोण से ही होता है। जहाँ सूर्य की ऊर्जा के साथ अंतरिक्ष की ऊर्जा भी भवन में प्रवेश करती है। यह दोनों ऊर्जाएँ मिलकर भवन के अन्दर एक विशेष ऊर्जा क्षेत्र बनाती हैं, जो भवन के निवासियों को सकारात्मक परिणाम देती है।

    प्राचीनकाल में ही मानव इस बात से अच्छी तरह परिचित हो चुका था कि सूर्य ही जीवनप्रदायक और जीवन-पोषक शक्ति है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही विभिन्न कालों में विश्व की विभिन्न सभ्यताओं में सूर्य की उपासना यह सिद्ध करती है कि सूर्य का महत्त्व अक्षुण्ण है।

    विज्ञान ने भी यह प्रमाणित किया है कि प्रातःकालीन सूर्य की किरणों में हमारे शरीर के लिए अनेक लाभदायक पदार्थ निहित होते हैं। जब यह सूर्य की किरणें त्वचा पर पड़ती हैं तो हमारे शरीर के लिए आवश्यक विटामिन ‘डी’ सीधे रक्त द्वारा सोख लिया जाता है। हमें नंगी आँखों से सूर्य की किरणें सफेद दिखाई देती हैं, पर उसके अंदर बैंगनी, नीला, श्याम, नारंगी, हरा, लाल और पीला सात रंग होते हैं। यह रंग भी हमारे स्वास्थ्य पर विशेष प्रभाव डालते हैं। रंग एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में सूर्य की किरणों का बहुत उपयोग होता है। इन किरणों की कांति अनेक प्रकार के कीटाणुओं को नष्ट करती है। सूर्योदय के समय की किरणें अधिक रोशनी और कम गरमाहट वाली होने के कारण सर्वोत्तम होती हैं। इसी कारण वास्तुशास्त्र में पूर्व की ओर अधिक खुला स्थान एवं दरवाजे, खिड़कियां रखने की सलाह दी जाती है ताकि प्रातःकालीन सूर्य की किरणें घर व आँगन में अधिक-से-अधिक मात्रा में प्रवेश कर सकें। जो हानिकारक बैक्टीरिया और कीटाणुओं को नष्ट कर उस स्थान को शुद्ध करें ताकि वहाँ निवास करने वाले स्वस्थ जीवन बिता सकें। उत्तम स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी दौलत है।

    विशेष - प्रतिवर्ष सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायन होने से भवन के वास्तु के प्रभाव में कोई अंतर नहीं आता।

    वास्तुशास्त्र विज्ञान है

    वास्तुशास्त्र के सिद्धान्त पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर बने हैं। इस बात की पुष्टि हम कुछ वास्तु सिद्धान्तों के विश्लेषण से कर सकते हैं, जैसे-

    ईशान कोण में पानी: ईशान कोण में स्थित पानी के स्रोत पर पड़ने वाली प्रातःकालीन सूर्य की किरणें पानी में पैदा होने वाले हानिकारक बैक्टीरिया और कीटाणुओं आदि को नष्ट करती हैं। विज्ञान ने भी स्वीकार किया है कि सूर्य की किरणों में यह शक्ति होती है।

    पूर्व दिशा में आँगन: सूर्य की जीवनदायी प्रातःकालीन किरणों का अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए पूर्व दिशा में आँगन रखने की सलाह दी जाती है ताकि प्रातःकाल धूप में स्नान किया जा सके, जो कि अत्यधिक स्वास्थ्यवर्धक होता है।

    पूर्व दिशा में पेड़: बड़ी शाखा एवं चौड़ी पत्तियों वाले बड़े पेड़ पूर्व एवं ईशान दिशा में नहीं उगाने चाहिए। ये पेड़ प्रातःकालीन सूर्य की सकारात्मक किरणों को घर में प्रवेश करने में रुकावट पैदा करते हैं।

    आग्नेय कोण में रसोईघर: आग्नेय कोण में स्थित रसोईघर में पूर्व दिशा से प्रातःकालीन सूर्य की किरणें प्रवेश करती हैं, जो रसोई में पैदा होने वाले हानिकारक बैक्टीरिया एवं कीटाणुओं को नष्ट करती हैं।

    पश्चिम दिशा की दीवारें ऊँची व मोटी होना: प्रातःकालीन सूर्य की किरणें तो लाभदायक होती हैं, परन्तु दोपहर के समय जब सूर्य पश्चिम दिशा में आग उगल रहा होता है, उस समय सूर्य की किरणें हानिकारक होती हैं। उन हानिकारक किरणों के संपर्क में हम कम-से-कम आएँ, इस कारण वास्तुशास्त्र में दक्षिण-पश्चिम दिशा में ऊँची व मोटी दीवार बनाने की सलाह दी जाती है।

    सोते समय सिर दक्षिण में: मनुष्य का सिर उत्तरी ध्रुव और पैर दक्षिण ध्रुव की भाँति कार्य करते हैं। यदि सिर उत्तर की ओर किया जाए तो पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव से दोनों में विकर्षण पैदा होगा। परिणामस्वरूप मनुष्य के शरीर में रक्त प्रवाह और नींद में बाधा पैदा होने से तनाव उत्पन्न होगा। इसी कारण वास्तुशास्त्र के अनुसार अच्छे स्वास्थ्य के लिए सोते समय सिर दक्षिण में व पैर उत्तर दिशा की ओर होने चाहिए।

    इस प्रकार के अनेक वैज्ञानिक तर्क वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तों को प्रमाणित करते हैं, इसलिए वास्तु दोषों का निवारण भी वैज्ञानिक तरीके से ही करना चाहिए।

    भाग्य और वास्तु: एक सत्य

    भाग्य से बढ़कर कुछ नहीं होता। यदि भाग्य अच्छा हो और वास्तु खराब हो, तब भी व्यक्ति जीवन में सफलता प्राप्त करता है, पर यह सफलता काफी मेहनत व कठिनाइयों के बाद मिलती है। जब भाग्य और वास्तु दोनों अच्छे हों, तब व्यक्ति बिना किसी मेहनत व परेशानी के जीवन में खूब सफलताएँ हासिल करता है। यदि भाग्य खराब हो और वास्तु-विन्यास अच्छा हो तो दुःख व परेशानी वाला समय कम तकलीफ के साथ व्यतीत हो जाता है, पर भाग्य और वास्तु दोनों खराब हों तो व्यक्ति का जीवन काफी कष्टप्रद हो जाता है और यह खराब समय बड़ी कठिनाई के साथ निकलता है। वाहन से सफर करते समय अच्छी सड़क आपको मंजिल तक बड़े आराम से पहुँचा सकती है और सड़क खराब हो तो यात्रा थकाने वाली और कष्टदायक हो सकती है। यह भी हो सकता है कि आप मंजिल तक पहुँच ही न पाएं। दोनों ही स्थितियों में आपको मंजिल तक पहुँचाने का साधन वाहन है, न कि सड़क, किन्तु सड़क भी महत्वपूर्ण है। उसके महत्व को कम नहीं आँका जा सकता। वास्तु भी सड़क की तरह है और भाग्य वाहन की तरह। अगर वाहन अच्छा और सड़क खराब है तो मंजिल तक पहुँचने में बहुत सारी दिक्कतें आएंगी। इस कारण वास्तु भी महत्वपूर्ण है। वास्तुशास्त्र हमारी जीवन यात्रा को अधिक सरल और सुखद बनाता है।

    यह तय है कि दिशा से दशा नहीं बदली जा सकती, परन्तु खराब दशा में दिशा ठीक करके राहत जरूर पाई जा सकती है। कई बार लोग कहते हैं कि जो भाग्य में होगा अपने आप मिल जाएगा वास्तु के चक्कर में क्या पड़ना? जब भाग्य में लिखा होता है तब ही हम बीमार पड़ते हैं और तुरन्त डॉक्टर के पास जाकर अपना इलाज करवाते हैं, क्यों? यदि हमारे भाग्य में पुनः स्वस्थ होना लिखा है तो हम बिना इलाज के अपने आप ही ठीक हो जाएँगे पर हम भाग्य के भरोसे नहीं बैठते। उसी प्रकार खराब भाग्य के कारण शारीरिक, मानसिक व आर्थिक परेशानियाँ चल रही हों तब वास्तु के माध्यम से निश्चित ही बहुत राहत पाई जा सकती है। भाग्य को बदलना हमारे हाथ में नहीं है पर वास्तु-विन्यास ठीक कर सुखी जीवन व्यतीत करना हमारे हाथ में है और यही कर्म है।

    कई लोगों के मन में यह जानने की जिज्ञासा होती है कि आदमी अपने घर का वास्तुदोष कब दूर करवा पाता है? इसे आप शायद इस उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकें। एक दिन शर्माजी सुबह भोजन करने बैठे तो भोजन चबाते समय उनके दाँत में थोड़ा-थोड़ा दर्द होने लगा। उनके मन में विचार आया कि दाँतों के डॉक्टर को दिखाना होगा, परन्तु दिनभर व्यस्तता के कारण वे डॉक्टर के पास नहीं जा सके। जब रात को खाना खाने लगे तो फिर उनके दाँत में दर्द हुआ तब उन्होंने तय किया कि कल तो डॉक्टर को जरूर ही दिखाएँगे। अत्यधिक व्यस्तता के कारण शर्माजी दूसरे दिन भी डॉक्टर के पास नहीं जा पाए। दर्द भी कुछ चबाते समय ही होता था बाकी समय दर्द का अहसास नहीं होता था इसलिए लापरवाही भी रही और व्यस्तता के कारण पंद्रह दिन डॉक्टर को बिना दिखाए निकल गए। सोलहवें दिन जब सुबह उठे तो देखा कि पूरा मुँह सूजा हुआ है और दाँत में दर्द हो रहा है। अब तो शर्माजी का डॉक्टर के यहाँ जाना अत्यन्त आवश्यक हो गया, परन्तुु शर्माजी को क्लीनिक पर जाकर पता लगा कि उनका पारिवारिक दाँतों का डॉक्टर शहर से बाहर गया है और वह चार दिनों के बाद आएगा। उस डॉक्टर के अलावा शर्माजी का किसी अन्य डॉक्टर पर विश्वास भी नहीं था। अतः भयानक दर्द होने पर भी उन्होंने पेनकिलर खाकर अपने पारिवारिक डॉक्टर का इंतजार किया और पांचवें दिन डॉक्टर को दिखा पाए। डॉक्टर ने उनके दाँतों में थोड़ा काम किया कुछ दवाइयां दीं, जिससे शर्माजी को एकदम आराम आ गया। इस केस में देखा जाए तो शर्माजी के भाग्य में पंद्रह दिन का साधारण और चार दिन का बहुत ज्यादा कष्ट था। उसके बाद उनके भाग्य में कष्ट दूर होने का समय आया और वह कष्ट दूर हो भी गया। इस कार्य में डॉक्टर एक माध्यम बना, क्योंकि डॉक्टर ही जानता था कि इस कष्ट को कैसे दूर किया जाए। इसी प्रकार व्यक्ति खराब वास्तु के कारण परेशान चल रहा हो तो जब भाग्य में सुखद परिवर्तन का योग आता है तभी वह किसी वास्तुविद् की सलाह से घर के वास्तुदोष को दूर करवाता है। यहाँ पर भी वास्तुविद् की भूमिका माध्यम की ही होती है, क्योंकि योग्य वास्तुविद् ही बता सकता है कि घर के किस वास्तुदोष के कारण परिवार में कष्ट चल रहा है। ‘ध्यान रहे कोई वास्तुविद् किसी का भाग्य नहीं बदल सकता, यदि बदल सकता तो सबसे पहले वह अपना भाग्य बदलता।’

    आइये एक और उदाहरण देखें। कानपुर के रस्तोगीजी सीने में तेज दर्द होने पर डॉक्टर के पास गए। डॉक्टर ने उनका चेकअप करते हुए कहा कि आपको हार्ट अटैक आया है। फिलहाल तो आप पूरी तरह आराम करें। दो दिन बाद हार्ट का ऑपरेशन करना होगा। इस पर रस्तोगीजी ने कहा कि डॉक्टर साहब आप मुझे अभी भर्ती कर लीजिए और जब आपको ठीक लगे तब ऑपरेशन कर दीजिए। डॉक्टर ने रस्तोगीजी को भर्ती कर दो दिन बाद हार्ट का सफल ऑपरेशन किया। ऑपरेशन के बाद रस्तोगीजी पहले से कहीं ज्यादा स्वस्थ और उत्साहित हैं तथा घर गृहस्थी के कामकाज तथा कारोबार करते हुए सुखद जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ठीक ऐसे ही फरीदाबाद के मेहताजी भी सीने में दर्द होने पर डॉक्टर के पास गए। डॉक्टर ने उनकी जाँच करते हुए कहा कि आपको हार्ट अटैक आया है। आप हफ्ताभर कम्पलीट बेडरेस्ट करने के बाद जितनी जल्दी हो सके ऑपरेशन करवा लीजिए। मेहताजी ने डॉक्टर से पूछा कि ऑपरेशन के बाद कितने दिन हॉस्पिटल में रहना पड़ेगा और घर पर कितने दिन आराम करना होगा? साथ ही ऑपरेशन पर खर्चा कितना आएगा इत्यादि। पूरी जानकारी लेने के बाद मेहताजी यह कहते हुए घर चले गए कि मैं अपने बीवी-बच्चों से चर्चा करके आपको बताता हूँ। मेहताजी जब तक घर पहुँचे तब तक उनका हार्ट अटैक धीरे-धीरे सेटल हो गया और सीने में दर्द भी खत्म हो गया। अब मेहताजी अपने आपको पूरी तरह स्वस्थ महसूस कर रहे थे। मेहताजी ने अपने परिवार वालों को बताया कि कुछ समय पहले मुझे सीने में दर्द हुआ था और मैं हार्ट के डॉक्टर के पास गया था। डॉक्टर ने मुझे हार्ट का ऑपरेशन करवाने की सलाह दी और बोला कि ऑपरेशन पर दो लाख रुपये खर्च आयेगा, परन्तु मुझे तो केवल गैस ट्रबल थी। अब मुझे एकदम आराम है। सच में आजकल डॉक्टर केवल लूटने में लगे हुए हैं। बिना जरूरत के सिर्फ पैसों के लालच में छाती के किसी भी प्रकार के दर्द को हार्ट अटैक बताकर ऑपरेशन कराने पर जोर देते हैं ताकि उनके नर्सिंग होम का खर्चा चल सके। इस प्रकार के विचार मन में आने से मेहताजी ने न तो आराम ही किया और न ही ऑपरेशन कराया। इस वाकये के लगभग ढाई महीने बाद दिल का दूसरा दौरा पड़ने से मेहताजी की मौत हो गई।

    यहाँ देखा जाए तो न रस्तोगीजी समझदार थे और न ही मेहता जी नासमझ। सच तो यह था कि रस्तोगीजी के भाग्य में आयु शेष थी तो उन्होंने डॉक्टर की बात मानकर तुरन्त ऑपरेशन करा लिया। यह अलग बात है कि रस्तोगीजी की आयु बढ़ाने में ईश्वर ने उस डॉक्टर को माध्यम बनाया। इसके विपरीत मेहता जी के भाग्य में आयु समाप्त होने का समय आ चुका था। उनके मन में ईश्वर ने ऐसे भाव पैदा किये कि उन्होंने आराम भी नहीं किया और ऑपरेशन भी नहीं करवाया।

    इसी प्रकार यदि आप वास्तुदोष के कारण परेशान हैं और आपके भाग्य में सुख लिखा है, तो आपके मन में रस्तोगीजी की तरह विचार आएँगे और योग्य वास्तुविद् की सलाह पर आप घर के वास्तुदोष दूर कर सुखद एवं सरल जीवन व्यतीत करेंगे। यदि आपके भाग्य में सुख नहीं लिखा है तो आपके मन में मेहताजी की तरह विचार आएँगे कि वास्तु में क्या रखा है? क्या खिड़की-दरवाजे की जगह बदलने से, टॉयलेट तोड़ने से या भूमिगत पानी की टंकी को मिट्टी डालकर बंदकर दूसरी जगह खोदने से किसी का जीवन सुखी होता है? इत्यादि। कुल मिलाकर आपका भाग्य ही आपके मन में ऐसे विचार लाता है और उन्हीं विचारों के अनुरूप आप कार्य करते हैं। आप वास्तुनुकूल भवन में रहेंगे या नहीं, यह निर्भर करता है आपके भाग्य पर। यदि आपके भाग्य में सुख लिखा है तो निश्चित ही आपका घर वास्तुनुकूल होगा।

    आस्था और वास्तु

    विश्व की सभी सभ्यताओं में धार्मिक प्रतीकों के प्रति बड़ी आस्था है। भारतवर्ष में भी स्वस्तिक, ओम्, श्री, पंचागुलक हाथ, 786, एक ओंकार इत्यादि धार्मिक प्रतीकों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के यंत्र जैसे लक्ष्मी यंत्र, श्रीयंत्र, कुबेर यंत्र, काली यंत्र, सूर्य यंत्र इत्यादि के प्रति गहरी आस्था एवं श्रद्धा है। दुनिया का हर धर्म ईश्वर या किसी न किसी अलौकिक शक्ति पर विश्वास और आस्था रखना सिखाता है। इन धर्मों की यह सीख सिर्फ कोरी बकवास नहीं है, बल्कि वास्तव में असर दिखाती है। आस्ट्रेलिया में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि ईश्वर के प्रति आस्था जीवन में खुशहाली को बढ़ाती है। आस्ट्रेलिया में एडिथ कोवेन यूनिवर्सिटी और डीकन यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए ‘द स्पिरिच्युअलटी एंड वेलबीइंग इन आस्ट्रेलिया’ नामक अध्ययन में पाया गया है कि जो लोग ईश्वर में आस्था रखते हैं, वे नास्तिकों की तुलना में ज्यादा खुशहाल होते हैं। ऐसे लोग जीवन के उद्देश्य के प्रति संवेदनशील होते हैं और समाज तथा अन्य व्यक्तियों का सहयोग भी करते हैं।

    प्रार्थनाओं को लेकर भी कई वैज्ञानिक शोध हुए हैं और इन सभी का साझा निष्कर्ष यह है कि (कई बार उन्होंने पाया कि) प्रार्थना वाकई चमत्कार करती है। अमेरिका में ‘प्रार्थना का लम्बी उम्र में क्या योगदान है,’ इस विषय पर एक वृहद् शोध किया गया और इसके निष्कर्ष चौंकाने वाले रहे। शोध अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रार्थना के जरिए एक खास किस्म का रसायन शरीर में उत्सर्जित होता है, जो कोशिकाओं के विखण्डन को रोकता है। चूँकि कोशिकाओं का विखण्डन ही बुढ़ापा लाता है, जिसकी परणिति अन्ततः मृत्यु में होती है। इसलिए कोशिकाओं के विखण्डन का यह रुकना या उसका धीमा होना उम्र बढ़ाने वाला साबित होता है। एक अन्य वृहद् सर्वेक्षण में पाया गया है कि जो लोग नियमित तौर पर प्रार्थना करते हैं, सामूहिक प्रार्थना सभाओं में हिस्सेदारी करते हैं तथा प्रार्थना को लेकर सकारात्मक विचार रखते हैं, वे लोग उन लोगों के मुकाबले - (जो इन तमाम चीजों पर यकीन नहीं करते)- 65 प्रतिशत कम दिल की बीमारियों का शिकार होते हैं।

    शिक्षाशास्त्री शायद सदियों पहले इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि सामूहिक प्रार्थना के बाद शुरू किया गया अध्ययन ज्यादा सकारात्मक और आत्मीय होता है। इसी वजह से आज पूरी दुनिया के स्कूलों में प्रार्थना का चलन है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि जिन घरों में सप्ताह में एक बार सामूहिक प्रार्थना की जाती है, वहाँ उन घरों के मुकाबले झगड़े बहुत कम होते हैं, जिन घरों में कभी प्रार्थना नहीं होती।

    अधिकांश पढ़े-लिखे लोग समझते हैं कि, अंधविश्वासी और कर्महीन लोग ही ताबीज, रुद्राक्ष, अँगूठी, यंत्र आदि धारण करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे प्रतीकों को पहनना वाकई लाभदायक है। इंग्लैंड के हर्टफोर्डशायर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड वाइजमैन के नेतृत्व में कुछ शोधकर्ताओं ने ताबीज, रुद्राक्ष, अँगूठी आदि धार्मिक प्रतीकों के लाभकारी पक्षों का आकलन किया। रिचर्ड वाइजमैन का कहना है कि इसे पहनने से लोगों की नियति में वाकई सुधार आता है।

    निश्चित ही इन प्रतीकों एवं यंत्रों का प्रयोग लाभदायक रहता है। इससे मानव की सकारात्मक सोच विकसित होती है। वे अपने भविष्य के प्रति ज्यादा आशावान होते हैं। इन प्रतीकों का उपयोग करने वाला व्यक्ति निराशा से मुक्ति पाकर आत्मविश्वास से भर जाता है। आत्मविश्वास से भरा व्यक्ति अधिक मेहनत करता है, जिससे उसकी कामयाबी का रास्ता खुलता चला जाता है।

    पिछले 14-15 सालों से हमारे देश में वास्तुदोष निवारण में भी इन प्रतीकों का उपयोग जोर-शोर से किया जाने लगा है, जिसमें श्रीयंत्र, स्वस्तिक, वास्तुदोष निवारक यंत्र, स्वस्तिक पिरामिड, सिद्ध गणपति, पंचमुखी हनुमान् इत्यादि प्रमुख प्रतीक के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं। इन भारतीय प्रतीकों के साथ-साथ फेंगशुई के माध्यम से आये चीन के कुछ प्रतीक जैसे लॉफिंग बुद्धा, डबल हैप्पीनेस सिम्बल, फुक-लुक-शु, तीन टाँग का मेढ़क, लकी क्वाइन इत्यादि के उपयोग का चलन भी खूब चल रहा है। यह प्रतीक सिद्ध किए गए हों या न हों, वास्तुदोष निवारण में ये कोई विशेष उपयोगी नहीं होते हैं, जैसे किसी गम्भीर रोग में डॉक्टर अपने मरीज को ठीक करने के लिए उस रोग से सम्बन्धित दवाई देता है, साथ ही ताकत के लिए मरीज को विटामिन की गोली भी देता है। उसी प्रकार महत्त्वपूर्ण वास्तुदोषों में धार्मिक आस्था के प्रतीक केवल विटामिन की गोलियों की तरह होते हैं।

    क्या, केवल विटामिन की गोली से किसी गम्भीर रोग को दूर किया जा सकता है? बिल्कुल नहीं। ठीक उसी प्रकार महत्त्वपूर्ण वास्तुदोषों को भी उपरोक्त प्रतीकों के उपयोग से दूर नहीं किया जा सकता। महत्त्वपूर्ण वास्तुदोषों को दूर करने के लिए भवन की बनावट में ही आवश्यकतानुसार छोटे-बड़े परिवर्तन करने पड़ते हैं। तभी समस्या का पूर्णरूप से निराकरण हो पाता है।

    उदाहरण के लिए किसी घर के पूर्व आग्नेय में घर एवं कम्पाउंड वॉल के द्वार हों और आग्नेय कोण में ही भूमिगत पानी की टंकी हो तो उस घर में रहने वालों के मध्य निश्चित रूप से आपसी विवाद एवं कलह रहेगा। परिवार के सदस्य के बीच मनभेद भले न हो पर मतभेद अवश्य होंगे। वे एक-दूसरे के लिए मरने को तो तैयार हो जाएँगे, परन्तु एक-दूसरे की बात मानने को बिल्कुल तैयार नहीं होंगे। इस प्रकार के दोषयुक्त घर में रहने वालों के बाहर के लोगों के साथ भी विवाद एवं कोर्ट-कचहरी की नौबत आती रहती है। इस दोष को दूर करने के लिए एक नहीं सैकड़ों पिरामिड लगा लें, चाहे वह पिरामिड सामान्य हों या चार्ज किए हुए या प्लास्टिक, ताँबा, पारद या अन्य किसी भी पदार्थ के बने हों, परन्तु इससे उपरोक्त समस्या में एक नए पैसे का भी लाभ नहीं होगा। ऐसे वास्तुदोष को दूर करने के लिए घर एवं कम्पाउंड वॉल के द्वार पूर्व आग्नेय में दीवार खड़ी करके बंद करने होंगे और दोनों द्वार पूर्व ईशान में बनाने होंगे। साथ ही पूर्व आग्नेय स्थित भूमिगत पानी की टंकी को पूरी तरह से मिट्टी डालकर बंद करना होगा एवं नई टंकी पूर्व ईशान में बनानी होगी। इस परिवर्तन से परिवार के मध्य एवं बाहरी लोगों से होने वाले विवाद तो निश्चित रूप से समाप्त होंगे ही, साथ ही परिवार तेजी से आर्थिक उन्नति करता हुआ सुखद एवं सरल जीवन व्यतीत करने लगेगा।

    महत्वपूर्ण वास्तुदोष निवारण का महत्त्व आप इस प्रकार समझ सकते हैं कि 1 की संख्या के आगे एक शून्य लगाया जाए तो वह संख्या 10 हो जाएगी, दो शून्य लगाए जाएँ तो 100 हो जाएगी, तीन शून्य लगाने पर 1000 हो जाएगी, इसी प्रकार प्रत्येक शून्य लगाने पर वह संख्या दस गुना बढ़ती जाएगी, परन्तु यदि अंक 1 की संख्या न हो तो कितने ही शून्य क्यों न लगे हों, सभी शून्य ही रहेंगे। अतः संख्या 1 का होना बहुत जरूरी है। इसी प्रकार महत्त्वपूर्ण वास्तुदोष के निवारण का महत्त्व संख्या 1 के बराबर है और आस्था के प्रतीकों का महत्त्व 0 शून्य के बराबर है। यह तय है कि अच्छे वास्तु में ही यह प्रतीक सोने पे सुहागा का काम करते हैं।

    सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करते हैं मांगलिक चिह्न

    अनादिकाल से पूरे विश्व में घर के बाहर मांगलिक चिह्न बनाने की परम्परा रही है। पुरावेत्ताओं द्वारा की जाने वाली खुदाइयों के दौरान कई सभ्यताओं में ऐसे अवशेष मिले हैं, जिनसे यह पता चलता है कि आज से ढाई-तीन हजार वर्ष पहले भी लोग अपने घर के अन्दर और विशेषतौर पर घर के बाहर कई प्रकार के प्रतीक चिह्न बनाते थे। अभी तक ज्ञात लगभग सभी सभ्यताओं में इन चिह्नों को बनाते वक्त विशेष रंगों का ही प्रयोग किया गया है। रंगों में सबसे ज्यादा लाल रंग का उपयोग किया गया है और फिर पीले और सफेद रंग का, किन्तु कहीं पर भी काले या स्लेटी रंग का प्रयोग नहीं किया गया है, क्योंकि यह दोनों ही रंग शुभ नहीं माने गए हैं। आज भी भारत समेत विश्व के लगभग सभी

    देशों में घर के बाहरी भाग व मुख्य द्वार पर मांगलिक चिह्नों को बनाया जाता है। भारत में ॐ, स्वस्तिक, मंगलकलश, पंचागुलक हाथ, हाथ के छापे, लाभ-शुभ, कमल, श्री एवं 786 आदि का प्रयोग किया जाता है। इसमें ॐ और स्वस्तिक सबसे ज्यादा बनाये जाते हैं। ये मांगलिक चिह्न सुख-समृद्धि के सूचक माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इन्हें घर के मुख्य द्वार पर बनाने से सकारात्मक ऊर्जा घर में प्रवेश करती है, जिससे घर की सुख व समृद्धि में वृद्धि होती है। कई जगह लाल रंग न मिलने पर केसर या हल्दी का भी प्रयोग किया जाता है। भारतीय परम्परा में लाल रंग जीवन के विकास का शुभ रंग है। लाल रंग की महत्वता इसलिए भी और अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि मंगल ग्रह का रंग भी लाल ही है। खुशी के मौके पर मंगलाचरण भी गाया जाता है। घर के आगे अशोक या आम के पत्तों का बन्धन-द्वार लगाना भी शुभ माना जाता है। भारत में लोग दरवाजे के आगे ॐ तथा स्वस्तिक का चिह्न बनाते हैं। ‘स्वस्तिक’ भगवान विष्णु का प्रतीक है तो ‘श्री’ माँ लक्ष्मी का प्रतीक है,

    साथ ही घर के मुख्य द्वार के मध्य श्री गणेश को विराजित कर उनके आस-पास उनकी दोनों पत्नियों के नाम ‘रिद्धि और सिद्धि’ लिखने की भी परम्परा है, जिससे की घर में ज्ञान व धन की कमी नहीं रहती है। इसी प्रकार मकान के मुख्य द्वार के सामने मंगल कलश की आकृति भी बनाई जाती है। यूरोप में दरवाजे पर फूलों का गुलदस्ता लगाया जाता है। कई घरों में क्रॉस लगाया जाता है। पूर्व एशिया चीन, हांगकांग, मलेशिया, सिंगापुर आदि देशों में पाकुआ लगाया जाता है, जिसमें येन तथा यांग की आकृति बनी होती है। यहाँ के लोग पाकुआ के अलावा मिरर और विंड

    चाईम भी लगाते हैं। चीन में भी लाल रंग का प्रयोग बहुत ज्यादा किया जाता है। चीनी लोग विश्व में जहाँ भी रहते हैं, वह क्षेत्र उनके लाल रंग के अधिक उपयोग के कारण अलग से पहचान में आता है। चीन में ड्रेगन के चिह्न को अतिशुभ मानते हैं। तिब्बत

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