21सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ: लेखक परिचय, कहानी परिचय, कहानी तथा मुख्य बिन्दु व कथन सहित
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यू.जी.सी.- नेट/जे.आर.एफ. की परीक्षा के पाठ्यक्रम में इकाई -7 के अंतर्गत जिन सर्वश्रेष्ठ 21 कहानियों को सम्मिलित किया गया, उन्हीं कहानियों का इस पुस्तक में संकलन किया गया है। सभी कहानियों के कहानीकारों के परिचय व कहानी के परिचय के साथ-साथ कहानी से मुख्य बिंदु तथा महत्वपूर्ण कथनों का चयन कर परीक्षार्थियों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक के माध्यम से सभी 21 कहानियों का अध्ययन कर परीक्षार्थी लाभान्वित हो सकें, इसी दृष्टिकोण से इस पुस्तक का सृजन किया गया है।
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Book preview
21सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ - डॉ. रविकांत प्रजापति
अनुक्रम
1. एक टोकरी भर मिट्टी(1901) माधवराव सप्रे
2. चंद्रदेव से मेरी बातें(1904) : राजेन्द्र बाला घोष (बंग महिला)
3. दुलाईवाली (1907) राजेंद्रबाला घोष (बंग महिला)
4. दुनिया का सबसे अनमोल रत्न(1907) प्रेमचंद
5. कानों में कँगना(1912) -राधिका रमण प्रसाद सिंह
6. उसने कहा था(1915) - चंद्रधर शर्मा गुलेरी
7.आकाशदीप(1929) -जयशंकर प्रसाद
8. अपना अपना भाग्य(1931) - जैनेंद्र कुमार
9. गैंग्रीन/रोज़(1931) अज्ञेय
10. ईदगाह (1933) -प्रेमचंद
11. राही(1947) - सुभद्राकुमारी चौहान
12. सिक्का बदल गया(1948) - कृष्णा सोबती
13. तीसरी क़सम उर्फ़ मरे गए गुलफाम(1956) - फणीश्वरनाथ रेणु
14. लाल पान की बेगम (1956) -फणीश्वरनाथ रेणु
15. चीफ़ की दावत(1956) -भीष्म साहनी
16. कोशी का घटवार(1957) -शेखर जोशी
17. राजा निरबंसिया(1957) -कमलेश्वर
18. पिता(1965) -ज्ञानरंजन
19. परिंदे(1965) -निर्मल वर्मा
20. इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर (1970) -हरिशंकर परसाई
21. अमृतसर आ गया है… (1971) -भीष्म साहनी
1. एक टोकरी भर मिट्टी
लेखक परिचय
माधवराव सप्रे (जून 1871 – 26 अप्रैल 1926)
हिन्दी के साहित्यकार, पत्रकार थे। वे हिन्दी के प्रथम कहानी लेखक के रूप में जाने जाते हैं। माधवराव सप्रे का जन्म सन् 1871 ई० में दमोह जिले के पथरिया ग्राम में हुआ था। बिलासपुर में मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मैट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुर से उत्तीर्ण किया। 1899 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी ए करने के बाद उन्हें तहसीलदार के रूप में शासकीय नौकरी मिली लेकिन सप्रे जी ने भी देश भक्ति प्रदर्शित करते हए अँग्रेज़ों की शासकीय नौकरी की परवाह न की। सन 1900 में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नही था तब इन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से छत्तीसगढ़ मित्र
नामक मासिक पत्रिका निकाली।[2] हालांकि यह पत्रिका सिर्फ़ तीन साल ही चल पाई। सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को यहाँ हिंदी केसरी के रूप में छापना प्रारम्भ किया तथा साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुर से हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की। उन्होंने कर्मवीर के प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई।
मुख्य कृतियाँ:
स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट, यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें, हमारे सामाजिक ह्रास के कुछ कारणों का विचार, माधवराव सप्रे की कहानियाँ (संपादन : देवी प्रसाद वर्मा)
अनुवाद :
हिंदी दासबोध (समर्थ रामदास की मराठी में लिखी गई प्रसिद्ध), गीता रहस्य (बाल गंगाधर तिलक), महाभारत मीमांसा (महाभारत के उपसंहार : चिंतामणी विनायक वैद्य द्वारा मराठी में लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तक)
संपादन : हिंदी केसरी (साप्ताहिक समाचार पत्र), छत्तीसगढ़ मित्र (मासिक पत्रिका)
*महत्वपूर्ण तथ्य*
1. माधवराव सप्रे की स्मृति में भोपाल में माधवराव सप्रे स्मृति समाचारपत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान की स्थापना की गयी थी।
2. सप्रे जी की कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी' को हिंदी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है।
एक टोकरी भर मिट्टी (1901) - माधवराव सप्रे
कहानी परिचय
कहानीकार - माधवराव सप्रे
प्रकाशन वर्ष – 1901
प्रकाशन पत्रिका – छत्तीसगढ़ मित्र पत्रिका
पात्र- वृद्ध विधवा,
जमींदार,
विधवा की पोती,
उद्देश्य / विषय- कहानी अमीरी और गरीबी की विषमता पर आधारित है, जिसमें जमींदार समाज के शोषक वर्ग का प्रतिक है तथा विधवा वृद्ध स्त्री शोषित वर्ग का प्रतिक है।
कहानी
किसी श्रीमान ज़मींदार के महल के पास एक ग़रीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। ज़मींदार साहब को अपने महल का अहाता उस झोंपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई ज़माने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट कर रोने लगती थी और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तबसे वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए, तब वे अपनी ज़मींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना क़ब्ज़ा करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक दिन श्रीमान उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि इसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।'' ज़मींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!'' श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभाल कर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी, ''महाराज, कृपा करके इस टोकरी को ज़रा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।'' ज़मींदार साहब पहले तो बहुत नाराज़ हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्यों ही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताक़त लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ''नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।''
यह सुनकर विधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज़ न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्म-भर कैसे उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।
ज़मींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गर्इं। कृतकर्म का पश्चा्ताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।
*मुख्य बिंदु/कथन*
1. गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी कहाँ थी?- जमींदार के महल के पास।
2. गरीब अनाथ विधवा का पति और इकलौता पुत्र इसी झोंपड़ी में मर गया था।
3. पतोहू (पुत्र वधु) भी एक पांच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी ।
4. विधवा के वृद्धाकाल में एकमात्र आधार कौन थी?- उसकी पोती।
5. विधवा ने अपने श्रीमान पड़ौसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी।
6. श्रीमान पड़ौसी – महल का जमींदार ।
7. श्रीमान पड़ौसी की इच्छा- महल के पास से झोंपड़ी को हटाना।
8. बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर, उन्होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्जा करा लिया और विधवा को वहां से निकाल दिया।
9. विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर झोंपड़ी के पास क्या लेने गई थी?- एक टोकरी मिट्टी
10. महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ महाराज क्षमा करें तो एक विनती है। - विधवा का कथन
11. झोंपड़ी छुटने से किसका खाना-पीना छुट गया। – पोती का
12. महाराज नाराज न हों, आपसे एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ीं है। उसका भार आप जन्म-भर कैसे उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए। - विधवा का कथन
13. उपर्युक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गर्इं। कृतकर्म का पश्चा्ताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।
2. चंद्रदेव से मेरी बातें
लेखिका परिचय
राजेन्द्र बाला घोष (बंग महिला) (1882 -1951)
उनका जन्म 1882 में वाराणसी में हुआ था। आपके पिता का नाम रामप्रसन्न घोष तथा माताजी का नाम नीदरवासिनी घोष था। उनका परिवार वाराणसी का एक प्रतिष्ठित बंगाली परिवार था। आपके पूर्वज बंगाल से आकर वाराणसी में बस गए थे। बचपन में उन्हें 'रानी' और 'चारुबाला' के नाम से पुकारा जाता था। उनप्रारम्भिक शिक्षा अपनी माताजी के संरक्षण में हुई। आपका विवाह पूर्णचन्द्र देव के साथ हुआ था।
आप एक साहित्यिक रुचि वाली महिला थीं। 1904 से 1917 तक बंग महिला की रचनाएँ विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। इसी बीच अपने दो बच्चों के असमय निधन और 1916 में पति के देहान्त से वे बुरी तरह टूट गईं। इन आघातों के कारण आपकी वाणी मौन हो गई और सृजन भी बन्द हो गया। 24 फरवरी 1951 को मिरजापुर में आपका देहान्त हो गया।
प्रमुख कृतियाँ -: चंद्रदेव से मेरी बातें 1904, कुंभ में छोटी बहू 1906, दुलाईवाली 1907, भाई-बहन (1908), दलिया 1909, हृदय परीक्षा, मन की दृढ़ता, आदि उनकी कहानियाँ हैं।
*महत्वपूर्ण बिंदु*
आप बंगला में 'प्रवासिनी' के नाम से लिखती थीं।
आप हिंदी भाषा में 'बंग महिला' के नाम से लिखती थीं।
इनकी प्रमुख कहानी दुलाईवाली है जो 1907 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
जोधाबाई, अबुल फजल, बैकुण्ठ दास, उनके द्वारा लिखित जीवनी साहित्य है।
इनकी कहानी संग्रह का नाम 'कुसुम' है।
इन्हें बंग महिला के नाम से डा. रामचंद्र शुक्ल ने संबोधित करना प्रारम्भ किया।
चंद्रदेव से मेरी बातें (1904) : राजेन्द्र बाला घोष (बंग महिला)
कहानी परिचय
कहानीकार - राजेन्द्र बाला घोष (बंग महिला)
प्रकाशन वर्ष – 1904
प्रकाशन पत्रिका – सरस्वती
पात्र- भगवान चंद्रदेव
शैली – पत्रात्मक।
उद्देश्य / विषय- चंद्रदेव के माध्यम से लार्ड कर्जन पर व्यंग तथा देश की बदहाल आर्थिक दशा व देश में फैली बेरोजगारी का चित्रण।
कहानी
भगवान चन्द्रदेव! आपके कमलवत् कोमल चरणों में इस दासी का अनेक बार प्रणाम। आज मैं आपसे दो चार बातें करने की इच्छा रखती हूँ। देखो, सुनी अनसुनी-सी मत कर जाना। अपने बड़प्पन की ओर ध्यान देना। अच्छा, कहती हूँ, सुनों!
मैं सुनती हूँ, आप इस आकाश मंडल में चिरकाल से वास करते हैं। क्या यह बात सत्य हैं? यदि सत्य है, तो मैं अनुमान करती हूँ कि इस सृष्टि के साथ ही साथ अवश्य आपकी भी सृष्टि हुई होगी। तब तो आप ढेर दिन के पुराने, बूढ़े कहे जा सकते हैं। यह क्यों? क्या आपका डिपार्टमेण्ट (महकमे) में ट्रांसफ़र (बदली) होने का नियम नहीं हैं? क्या आपकी ‘गवरमेण्ट’ पेंशन भी नहीं देती? बड़े खेद की बात हैं? यदि आप हमारी न्यायशीलता ‘गवर्नमेण्ट’ के किसी विभाग में सर्विस (नौकरी) करते होते तो अब तक आपकी बहुत कुछ पदोन्नति हो गई होती। और ऐसी ‘पोस्ट’ पर रहकर भारत के कितने ही सुरम्य नगर, पर्वत, जंगल और झाड़ियों में भ्रमण करते। अंत में इस वृद्ध अवस्था में पेंशन प्राप्त कर काशी जैसे पुनीत और शान्ति-धाम में बैठकर हरी नाम स्मरण करके अपना परलोक बनाते। यह हमारी बड़ी भारी भूल हुई। भगवान चंद्रदेव! क्षमा कीजिए, आप तो अमर है; आपको मृत्यु कहाँ? तब परलोक बनाना कैसा? ओ हो! देवता भी अपनी जाति के कैसे पक्षपाती होते हैं। देखो न ‘चंद्रदेव’ को अमृत देकर उन्होंने अमर कर दिया – तब यदि मनुष्य होकर अंग्रेज अपने जातिवालों का पक्षपात करें तो आश्चर्य ही क्या है? अच्छा, यदि आपको अंग्रेज जाति की सेवा करना स्वीकार हो तो, एक ‘एप्लिकेशन’ (निवेदन पत्र ) हमारे आधुनिक भारत प्रभु लार्ड कर्जन के पास भेज देवें। आशा है कि आपको आदरपूर्वक अवश्य आह्वान करेंगे। क्योंकि आप अधम भारतवासियों के भांति कृष्णांग तो हैं ही नहीं, जो आपको अच्छी नौकरी देने में उनकी गौरांग जाति कुपित हो उठेगी। और फिर, आप तो एक सुयोग्य, कार्यदक्ष, परिश्रमी, बहुदर्शी, कार्यकुशल और सरल स्वभाव महात्मा हैं। मैं विश्वास करती हूँ, कि जब लार्ड कर्ज़न हमारे भारत के स्थायी भाग्य विधाता बनकर आवेंगे, तब आपको किसी कमीशन का मेम्बर नहीं तो किसी मिशन में भरती करके वे अवश्य ही भेज देवेंगे क्योंकि उनको कमिशन और मिशन, दोनों ही, अत्यंत प्रिय हैं। आपके चंद्रलोक में जो रीति और नीति सृष्टि के आदि काल में प्रचलित थे वे ही सब अब भी हैं। पर यहाँ तो इतना परिवर्तन हो गया है कि भूत और वर्तमान में आकाश पाताल का सा अंतर हो गया है। मैं अनुमान करती हूँ कि आपके नेत्रों की ज्योति भी कुछ अवश्य ही मंद पड़ गई होगी। क्योंकि आधुनिक भारत संतान लड़कपन से ही चश्मा धारण करने लगी है; इस कारण आप हमारे दीन, हीन, क्षीणप्रभ भारत को उतनी दूर से भलीभाँति न देख सकते होंगे। अतएव आपसे सादर कहती हूँ कि एक बार कृपाकर भारत को देख तो जाइए यद्यपि इस बात को जानती हूँ कि आपको इतना अवकाश कहाँ? पर आठवें दिन नहीं, तो महीने में एक दिन, अर्थात् अमावस्या को, तो आपको ‘हॉलिडे’ (छुट्टी) अवश्य ही रहती है। यदि आप उस दिन चाहें तो भारत भ्रमण कर जा सकते हैं।
इस भ्रमण में आपको कितने ही नूतन दृश्य देखने को मिलेंगे जिसे सहसा देख कर आपकी बुद्धि जरूर चकरा जायेगी । यदि आपसे सारे हिन्दोस्तान का भ्रमण शीघ्रता के कारण न हो सके तो केवल राजधानी कलकत्ता को देख लेना तो अवश्य ही उचित है। वहाँ के कल कारखानों को देखकर आपको यह अवश्य ही कहना पड़ेगा कि यहाँ के कारीगर तो विश्वकर्मा के भी लड़कदादा निकले। यही क्यों, आपकी प्रिय सहयोगिनी दामिनों, जो मेघों पर आरोहण करके आनंद से अठखेलियां किया करती हैं वह बेचारी भी यहाँ मनुष्य के हाथों का खिलौना हो रही है। भगवान निशानाथ! जिस समय आप अपनी निर्मल चन्द्रिका को बटोर मेघमाला अथवा पर्वतों की ओट से सिन्धु के गोद में जा सकते हैं, उस समय यही नीरद – वासनी, विश्वमोहिनी, सौदामिनी, अपनी उज्ज्वल मूर्ति से आलोक प्रदान कर, रात को दिन बना देती है। आपके देवलोक में जितने देवता हैं उनके वाहन भी उतने हैं – किसी का गज, किसी का हंस, किसी का बैल किसी का चूहा इत्यादि । पर यहाँ तो सारा बोझ आपकी चपला और अग्निदेव के माथे मढ़ा गया है। क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय, क्या वैश्य, क्या शूद्र, क्या चाण्डाल, सभी के रथों का वाहन वही हो रही है। हमारे श्वेतांग महाप्रभु गण को, जहाँ पर कुछ कठिनाई का सामना आ पड़ा, झट उन्होंने ‘इलेक्ट्रिसिटी’ (बिजली) को ला पटका। बस कठिन से कठिन कार्य सहज में सम्पादन कर लेते हैं। और हमारे यहाँ के उच्च शिक्षा प्राप्त युवक काठ के पुतलों की भाँति मुँह ताकते रह जाते हैं। जिस व्योमवासिनी विद्युत देवी को स्पर्श तक करने का किसी व्यक्ति का साहस नहीं हो सकता, वही आज पराये घर में आश्रिता नारियों की भाँति ऐसे दबाव में पड़ी है, कि वह चूं तक नहीं कर सकती क्या करें? बेचारी के भाग्य में विधाता ने दासी-वृत्ति ही लिखा था। हरिपदोद्भवा त्रैलोक्यपावनी सुरसरी के भी खोटे दिन आये हैं, वह भी अब स्थान-स्थान में बन्धनग्रस्त हो रही है। उसके वक्षस्थल पर जहाँ तहाँ मोटे वृहदाकार खम्भ गाड़ दिए गए हैं।
कलकत्ता आदि को देखकर आपके देवराज सुरेन्द्र भी कहेंगे कि हमारी अमरावती तो इसके आगे निरी फीकी सी जान पड़ती है। वहाँ ईडन गार्डन तो पारिजात परिशोभित नन्दन कानन को भी मात दे रहा है। वहाँ के विश्वविद्यालय के विश्वश्रेष्ठ पंडितों की विश्वव्यापिनी विद्या को देखकर वीणापाणि सरस्वती देवी भी कहने लग जाएगी, कि निःसंदेह इन विद्या दिग्गजों की विद्या चमत्कारिणी हैं। वहीं के फोर्ट विलियम के फौजी सामान को देखकर, आपके देव सेनापति कार्तिकेय बाबू के भी छक्के छूट जायेंगे क्योंकि देव सेनापति महाशय देखने में खास बंगाली बाबू से जँचते हैं। और उनका वाहन भी एक सुन्दर मयूर है। बस इससे, उनके वीरत्व का भी परिचय खूब मिलता है। वहाँ के मिंट (टकसाल) को देखकर सिंधुतनया आपकी प्रिय सहोदरा कमला देवी तथा कुबेर भी अकचका जायेंगे। भगवान चंद्र देव! इन्हीं सब विश्वम्योत्पादक अपूर्व दृश्यों का अवलोकन करने के हेतु आपको सादर निमंत्रित तथा सविनय आहूत करती हूँ। सम्भव है कि यहाँ आने से आपको अनेक लाभ भी हों आप जो अनादी काल से निज उज्ज्वल वपु में कलंक की कालिमा लेपन करके कलंकी शशांक, शशधर, शाशालांछन आदि उपाधि-मालाओं से भूषित हो रहे हैं। सिन्धु तनय होने पर भी जिस कालिमा को आप आज तक नहीं धो सके हैं, वहीं आजन्म-कलंक शायद यहाँ के विज्ञानविद पण्डितों की चेष्टा से छूट जाए। जब बम्बई में स्वर्गीय महारानी विक्टोरिया देवी की प्रतिमूर्ति से काला दाग छुड़ाने में प्रोफेसर गज्जर महाशय फलीभूत हुए हैं, तब क्या आपके मुख की कालिमा छुड़ाने में वे फलीभूत न होंगे ।
शायद आप पर यह बात भी अभी तक विदित नहीं हुई कि आप और आपके स्वामी सूर्य भगवान पर जब हमारे भूमण्डल की छाया पड़ती हैं, तभी आप लोगों पर ग्रहण लगता है। पर आप का तो अब तक, वही पुराना विश्वास बना हुआ है कि जब कुटिल ग्रह राहु आपको निगल जाता है तभी ग्रहण होता है। पर ऐसा थोथा विश्वास करना आप लोगों की भारी भूल है। अत: हे देव! मैं विनय करती हूँ कि आप अपने हृदय से इस भ्रम को जड़ से उखाड़ कर फेंक दें ।
अब भारत में न तो आपके, और न आपके स्वामी भुवनभास्कर सूर्य महाशय के ही वंशधरों का साम्राज्य है और न अब भारत की वह शस्यश्यामला स्वर्ण प्रसूतामूर्ति ही है। अब तो आप लोगों के अज्ञात, एक अन्य द्वीपवासी परम शक्तिमान गौरांग महाप्रभु इस सुविशाल भारत-वर्ष का राज्य वैभव भोग रहे हैं। अब तक मैंने जिन बातों का वर्णन आपसे स्थूल रूप में किया वह सब इन्हीं विद्या विशारद गौरांग प्रभुओं के कृपा कटाक्ष का परिणाम है। यों तो यहाँ प्रति वर्ष पदवी दान के समय कितने ही राज्य विहीन राजाओं की सृष्टि हुआ करती है, पर आपके वंशधारों में जो दो चार राजा महाराजा नाम-मात्र के हैं भी, वे काठ के पुतलों की भांति हैं। जैसे उन्हें उनके रक्षक नचाते हैं, वैसे ही वे नाचते हैं। वे इतनी भी जानकारी नहीं रखते कि उनके राज्य में क्या हो रहा है-उनकी प्रजा दुखी है,या सुखी ?
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अच्छा, अब मैं आपसे विदा होती हूँ। मैंने तो आपसे इतनी बातें कही, पर खेद है, आपने उनके अनुकूल या प्रतिकूल एक बात का भी उत्तर न दिया। परन्तु आपके इस मौनावलम्बन को मैं स्वीकार का सूचक समझती हूँ। अच्छा, तो मेरी प्रार्थना को कबूल करके एक दफा यहां आइएगा जरूर।
–बंग महिला (राजेन्द्रबाला घोष), सरस्वती 1904
*मुख्य बिंदु/कथन*
1. अंग्रेज जाति किओ सेवा करना हो तो एप्लीकेशन (निवेदन पत्र) किसे भेजे? – आधुनिक भारत प्रभु लॉर्ड कर्जन को।
2. कृष्णांग जाति – भारतवासियों को।
3. गौरांग जाति – अंग्रेजों को।
4. लॉर्ड कर्जन भारत के क्या बनकर आए थे- स्थायी भाग्यविधाता।
5. आपके चंद्रलोक में जो रीति और नीति सृष्टि के आदिकाल में प्रचलित थे वे सब अब भी हैं।
6. इतना परिवर्तन हो गया है कि भुत और वर्तमान में आकाश पातळ सा अंतर हो गया है।
7. लॉर्ड कर्जन भारत का किस दिन भ्रमण करने जा सकते हैं- अमावस्या को।
8. लॉर्ड कर्जन को भारत में विशेष रूप से किस स्थान का भ्रमण करने को कहा गया- केवल राजधानी कलकत्ता का।
9. आपकी प्रिय सहयोगिनी दामिनों, जो मेघों पर आरोहन करके आनंद से अठखेलियाँ किया करती है वह बेचारी भी यहाँ मनुष्य के हाथों का खिलौना हो रही हैं।
10. भारत का उच्च शिक्षा प्राप्त युवक किस के भांति है- काठ के पुतलों की भांति।
11. कलकत्ता को देखकर देवराज सुरेन्द्र(चंद्रदेव) ने क्या कहा- अमरावती तो कलकत्ता आगे फीकी लगती है, ईडन गार्डन तो नंदन कानन को भी मात दे रहा है।
12. भगवान चंद्रदेव भारत भ्रमण करने के लिए आएं तो किसको साथ लेकर आएं?- फैमिली डॉक्टर धन्वन्तरी महाशय को और देवताओं के चीफ जस्टिस चित्रगुप्तजी को।
13. कलकत्ता में कौन-सा रोग फैल रहा था - प्लेग।
14. श्वेतांग महाप्रभु गण – भारतवासियों के लिए।
15. सुयोग्य, कार्यदक्ष, परिश्रमी, बहुदर्शी, कार्यकुशल और सरल स्वाभाव महात्मा- लॉर्ड कर्जन।
3. दुलाईवाली (1907) राजेंद्रबाला घोष (बंग महिला)
कहानी परिचय
कहानीकार - राजेन्द्र बाला घोष (बंग महिला)
प्रकाशन वर्ष – 1907
प्रकाशन पत्रिका – सरस्वती
पात्र- वंशीधर (इलाहाबाद निवासी),
जानकीदेई (वंशीधर की पत्नी,गृहस्त महिला),
नवलकिशोर (वंशीधर का ममेरा भाई हंसमुख व्यक्ति),
नवलकिशोर की पत्नी,
सीता (जानकीदेई की बहन, वंशीधर की साली)
वंशीधर की सास,
वंशीधर का साला,
इक्केवाला,
लाठिवान रेल में एक यात्री ।
शैली – मनोरंजन प्रधान।
उद्देश्य / विषय- काशी और उसके आस-पास के जन जीवन व स्त्री-पुरुष के सोच तथा मनोभावों का स्वाभाविक चित्रण । कहानी में देशी धोती और विलायती धोती के माध्यम से अंग्रेजी पहनावे व वस्त्रों के उपयोग पर व्यंग किया गया है।
कहानी
(एक)
काशी जी के दशाश्वमेध घाट पर स्नान करके एक मनुष्य बड़ी व्यग्रता के साथ गोदौलिया की तरफ़ आ रहा था। एक हाथ में मैली-सी तौलिया से लपेटी हुई भीगी धोती और दूसरे में सुरती की गोलियों की कई डिबियाँ और सुँघनी की एक पुड़िया थी। उस समय दिन के ग्यारह बजे थे। गोदौलिया की बाईं तरफ़ जो गली है, उसके भीतर एक और गली में थोड़ी दूर पर, एक टूटे मकान से पुराने मकान में वह जा घुसा। मकान के पहले खंड में बहुत अँधेरा था, पर ऊपर की जगह मनुष्य के वासोपयोगी थी। नवागत मनुष्य धड़धड़ाता हुआ ऊपर चढ़ गया। वहाँ एक कोठरी में हाथ की चीजें रख दीं और ‘सीता! सीता' कहकर पुकारने लगा।
क्या है?
कहती हुई एक दस बरस की बालिका आ खड़ी हुई। तब उस पुरुष ने कहा, सीता! ज़रा अपनी बहन को बुला ला।
अच्छा,
कहकर सीता चली गई और कुछ देर में एक नवीना स्त्री आकर उपस्थित हुई। उसे देखते ही पुरुष ने कहा, लो, हम लोगों को तो आज ही जाना होगा।
इस बात को सुनकर स्त्री कुछ आश्चर्ययुक्त होकर और झुँझलाकर बोली, ''आज ही जाना होगा! यह क्यों? भला आज कैसे जाना हो सकेगा? ऐसा ही था तो सबेरे भैया से कह देते। तुम तो जानते हो कि मुँह से कह दिया; बस छुट्टी हुई। लड़की कभी विदा की होती तो मालूम पड़ता। आज तो किसी सूरत में जाना नहीं हो सकता।"
तुम आज कहती हो! हमें तो अभी जाना है। बात यह है कि आज ही नवलकिशोर कलकत्ते से आ रहे हैं। आरे से अपनी नई बहू को भी साथ ला रहे हैं। सो उन्होंने हमें आज ही जाने के लिए इसरार किया है। हम सब लोग मोगलसराय से साथ ही इलाहाबाद चलेंगे। उनका तार मुझे घर से निकलते ही मिला। इसी से मैं झट नहा-धोकर लौट आया। बस अब करना ही क्या है? कपड़ा-वपड़ा जो कुछ हो बाँध-बूँधकर, घंटे-भर में खा-पीकर, चली चलो। जब हम तुम्हें विदा कराने आए ही हैं, तब कल के बदले आज ही सही।
हाँ यह बात है! नवल जो चाहे करावें। क्या एक ही गाड़ी में न जाने से दोस्ती में बट्टा लग जाएगा? अब तो किसी तरह रुकोगे नहीं, ज़रूर ही उनके साथ जाओगे। पर मेरे तो नाकों दम आ जाएगी!
''क्यों किस बात से?"
''उनकी हँसी से और किससे! हँसी-ठट्ठा राह में अच्छी लगती है? उनकी हँसी मुझे नहीं भाती। एक रोज़ मैं चौके में बैठी पूड़ियाँ काढ़ रही थी, कि इतने में न जाने कहाँ से आकर नवल चिल्लाने लगे-- ए बुआ! ए बुआ! देखा तुम्हारी बहू पूड़ियाँ खा रही है--मैं तो मारे शरम के मर-सी गई। हाँ, भाभी जी ने बात उड़ा दी सही। वह बोलीं, खाने दो, खाने-पहनने के लिए तो आई ही है। पर मुझे उनकी हँसी बहुत बुरी लगी।"
बस इसी से उनके साथ नहीं जाना चाहतीं? अच्छा चलो, मैं नवल से कह दूंगा कि बेचारी कभी रोटी तक तो खाती ही नहीं, पूड़ी क्यों खाने लगी।
इतना कहकर वंशीधर कोठरी के बाहर चले आए और बोले, मैं तुम्हारे भैया के पास जाता हूँ। तुम रो-रुलाकर तैयार हो जाना।
इतना सुनते ही जानकीदेई की आँखें भर आईं और असाढ़-सावन की ऐसी झड़ी लग गई।
(दो)
वंशीधर इलाहाबाद के रहने वाले हैं। बनारस में ससुराल है। स्त्री को विदा कराने आए हैं। ससुराल में एक साले, साली और सास के सिवाय और कोई नहीं है। नवलकिशोर इनके दूर के नाते में ममेरे भाई हैं। पर दोनों में नाते से मित्रता का ख़याल अधिक है। दोनों में गहरी मित्रता है। दोनों एक जान, दो क़ालिब हैं।
उसी दिन वंशीधर का जाना स्थिर हो गया। सीता, बहन के संग जाने के लिए रोने लगी। माँ रोती-धोती लड़की को विदा की सामग्री इकट्ठी करने लगी। जानकीदेई भी रोती-ही-रोती तैयार होने लगी। कोई चीज़ भूलने पर धीमी आवाज़ से माँ को याद भी दिलाती गई। एक बजने पर स्टेशन जाने का समय आया। अब गाड़ी या इक्का लाने कौन जाए? ससुरालवालों की अवस्था अब आगे की-सी नहीं थी कि दो-दो, चार-चार नौकर-चाकर हर समय बने रहें। सीता के बाप के न रहने से काम बिगड़ गया है। पैसेवाले के यहाँ नौकर-चाकरों के सिवा और भी दो-चार खुशामदी घेरे रहते हैं। छूछे को कौन पूछे? एक कहारिन है; सो भी इस समय कहीं गई है। सालेराम की तबीयत अच्छी नहीं। वह हर घड़ी बिछौने से बातें करते हैं। तिस पर भी आप कहने लगे, मैं ही धीरे-धीरे जाकर कोई सवारी ले आता हूँ। नज़दीक तो है।
वंशीधर बोले, नहीं, नहीं, तुम क्यों तकलीफ़ करोगे? मैं ही जाता हूँ।
जाते-जाते वंशीधर बिचारने लगे कि इक्के की सवारी तो भले घर की स्त्रियों के बैठने लायक़ नहीं होती, क्योंकि एक तो उतने ऊँचे पर चढ़ना पड़ता है। दूसरे, पराए पुरुष के संग एक साथ बैठना पड़ता है। मैं एक पालकी गाड़ी ही कर लूँ। उसमें सब तरह का आराम रहता है। पर जब गाड़ीवालों ने डेढ़ रुपया किराया माँगा, तब वंशीधर ने मन में कहा-- चलो इक्का ही सही। पहुँचने से काम। कुछ नवलकिशोर तो यहाँ साथ हैं नहीं। इलाहाबाद में देखा जाएगा।
वंशीधर इक्का ले आए और जो कुछ असबाब था, इक्के पर रखकर आप भी बैठ गए। जानकीदेई बड़ी विकलता से रोती हुई इक्के पर जा बैठी। पर इस अस्थिर संसार में स्थिरता कहाँ? यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं। इक्का जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, वैसे-ही-वैसे जानकी की रुलाई भी कम होती गई। सिकरौल के स्टेशन के पास पहुँचते-पहुँचते जानकी अपनी आँखें अच्छी तरह पोंछ चुकी थी।
दोनों चुपचाप चले जा रहे थे कि अचानक वंशीधर की नज़र अपनी धोती पर पड़ी; और अरे एक बात तो हम भूल ही गए
कहकर पछता-सा उठे। इक्केवाले के कान बचाकर जानकी ने पूछा, क्या हुआ? क्या कोई ज़रूरी चीज़ भूल आए?
नहीं, एक देशी धोती पहनकर आना था, सो भूलकर विलायती ही पहिन आए। नवल कट्टर स्वदेशी हुए हैं न? वह बंगालियों से भी बढ़ गए हैं। देखेंगे दो-चार सुनाए बिना न रहेंगे। और, बात भी ठीक है। नाहक विलायती चीज़ें मोल लेकर क्यों रुपए की बरबादी की जाए? देशी लेने से भी दाम लगेगा सही; रहेगा तो देश ही में ।
जानकी ज़रा भौहें टेढ़ी करके बोली, ऊँह, धोती तो धोती, पहिनने से काम। क्या यह बुरी है?
इतने में स्टेशन के कुलियों ने आ घेरा। वंशीधर एक कुली करके चले। इतने में इक्केवाले ने कहा, ''इधर से टिकट लेते जाइए। पुल के उस पार तो ड्योढ़े दरजे का टिकट मिलता है।"
वंशीधर फिरकर बोले, अगर ड्योढ़े दरजे ही का टिकट लूँ तो?
इक्केवाला चुप हो गया। इक्के की सवारी देखकर इसने ऐसा कहा
—यह कहते हुए वंशीधर आगे बढ़े। यथासमय रेल पर बैठकर वंशीधर राजघाट पार करके मुग़लसराय पहुँचे। वहाँ पर पुल लाँघकर दूसरे प्लेटफ़ॉर्म पर जा बैठे। आप नवल से मिलने की ख़ुशी में प्लेटफ़ॉर्म की इस छोर से उस छोर तक टहलते रहे। देखते-देखते गाड़ी का धुआँ दिखलाई पड़ा। मुसाफ़िर अपनी गठरी सँभालने लगे। रेलदेवी भी अपनी चाल धीमी करती हुई गंभीरता से आ खड़ी हुई। वंशीधर एक बार चलती गाड़ी ही में शुरू से आख़िर तक देख गए, पर नवल का कहीं पता नहीं। वंशीधर फिर सब गाड़ियों को दोहरा गए, तेहरा गए; भीतर घुस-घुसकर एक-एक डिब्बे को देखा, किंतु नवल न मिले। अंत को आप खिजला उठे और सोचने लगे कि मुझे तो वैसी चिट्ठी लिखी और आप न आया। मुझे अच्छा उल्लू बनाया, अच्छा जाएँगे कहाँ? भेंट होने पर समझ लूँगा। सबसे अधिक सोच तो इस बात का था कि जानकी सुनेगी तो ताने पर ताना मारेगी। पर अब सोचने का समय नहीं। रेल की बात ठहरी। वंशीधर झट गए और जानकी को लाकर जनानी गाड़ी में बिठाया। वह पूछने लगी, नवल की बहू कहाँ है?
वह नहीं आए, कोई अटकाव हो गया।
कहकर आप बग़ल वाले कमरे में जा बैठे। टिकट तो ड्योढ़े का था, पर ड्योढ़े दरजे का कमरा कलकत्ते से आने वाले मुसाफ़िरों से भरा था। इसलिए तीसरे ही दरजे में बैठना पड़ा। जिस गाड़ी में वंशीधर बैठे थे, उसके सब कमरों में मिलाकर कुल दस ही बारह स्त्री-पुरुष थे। समय पर गाड़ी छूटी। नवल की बातें और न जाने क्या अगड़-बगड़ सोचते-सोचते गाड़ी कई स्टेशन पार करके मिरजापुर पहुँची।
(तीन)
मिरजापुर में पेटराम की शिकायत शुरू हुई। उसने सुझाया कि इलाहाबाद पहुँचने में अभी देरी है। चलने के झंझट में अच्छी तरह उसकी पूजा किए बिना ही वंशीधर ने बनारस छोड़ा था। इसलिए आप झट प्लेटफ़ॉर्म पर उतरे; और पानी के बंबे से हाथ-मुँह धोकर, एक खोमचेवाले से थोड़ी-सी ताज़ी पूड़ियाँ और मिठाई लेकर, निराले में बैठ आपने उन्हें ठिकाने पहुँचाया। पीछे से जानकी की सुध आई। सोचा कि पहले पूछ लें, तब कुछ मोल लेंगे, क्योंकि स्त्रियाँ नटखट होती हैं। वह रेल पर खाना नहीं पसंद करतीं। पूछने पर वही बात हुई। तब वंशीधर लौटकर अपने कमरे में आ बैठे। यदि वह चाहते तो वे इस समय ड्योढ़े में बैठ जाते, क्योंकि अब भीड़ कम हो गई थी। पर उन्होंने कहा, थोड़ी देर के लिए कौन बखेड़ा करे।
वंशीधर अपने कमरे में बैठा तो दो-एक मुसाफ़िर अधिक दीख पड़े। आगे वाले में से एक उतर भी गया था। जो लोग थे सब तीसरे ही दरजे के योग्य ही जान पड़ते थे, अधिक सभ्य कोई थे तो वंशीधर ही थे। उनके कमरे में पास वाली जगह में एक भले घर की स्त्री बैठी थी। वह बेचारी सिर से पैर तक ओढ़े, सिर झुकाए, एक हाथ लंबा घूँघट काढ़े, कपड़े की गठरी-सी बनी बैठी थी। वंशीधर ने सोचा इनके संग वाले भद्र पुरुष के आने पर उनके साथ बातचीत करके समय बिताएँगे। एक-दो करके तीसरी घंटी बजी। तब वह स्त्री कुछ अचकचाकर, थोड़ा-सा मुँह खोल जंगले के बाहर देखने लगी। ज्यों ही गाड़ी छूटी, वह मानो काँप-सी उठी। रेल का देना-लेना तो हो ही गया था। अब उसको किसी की क्या परवाह, अपनी स्वाभाविक गति से चलने लगी। प्लेटफ़ॉर्म पर भीड़ भी न थी। केवल दो-चार आदमी रेल की अंतिम विदाई तक खड़े थे। जब तक स्टेशन दिखलाई दिया तब तक वह बाहर ही देखती रही। फिर अस्पष्ट स्वर से रोने लगी। उस कमरे में तीन-चार प्रौढ़ा ग्रामीण स्त्रियाँ भी थीं। एक, जो उनके पास ही थी, कहने लगी, अरे इनकर मनई तो नाहीं आईलेन। हो देख हो रोवल करथईन।
दूसरी, अरे दुसर गाड़ी में बैठा होंइहैं।
पहली, दुर वौरही! ई जनानी गाड़ी थोड़े है।
दूसरी, तऊ हो भलू तो कहू।
कहकर दूसरी भद्र महिला से पूछने लगी, कौने गाँव उतरबू बेटा! मीरजैपूरा चढ़ी हऊ न? इसके जवाब में उसने जो कहा, वह सुन न सकी। तब पहली बोली, ''हट हम पुंछिला न, हम कहा काहाँ उतरबू हो? आँय ईलाहाबास?
दूसरी, ईलाहाबास कौन गाँव ही गोइंयाँ?
पहली, अरे नाही जनलँ? पैयाग जी, जाहाँ मनइ मकर नाहाए जाला।
दूसरी, भला पैयाग जी काहे न जानीथ; ले, कहैके नाहीं, तोहरे पंच के धरम से चार दाँई नहाए चुकी हंइ। ऐसों हो सोमवारी, अउर गहन, दका, दका, लाग रहा तउन तोहरे काशी जी नाहाय गई रहे।
पहली, "आवै जाए के तो सब अऊते जात बटले बाटेन।