51 Shresth Vyang Rachnayen Hari Joshi - (51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ हरि जोशी)
By Hari Joshi
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51 Shresth Vyang Rachnayen Hari Joshi - (51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ हरि जोशी) - Hari Joshi
बेबस
1
मैं निखट्टू हूँ
यदि मेरे बारे में आप थोड़ा भी विचार रखते हों, तो कृपया जड़ मूल से निकाल दें । मेरी नेक सलाह शायद आपको अच्छी न लगे? जिन-जिन लोगों ने मुझे कुछ ऊँचे किस्म का इंसान समझा था, व्यक्तिगत मुलाकात के बाद बहुत निराश हुए । इस बात की पुष्टि के लिए अपनी पत्नी द्वारा प्रयुक्त विशेषण क्या काफी नहीं? उनकी निगाह में मैं निखट्टू हूँ । निखट्टू याने एकदम निकम्मा ।
श्रीमती के मुँह से पहली बार जब मुझे निखट्टू कहा गया, सच मानिए मैं बहुत प्रसन्न हुआ । मैंने उत्तर दिया ‘लेखकों के लिए निखट्टू होना वरदान है ।’ इतना ही नहीं, आगे बढ़कर मैंने यहाँ तक कह दिया ‘निखट्टू हूँ इसलिए लेखक हूँ, निखट्टू नहीं होता तो सच्चा लेखक भी नहीं होता । निखट्टू कहकर तुमने मेरे व्यक्तित्व में चार चाँद लगा दिए हैं । मैं उन्हें लेखक मानने को ही तैयार नहीं, जो निखट्टू नहीं हैं ।’
मुझे याद आए भवानी भाई के वे शब्द, जिन्हें मैं अपने पक्ष में व्यक्त करना चाहता हूँ । मध्यप्रदेश शासन ने जब उन्हें सम्मानित किया तो भोपाल के रविंद्र भवन में सम्मान का उत्तर देते हुए वे बोले थे, ‘लेखक को आलस्य की सुविधा मिलनी चाहिए । यदि व्यक्ति को यंत्रवत् चलाते रहेंगे तो वह पैसा भले ही कमा ले, किसी वस्तु का उत्पादन भी बड़ी मात्रा में कर ले, किंतु वह विचारक लेखक नहीं हो सकता ।’ भवानी भाई के वक्तव्य को सुनकर श्रीमती जी का तमतमाया चेहरा कुछ प्लान अवश्य हुआ, फिर भी पूरी तरह उनके प्रश्न का जैसे समाधान नहीं हुआ ।
श्रीमती जी पुन: भभकीं, ‘भवानी भाई के विचारों को सीढ़ी बनाकर चढ़ रहे हो, और यह मालूम भी हैं, उनके पंद्रह कविता-संग्रह प्रकाशित हुए?’
मैंने कहा, ‘होने को तो मेरे भी दो कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं, मैं झूठ बोल रहा हूँ क्या?’
‘निखट्टू हो, इसलिए दो कविता-संग्रहों से ही निहाल हो गए? अभी तक दस-पाँच कविता पुस्तकें आ सकती थीं ।’
मैंने आग्रह किया, ‘भवानी भाई के वचनों पर श्रद्धा करते हुए आलस्य की सुविधा यदि मुझे दोगी, तो मैं भी ‘बुनी हुई रस्सी’ भले न लिखूँ, तुम्हें लक्ष्य बनाकर ‘तनी हुई रस्सी अवश्य लिख डालूँगा ।’
सांध्यकालीन इस दैनिक कार्यक्रम के पश्चात् मैं थोड़ी पदयात्रा हेतु निकल गया, वे किचिन में व्यस्त हो गईं । एक-एक पाँव आगे मैं उठा रहा था और बार-बार सोच रहा था, निखट्टू निरूपित हो जाने से व्यक्तित्व में क्या-क्या परिवर्तन आता है? क्या सचमुच आदमी की छवि बिगड़ती है? या वह इस विशेषण से सम्मानित होता है?
स्वगत ही मैंने कहा इस छवि के बने रहने के कई लाभ हैं, । श्रीमती जी जानती है, कि पानी का गिलास भी अपने हाथ से उठाकर यह निखट्टू पी नहीं सकता, इसलिए इसे आवश्यकतानुसार सभी खाद्य, पेय, वस्त्र उपलब्ध कराओ । रोटी की न पूछो तो घंटों भूखा बैठा रहेगा, अपनी ही धुन में कपड़े निकालकर हेंगर से दो तो ऑफिस पहन जाएगा, वरन कुर्ता-पायजामा पहनकर ही चल देगा कार्यालय? इस तरह निखट्टू की छवि बनी रहने से अपनी ज्यादा सेवा-सुश्रूषा होती है । निखट्टू व्यक्ति की घर में पूछ-परख बनी रहती है । यदि किसी व्यक्ति की निखट्टू छवि, घर और बाहर बनी रहे तो कोई उससे किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं करता । थोड़े से काम कर लेने से आसपास के लोग आश्चर्य से देखने, बातें करने लगते हैं, ‘अरे इस निखट्टू ने यह बड़ा काम कर डाला ।’ इससे तो किसी को कोई उम्मीद ही नहीं थी? ‘बड़ा छुपा रुस्तम निकला?’
लेखन और नौकरी दोनों क्षेत्रों में मैं अपनी इस छवि को बरकरार रखना चाहता हूँ । दोनों क्षेत्रों में लोग मेरे कार्यकलापों पर जो आश्चर्य प्रकट करते हैं, उसका श्रेय अपनी उस निखट्टू छवि को ही जाता है ।
यह ‘निखट्टू’ विशेषण मुझे श्रीमती जी ने ही सर्वप्रथम दिया, यह कहना यद्यपि उनकी शोध करने की मौलिक प्रतिभा पर प्रश्नचिह्न लगाना है, किंतु इतना अवश्य कहूँगा कि बचपन में पिताजी भी मेरे इस गुण की परखकर चुके थे । कई बार उन्होंने कहा, ‘जीवन में तुम कुछ भी नहीं कर सकते ।’ लेकिन जब-जब मैंने छोटी-छोटी कक्षाएँ थर्ड डिवीजन में पास कीं, तब पिताजी पूरे इलाके में गर्व से कहते थे, देख लिया, उसने अच्छे अंकों से पास करके दिखा दिया है ।’ कई दिन तक मेरी निखट्टू छवि धूमिल पड़ी रहती । मुझसे कई तरह की अपेक्षाएँ होने लगतीं ।
मेरे पिताजी और श्रीमती के द्वारा प्रयुक्त विशेषणों को उस दिन बॉस ने भी एक वाक्य कहकर पुष्ट किया, ‘यू आर गुड फार नथिंग । हू हेज सेलेक्टेड यू फार गवर्नमेंट जॉब ।’
मैंने निवेदन किया, ‘सर मैं छोटा हूँ, आप बड़े हैं’ (जबकि मेरा गुप्त अर्थ था मैं छोटा निखट्टू हूँ, आप बड़े) मैं और आप क्या पूरा अमला ऐसे ही योग्य व्यक्तियों से भरा पड़ा है ।’ कह तो मैंने दिया किंतु मन-ही-मन समझ गया कि बॉस भी समझदार है । घर में प्रकारांतर से वही बात श्रीमती कहती है, जिसे कार्यालय में बॉस कहता है ।
अगले दिन बिना बुलाए ही मैं बॉस के कमरे में गया । अँग्रेजी बोलने में मैं भी क्यों पीछे रहता, मैंने भी इंगलिश में ही कहा, ‘थैंक यू’ फिर रुका । रुककर पुनः कहा, ‘थैंक यू, सर ।’ बॉस बोले किस बात का धन्यवाद देने आप आज आए हैं?
मैंने कहा, ‘सर आपने मुझे बिल्कुल ठीक पहचाना । क्या कभी आपकी भेंट मेरे पिताजी से भी हुई थी?’
‘क्यों उनसे भेंट करने से कोई रहस्य खुल जाता?’
‘हाँ,’ मैंने कहा । ‘वे भी बचपन से मेरे बारे में यही विचार रखते थे, जो कल आपने अभिव्यक्त किए और श्रीमती जी को तो सुबह से शाम तक दो-चार कर कहना ही पड़ता हैं, एक यही शब्द ।’
‘यानी आपके बारे में सबके विचार एक सरीखे हैं?’ बॉस ने प्रश्न किया । मैंने कहा, ‘सर । मैं जैसा घर में हूँ वैसा ही ऑफिस में हूँ । दो-दो चेहरे मैं नहीं रखता ।’
उस दिन के बाद से ऑफिस में भी मुझे काम का बोझ नहीं है । यानी घर में भी ‘गुड फॉर नथिंग’ ऑफिस में भी ‘गुड फॉर नथिंग ।’
मुझे भरपूर आराम, निखट्टू छवि का ही परिणाम है । यद्यपि आज भी मैं इस छवि को स्वयं मानने को तैयार नहीं हूँ । मैं कहता हूँ, मैंने बड़े-बड़े काम किए हैं, किंतु घर की बॉस तथा कार्यालय का बॉस, दोनों तो आश्वस्त हैं । मैं असमंजस में हूँ । क्या मैं सचमुच निखट्टू हूँ।
***
2
लड़की के बाप के कितने दाँत?
कन्या का पिता पलक-पाँवड़े बिछाकर लड़के के बाप की आवभगत कर रहा था । कन्या-निरीक्षण हेतु लड़के के पिता, माँ, भाई, लड़का स्वयं, ललिता पवार शैली की बुआ आदि सभी लड़की के घर आ चुके थे । आते ही लड़के के बाप ने टी०ए० बिल सर्वप्रथम लड़की के पिता के सामने रख दिया । इस बिल में अपने घर से रेलवे स्टेशन का टैक्सी का भाड़ा, कुली का खर्च, ए०सी० सेकेंड क्लास का पाँचों का एक्सप्रेस किराया, यात्रा के दौरान नाश्ते भोजन का व्यय, फिर भोपाल उतरते ही कुली का किराया, टैक्सी का भाड़ा, ये सभी एक तरफ के खर्च सम्मिलित थे । लड़की के पिता को सादे काग़ज पर यह बिल थमाते हुए, लड़के का बाप बोला- ‘खर्च तो और भी हुआ है, किंतु कम ही हम चार्ज कर रह हैं, इसी का दुगना हमें दे दें ताकि विवाह-संबंध में चर्चा आगे बढ़ाई जा सके?’
‘चैक चलेगा?’ लड़की के पिता ने निवेदन करते हुए कहा ।
‘नहीं, भाई, चैक में हमारा विश्वास नहीं रहा । मेरे नाम का बैंक ड्राफ़्ट हो तो सोचा जा सकता है । वैसे नक़द राशि ही दे दें तो अच्छा रहे?’ लड़के का पिता बोला ।
पत्नी को भी टटोलकर देख लिया, इतने पैसे तो थे नहीं फिर भी पत्नी को भेजकर अड़ोस-पड़ोस से एकत्र कर दस हजार की राशि लड़के के पिता के चरणों पर रखते हुए दया की भीख माँगते हुए, विवाह की चर्चा आगे बढ़ाने पर जोर दिया ।
जैसे ही विवाह की बातचीत आगे बढ़ने को हुई कि सब सदस्यों की उपस्थिति में लड़के का बाप, लड़की के पिता के एकदम नजदीक जा पहुँचा । लड़की का पिता घबराया- ‘ये क्या कर रहे हैं, आप? कोई मजाक कर रहे हैं? अरे भाई चर्चा करें, यह क्या मेरे मुँह को दबाए हुए हैं?’
लड़कीपक्ष वालों के लिए अनहोनी बात थी, लड़केवाले तो तय करके आए थे ।
‘आप घबराएँ नहीं, बस आप अपना मुँह खोल दें ।’ लड़के का बाप बोला ।
‘मुझे तो आपकी बात ही सुनते रहना है और तदानुसार चलना है, मैं आपके सामने कैसे मुँह खोल सकता हूँ ।’ कन्या का पिता निवेदन करने लगा ।
इस बार लड़के की माँ बोली, ‘आप भले ही कुछ न बोलें बस अपना मुँह पूरा खोले रखें ।’
लड़के की बुआ ललिता पवार की तरह तुनककर बोली, ‘दोनों जबड़े ठीक से खुले क्यों नहीं रखते? हमें आपके दाँत गिनना है । कितने दाँत आपके मुँह में और बचे हैं?’
लड़कीवालों के सामने इस तरह के इंटरव्यू लेनेवाले पहली बार आए थे इसलिए सभी को आश्चर्य हो रहा था । इस बार लड़की की माँ बोली, ‘ए जी, दाँत ही देखने हैं, तो लड़की के देख लो, एकदम पूरे हैं, और मोती-सरीखे चमकीले हैं, लड़की के पिता के दाँत गिनने का क्या औचित्य है?’
‘ये बात आदमियों की हैं, हम लोग क्यों उनकी चर्चा में व्यवधान उपस्थित करें? देखने दो दाँत, हमारे यहाँ लड़की के बाप के दाँत देखकर शादी तय की जाती है ।’ लड़के की माँ बोली ।
‘अच्छा ऐसे रीति-रिवाज तो हमने कहीं नहीं देखे? आप लोग इनके दाँत देखकर क्या करेंगे?’ लड़की की माँ ने प्रश्न किया ।
‘बहनजी हम लोग गाँव के हैं, बैल को हम जब अपना बनाते हैं, तो उसे अच्छी तरह ठोक-बजाकर देखते हैं । बैल पूँछ पकड़कर देखते हैं, यह कितना पानीदार है? कितनी उम्र हैं, अभी कितने दिन और चलेगा? बैल सवारी गाड़ी का है, या बोझ लादनेवाला भरती की गाड़ी का? पूँछ का झपट्टा तो नहीं मारता, सींग तो नहीं हिलाता? काटने को तो नहीं दौड़ता, लात तो नहीं मारता? कैसे डकारता है? साधारण घास-भूसा खाकर ही जी लेता है? किस नस्ल का है? किंतु सबसे पहले उसके दाँत देखते हैं । दाँत से बैल का या आदमी का इतिहास समझ में आ जाता है ।’ लड़के की माँ ने विस्तार से उत्तर दिया ।
‘ठीक ठीक है, अच्छी तरह खोल दो दोनों जबड़े, गिन लेने दो दाँत ।’ लड़की की माँ ने पतिदेव से निवेदन किया ।
एक, दो, तीन, चार करते हुए मुँह के बचे हुए बारह दाँत जल्दी गिन लिए । लड़के के पिता ने निराशा भरे स्वर में सभी को कहा, ‘बारह ही तो बचे हैं! बाकी कहाँ गए?’
लड़की का पिता बेचारगी प्रकट करते हुए बोला, ‘दो बेटियों की शादी जो कर दी । एक के लायक बचे हैं, कर लूँगा ।’
लड़की की माँ को शरारत सूझी, ‘लेकिन लड़के के पिता के भी दाँत पूरे होना चाहिए, तब बराबरी की शादी हो सकती है । क्या आपके साबुत और पूरे दाँत हैं?’
लड़के का पिता गुर्राया- ‘ये क्या रहे, पूरे बत्तीस हैं, आप कहें तो निकालकर बता सकता हूँ ।’
सभी सदस्य चुप, यह पोल खुल गई कि लड़के का बाप, जिसको एक भी दाँत नहीं है, वह लड़की के पिता के दाँत गिन रहा है । लड़के की बुआ ने कमान सँभाली । आकर कहा, ‘असल में लड़की के बाप के पूरे दाँत होना जरूरी है, लड़के के पिता के हों या न हों ।’
‘खैर काम की बात पर आ जाएँ, यदि आठ लाख की आप शादी कर सकते हैं, तो चर्चा बढ़ाई जाए?’ लड़के की माँ बोली ।
‘अब आपने दाँत गिन ही लिए हैं । यदि मेरे बत्तीस होते तो आठ लाख की शादी अवश्य कर देता, अब तीन लाख से अधिक की शादी नहीं हो सकती ।’ लड़की का पिता बोला ।
‘लड़की को तो देख लें । उसकी सुंदरता, शिक्षा, व्यावहारिकता आदि से प्रभावित होकर आप इतने में ही राजी हो जाएंगे ।’ लड़की की माँ ने झुककर निवेदन किया ।
‘अब क्या देखना है, लड़की को, जब उसके बाप के मुँह में गिनती के ही दाँत बचे हैं ।’ कहते हुए लड़के की बुआ के साथ पूरा वर-पक्ष उठ गया । जाते-जाते वे शिकायत करते गए कि उन्हें समुचित यात्रा-भत्ता और दैनिक भत्ता लड़की वालों ने नहीं दिया । लड़कीवालों को ऐसी कंजूसी नहीं करनी चाहिए ।
***
3
क्रिकेट में जीत के अचूक नुस्खे
क्रिकेट राजा-महाराजाओं का खेल रहा है, उन लोगों के पास माकूल समय था, जिसे गुजारना मुश्किल होता था । कबड्डी भी कोई खेल है? पैंतालीस मिनट में समाप्त । सारा दिन कबड्डी, हॉकी या फुटबॉल में कैसे खर्च किया जाए? इस दृष्टि से क्रिकेट सर्वाधिक उपयुक्त खेल है । रूस और अमेरिका में क्रिकेट नहीं खेला जाता । शायद वे लोग दिल के रईस नहीं है । भारतीय लोग दिल से शहंशाह है, इसलिए क्रिकेट में महीनों आज भी खर्च कर सकते हैं । एक विदेशी टीम आती है और भारतीय दर्शकों के (टेलीविजन आने से पूर्व श्रोताओं के) तीस दिन तो आनंदपूर्वक व्यस्त करा ही देती है । कम-से-कम दो विदेशी टीम प्रतिवर्ष हमारे देश में आती हैं । अब वेस्टइंडीज की टीम को ही लें । पाँच-छः टेस्ट मैचों के पच्चीस-तीस दिन तथा पाँच एक-एक दिवसीय मैच । क्रिकेट में एक अच्छी बात यह होती है कि कॉलेज, स्कूल, कार्यालय के समय में ही यह खेला जाता है । प्राध्यापक, बाबू, अफ़सर, छात्र घरों से कार्यालय आते हैं, उपस्थिति दिखाते हैं और फिर क्रिकेट में आनंदपूर्वक सारा दिन बिताते हैं । शाम को घर पहुँचकर परिवारवालों पर रौब जमाते हैं कि हम दिनभर कार्यालयीन बोझ से दबे रहे ।
इतनी लोकप्रियता इस खेल को मिली है कि मुहल्ले-मुहल्ले छोटे-छोटे बच्चे बॉलिंग और बैटिंग करते हुए देखे जा सकते हैं । खिलाड़ियों के नाम बच्चों की, वृद्धों की जुबान पर हैं । इतनी लोकप्रियता के बाद भी इस खेल में हम बार-बार हारते ही हैं, यह प्रश्न मुझे लगातार चिन्तित किए हुए था । मैंने विश्लेषण किया कि आखिर हम लगातार हारते क्यों हैं?
एक कारण तो यह है कि हम, यानी भारतीय, दिल के राजा ही नहीं, बहुत उदार तबीयत के लोग हैं । किसी का दिल दुखाना नहीं चाहते हैं । ‘अहिंसा परमो धर्म:’ मानते हुए हमेशा विजयश्री हम उदारपूर्वक प्रतिपक्ष की टीम को सौंप देते हैं । हम लोग सच्ची खेल-भावना से खेल खेलते हैं, गीता के एक श्लोक पर ही हमारे खिलाड़ी चल रहे हैं-‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ । बस, खेलते रहो, खेलते रहो, फल की चिंता न करो ।
या तो हमारी टीम हारती है या बराबर रहती है । बहुधा हम हार के किनारे ही पहुँचते हैं । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हार की मँझधार में बहते-बहते, ड्रा (बराबरी) के किनारे आ लगते हैं, । हम भले ही रन न बनाएँ, लेकिन आउट नहीं होते । आखिर हमारी चुनी हुई टीमें, चुनी हुई सरकारों के पदचिह्नों पर ही तो चलती हैं । कुछ काम न करो, किंतु आउट मत हो खेलते रहो ।
जिस प्रकार हार से बचने के लिए राजनीतिज्ञों की तकनीक ‘बस जमे रहो’ हमारे खिलाड़ी अपनाते हैं, उसी प्रकार यदि सदा-सर्वदा विजयी राजनीतिक खिलाड़ियों की तरह वे खेलें तो निश्चय ही भारतीय टीम प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय मैच में जीते ।
इन दिनों प्रचलित भारतीय राजनीति से बहुत कुछ सीखा जा सकता है । खेलेंगे या खेल बिगाड़ेंगे। यदि हमें हमारी पार्टी से चुनाव लड़ने का टिकट नहीं मिला तो हम निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव लड़ेंगे । यदि हार जाने की शंका होगी तो बलात् कुछ मतदान केंद्रों पर कब्जा करेंगे, एकाध दंगा करा देंगे ताकि मतदान स्थगित हो जाए । क्या यही सब क्रिकेट मैच में नहीं हो सकता?
मेरी राय में दंगा कराने के लिए ऐसे खेलों में कुछ समूहों को तैनात कर दिया जाना चाहिए, ताकि जैसे ही हमारी टीम पराजय की ओर अग्रसर हो एक-दो विस्फोट हो जाएँ या कुछ पत्थर चल जाएँ । उन राजनीतिक दलों के आस-पास आपराधिक तत्त्व सबसे बड़ी संख्या में घूमते हुए देखे जा सकते हैं, जिनके हाथों में सत्ता होती है । सत्ता दल के बदलते ही इन आपराधिक तत्त्वों की राजनीतिक निष्ठाएं बदल जाती है । सत्ताधारी दलों की छाँह में रहने से ही इन्हें फलने-फूलने का अवसर मिलता है । प्रत्येक हारते मैच को ये कर्मठ समाजसेवी जीत में बदल सकते हैं ।
यदि सत्ताधारी दल के कुछ जन-प्रतिनिधियों की कृपा हो तो किसी भी मैच में पराजित होने की नौबत ही न आए । जब लोक सेवा-आयोगों, संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों, अध्यक्षों को पटाया जा सकता है, तो टेस्ट मैच के अंपायरों को पटा लेना क्या बड़ी चीज है? विशेषतः उस समय जब टेस्ट मैच भारतभूमि पर खेले जा रहे हों । नेता लोगों की कृपा से क्या नहीं हो सकता, निर्णायकों में ‘देश पर खतरे के बादल’ कहकर देशभक्ति तो जगाई ही जा सकती है ।
कुछ दिनों पूर्व हमारी टीम पाकिस्तान गई थी । वहाँ के निर्णायकों ने यदि देशभक्ति दिखाई तो कौन सा गलत काम किया! भारतीय अंपायर भी भारतीय भूमि पर देशभक्ति का प्रदर्शन कर ही सकते थे, किंतु वे प्रत्येक बार भारतीय टीम को पराजित घोषित करते रहे ।
रिचर्ड्स या ग्रीनिज मारता रहता चौका या छक्का, अंपायर यदि तदनुसार घोषणा नहीं करते तो चौके या छक्के का कोई अर्थ नहीं रहता । यह आवश्यक नहीं कि वेस्टइंडीज के खिलाड़ियों के चौके या छक्के अंपायर देखे ही । क्या देखना और क्या नहीं देखना, यह तो अंपायर का निर्णय है और निर्णायक का निर्णय अंतिम और सर्वमान्य होता है । खेल की तकलीफ तो अंपायर ही जानते हैं, जनता क्या देख रही है, इससे निर्णायक को क्या मतलब? हमारे राष्ट्र के राजनीतिक खेल में भी निर्णायक इसी प्रकार की भूमिका अदा करते हैं । सत्ताच्युत हो रहे मुख्यमंत्री की गुहार किसने सुनी कि विधायकों की कीमतें दो-दो करोड़ तक जा पहुँची हैं । निर्णायक यदि न सुनें तो कोई क्या कर लेगा?
मेरी तो स्पष्ट मान्यता है कि भारतीय अंपायरों में देशभक्ति की कमी है, करना भारतभूमि पर ही भारतीय निर्णायकों द्वारा भारतीय टीम विदेशी टीम से बार-बार पराजित घोषित कर दी जाए, संभव नहीं है ।
यदि फील्डिंग करने वाले प्रत्येक भारतीय खिलाड़ी को एक-एक अतिरिक्त गेंद दे दी जाए, तो भारत की आर्थिक स्थिति बिगड़ नहीं जाएगी । भारतीय टीम को ये अतिरिक्त गेंदें जितवा सकती हैं । जैसे ही भारतीय गेंदबाज विदेशी बल्लेबाज के लिए गेंद फेंके और बल्लेबाज उसे खेले कि फील्ड में खड़े हुए भारतीय खिलाड़ी को अपनी जेब से अतिरिक्त गेंद निकालकर चिल्लाना चाहिए ‘कॉट, कॉट आउट’ आदि, और इसी बीच वास्तविक गेंद गायब होकर मैदान से किसी की जेब में पहुँच जानी चाहिए ।
चुनावों में भी तो येन-केन-प्रकारेण विजय प्राप्त की जाती है । कई बार मतदान-पत्रों के गुप्त बंडल या गुप्त मतपेटियाँ, मतगणना के समय अचानक प्रकट कर दिए जाते हैं । जैसे ही विदेशी टीम का बल्लेबाज रन बना रहा हो, यहाँ के खिलाड़ी या निर्णायक अपनी जेब से अतिरिक्त गेंद निकालकर क्या धीरे से स्टम्प के ऊपर नहीं फेंक सकते? इधर स्टम्प उखड़ा और उधर खिलाड़ी ‘रन आउट’ ।
कई बार क्रिकेट या हॉकी मैच का उद्घाटन करने के लिए वरिष्ठ राजनीतिज्ञों को आमंत्रित किया जाता है और बहुधा ये उद्घाटन कर्ता दुःख प्रकट करते हैं, सिर्फ इस बात के लिए कि इतने खिलाड़ियों के बीच एक गेंद ही क्यों रहती है? क्या प्रत्येक खिलाड़ी को अलग-अलग गेंद नहीं दी जा सकती? मैं तो विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि यदि इन वरिष्ठ राजनेताओं की बात मान ली जाए तो हम क्रिकेट में कभी पराजय का मुँह नहीं देखें । एल०बी०डब्यू० भी अतिरिक्त गेंद के सहारे आसानी से किया जा सकता है, बस शर्त यह है कि एल०बी०डब्ल्यू० करते हुए या गेंद को कैच (पकड़कर आउट) करते हुए, दूसरी गेंद दर्शकों को नहीं दिखनी चाहिए । होने को तो अनुभवी हैं, लगभग सभी सदनों में प्रतिपक्ष के सदस्य ‘हो-हल्का’ करते हैं, किंतु सुनता है, कोई सुनना न सुनना निर्णायक या सभापति का काम है । और हमेशा काम की बात सुनी जाती है, व्यर्थ के शोरगुल को सुनते रहे तो हो गए काम ।
हमारा देश चमत्कार करनेवाले लोगों का देश है, जादूगरों का देश है । कितने योगी और भगवान हमने विदेशों को निर्यात किए और विदेशी मुद्रा कमाई? ज्योतिषी जितनी बड़ी संख्या में इस देश में मिल जाएँगे, अन्यत्र दुर्लभ है । लेकिन हम बराबर हार रहे हैं । विजयी होने के आत्मविश्वास के साथ जाते हैं, और पराजित होकर मुँह लटकाकर चले आते हैं ।
यदि ऊपर बताए नुस्खे हम अपना लें तो हमें विजयश्री निश्चय ही मिलेगी । खेल, युद्ध और प्रेम में सभी कुछ जायज है ।
***