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Asabhyata Ka Akraman (असभ्यता का आक्रमण)
Asabhyata Ka Akraman (असभ्यता का आक्रमण)
Asabhyata Ka Akraman (असभ्यता का आक्रमण)
Ebook651 pages6 hours

Asabhyata Ka Akraman (असभ्यता का आक्रमण)

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यह उपन्यास इतिहास नही है पर इतिहास के कई प्रश्नों का उत्तर तलाश करने की कोशिश इस पुस्तक द्वारा की गयी है। सिंध के इतिहास से प्रारम्भ होकर मुगलों के पतन तक की कथा के बहाने ‘असभ्यता का आक्रमण' के एक बिलकुल नये रूप जिसका प्रवर्तक शाह वलीउल्ला देहलवी था उसकी ओर भी यह उपन्यास संकेत करता है। इतिहास के अनखुले पृष्ठ खोलने के लिए अपरिमित साहस और श्रम की आवश्यकता होती, मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि ऐसे साहस और श्रम की लेखक अरविंद पथिक में रंच मात्र भी कमी नहीं है। सिर्फ हिंदी साहित्य अपितु प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास की कड़ियों को तलाशने के लिए उत्सुक शोधार्थियों के लिए भी यह उपन्यास सन्दर्भ के नए सूत्र खोलेगा।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateMar 24, 2023
ISBN9789356842625
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    Asabhyata Ka Akraman (असभ्यता का आक्रमण) - Arvind Pathik

    ..1..

    वलीउल्ला का ज़िक्र

    तीन वर्ष पूर्व जब अरुण शर्मा नये-नये एसोसिएट प्रोफेसर बने थे। वे ‘अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति’ विषय पर पीएच.डी. करना चाहते थे। उनकी नियुक्ति भले ही प्राचीन इतिहास को पढ़ाने के लिए हुई थी पर एम.फिल. में उनके लघु शोध प्रबंध का विषय ‘अट्ठारह सौ सत्तावन - विप्लव या क्रांति’ था। यों तो प्राचीन इतिहास के विद्यार्थी अरुण को इतिहास के अतिरिक्त साहित्य में भी रुचि थी पर भारत की बहुलवादी संस्कृति जिसे बहुत से लोग गंगा-जमनी तहजीब कहते हैं, में अरुण की गहरी आस्था थी, पर कई बार छोटी-छोटी बातें मनुष्य के न सिर्फ सोचने विचारने की अपितु जीवन की दिशा बदलने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ऐसा ही कुछ आज काॅलेज के स्टाफ रूम में हुई छोटी-सी घटना से हुआ। हुआ यूँ कि स्टाफ रूम में हारून अली और ताहिर हुसैन के बीच किसी विषय पर जोरदार बहस चल रही थी।

    इससे पहले कि अरुण बहस का सिर-पैर कुछ भी समझ पाते, हारून अली ने, अरुण से ही पूछ लिया- आप ही बताइए शर्मा जी! पाकिस्तान किसने बनवाया?

    अचानक से पूछा गया यह प्रश्न अरुण के लिए जितना अप्रत्याशित था उतना ही अप्रत्याशित उसका जबाव हारुन अली के लिए भी था। उम्मीद के विपरीत अरुण ने एक भी पल गंवाए बिना जबाव दिया था– उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमानों ने।

    हारून अली ने क्षीण-सा प्रतिवाद किया– नहीं! ऐसा नहीं है।

    पर आज अरुण पता नहीं किस मूड में था, हारून अली की बात को बीच में ही काट कर बोला– यू.पी., बिहार के निन्यानवे प्रतिशत मुसलमानों ने 1946 में विभाजन के पक्ष में वोट दिया था, सर।

    हारून अली ने फिर प्रतिवाद किया- नहीं देवबंदियों ने विभाजन का विरोध किया था।

    आप सही कहते हैं हारून सर! देवबंदियों ने विरोध किया था विभाजन का और मौलाना आज़ाद ने तो जामा मस्जिद के मिम्बर से तकरीर कर मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोका भी था पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश को छोड़ कर बाकी देश में देवबंदी थे कितने? अहले हदीस और बरेलवी मदरसे से ताल्लुक रखने वाले कट्टरपंथियों की- ‘पाकिस्तान- पाकिस्तान’ के शोर में देवबंदियों की आवाज़ कहाँ और कब गुम हो गई, ये किसी को पता नहीं चला और विडंबना देखिये जिन्होंने पाकिस्तान बनवाया उनमें से ज़्यादातर पाकिस्तान गये ही नहीं। जहाँ तक देवबंदियों द्वारा विभाजन का विरोध करने का प्रश्न है तो उनका विरोध इसलिए नहीं था कि वे बड़े देशभक्त थे बल्कि वे पूरे हिंदुस्तान की सत्ता पर कब्जा कर उसे दारुल इस्लाम बनाना चाहते थे। देवबंदियों और बाकी मुसलमानों में विरोध उद्देश्य को लेकर नहीं अपितु भारत को इस्लामी मुल्क बनाने के तौर-तरीके से था मौलाना आज़ाद और मुहम्मद अली जिन्ना में बुनियादी रूप से कोई फर्क नहीं था दोनों ही हिंदुस्तान को दारुल इस्लाम बनाना चाहते थे। मौलाना केन्द्रीय सत्ता पर कब्जा करके और जिन्ना टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर।

    कानफोडू बहस की जगह एकदम से सन्नाटा पसर गया। हारून अली ही नहीं, किसी अन्य साथी प्रोफेसर ने भी अरुण से इस तरह के जबाव की उम्मीद नहीं की थी। आज से पहले कभी भी प्रोफेसर को ऐसी कोई भी बात जिसके साथी मुसलमानों को खराब लगने की जरा भी संभावना होती थी, बोलते नहीं सुना गया था। अरुण खुद भी इस परिस्थिति के लिए तैयार नहीं था, पर कमान से अचानक चले तीर की तरह जो बात अब जुबान से निकल गई थी उसे वापस नहीं लाया जा सकता था। फिर भी अरुण ने यह कहते हुए कि अब इतिहास में जो हुआ सो हुआ, हमे तो साथ ही जीना और साथ ही मरना है, कहकर पसर गई ख़ामोशी को तोड़ा। अन्य साथी प्रोफेसर वर्मा और प्रोफेसर भगत भी जो अरुण के आने से पहले बिगड़ती अर्थव्यवस्था से बढ़ती साम्प्रदायिकता तक के लिए सरकार को पानी पी-पी कर कोस रहे थे। अब, हारून अली और प्रोफेसर शर्मा के बीच ‘भारत विभाजन’ पर केन्द्रित हो गई बहस के दर्शक या श्रोता मात्र रह गये थे। कोई भी नहीं समझ पा रहा था कि माहौल में अचानक उतर आई तल्खी को कैसे कम किया जाये? आखिरकार इस तल्खी के बाद फैली चुप्पी को प्रोफेसर अरुण ने ही हारून अली के कंधे पर हाथ मारकर…‘चलो यार छोड़ो भी’ कहाँ हम लोग सामान्य-सी बात को पाॅलिटिक्स तक खींच लाये, कुछ और बात करो’ कहकर एक बार फिर तोड़ने की कोशिश की। प्रोफेसर वर्मा और मिस्टर भगत भी पीरियड का बहाना बनाकर उठ खड़े हुए।

    हारून अली भी- अरे शर्मा जी! इसमें क्या है हम पढ़े-लिखे लोग हैं, हमें इन सब बातों को डिसकस करते रहना चाहिए तभी तो समाज में फ़ैल रही गलतफहमियां दूर होंगी। कहकर तल्ख हो गये माहौल को हल्का करने की कोशिश करता हुआ उठ गया।

    अरुण ने घड़ी देखी शाम के चार बज रहे थे, आज अब कोई और पीरियड भी नहीं था, इसलिए अरुण बैग उठाकर घर की ओर चल दिए। ठसा-ठस भरी मेट्रो में पोल के सहारे खड़े अरुण को वे दिन याद आ रहे थे जब मेट्रो नयी-नयी चली थी। तब सभी को उम्मीद थी कि अब राजधानी की सड़कों पर ट्रैफिक कम होगा। शुरू के कुछ महीनों में ऐसा होता लगा भी, पर साल बीतते-बीतते मेट्रो और सड़कों दोनों की हालत हांफते हुए गधे जैसी हो गई थी। दिल्ली जैसे महानगरों में दूरी किलोमीटर में नहीं घंटों में नापी जाती है। ‘पीक आवर’ में दो किलोमीटर चलने में दो घंटे भी लग सकते हैं। सड़क पर चलने वाली बसों और कारों की ही ऐसी दुर्गति हुई हो ऐसा नहीं है। अब तो मेट्रो जैसे जाम रहित यातायात के साधन भी अक्सर अत्यधिक बोझ से कराहते और रेंगते मिलते हैं। ‘पीक आॅवर’ में मेट्रो में सीट मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं है और ऐसे चमत्कार अरुण के साथ कम ही होते थे। आज भी मेट्रो पकड़ते-पकड़ते शाम के पांच बज गये थे। बस में बैठकर जाम में फसे रहने से मेट्रो में खड़े रहकर सफर करना ज्यादा सुगम और आरामदायक था। इसलिए प्रोफेसर ठसा-ठस भरी मेट्रो में सहयात्रियों के कंधे से कंधा टकराते घुस ही गये। इतनी बुरी तरह भरी होने के बावजूद मेट्रो में शांति थी। ज़्यादातर युवक युवतियां कानों में हेडफोन और ब्लूटूथ युक्त ईयरफोन लगाये कुछ न कुछ सुन या देख रहे थे। कुछ युगल ऐसे भी थे जो इतनी भीड़ के बीच भी मुंह से मुंह सटाए अपनी ही दुनिया में डूब–उतर रहे थे। एक खम्भे से पीठ टिकाये अरुण को कुछ समय पहले ताहिर हुसैन और हारून अली के बीच हुई बहस वाला प्रकरण याद आ गया। उस दिन भी किसी ने नहीं सोचा था कि ताहिर और हारुन के बीच की बहस एकदम से ऐसा मोड़ ले लेगी। दोनों साथ-साथ ही जुमे की नमाज पढ़कर आये थे और आते ही एकदम से भिड़ गये थे।

    हारून का पारा चढ़ता ही जा रहा था- तुम बरेलवियों की जहालत की वज़ह से ही मुसलमान सारी दुनिया में बदनाम हो रहा है। जब हुज़ूर ने कह दिया अल्लाह एक है फिर पीर–फकीरों के आगे, गली-कूचों में बनी दरगाहों के आगे नाक क्यों रगड़ते हो? तुम्हारी वजह से इस्लाम का मजाक बनता है?

    रहने दो हारून मियां, अभी दो पीढ़ी नहीं हुई तुम्हे ईमान लाये और दीन पर लेक्चर तो यूँ पेल रहे हो जैसे आप वलीउल्ला हो।

    प्रोफेसर शर्मा के अचानक आगमन ने मानो धधकती आग पर पानी से भरी बाल्टी उड़ेल दी। हारून और ताहिर दोनों ही एकाएक खामोश हो गये। दो मुसलमान प्रोफेसर और थे जो बीच-बीच में कुछ बोल रहे थे, उन्हें भी मानों प्रोफेसर की अचानक आमद से सांप सूंघ गया था। रूम में घुसते-घुसते भी प्रोफेसर शर्मा ने वलीउल्ला का ज़िक्र सुन लिया था। उन्होने सहज ही पूछ लिया- कौन वलीउल्ला?

    वलीउल्ला बड़े दानिश्वर थे, उनकी बड़ी इज्जत है आलिमों और उलेमाओं के बीच। वलीउल्ला के ख्यालात को ‘फ़िक्र-ए-वलीउल्ला’ के नाम से जाना जाता है। मौलाना नौतनवी को मदरसा देवबंद की स्थापना की प्रेरणा भी दरअसल हजरत वलीउल्ला साहेब से ही मिली। मदरसा देबवन्द की मुल्क को आज़ाद कराने में बड़ी भूमिका रही है, शर्मा जी! आप तो हिस्ट्री के आलिम हो आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि वलीउल्ला की पैदाइश हमारे गाँव के बगल के फुलत कस्बे की थी।

    अरुण प्राचीन इतिहास का विद्यार्थी था पर उसने इतिहास के पन्नों में कहीं भी वलीउल्ला का ज़िक्र नहीं पढ़ा था। आखिर कोई ऐसा व्यक्तित्व जिसकी प्रेरणा से देबबंद जैसा मदरसा जो दुनिया के दो बड़े इस्लामिक केन्द्रों में से एक है, स्थापित किया गया हो उसके बारे में इतिहास मौन कैसे रह सकता है? दूसरी चौकाने वाली बात यह थी कि देश की आज़ादी में जिन मुसलमानों ने नाख़ून कटाने जितना योगदान दिया, उनकी चर्चा ‘शहीदे वतन’ ‘शहीदे आजम’ जैसे विशेषण लगाकर करने वाले मुस्लिम समाज के नेता, विचारक और इतिहासकार आखिर ‘वलीउल्ला की चर्चा कभी क्यों नहीं करते? इसमें कोई तो राज होगा?

    अरुण का जब भी किसी मुसलमान इतिहासकार मित्र या विद्वान से आज़ादी की लड़ाई में मुसलमानों के योगदान की चर्चा हुई तो उसने देवबंद के साठ हजार उलेमाओ की कुर्बानियों का िजक्र जरूर किया। ये अलग बात है कि इतिहास की किसी भी किताब में इन उलेमाओं के बारे में नहीं पढ़ाया जाता। अशफाक उल्ला खान जैसे क्रांतिकारियों की शहादत के ज़िक्र पर गर्व महसूस करने वाले मुसलमान भी कम ही मिलते हैं।

    अरुण के विचारों की श्रृंखला तब भंग हुई, जब मेट्रो के लक्ष्मीनगर पहुँचने की घोषणा हुई। मेट्रो स्टेशन से बाहर आकर प्रोफेसर ने बैटरी रिक्शा पकड़ा और स्कूल ब्लाॅक शकरपुर के अपने फ़्लैट पर पहुँच गये। बैग से चाबी निकालकर ताला खोलते हुए अरुण रोज की तरह उदासियों से घिर गया।

    फिर वही विचार- "आखिर किसके लिए सुबह से शाम तक भागम-भाग। उसकी अपनी जरूरतें हैं ही कितनी? यही सब सोचते-सोचते अरुण ने टी.वी. ऑन कर दिया। कप में चाय डाल और दो-तीन बिस्कुट लेकर अरुण ने न्यूज सुनना शुरू कर दिया इसी बीच स्क्रीन पर नीचे चलने वाली पट्टी पर ‘ब्रेकिंग न्यूज - धर्मांतरण के रैकेट का भंडाफोड़, देवबंद के मौलाना समेत तीन गिरफ्तार’ पढ़ा।

    कुछ देर बाद संवाददाता सूत्रों के हवाले से खबर दे रहा था कि धर्मांतरण के बड़े रैकेट का ‘ए टी एस’ ने भंडाफोड़ किया है…।

    अरुण सोच रहा था कि एक तरफ तो ये गंगा-जमनी तहजीब की बात करते हैं तो दूसरी ओर ‘धर्म बदलवाने’ के लिए साज़िशे रचते रहते हैं। …सोचते-सोचते अरुण का मन अजीब सा हो गया, उसने टी.वी. बंद कर दिया और सोने की तैयारी करने लगा।

    ..2..

    पुराने दोस्तों की मुलाकात

    तुम्हारे तर्क अपनी जगह हैं, पर भाई! मैं अब भी यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि भारत का विभाजन और पाकिस्तान का बनना इस्लाम की विजय था। ये ‘गजवा-ए-हिन्द’, ‘दारुल इस्लाम’, ‘दारुल हरब’ सब संघियों का फैलाया प्रोपेगंडा है। मेरे दोस्त! तुम्हारे जैसा पढ़ा-लिखा आदमी जब इस दुष्प्रचार का शिकार हो गया, तो कम उम्र के किशोर ‘वन्देमातरम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाकर किसी असलम की दुकान फूंक देते हैं, तो ताज्जुब क्या है? पर मेरे भाई अरुण! भारत तभी तक भारत है, जब तक ये गांधी का भारत है, जिस दिन ये देश नफरत फ़ैलाने वाले गोडसे का हो गया, तो यह दुनिया के नक्शे से मिट जायेगा। कहकर ज्ञान सोफे के दूसरे सिरे पर बैठ गया।

    ज्ञान, अरुण, प्रकाश और सोनाली काॅलेज के जमाने के दोस्त थे और अपनी-अपनी जिंदगी में सफल और संतुष्ट होने के बाद दुबारा फेसबुक की मार्फत मिले थे। ज्ञान साॅफ्टवेयर इंजीनियर था, अरुण एसोसियेट प्रोफेसर, प्रकाश सफल व्यवसायी और सोनाली टी.वी.पत्रकार। काॅलेज के दिनों में चारों ही ‘चौकड़ी’ के नाम से मशहूर थे। ज्ञान और अरुण तब भी अक्सर किसी न किसी डिबेट में उलझे रहते थे। अरुण फ्री थिंकर था तो ज्ञान जनवादी। आज लगभग दस साल बाद मिलने पर साधारण हंसी मजाक से शुरू हुई बहस तल्ख होकर कड़वाहट के इस मोड़ पर पहुंच जाएगी, इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। बहस की शुरुआत अखबार में छपी एक खबर से हुई थी, वह खबर थी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में धर्मांतरण रैकेट का पकड़ा जाना।

    काॅलेज के जमाने में अरुण कभी भी बहस करते समय अड़ियल रवैया नहीं अपनाता था पर आज धर्मांतरण के मुद्दे पर अपनी बात रखते हुए उसके लहजे में गुस्सा नज़र आ रहा था। वह कह रहा था-

    "आप लोग क्या समझते हैं, ये धर्मांतरण कुछ लोगों को मुसलमान बना लेना भर है? अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आपको फेक सेक्युलरिज्म के ताले में बंद अपने दिमाग के खिड़की-दरवाजे खोलने की ज़रूरत है। यह जिहाद है जो भारत को ‘दारुल–इस्लाम’ बनाने के लिए पिछले आठ सौ सालों से जारी है। वक्त के साथ इस जिहाद के तौर तरीके बदले हैं, पर उद्देश्य नहीं बदला है। आप सब जानते हैं भारत चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में कंधार तक था। ईरान सांस्कृतिक रूप से तो, अफगानिस्तान राजनीतिक रूप से भारत ही था। यूँ तो सांस्कृतिक रूप से भारत का विस्तार पूरे एशिया में था। पर चौदह सौ वर्ष पहले आये इस्लाम ने न सिर्फ भारत और भारतीय भारतीय संस्कृति को नष्ट करने में पूरा दम लगा दिया। अपितु आज भी जिहादियों ने भारत समेत पूरी गैर इस्लामिक दुनिया के विरुद्ध जिहाद छेड़ रखा है। हम में से कितने लोगों ने वलीउल्ला का नाम सुना है? शायल एक दो प्रतिशत को।

    पर आप और मैं जिस वलीउल्ला के बारे में, जिसके कामो और कारनामों के बारे ना के बराबर जानते हैं, उस वलीउल्ला के विचारों से प्रेरणा लेकर ही यह धर्मांतरण होता है।"

    अरुण की इसी बात का प्रतिकार ज्ञान ने किया था।

    आखिर सोनाली ने हस्तक्षेप किया– अच्छा! बहुत हो गया बंद करिये बहस। सूप खत्म करिए और डिनर के लिए रेडी हो जाइये।

    प्रकाश एकदम उत्साहित होकर बोला– वाओ, सोनाली, यू आर ग्रेट, बट सीधे सीधे डिनर, अरे! काॅलेज डेज में तो ऐसा कभी नहीं हुआ-?

    और आज भी नहीं होगा– अरुण अपनी कविताएँ, नज्मे जो भी नया लिखा हो सुनाएगा और हम सब भी कुछ न कुछ सुनायेंगे। सोनाली जो आज की इस महफिल की होस्ट थी ने आदेशात्मक स्वर में कहा।

    अरुण ने ठंडी आह भरी- कविताएँ और नज्मे तो तभी छूट से गये थे- जब तुम सब छूटे।

    हम सब छूटे तब! या प्रकाश ने भेद भरी मुस्कराहट से अरुण और सोनाली को देखते हुए कहा। सोनाली ने नजरे चुराते हुए आवाज़ लगाई -

    पूनम! खाने में और कितनी देर है? फिर खुद ही किचन की ओर चली गई।

    तू भी ना कहते हुए अरुण ने प्रकाश को घुड़का और फिर तीनो दोस्त ठठाकर हंस पड़े। देर से चुप बैठे ज्ञान ने वहीं से जोर से आवाज़ देकर पूछा- यार! फ्रिज में बीयर सीयर नहीं है क्या…?

    है यार! सब है, सबके सब मेहमान बन के मत बैठे रहो। निकालो और डालो।

    ज्ञान, फ्रिज से बीयर की बोतले निकाल लाया। तीन मगों में बीयर और चौथे में फ्रूट जूस उड़ेल कर चारो दोस्तों ने, आज की शाम सोनाली देवी के नाम का जयकारा लगाया।

    और फिर शुरू हुआ अरुण का कविता पाठ, अरुण के बाद ज्ञान ने जगजीत की एक ग़ज़ल सुनाई तो प्रकाश ने कुछ चुटकुले सुनाये और आखिर में बारी थी सोनाली की। सोनाली काॅलेज के जमाने में बहुत सुन्दर गाती थी, पर आज जब उसने लता मंगेशकर का गाया गीत -

    "जी भर के देख लीजिये- कल आपके नसीब में ये रात हो न हो" गाया तो काॅलेज की फेयरवेल पार्टी की याद ताजा हो गई। उस दिन भी तो सोनाली ने यही गीत गाया था और विदाई की उस रात के बाद, दस साल से भी ज्यादा वक्त पुराने दोस्तों को फिर से मिलने में लग गया था।

    ऐसा लग रहा था कि गाने की आवाज़ कहीं दूर घाटियों से चली आ रही है। अरुण के गिटार और सोनाली की आवाज़ के साथ प्रकाश ने जब मेज पर थाप देना शुरू किया तो लगा मानो दस साल पहले के काॅलेज वाले दिन लौट आये हों।

    एक झटके के साथ जब गिटार की आवाज़ और सोनाली का गाना थमा तो चारों दोस्तों को शब्द और संगीत से उपजे उस सम्मोहन से बाहर आने में कुछ सेकेण्ड लगे और फिर चारों दोस्त एक दूसरे के गले ऐसे लग गये जैसे अभी भी काॅलेज में हों।

    पूनम मेज पर खाना सजाकर जा चुकी थी। खाने खाते और बतियाते हुए समय कब बीत गया पता ही नहीं चला। शाम छ्ह बजे चारों दोस्त इकट्ठे हुए थे और अब रात के ग्यारह बज रहे थे। सोनाली सबको ‘सी आॅफ’ करने हाई राईज के अपने दसवी मंजिल के फ्लैट से सोसायटी के गेट तक आई थी। अरुण कार से आया था। प्रकाश और ज्ञान ने टैक्सी बुला थी। चारों दोस्त एक बार फिर गले मिले दुबारा जल्दी मिलने के वादे के साथ अपने-अपने डेरों को रवाना हो गये। जी! हाँ डेरे क्योंकि महानगर में घर कहाँ होते हैं? डेरे होते हैं जिनमें रहते-रहते इस उम्मीद में उम्र निकल जाती है कि एक दिन वापस अपने घर जाएंगे।

    कार चलाते हुए भी अरुण के दिमाग में ज्ञान के कहे शब्द अटक से गये थे- भारत तभी तक भारत है, जब तक ये गांधी का भारत है। जिस दिन ये देश नफरत फ़ैलाने वाले गोडसे का हो गया, दुनिया के नक्शे से मिट जायेगा।

    ज्ञान ने कोई नयी बात नहीं कही थी, कुछ बरस पहले तक अरुण भी तो यही कहता था। पर आज जब वह बहुत-सी चीजे समझने लगा है, तो अनवरत चल रहे युद्ध में अपनी भूमिका तलाशने के लिए व्याकुल हो उठा था। और आखिरकार अरुण ने अपनी भूमिका तलाश ली थी। अपने जैसे पढ़े-लिखे लोगो को देश और धर्म के विरुद्ध चल रहे युद्ध के प्रति जागरूक करने वाले परिव्राजक की भूमिका। पर यह भूमिका आसान भूमिका नहीं थी। अपने काॅलेज के जमाने के दोस्त ज्ञान तक को तो वह समझा नहीं पाया था फिर उन लोगों को जो उसे जानते नहीं थे कैसे समझाएगा? उससे भी बड़ी दिक्कत थी महानगर की व्यस्त थकाऊ, प्रतिस्पर्धी जिन्दगी में से समय निकाल कर योग्य पात्रों की तलाश कर उन्हें इस युद्ध के लिए तैयार करना। कई बार अरुण के मन में यह प्रश्न उठता कि आखिर वहीं क्यों चिन्तित हो? क्यों सौंपे वह अपनी शांत व्यवस्थित जिंदगी को अज्ञात के हाथों में? पर जब भी अरुण सिर झटक कर खुद में ही मस्त हो जाने के बारे में सोचता उसके अवचेतन में किसी कवि की पंक्ति उभर आती -

    खामोश हम रहे तो प्रश्न कौन करेगा? और फिर बहुत बेचैन होकर वह नये सिरे से इस युद्ध में अपनी भूमिका तलाशने लगता। सोनाली के यहाँ ज्ञान से हुई चर्चा ने उसे बहुत उद्वेलित कर दिया था। बीयर में विद्यमान अल्कोहल ने अपना असर दिखाया था। रात में वह कब सो गया पता नहीं चला पर अगले दिन आॅफिस को दो महीने की अवैतनिक छुट्टी का प्रार्थना पत्र मेल कर, छुट्टी की स्वीकृति या अस्वीकृति का इंतजार किये बिना अपरिचित और अज्ञात में अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशने अरुण निकल पड़ा था और अज्ञात से तो अरुण का पुराना नाता था, आज जीवन में वह जो कुछ भी था, अज्ञात और अनजान लोगों द्वारा बिना किसी अपेक्षा के दिए साथ और सहयोग की वज़ह से ही था। पुराने अनुभवों के चलते भी उसका पक्का विश्वास था कि परिचितों की अपेक्षा अनजान और अपरिचित लोगों को समझना और समझाना हमेशा न सिर्फ आसान बल्कि उपयोगी होता है। और इस बार अरुण अपनी ही एक पुरानी कविता को याद कर मुस्कुरा उठा। कविता थी -

    "…मैं जानता हूँ परिचितों

    तुम मेरे किसी काम नहीं आ सकते

    पर, शुक्रिया एक बार फिर

    मुझे अनंत में रास्ता तलाशने को

    प्रेरित करने के लिए"

    और इस तरह से अरुण अपने पिछले पांच छः बरस के अध्ययन और अनुभव को अपरिचितों के साथ साझा करने निकल पड़ा था। एक बैग में जरूरी कपड़े डाल बिना किसी योजना के अन्तर्राज्यीय बस अड्डे से बाहर जाती जो पहली बस दिखी उसी में चढ़ गया था अरुण, बिना देखे या पूछे कि वह बस कहाँ जा रही थी। वह निकल पड़ा था यायावर सा- अनंत के साथ अपने अनुभव, समझ और निष्कर्ष बांटने…

    ..3..

    जिहाद : ‘धर्म या अधर्म’ युद्ध

    हमे अगर इस्लाम को, उसके मकसद को समझना है, तो इतिहास में जाना होगा ठीक है, रूसो ने कहा कि आदमी इतिहास से कुछ नहीं सीखता पर वर्तमान की समस्याओं की जड़े अतीत में ही हैं। और वर्तमान की सबसे बड़ी समस्या है- कट्टरता, भय और आतंकवाद। इनमें भी आतंकवाद दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है। और पूरे विश्व में आतंकवाद का निर्यातक देश कौन है?- पाकिस्तान। पाकिस्तान बना कैसे? भारत के विभाजन से। क्या भारत का यह विभाजन अंतिम है?

    अरुण ने अपने सामने बैठे बीस-पच्चीस युवकों पर नजर डालकर-एक बार फिर पूछा- बताइए क्या यह विभाजन अंतिम है?

    अरुण अपने प्रश्न और ताकत के साथ दोहराने ही वाला था कि पीछे की पंक्ति से आवाज़ आई -

    विभाजन, अखंड भारत, सनातन संस्कृति आदि-आदि ऐसे ही नारों से पिछले कई बरसों से आप जैसे लोग, सत्ता में बैठे लोगों के लिए उपभोक्ता पदार्थ के रूप में युवाओं को तैयार करते हो। गरीबी, बेरोजगारी, असमानता, शोषण और अत्याचार से ध्यान हटाने के लिए राजनीतिक लोग आप जैसे छद्म बुद्धिजीवियों के माध्यम से युवा पीढ़ी को बरगला कर समाज को बाँटते हैं, बहुत हो चुका, अब बंद करिये ये सब।

    जैसे ही युवक रुका अरुण ने पूछा- आपका नाम क्या है? क्या करते हो आप?

    "मेरा नाम अजय है, मैं इस देश के उन हजारो लाखों युवाओं में से एक हूँ जो इस देश को प्रति पल नष्ट होते देखकर भी कुछ कर नहीं पा रहे। हजारो संगठन और उन से जुड़े लाखों लोग जब देश के असली उद्धारक होने का दावा करते हुए सत्ता पर कब्जा करने के लिए रोजाना जिन हजारो लाखों युवाओं की क्षमता, प्रतिभा और बल का प्रयोग अपनी निजी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए करते हैं, उन्ही युवा में से एक मैं भी हूँ।

    मैं उन युवाओं में से एक हूँ जो रोती बिलखती भारत माता के अश्रु पोछने के लिए अपना जीवन बलिदान करने को तत्पर हैं, पर आज एक भी व्यक्ति, ऐसे एक भी संगठन दूर-दूर तक नहीं दिखता जिसके सीने में सचमुच भारत माता के लिए कोई पीड़ा हो या फिर उस पीड़ा को दूर करने या कम करने की सोच, कोई योजना हो। मैं ’अखंड हिन्दू राष्ट्र’ का सपना लेकर एक राष्ट्रवादी संगठन से जुड़ा था। उस संगठन को सत्ता में पहुंचाने के लिए हमारे जैसे हजारों-लाखों युवाओं ने अपना कैरियर, अपनी युवावस्था और अपने सपने सब कुछ होम कर दिए और अब जब वह संगठन सत्ता में है तो उसके लिये ये राष्ट्र कहीं हाशिये पर चला गया है। वह संगठन भी अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़े, वंचित, शोषित आदि की राजनीति करने लगा है। वे लाखों युवा जो राष्ट्र के उत्थान और अखंड भारत का सपना लेकर उस संगठन से जुड़े थे आज खुद को छला हुआ अनुभव करते हैं। उन्हीं छले गये युवाओं में से ही एक मैं भी हूँ, मान्यवर।"

    आक्रोश से तमतमाए उस युवक अजय को, सहज स्मित से निहार कर अरुण ने बोलना शुरू किया-

    प्रिय अजय! यह छले जाने का भाव न तो तुम्हारे अकेले के हृदय को मथ रहा है और न ही यह भाव आज की विद्रूप राजनीति से उपजा है। जब इतिहास को पृष्ठों में अंकित किया जाना भी शुरू नहीं हुआ था, तब से ही नैतिक, ईमानदार और राष्ट्र के लिए सर्वस्व समर्पित करने को तत्पर मनुष्यों को राजसत्ता ने कभी देश और धर्म के नाम पर, तो कभी नैतिकता और समय की आवश्यकता के नाम पर, बार-बार छला है। इस छल का क्रम वैदिक काल से आज तक कभी रुका नहीं और संभवत: कभी रुकेगा भी नहीं। अगर तुम वास्तव में सत्ता के इस षड्यंत्र को समझना चाहते हो तो अपने आक्रोश और गुस्से को नियंत्रित कर, दिमाग से संदेह और दुविधा के जाले साफ़ कर मेरे पास आना। मैं प्रयास करूँगा कि तुम राजनीति और राष्ट्रनीति में फर्क समझ सको। आगे क्या करना है ये तुम स्वयं तय कर सको। पिछले एक हजार वर्षों में सत्ता की इस भूख और लालच ने आज महान भारतवर्ष की सीमाओं को कितना सीमित कर दिया है, और निरंतर किस तरह से यह सत्ता का लालच आज इस देश के अस्तित्व के लिए ही संकट बन गया है, उसे समझने की तुम्हारी इच्छा हो तो आना। किसी हड़बड़ाहट में मत आना। कुछ करने का संकल्प और भारत माता के लिए वाकई तुम्हारे मन में तड़प हो तभी आना।

    कहते-कहते अरुण ने इतनी देर से मौन बैठे और अपनी ओर व्यग्र भाव से निहारते युवाओं की ओर देखकर कहा- आप में से जो लोग भी मेरे साथ चर्चा करने के लिए आना चाहते हैं, वे अब कल प्रात: आयें।

    इतना कहकर अरुण उठकर नदी की ओर चल पड़ा। पिछले एक महीने से वह हरिद्वार के एक आश्रम में रुका था। भीड़ से दूर गंगा के किनारे घंटों बैठे रहकर, शांत भाव से उसकी लहरों को निहारना और यत्र-तत्र चल रहे भंडारों में भोजन कर दोपहर में सो जाना उसकी दिनचर्या बना हुआ था। हरिद्वार आकर एक हफ्ते तक उसने किसी से कोई बात नहीं की थी। पर आश्रम में शायद उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी और लुंगी की तरह लपेटी हुई सफेद धोती को देखकर पर्यटन के लिए आये युवकों के समूह ने अरुण को कोई योगी या बाबा समझ लिया था। और फिर देश, धर्म और राजनीति विषयक प्रश्न पूछने शुरू कर दिए थे, अब यह अरुण के वाक् कौशल का असर था या विषय को बिलकुल नये तरह से विश्लेषित कर समझाने की अरुण की प्रतिभा कि युवकों में अरुण को सुनने की लालसा जाग गई थी। और अरुण को भी ऐसा लग रहा था जैसे उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक बल इन्हीं युवकों से मिलेगा। पिछले तीन दिन से रोजाना सुबह तीन घंटे इस समूह से (जिसमें प्रारम्भ में आठ दस युवक थे की संख्या अब बीस पच्चीस पहुंच गई थी) अरुण संवाद करता था। रोज ही अपने प्रवचन का वह अंत ऐसे ही प्रश्नों से करता था जिसका उत्तर वह अगले दिन के अपने प्रवचन के प्रारम्भ में देता था। इस तरह चर्चा में न केवल निरन्तरता बनी रहती बल्कि श्रोताओ में भी उत्सुकता रहती थी। पर आज पहली बार आये इस युवक अजय ने जिस तरह से इन प्रश्नों के उत्तर देकर चर्चा के लिए नए आयाम खोले थे उससे अरुण को लगा था कि यह युवक उसके उद्देश्य प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण अंग हो सकता है। युवक वास्तव में उसके उद्देश्यों के लिए उपयुक्त था या नहीं इसी बात को जांचने के लिए अरुण ने समय और धैर्य जैसी शर्तें लगाई थीं।

    अरुण आश्वस्त नहीं था कि वह युवक सायंकाल को उससे मिलने आएगा ही। इसी उहापोह में पूरी दोपहर दरी पर करवट बदलते बीत गई थी। जबसे वह इस आश्रम ‘शांति सदन’ में आया था, दरी पर ही सोता था। उसके कमरे में दो लकड़ी के स्टूल, कक्ष की खिड़की से सटी एक मेज और तख्त था। वैसे तो आश्रम में बिस्तर उपलब्ध था, पर अरुण न्यूनतम आवश्यकताओं में जीवन व्यतीत करना सीख रहा था। मेज पर कुछ किताबे जिन्हें अरुण लेकर आया था, रखी थीं। करवटें बदलते-बदलते कब आँख लग गई और वह कितनी देर तक सोता रहा, पता ही नहीं चला। अभी न जाने कितनी देर तक और अरुण सोता रहता कि दरवाजे पर आहट हुई। दरवाजा उढ़का भर था। अरुण हड़बड़ाकर उठा। खिड़की से बाहर झाँका तो अँधेरा घिर आया था। दरवाजा दुबारा खटखटाया गया तो ‘अन्दर आ जाइये’ कहते हुए अरुण भी अपने स्थान पर खड़ा हो गया।

    दरवाजा धकेलकर अंदर आनेवाला वही अजय नाम वाला युवक था। युवक ने हाथ जोड़कर और झुक कर प्रणाम किया। अरुण ने युवक को हाथ के इशारे से समीप ही पड़े स्टूल पर बैठने का इशारा किया और स्वयं नित्यकर्म से निव्रत्त होने के लिए कक्ष से लगे शौचालय में घुस गया। यों तो अरुण की संध्या गंगा किनारे ही स्नान ध्यान में गुजरती थी पर आज पूरा क्रम बिगड़ गया था। जल्दी-जल्दी निवृत्त होकर, स्नान आदि कर जब अरुण बाहर आया तो अजय मेज पर रखी किताबें पलट रहा था।

    अरुण को बाहर आया देख अजय ने अपने स्थान पर उठने का उपक्रम किया, तो अरुण ने हाथ के इशारे से उसे बैठे रहने का आग्रह कर जल्दी-जल्दी सफेद धोती लपेटकर ऊपर एक सूती कमीज़ पहन ली। तख्त पर पालथी मार कर बैठे अरुण ने मिटटी के घड़े से गंगाजल एक गिलास में पलटकर अजय की ओर बढ़ाया और अजय के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए स्वयं को तैयार करने लगा। आहिस्ते से गिलास जमीन पर रखकर अजय ने पूछा- मुझे यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं कि आप कौन हैं, और घूम-घूम कर क्यों ये राष्ट्रवादी एजेंडा फैला रहे हैं। मेरी दिलचस्पी आपसे सिर्फ इतना निवेदन करने में है कि अब आपके इस छद्म राष्ट्रवाद की हवा निकल चुकी है। राष्ट्रवाद के खोखले नारे भी सत्ता पाने का, युवाओं की भावनाओं से खेलने का जरिया मात्र हैं, पर अब इस देश का युवा समझने लगा है कि उसका सिर्फ इस्तेमाल किया गया है। क्या आपको नहीं दिखाई पड़ रहा कि जगह-जगह गले काटे जा रहे हैं और जिनकी प्रेरणा से लोगों ने इस्लामिक जिहाद के सच को दुनिया को बताने की कोशिश की वे लोग ही अब अली-मौला गाने में लगे हैं। इस हिप्पोक्रेसी से बाहर आइये मान्यवर, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब जिन युवाओं का आप लोग इस्तेमाल कर आज सत्ता की मलाई खा रहे हैं वही युवा, आप लोगों को सड़को पर दौड़ा-दौड़ा कर मारेंगे।

    तुम क्या समझते हो जिहाद कोई काल्पनिक भय है, जिहाद के भय को काल्पनिक समझने की गलती मत करना नौजवान। भारत के विरुद्ध इस्लाम की जंग तभी शुरू हो गई थी जब एक हदीस में इस्लाम की आखिरी जंग हिन्द के खिलाफ होने की बात की गई थी। मुहम्मद बिन कासिम से लेकर महमूद गजनवी और फिर मुहम्मद गोरी से लेकर तमाम सुल्तानों और शहंशाहों का मकसद एक ही था, हिंदुस्तान को ‘दारुल इस्लाम’ बनाना। आज भी इस्लाम की ये जंग जारी है और ये तब तक जारी रहेगी जब तक दुनिया में एक भी गैर मुस्लिम बचा रहेगा। हम इस्लाम को इस्लामिक नजरिये से समझे बिना, उसके मकसद को नहीं समझ सकते। मेरा किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं। मैं तो नौ से छः तक की नौकरी करने वाला सरकारी कर्मचारी हूँ, पर मैं न तो किसी भ्रम में हूँ और न ही सोया हुआ। मैंने अपने साथ ही काम करने वाले जिहादी मानसिकता के पढ़े-लिखे लोगों के मुह से बार-बार सुना है कि दो हजार सैंतालिस तक भारत इस्लामिक राष्ट्र बन जायेगा। मेरे साथ काम कर रहे और पचास लोगों के लिए यह एक सामान्य बात हो सकती है, पर मेरे लिए नहीं है क्योंकि मैंने बहुत से शहरों में मिनी पाकिस्तान, छोटे-छोटे इस्लामिक राष्ट्र बनते देखे हैं। एक आम भारतीय के रूप में मैं अगर कुछ और नहीं कर सकता, तो अपने लोगों को जगा तो सकता हूँ। एक बार आदमी जाग जायेगा तो आग बुझाने के तरीके खुद खोज लेगा। ‘लीव विदाउट पे’ लेकर अगर मैं हरिद्वार में पड़ा हूँ और तुम जैसे नौजवानों तक अपनी बात पहुँचाने की कोशिश कर रहा हूँ तो यह इस जिहाद से मुकाबले का मेरा तरीका है, और अगर तुम भी इस जिहादी मानसिकता से लड़ना चाहते हो तो अपना तरीका खुद खोजो।

    अजय को अरुण की बातो में सच्चाई नज़र आई, पर उसका तर्कशील मन यों ही किसी विचार को मानने को तैयार नहीं था इसलिए उसने एक प्रश्न और किया ---

    "मान्यवर आपने जिहाद जारी होने की बात की, तो अगर मुसलमान

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