महापूज्य महर्षि: Maharshis of Ancient India (Hindi)
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सप्तर्षियों के जीवन गाथे, उनकी साधनाएँ -विश्वभर के लिए उनकी महान देन, साथ-साथ उनसे सामना की गई समस्याएं आदि के बारे में काफी प्रकाश डालनेवाली इन पुस्तकों का मानवमात्र के प्रत्येक घर में अलंकृत होना अवश्य माना जाता है।
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Book preview
महापूज्य महर्षि - Prof. T. N. Prabhakar
महापूज्य महर्षि
लेखक
टी. एन. प्रभाकर,श्रीहरि और टी. एन. सरस्वती
© Bharatha Samskruthi Prakashana, Bengaluru. All rights reserved.
Published by:
Bharatha Samskruthi Prakashana
C/o. Bharatha Darshana,
163, Manjunatha Road, 2nd Block,
Thyagarajanagar, Bangalure 560 028,
Ph: +91-95914 70345, +91-94480 78231
bharathasamskruthi.com
e-Book
185v1.0.0
Date: 23 March, 2019
ISBN: 9789389028829
Created by: Sriranga Digital Software Technologies Private Limited
srirangadigital.com
श्री रंग सद्गुरुवे नमः
भारतीय संस्कृति का परिचय छोटे बच्चों को कराने, उनमें अच्छे पुस्तकों को पढ़ने की अभिरुची को विकसित करने की उद्धेश्य से पुस्तकों को प्रकाशित करने भारत संस्कृती प्रकाशन संस्था ने संकप्ल किया । इसलिए
रामायण और महाभारत का मुख्य पात्र के दो पुस्तक झृंखलाओं को कई भाषाओं मे प्रकाशित किया है । इसे विद्यालयों ने सार्वजनिक संस्थाओं ने ओर सर्कार ने स्वागत किया है । इसी दिशा में
महापूज्य महर्षियाँ नामक् छोटे पुस्तको के गुच्छे को इस संस्था द्वारा प्रकटित करना हमें अति प्रसन्नता हुई है ।
इस पुस्तक श्रृंखलाओं का उद्देश्य हमारी भव्य संस्कृती का निर्माता कुछ महर्षियों का परिचय कराना है । ऋषियों ने सत्य का साक्षत्कार कर के अपने अनुभवों को जनहित और लोक कल्याण करने की उद्देश्य से अपने वाकू और ग्रंथों द्वारा लोगों तक पहुँचाया । उन्होंने अपने आत्मानुभव और अत्मगुण से अपनी बुद्धि श्रेष्ठता का परिचय दिया । सामान्य मानव जैसे लौकिक ख्याती, धन संग्रह, पूजा आदी के लालच में ना पडकर लोका समस्ता सुखिनो भवंतु
समस्त विश्व में सुख प्रदान हो इस धार्मिक बुद्धि से अपने अनुभवों को अनुग्रहित किया । ऐसे महात्माओं में किन्हीं मुख्य पुरुषों का परिचय हमें इन छोटे पुस्तकों द्वारा मिलता है । इन्हें पढ़कर और विचार करने से बच्चों में सत्य निष्ठता, सदाचार और सद्गुण निर्माण होगा और देश के सभ्य नागरिक बनने में सहायक सिद्ध होग
यही हमारा आशय है ।
भारत संस्कृती प्रकाशन संस्था की ओर से इसी किसम् के कई पुस्तकें प्रकाशित हो जिससे आत्मकल्याण और लोककल्याण करने सहायक सिद्ध हो । इन पुस्तकों को लिखने और परिष्कृत करने में सहायता करनेवाले विद्वद्जनों और पंडितों का मंगल कामना करते हैं ।
अष्ठंगा योग विज्ञान मंदिरम्
श्रावण शुक्लद्वितीय, रवीवा
बेंगलोर
22-07-2001
नारायण स्मरण
श्री श्री रंगप्रिय श्रीपाद श्रीः
महर्षि अगस्त्य
श्रियै नमः
श्री गुरुभ्यो नमः
भारत देश की महिमान्वित महर्षियों में महर्षि अगस्त्य भी एक है । इन्होने महाविष्णु कि अंश से जन्म लिया । इन के विषय में इतिहास-और पुराण में भी अनेक मुख्य अंश मिलती है । इन के आधार पर महर्षी अगस्त्य कि जीवन गाथा का वर्णन कर सकते हैं ।
अगस्त्य की जन्म
सूर्य वंश की प्रसिद्ध राजा थे इक्श्वाकु । इनका पुत्र था निमि । निमि के सिंहासन आरोह करने के पश्चात् अत्यंत लंबे समय तक चलनेवाला यज्ञ करने का संकल्प किया । उसने महर्षी वसिष्ठ से यज्ञ की संचालन करने की प्रार्थन की । लेकिन निमि की इस आह्वान को वसिष्ठ ने तिरस्कृत किया क्यों की उन्हें देवराज इंन्द्र द्वारा करनेवाले यज्ञ में जाने की निमंत्रण इस से पहले मिलचुकी थी । उन्होने राजा निमि से कद्य की वे देवराज की यज्ञ समाप्ति होने पर उसकी यज्ञ में भाग लेने और ऋत्विज होने अवश्य आयेंगे । राजा को निराश होकर लौटना पड़ा । जब तक महर्षि वसिष्ठ इंन्द्र की यज्ञ समाप्त करके लौटे तब तक राजा निमी ने महर्षी गौतम के पुत्र शतानंद की सहायता से यज्ञ पूर्ण किया था । इन्द्र कि यज्ञ के पश्चात् वसिष्ठ राजा निमी से मिलने उसके राजमहल गये । उन्होंने बहुत समय तक राजा का निरीक्षण किया परन्तु महाराज ने वसिष्ठजी से भेंट नहीं की और वह सो रहा था ।
महाराज कि बर्ताव से वसिष्ठजी कृद्ध हुए । उन्होंने सोचा राजा निमी यज्ञ करने के पश्चात अति गर्वित होगया है । सौजन्य भाव तो उसमें कतई नही है । उसने अतिथि सत्कार भी नही किया । ऐसी राजा का मृत्यु होजाए
इस तरह उन्होंने श्रृप दिया ।
महर्षी वसिष्ठ द्वारा उसे शाप देना राजा निमी जान गया । अब उसका मरण अति शीर्घ ही होनेवाला था । इसलिये निमी विह्वल हुआ । लेकिन चक्रवर्ती निमी भी कुछ कम नही था । वह भी एक उत्तम तपस्वी होने के कारण उसमें भी तपःशक्ति का संचयन था । उसने अपनी तपोबल से महर्षि वसिष्ठ को श्रृपदेने सिद्ध हुआ हे वसिष्ठ, मैं जिस समय निद्र में था उस समय तुमने मुझे श्रृप दिया । इसलिये तुम भी मृत्यु का आलिंगन करो
इस तरह श्रृप दिया । इस तरह दोनों परस्पर श्रृप से पीडित हुए और निमी चक्रवर्ति की मृत्यु होगई । महर्षी वसिष्ठ दीर्घजीवि थे इसलिये उन्होंने अपनी भौतिक शरीर को त्यगकर अग्नी समान तेज शरीर धारण कर के ब्रह्मलोक चलेगये ।
महर्षी वसिष्ठ ने सारी घटना की विस्तृत जानकारी ब्रह्माजी को दी । उन्होंने कहा की वे सबकुछ जानते है लेकिन लोक कल्याण के अनेक मुख्य कार्यें अभी करना बाकी है । इन सभी कार्यो का सूत्रधार आप हैं । इसलिये आप पुनः मित्र-वरुण द्वार शरीर पाकर लोकोद्वार का कार्य कीजिये" ।
ब्रह्माजी कि आज्ञा के मुताबिक मित्रावरुण द्वारा दो महर्षियों ने जन्म लिया ।
उन दोनों में से सब से पहले जन्म लेनेवाले महर्षि अगस्त्य थे । तत्पश्चात् सकल वेदों कि ज्ञाता महर्षी वसिष्ठ ने जन्म लिया । इस तरह महर्षि वसिष्ठ महर्षी अगस्त्य का अनुज हुए ।
अगस्त्य ने वेद-वेदांग का अभ्यास किसी से भी नही किया । वह जनम से ही इन विद्याओं में पारंगत थे । अस्त्र और शस्त्र विद्या निपुण थे । अग्निवेष अगस्त्य के शिष्य थे । यह द्रोणाचार्य के गुरु भी थे ।
इल्वल और वातापि कि कथा
कई साल पहले मणिमति नगर में इल्वल नाम का एक राक्षस था । वह अति पराक्रमि था । इल्वल का छोटा भाई था वातापि । एक बार इल्वल ने एक महातपस्वि ब्राह्मण का आदर सत्कार कर के अपने लिये इन्द्र के समान एक पुत्र होने का वर माँग लिया । परन्तु उस ब्राह्मण ने इल्वल को ऐसा वर प्रदान करने से इनकार किया । इससे इल्वल को उस ब्राम्हण पर बहुत क्रोध आया । उस दिन से उसने ब्राह्मणों का नाश करने का संकल्प कर लिया । वह कई मायाविद्याओं में भी निपुण था और अत्यंत क्रूर स्वभाव का था ।
वह अपने छोटा भाई वातापि को अपनी माया द्वारा एक बकरे के रुप में परिवर्तित करदेता, ब्राह्मणों को अपने घर पर खाने का निमंत्रण देता था । ब्राह्मण जब नदी तट से स्नान, जप, तप आदी से निवृत्त होकर आने पर, वह वातापि को जो बकर के रूप में था, काट के माँस से खाना बनालेता था । अतिथि ब्राह्मणों को अत्यंत नम्रता पूर्वक होकर वह खाना परोसता । इस के अलावा इल्वल के पास एक शक्ती भी था । वह एक बार जोर से चिल्लाता तो मृत आदमी भी उठके चले आता था । इस तरह जब ब्राह्मण पेट भर खाकर तृप्त होजाते तब वह अपने भाई वातापि को ऊँची आवाज में बुलाता था । तब वातापि जिस की मृत्यु हुई थी, वह उन ब्राह्मणों का पेट काटकर हँसते हँसते बाहर निकलता था । इस से ब्राह्मणों की मृत्यु होजाति थी । इस तरह प्रति दिन ब्राह्मणों की मृत्यु होजाति थी । एक बार महर्षि अगस्त्य उसी तरह आये । इल्वल ने महर्षि अगस्त्य को भी उचित सत्कार किया बाद में भोजन करने का निमंत्रण भी दिया । पहले जैसे वातापि को काटकर पकवान तैय्यार किया । महर्षि अगस्त्य इल्वल के इस नित्य क्रम से भलि भांति परिचित थे । उन्होने उस माँसाहार को ‘ग्रहण किया’ भोजन के बाद नित्य कि भांति इल्वाल ने अपने भाई को पुकारा । वातापि अत्तगच्छा
इस पर महर्षि अगस्त्य ने वातापि जीर्णोभव
वातापी पचन होजाओ कहकर अपने पेट पर अपने हाथ रखा । तब वातापि वही जीर्ण होगया । इल्वल इस से अनभिज्ञ, बार बार अपने भाई को बुलाने लगा । कितनी ही बार पुकारने पर वह जब बाहर नही आया, तब अगस्त्य हँसते हँसते बोले
हे इल्वल, वातापि को मैं ने जीर्ण करलिया है । अब वह बाहर नही आयेगा" । इस से इल्वल अत्यंत दुःखित और क्रोधित हुआ । वह अपने भाई की मौत का बदला लेना चाहता था । इसलिये उसने अगस्त्य पर आक्रमण किया । लेकिन ब्राह्मण के सामने राक्षस बल क्षीण हुआ । महर्षि अगस्त्य ने अपने तपोबल से इल्वल को मार डाला । इस तरह लोक कंटक राक्षसों को मारकर महर्षि अगस्त्य ने लोक कल्याण किया ।
इव्वल द्वारा अगस्त्य को भोजन का निमंत्रण
महर्षि अगस्त्य द्वारा अपनी पित्रदेवताओं को अभय दान
एक बार अगस्त्य देश संचार करते समय यह देखा की उनके पित्र देवता किसी अगाध खाई में उलटे लटक रहे है । कारण पूछने पर पित्रदेवताओं ने कहा तुम ने विवाह नही किया है । इसलिये तुम्हारा कोई संतान भी नही हुई । इस से हमें सद्गति नही हुई । वत्स, यदि तुम विवाह कर के पुत्र पालोगे तो हमे इस से मुक्ति होगी और तुम्हें भी सद्गति होगी
। महर्षि अगस्त्य ने उनको वादा किया कि वह ऐसे ही करेगें और यह सोचने लगे कि उन्हें विवाह किससे करना है ।
लोपामुद्रा देवि का जनन
अपने लिये अनुरुप कन्या कौन है? उनकी वंशाभिवृद्धि कैसे होगी? इस तरह चिंतित अगस्त्य के मन में किसी भी साध्वि स्त्री गोचरित नही हुई । उन्होंने अपनी मंत्रशक्ति द्वारा एक फल को सृष्टित किया । उन्होंने वह फल विदर्भ देश के राजा को दिया जो उस वक्त संतान प्राप्ति कि इच्छा से तपस्या कर रहे थे । विदर्भ राज ने उस फल को अपनी पत्नी को दिया । उसने उसे अत्यंत श्रृद्धा और भक्तिपूर्वक ग्रहण किया । महर्षि अगस्त्य कि तपः शक्ति कि प्रभाव से सृष्टित फल के कारण, उसने गर्भधारण किया और नौ महिनों के पश्चात् एक सुंदर कन्या को जन्म दिया । पुत्री कि जन्म का समाचार पाकर विदर्भ राज ने उसकी नामकरण आदि संस्कार करने ब्राह्मणों को बुलाया । ब्राम्हण को उस कन्या की रुपराशि को देखकर अचंभित रह गए । उन्होंने उस शिशु का नाम लोपमुद्रा रखा ।
लोपमुद्रा अपनी अप्रतिम सौंदर्य के साथ साथ सच्चारित्य और विनम्रता से सब की प्रशंसा का पात्र बनी थी । जब वह विवाह योग्य हुई, उसके योग्य वर कोई नही मिला । सारे राजकुमारों, ने सोचा की वे लोपामुद्रा जैसे, सुन्दरी, सद्गुणी कन्या के योग्य नही और इस के अलावा अगर उन्होंने विदर्भराज से लोपमुद्रा से विवाह करने की प्रस्ताव रखनेपर, वह क्रोधित होसकते है । यही सोचकर कोई राजकुमार आगे नही आये । इससे विदर्भ राज उसके विवाह के विषय में चिंतित रहने लगे ।
अगस्त्य लोपमुद्रा का विवाह
महर्षि अगस्त्य अपने दिव्य दृष्टि से जानगये की लोपमुद्रा अब अपने गृहकार्य सामर्थयता के साथ निभासकेगी । वह विदर्भ राजा के पास चलेआये । विदर्भराज ने उनका आदर सत्कार किया और उनके आने का कारण जानना चाहा । अगस्त्य ने कहा हे महाराज, मेरे वंश को आगे बढ़ानेवाला कुलदीपक पुत्र को पाने की इच्छा से मैं तुम्हारी पुत्री लोपमुद्रा से विवाह करना चाहता हूँ, तुम उसका विवाह मेरे साथ करो
।
महर्षि अगस्त्य की वाणि सुनकर दोनों राजा-राणि दुखि हुए । एक राजकुमारि का विवाह अरण्य में रहनेवाले तपस्वि से करने का उनको मन नही था । परन्तु स्वयं लोपामुद्रा इस विवाह के लिये सहर्ष तैय्यार हुई । इस तरह लोपामुद्रा का विवाह अगस्त्य से होगई ।
विवाह पश्चात् महर्षि अगस्त्य ने लोपामुद्रा को अपने सारे दिव्य वस्त्र, आभूषण त्यागकर, वनवासियो कि भांति आने को आदेश दिया । उसने उनके आदेश का पालन किया और अगस्त्य उसे साथ लेकर गंगाद्वर गये । वहाँ अत्यंत उग्र तप करने लगे । लोपामुद्रा भी सदा काल अगस्त्य कि सेवा करने तत्पर रहति थी । इस तरह उसने अपन पति का प्यार पाया और साथ साथ वह एक तपास्विनी होगई ।
एक दिन लोपामुद्रा ने अपने पति से एक पुत्र को प्रदान करने प्रार्थना की, अगस्त्य ने उस से कहा है, मंगलांगि, तुम्हारि सच्चारित्र्य से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ । तुम सहस्र पुत्रों को पाना चाहते हो या सहस्र पुत्रों कि बल प्राप्त सौ पुत्र चाहते हो? या सौ पुत्रो के बल समान दस पुत्र चाहिये अथवा दस पुत्रों के समान बलवान एक पुत्र चाहिये?
तब लोपामुद्रा ने अविद्यावंत, दुष्ट सहस्र पुत्रों के बजाय सच्चारित्र वाला सद्गुणि एक पुत्र का होना अच्छा है । इसलिये मुझे आपके समान उत्तम, सद्गुणि पुत्र प्रदान कीजिये ।
महर्षि अगस्त्य ने उसे वर देकर तपस्या करने वन चलेगये । लोपामुद्रा ने गर्भधारण किया और ठीक नवमास पर्यंत एक तेजस्वी पुत्र को जनम दिया । उस पुत्र का धृड़दस्यु
रखा । उस शिशु को देखकर ऐसा लगता था कि जैसे उम्र से अत्यधिक वजन उठालेता था । वह वन से समित्त आदी का संग्रहण अधिक मात्रा में कर के उठालाता था । इसलिये वह इध्मवाह
के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ ।
अगस्त्य द्वारा समुद्रशोषण और कालेयों का विनाश
कालेय नाम से जाननेवाले दैत्य समुद्र के भीतर वास करते थे । वे रात्रि के समय ऋष्याश्रमों को प्रवेष कर के तपस्वियों को मारदेते तथा आश्रमों को ध्वंस कर के समुद्र मे छिप जाते थे । सुबह होनेपर तपस्वियों का मृतदेह और विद्वंस आश्रम दिखते थे । लेकिन यह सब कर कौन रहा है यह किसी को मालूम न था । कालेयो ने वसिष्ठ-च्यवन-भरद्वाज आदि ऋषियों के आश्रमों को ध्वंस कर के, तपस्वियों को मारदिया । इस कारण ब्राह्मणों कि सख्या घटति चली गई । इसी तरह युधीष्ठिर के आश्रम भी कालेयों द्वारा नाश हुई । याग, यज्ञ कार्य संपूर्ण रुप से स्थगित होगई । तब सभी देवताएँ महाविष्णु से मिले और इस विनाश कार्य करनेवालों के विषय में जानना चाहते थे । महाविष्णु ने देवताओं को कोलेयों की विषय कि जानकारि दी और कहा की केवल महर्षि अगस्त्य समुद्र को सुखाने कि क्षमता रखते है । वह समुद्र के जल को एक बारगी में पीने का सामर्थन रखते है । उनके अलावा और कोई भी इस कार्य को नही कर सकते । इसलिये तुम सब मिलकर उनसे प्रार्थना करो कि उनके द्वारा समुद्र शोषित हो और कालेयों का नाश ।"
उसके पश्चात् देवताओं ने ब्रह्माजि की भेंट की और उनकी अनुमति लेकर अगस्त्याश्रम आये । महर्षियों के मध्य में बैठे अगस्त्य की उन्होंने स्तुति की । उसके बाद उन्होंने महर्षियों के नाश और कालेयों की विषय की जानकारि दी । उन्होंने महाविष्णु के द्वारा बताये गये समुद्र शोषित करने कि विधी-समुद्र जल पीने की प्रार्थना की । महर्षि अगस्त्य ने देवताओं को अभयदान दिया और सब को साथ लेकर समुद्र तट आये, वरुण देवता का आवास स्थान समुद्र को एक ही झटके में पीलिया । इस से समुद्र पूर्ण रुप से सूख गया और अंदर छिपे कालेयों पर देवताओं ने आक्रमण किया । कालेय दानव और देवताओं के बीच घोर युद्ध हुआ । देवताओं ने अति भयंकर युद्ध कर के अनेक कालेय दानवों का नाश किया बचे-कुचे दैत्य पृथ्वी को छीड़कर, पाताल लोक भागगये और इस तरह अपनी जान बचालिया ।
बाद में देवताओं ने महर्षि अगस्त्य का स्तोत्र किया, लोक कल्याण कार्य में सहायता करने के कारण उनको कृतज्ञता प्रकट की तथा सूखा हुआ समुद्र को पुनः जल से भरने की प्रार्थना की । तब महर्षि ने कहा "हे देवता, मेरे द्वारा ग्रहण किया गया समुद्र जल को मैंने पचालिया है । इसलिये आप कुछ और उपाय कर के समुद्र को फिर से जल से भरदीजिये । तत्पश्चात् देवताएँ महाविष्णु को साथ लेकर ब्रह्माजी के पास पहुँच गये । उन्होंने समुद्र को पुनः जल भरित करने की उपाय पूछा । तब ब्रह्माजी ने उन्हे केवल सगर के वंशज भगीरथ इस कार्य को करने में समर्थ बताया । इस तरह देवताएँ सही समय कि प्रतीक्षा करने लगे ।
सूर्यवंश के राजा सगर को साठ हजार पुत्र थे । कुछ समय पश्चात् महर्षि कपिल के क्रोधाग्नि में जलकर सगर के सारे पुत्र भस्मीभूत होगये । उसके बाद उन्ही के वंशज भगीरथ अपनी तपोमहिमा से गंगा को भूलोक लाने में समर्थ होगये । गंगा देवी ने सूखा हुआ समुद्र को जल से भरलिया तथा सगर पुत्रों कि भस्म को अपने अंदर समानेदिया और उनको सदूगति प्राप्त की । इस तरह अगस्त्य द्वारा शोषित समुद्र पुनः जल से भरकर सुशोभित हुआ ।
अगस्त्य द्वारा विंधय पर्वत की बढ़ने पर निग्रह
अगस्त्य द्वारा समुद्र जल ग्रहण-एक अद्भुत कार्य था । उसी तरह विंध्य पर्वत की ऊँचाई पर रोक लगाना भी एक महान् कार्य था । सूर्य देवता प्रतिदिन पूर्व दिशा में उदित होकर, अपनी उज्वलता से तीनों लोकों को प्रकाशित कर के, मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा कर पश्चिम दिशा में डूबजाता है । इस तरह प्रति दिन सूर्य मेरुपर्वत कि प्रदक्षिणा करते देख विंध्य पर्वत राज ने यह मेरु पर्वत मेरे जैसा ही है । फिर भी सूर्य केवल इसकी प्रदक्षिण करता है, मेरा नही । इस तरह खेद प्रकट करता था । उसके बाद एक दिन विंध्य ने सूर्य से कहा
है सूर्यदेवता, जैसे तुम प्रतिदिन मेरु पर्वत कि प्रदक्षिणा करते हो, वैसे मुझे भी गौरव करो तब सूर्य ने कहा
हे विंध्य, मैं अपनी इच्छा से मेरु पर्वत कि प्रदक्षिणा कर के गौरव प्रकट नही कर रहा हूँ । इस संसार कि सृष्टि-स्थिथि-लय के कारणकर्ता ने ही मेरा भी क्रमगति का निश्चय किया है । इस मेरु पर्वत कि प्रदक्षिणा करने का आग्रह किया है । इसलिये मैं उनकी आदेश कि अनुरुप चलरहा हूँ और यह क्रम छोड़कर मैं एक कदम भी नही बढ़ासकता हूँ" ।
सूर्य कि वार्तालाप सुनकर विंध्य अपने आप को अपमनित महसूस करने लगा । उसने सूर्य और चन्द्र का गतिविधि को रोकने कि निश्चय करके अपनी ऊँचाई बढाने लगा । इस से पशु पक्षियों को संचार करने में बाधा होने लगी, देवताओंने विंध्य पर्वत से कहा की वह सृष्टि के नियम का पालन करे ।
सृष्टि व्यवस्था के व्यतिरिक्त ना जाये । परन्तु विंध्य ने उनकी बातों को गौर नही किया । इससे चिंतित होकर देवताओं ने सोचा कि विंध्य को रोकने केवल उसकी गुरु अगस्त्य ही सामर्थ्यवान् है । उनसे ही हम इसका परिहार ढूँढेंगे" ऐसे सोचकर अगस्त्य से विंध्य को बढ़ने से रोकने कि प्रार्थना की । लोक हित करने की उद्धेश्य से अगस्त्य मानगये ।
महर्षि अगस्त्य अपनी पत्नी लोपामुद्रा को साथ लेकर विंध्य पर्वत आये । उन्होंने विंध्य कि कुशल समाचार पूछताछ की । तब विंध्य ने अपने गुरु और गुरुपत्नी को अपना सिर झुकाकर प्रणाम किया । तब अगस्त्य ने उस से कहा "हे विंध्य मैं किसी अति महान् कार्य के कारण अपनी पत्नी के साथ दक्षिण कि और जारहा हूँ । इसलिये मुझे आगे जाने के लिये रास्ता बनादो और जब तक मैं कार्य समाप्त करके वापस नही आता, तब तक तुम इसी तरह सिर झुकाके रहना । अगर तुम इसी तरह अपनी लंबाई बढ़ाते रहोगे ती मुझे पुनः उत्तर दिशा कि ओर जाने में कठिणाई होगी । इसलिये तुम सिर झुकाके रहना । इस तरह उन्होने विंध्य को आदेश दिया । गुरु की आदेश मानकर विंध्य ने अपनी ऊँचाई घटादि और नीचे झुकगया । तब महर्षि अगस्त्य और देवी लोपामुद्रा ने उस पर चढ़ाई कर के आगे बढ़े और दक्षिण कि ओर चल दी । उसके पस्चात्, अगस्त्य फिर से उत्तर कि ओर नही गये । इस तरह विंध्य पर्वत कि ऊँचाई में और कोई परिवर्तन नही हुआ । सूर्य और चंद्र कि गतिविधि में जो बाधा विंध्य की बढ़ने से हुई थी, वह मुक्त हुए, महात्मा और महिमावान् तपस्वियों कि सामर्थ्य को जानना अति कठिण है ।
अगस्त्या द्वारा नहुष को श्रृप
देवताओं के राजा इन्द्र ने त्वष्ट्र की पुत्र वृत्रासुर को छल कपट कर के मार दिया । इस से उसे ब्रह्म हत्या दोष का पाप लगा । वह डरकर किसी को बिना बताए, अपनी पत्नी शचीदेवि को छोड़कर अकेला मानस सरोवर में, एक कमल पुष्प के अंदर वास करने लगा । इस तरह इन्द्र अपने स्थान से पदच्युत होने से देवता चिंतित रहने लगे । अनेक तरह कि उत्पात् मचलने लगे । ऋषि मुनी गंधर्व-यक्ष आदि सब भयभीत हुए । देवलोक में राजा के ना रहने से अराजकता फैलगई । पृथ्वी पर भी इस का असर होने लगा । समय समय पर होनेवाली वर्षा रुकगई और फसल होना बंद होगया । सारे देवी-देवता और ऋषिमुनी मिल कर, सोच समझकर, लोक हित की रक्षा के लिए महाराज नहुष को इन्द्र
बनाया । नहुष एक धर्मात्मा राजा था । फिर भी, इन्द्र पदवि कि प्राप्ति के पश्चात् वह एक कामातुर भोग लालसी बनकर अप्सराओं के साथ अपना समय बिताने लगा । कामाँध नहुष के मन में इन्द्र की पत्नी शचीदेवी को पाने कि तमन्ना जाग उठी । उसने देवताओं को और ऋषियों को उद्देशित कर के बोला तुम सब मिलकर किसी तरह शचीदेवी को मेरे पास लाना । नम्रता, या बलपूर्वक किसी भी तरीके से उसे लाना पड़ेगा वरना तुम सब के लिये मृत्यु निश्चित है ।
अगस्त्य द्वारा विंध्य पर्वत का निग्रह
शचीदेवी पर आई दुःख के बादलों को किसी भी तरह से मिटाने को मन में ठानकर ऋषिमुनियों ने कुछ उपाय ढूंढ निकाला । उसी प्रकार से शचीदेवी नहुष के समक्ष जाकर बोली मेरे पति इन्द्र जीवित है या नही, यह जानना मेरे लिये अत्यंत अवश्यक है । पति कि जीवित रहते, किसी और से विवाह रचाना अधर्म है । इसिलिये तुम मुझे कुछ समय दो, मेरे पती के समाचार जानने के पश्चात् मै तुमसे विवाह करुँगी ।
शचीदेवी के कथन को नहुष ने अपनी स्वीकृति देदिया ।
बाद में सभी देवताएँ देवाधिदेव विष्णु से मिले हे देव, देवराज इन्द्र किस तरह ब्रह्महत्या दोष से मुक्त होंगे? उन्हें पुनः देवलोक लाने का कोई मार्ग है? भगवान् विष्णु ने कहा
देवराज इन्द्र को अपने पापों की परिहार हेतु अश्वमेध यज्ञ करना है । इन्द्र और देवी शचि, माता जगदंबा कि पूजा करने पर सब कुछ ठीक होजायेगा । देवताओं ने देवराज इन्द्र, जो मानस सरोवर में छुपके बैठे थे, से मिले, उनसे अश्वमेध यज्ञ करवाया फिर जगदंबा की पूजा भी किया, उसके बाद देवी शची देवगुरु ब्रहस्पति के आदेशानुसार भुवनेश्वरी देवी कि पूजा किया । इस से प्रसन्न होकर देवी ने शचीदेवी पर अनुग्रह किया । वह शचीदेवी के सामने गोचरित हुई तथा बोली
तुम मेरी सखी के साथ मानस सरोवर जाओ । वहाँ पर मेरी एक मूर्ती विश्वकामा
रखी हुई है । वहाँ तुम देवराज इन्द्र को देखसकते हो । कुछ समय