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Mahabharat Ke Amar Patra : Pitamah Bhishma - (महाभारत के अमर पात्र : पितामह भीष्म)
Mahabharat Ke Amar Patra : Pitamah Bhishma - (महाभारत के अमर पात्र : पितामह भीष्म)
Mahabharat Ke Amar Patra : Pitamah Bhishma - (महाभारत के अमर पात्र : पितामह भीष्म)
Ebook371 pages3 hours

Mahabharat Ke Amar Patra : Pitamah Bhishma - (महाभारत के अमर पात्र : पितामह भीष्म)

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भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भीष्म महाराजा शान्तनु और देव नदी गंगा की आठवीं सन्तान थे द्य उनका मूल नाम देवव्रत था। भीष्म में अपने पिता शान्तनु का सत्यवती से विवाह करवाने के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की भीषण प्रतिज्ञा की थी। इन्हें अपनी उस भीष्म प्रतिज्ञा के लिये भी सर्वाधिक जाना जाता है जिसके कारण ये राजा बनने के बावजूद आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के संरक्षक की भूमिका निभाई। इन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया व ब्रह्मचारी रहे। इसी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए महाभारत में उन्होने कौरवों की तरफ से युद्ध में भाग लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान था। यह कौरवों के पहले प्रधान सेनापति थे। जो सर्वाधिक दस दिनो तक कौरवों के प्रधान सेनापति रहे थे। महाभारत युद्ध खत्म होने पर इन्होंने गंगा किनारे इच्छा मृत्यु ली।
भारतीय चिंतनधारा के विकास में वेद, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् और गीता जैसे ग्रंथों से ही हमारा तात्पर्य होता है। परंपरा का अर्थ है 'जो हमारे पवित्र-आर्यग्रंथों में लिखा है। अतः पूरी भारतीय परंपरा को जानने के लिए दर्शनों का अध्ययन आवश्यक हो जाता है। डॉ. विनय धर्म की मिमांषा संक्षेप में और सरल भाषा में करने के लिए विख्यात हैं। उन्होंने दो दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना की है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 1, 2020
ISBN9789390287475
Mahabharat Ke Amar Patra : Pitamah Bhishma - (महाभारत के अमर पात्र : पितामह भीष्म)

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    Mahabharat Ke Amar Patra - Dr. Vinay

    दिल्ली-110007

    पितामह भीष्म

    देवव्रत भीष्म का जन्म

    महारात की जय हो। सेविका ने आकर अभिवादन करते हुए कहा, महाराज की जय हो। महाराज! प्रसन्नता का समाचार है। महारानी गंगा ने पुत्र को जन्म दिया है।

    कितना सुखद समाचार दिया है तुमने हमें। गले से माला निकालकर दासी की ओर बढ़ाते हुए महाराज ने कहा- "आज हस्तिनापुर की कितनी बड़ी अभिलाषा पूर्ण हुई है। हस्तिनापुर को उसका युवराज मिला है। जहां सब में मिठाइयां बांटो, खुशियां मनाओ। कल सारे हस्तिनापुर में दीप जलाए जाएंगे।

    सेविका समाचार देकर चली गई। महाराज व्याकुल थे महारानी गंगा से मिलने के लिए। लेकिन यह क्या? महारानी गंगा अपने पुत्र को साथ लेकर कहां जा रही हैं?

    आगे-आगे गंगा अपने पुत्र को गोदी में लिए चली जा रही थी। उत्सुक महाराज शांतनु उनके पीछे-पीछे बदहवास से चले जा रहे थे। गंगा के किनारे जाकर महारानी क्षण भर को ठहरी और फिर बिना विलम्ब किए आंचल का पुत्र गंगा में प्रवाहित कर दिया। छपाक की ध्वनि ने महाराज शांतनु को संकट में डाल दिया।

    यह... नहीं, मैं तो प्रतिज्ञा से बंधा हूं। मेरा पुत्र हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी एक मां ने गंगा में प्रवाहित कर दिया?

    ***

    वह भी गंगातट ही था। निर्मल, शीतल, पवित्र गंगा का किनारा। शांतनु शिकार खेलने गए थे। मृग के पीछे दौड़ते-दौड़ते थक गए थे। कुछ देर विश्राम करने के ख्याल से महाराज ने वृक्ष के नीचे शरण ली। प्यास बुझाने के लिए गंगा के किनारे पहुंचे। अंजलि में जल भरकर जैसे ही पीने को हुए, पानी में एक नारी की परछाई झलक आई।

    यह परम सुंदरी लक्ष्मी के समान मोहक और रूपवान स्त्री यहां इस समय? शांतनु अचंभित रह गए। अंजलि का पानी अंजलि में ही रह गया। जैसे ही शांतनु उसकी ओर बढ़ने को उत्सुक हुए वह खिलखिलाकर हंसी।

    पहले प्यास तो बुझा लीजिए महाराज! मैं कहीं जाने वाली नहीं। मैं यहीं वास करती हूं। आप जल ग्रहण करें।

    महाराज शांतनु ने जल ग्रहण करके उस देवी के समीप आकर कहा, तुम कौन हो देवी?

    मैं देव सरिता गंगा हूं। कहिए आपकी क्या सेवा करूं?

    शांतनु उसके रूप और मीठी बोली को सुनकर मुग्ध हो गए, मानो सारा सौंदर्य वह आंखों से ही पी जाएंगे, शांतनु को अपनी ओर इस प्रकार निहारते देखकर गंगा को वह दृश्य स्मरण हो गया, "ब्रह्माजी की सभा में अकस्मात वह भी पधार गई थी, उस सभा में बहुत से देवता, राजर्षि भी उपस्थित थे। उन्हीं में इच्छाकुवंशी राजा महाभिष भी उपस्थित थे। इन्होंने अश्वमेध यज्ञ करके उसके पुण्यफल से स्वर्ग प्राप्त किया था। तभी तेज हवा के झोंके से उनका श्वेत वस्त्र शरीर पर से कुछ खिसक गया था। सभी देवगणों ने, राजर्षियों ने अपनी आंखें झुका ली थीं लेकिन महाभिष तो रूप के प्रेमी थे। पृथ्वी लोक से अभी-अभी ही आए थे। एक रूपसी नारी का उभरता यौवन देखकर – देखते ही रह गए।

    ब्रह्माजी महाभिष की यह दृष्टि भांप गए। गंगा तो अपने स्थान को लौट गईं किन्तु ब्रह्माजी ने महाभिष को पृथ्वी लोक में वापस लौटा दिया।

    आश्चर्य! इस जन्म में भी महाराज मुझे उन्हीं मुग्ध नयनों से देख रहे हैं। मौन तोड़ते हुए गंगा ने कहा, "कुछ कहिए महाराज! या यूं ही देखते रहेंगे?

    शांतनु का मानो ध्यान भंग हो गया। वह सोचने लगे यह वही गंगा है जिसके लिए उन्होंने याचना की थी...।

    हे देवी! तुम मुझे पति रूप में स्वीकार करो। शांतनु का यह प्रस्ताव सुनकर गंगा ने कहा था, राजन! मैं तो आई ही आपके लिए हूं, आपकी आंखों का आकर्षण ही मुझे आप तक खींच लाया। मुझे आपकी रानी बनना स्वीकार है किन्तु मेरी यह शर्त है कि मैं अच्छा-बुरा जो कुछ भी करूं आप मुझे रोकेंगे नहीं, कुछ कहेंगे नहीं। जब तक आप मेरी शर्त के अनुरूप मुझे टोकेंगे नहीं, मैं आपके पास बनी रहूंगी। किन्तु जिस दिन आप मुझे रोकेंगे, मेरे कार्य में हस्तक्षेप करेंगे, मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी।

    ***

    मुझे तुम्हारी यह शर्त स्वीकार है। हां, हां शर्त स्वीकार है, अपने मुंह में अपने से ही संवाद करते शांतनु गंगा के पीछे-पीछे लौट आए। उनका पुत्र गंगा में प्रवाहित हो गया था और वह चुप थे। एक पिता चुप था। सारा हस्तिनापुर शोक में डूब गया। उनका युवराज अपनी ही मां के हाथों संसार में आंखें खोलने से पहले ही ईश्वर को भेंट चढ़ा दिया गया।

    महाराज शांतनु गंगा देवी के शील, सदाचार, रूप-सौंदर्य, उदारता आदि सद्गुणों से और उनकी सेवा से अत्यंत प्रसन्न थे। कितने ही वर्ष दोनों को साथ रहते बीत गए, यह पता ही नहीं चला लेकिन संतान का कष्ट, एक राज्याधिकारी पिता के लिए शोचनीय होता है। शांतनु यह दु:ख नहीं भुला सके।

    लेकिन देवी गंगा ने तो देखते-देखते सात पुत्र गंगा में बहा दिये। शांतनु के जीवन की निराशा की कोई सीमा नहीं रही।

    नहीं-नहीं, अब यह नहीं हो सकेगा, मैं अब चुप नहीं रहूंगा, मुझे इस पुत्र की रक्षा करनी ही होगी। रूप और सौंदर्य पर मेरी आसक्ति राजकुल और मर्यादा पर हावी नहीं हो सकती। मैं इस भय से कुछ नहीं कहूं कि मेरे प्रश्न करने से यह मुझे छोड़ जाएगी। मैं अपने पुत्र को नहीं गंवाना चाहता।

    शांतनु को जब यह समाचार मिला कि देवी गंगा, अपने सात पुत्रों की तरह इस आठवें पुत्र को भी अपने अंक में लिए गंगा नदी की ओर जा रही हैं, तो शांतनु भी चुप नहीं बैठ सके और वे एक बदहवास पिता की तरह गंगा के पीछे-पीछे चल दिए। आज उन्हें अपना दायित्व निभाना था।

    जैसे ही गंगा ने बच्चे को गंगा में प्रवाहित करने के लिए हाथ आगे बढ़ाए- ठहरो देवी ठहरो, यह क्या कर रही हो?

    शांतनु के मुंह से इस प्रकार प्रश्न सुनकर गंगा मुस्कुराई। उस समय उनके चरणों के नीचे अमर पावन गंगा का जल धीरे-धीरे बह रहा था।

    चारों ओर अंधेरा था, किनारे के वृक्ष धीरे-धीरे हिल रहे थे, मानो आपस में बातचीत कर रहे हों, ऐसा लग रहा था कि ये वृक्ष भी महाराज शांतनु के प्रश्न का उत्तर गंगा से मांग रहे थे। दूर से रह-रहकर जंगली जानवरों की आवाज़ वातावरण की निस्तब्धता को तोड़ रही थी। दूर तक फैला हुआ रेत मानो शांतनु और गंगा के बीच फैली और फैलती जा रही दूरी का संकेत कर रहा था। गंगा ने कपड़े में लिपटे बालक को गंगा में प्रवाहित करने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया, उन्हें महाराज शांतनु की आवाज़ ने रोक दिया था।

    देवी गंगा के लिए यह अप्रत्याशित नहीं था, लेकिन क्षण भर को उन्हें बिजली का-सा झटका जरूर लगा और चौंककर उन्होंने महाराज से कहा-महाराज आप, यहां मेरे पीछे!

    देवी! तुमने एक-एक करके हस्तिनापुर के सात भाग्य सितारों को गंगा लहरी में प्रवाहित कर दिया, आंख खुलने से पहले ही उनका अंत कर दिया, मैं इस बच्चे का पिता होते हुए तुमसे निवेदन करता हूं कि इसे मेरी झोली में डाल दो। आखिर तुम भी एक मां हो, इतनी कठोर मत बनो।

    "लीजिए, आप पुत्र के इच्छुक हैं तो लो, मैं तुम्हारे इस पुत्र को तुम्हें सौंपती हूं, गंगा में प्रवाहित नहीं करूंगी।

    आप जानते हैं, कि मैं गंगा हूं, विवाह पूर्व शर्त के अनुसार आप मुझसे प्रश्न कर बैठे हैं, अतः इस पुत्र के जीवन की रक्षा के साथ मेरा-आपका साथ यहीं समाप्त होता है।"

    इतनी कठोर मत बनो देवी, मैंने राज्य में तुम्हें सभी सुख देने का भरपूर प्रयास किया है, सदैव तुम्हारा ध्यान रखा है, कभी तुम्हारे लिए कोई अप्रिय नहीं किया, फिर एक पुत्र की तुमसे इच्छा करना, क्या इतना बड़ा अपराध है कि तुम मुझे छोड़कर चली जाओगी।

    गंगा ने हंसते हुए कहा- ऐसा नहीं है महाराज! दरअसल मेरे गर्भ से उत्पन्न ये सभी पुत्र शापित वसु हैं, जो वशिष्ठ के शाप से कष्ट भोग रहे थे, मैंने इनको धरती पर आते हुए यह आश्वासन दिया था कि मैं इन्हें अपने गर्भ में धारण करके मुक्त कर दूंगी। सात वसु मुक्त हो चुके हैं, यह आठवां वसु जो वशिष्ठ मुनि द्वारा विशेष रूप से शापित हुआ था, बहुत दिनों तक के लिए मृत्यु लोग में वास करेगा। मुझे मालूम था, यह आठवां वसु द्यौ सरलता से मुक्त नहीं होगा।

    यह रहस्य क्या है देवी! मेरी समझ में नहीं आ रहा, मुझे स्पष्ट करो, तुम मेरी पत्नी हो, हमारे संबंधों में यह दैवीय हस्तक्षेप कैसा? यह तो मैं जानता हूं कि संबंध विधाता के द्वारा निर्धारित होते हैं लेकिन हमारा-तुम्हारा संबंध किसी खास योजना के अंतर्गत हुआ है, यह मुझे मालूम नहीं था। मैंने तो तुम्हें दैवीय कृपा जानकर तुम्हारा वरण किया था, लेकिन तुम देवकन्या हो, तो मुझे यह भी बताओ कि यह वसुओं के शाप का रहस्य क्या है और मेरे पुत्र होने का इनके साथ क्या संबंध है?

    "महाराज! सारे रहस्य मुझसे ही जानेंगे तो फिर सुनिए, आप भी शापित हैं, आपको शायद याद नहीं कि पूर्वकाल में इक्ष्वाकु वंश में आप महाभिष नाम से राज्य करते थे, स्वर्ग में आप मुझे देखकर मोहित हो गये थे और कुछ क्षण के लिए तो अवाक् देखते रह गए थे। तब ब्रह्माजी ने आपको, आपके इस अपराध के लिए मृत्युलोक में भेज दिया था और मुझे वसुओं के उद्धार के लिए देवताओं के निवेदन पर।

    और ये वसुगण!

    सुनिए, वशिष्ठ मुनि, अपने आश्रम में तपस्या कर रहे थे, कामधेनु की पुत्री नंदिनी गाय उनके आश्रम में यज्ञ का हविष्य देने के लिए वहीं रहती थी। एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ उस वन में आए। इन वसुओं ने वहीं आश्रम के पास वास किया। उनकी दृष्टि मुनि वशिष्ठ की गौ नंदिनी पर पड़ी। द्यौ से उसकी पत्नी ने कहा- प्रिय! यह सर्वोत्तम गाय बड़ी पुण्यकारी है, इसे अपने साथ ले चलिए, इससे हम हज़ारों वर्ष तक यौवन सुख भोग सकते हैं। इस गाय का दूध निश्चय ही बड़ा पौष्टिक है, इससे हम अपना उद्धार कर सकते हैं, अतः इसे हमें अपने साथ ले चलना चाहिए।"

    अपनी पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों को बुलाया और वह गाय हर ले गए।

    इन वसुओं को यह ध्यान ही नहीं रहा कि ऋषि बड़े तपस्वी हैं, वे उन्हें शाप देकर देव योनि से च्युत कर देंगे।

    शाम को महर्षि वशिष्ठ फल-फूल लेकर आश्रम लौटे, लेकिन यह क्या, नंदिनी का कोना खाली। कहां गई ये, ढूंढ़ने पर भी जब गाय नहीं मिली तो मुनि ने अपने दिव्य नेत्रों से यह जान लिया कि नंदिनी को वसुओं ने चुराया है। इसलिए उन्होंने शाप दिया कि ये सभी वसु मनुष्य योनि में जन्म लेंगे, क्योंकि यह कर्म द्यौ नाम के वसु का था, इसलिए यह अपना कर्म भोगने के बाद ही मुक्ति पायेगा।

    अर्थात् मैं इन शापित पुत्रों का पिता बना और यह द्यौ भी उन्हीं का शाप भोगने के लिए शापित है।

    दोनों हाथ उठाकर आकाश की ओर देखते हुए शांतनु ने कहा- जैसी इच्छा विधाता!

    मैं देवताओं की कार्य सिद्धि के लिए ही तुम्हारे पास इतने दिन रही। मनुष्य लोक में इन्हें तुम्हारे जैसा पिता और मेरे जैसी मां नहीं मिल सकती थी। राजन! वसुओं के पिता होने के कारण तुम्हें अक्षय लोक मिलेंगे, मैंने उन्हें तुरंत मुक्त कर देने की प्रतिज्ञा की थी, इसीलिए से ऐसा किया, अब वे शाप मुक्त हो गए हैं, अतः मैं जा रही हूं।

    लेकिन देवी यह तो बहुत गलत होगा, हम दोनों का सहजीवन समाप्त हो रहा है और तुम यह पुत्र मुझ पर दायित्व रूप में छोड़ रही हो। कम-से-कम इसके बड़े होने तक तो तुम मां का दायित्व निभाओ, इसे पालकर बड़ा तो कर जाओ देवी।

    महाराज! मैं कितनी ही कठोर क्यों न हूं, स्त्री हूं, आपकी पत्नी हूं, इतने वर्ष आपके साथ रही हूं, अतः हे आर्यश्रेष्ठ! मैं इस पुत्र को अपने साथ ले जा रही हूं, अपने दायित्व को पूरा करके; इसे पाल-पोसकर; बड़ा करके आपको सौंप जाऊंगी।

    गंगा के चेहरे की ओर देखते हुए शांतनु ने कहा- मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूं देवी, जो तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

    नहीं, देव! ऐसा मत कहिए, मैं भारतीय नारी हूं और आप जानते हैं कि भारतीय नारी की अपनी मर्यादा होती है। आपका आदेश मैं अवश्य मानूंगी, लीजिए इस पुत्र के सिर पर हाथ रख दीजिए, आपके प्रताप और मेरे तेज से यह बालक इस पूरे प्रदेश में प्रकाश फैलायेगा। इस पुत्र को मैं पाल-पोसकर बड़ा करूंगी और समय आने पर आपकी धरोहर आपको सौंप दूंगी। यह द्यौ वसु देवकृपा से आपके आंगन का प्रकाश बनेगा और इसका नाम देवव्रत होगा। अब आप निश्चिंत होकर महल में पधारिए।

    गंगा देवव्रत के साथ अंतर्ध्यान हो गई। असहाय एकांत में खड़े शांतनु ठगे से रह गए। उनकी एक भूल कि उन्होंने गंगा से प्रश्न क्यों किया, उनके सह-जीवन को तोड़ गई।

    यह उनकी शर्त अवश्य थी, किन्तु यह विश्वास नहीं था कि एक पत्नी होकर गंगा उन्हें इस प्रकार असहाय छोड़ देगी। लेकिन गंगा जा चुकी थी। अब शांतनु के सामने केवल शून्य था, विराट आकाश को अपने घेरे में समेटे, एक बड़ा शून्य, अब उनका जीवन स्वयं एक प्रश्न चिन्ह बन गया।

    थके-थके बोझिल कदमों से महल की ओर चलते हुए शांतनु खुद अपनी ही परछाई से डर रहे थे। हस्तिनापुर का वैभव, राजसी सुख और सारा प्रताप, शौर्य और वैभव मानो एक साथ इन सबको ग्रहण लग गया था। पर एक संतोष लेकर लौट रहे थे शांतनु कि अपने निजी और व्यक्तिगत सुख का त्याग करके भी उन्होंने अपनर राज्यधर्म निभाया है और हस्तिनापुर को उसका युवराज दिया है।

    ***

    अपने राज्य कर्म में व्यस्त शांतनु एक दिन गंगा नदी के तट पर विचरण कर रहे थे। गंगा की धारा पतली होती जा रही थी। उन्हें आश्चर्य हुआ।

    क्या गंगा को ग्रहण लग गया है या उद्गम सूख गया है, यह सोचकर शांतनु आश्चर्यचकित रह गए, उन्हें विस्मय हुआ कि देवनदी गंगा आज अपनी उत्ताल तरंगों में फैली तटों को काटती हुई विशाल रूप में क्यों नहीं बह रही?

    यह रहस्य जानने के लिए शांतनु आगे बढ़े और उन्होंने खोजा कि कारण क्या है? और उन्हें पता चला कि -

    दूर एक तेजस्वी सुंदर और विशालकाय कुमार दिव्य अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है। उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा को रोक रखा है।

    यह अलौकिक दृश्य देखकर शांतनु विचलित हो गए, उन्होंने तो अपने पत्र को पैदा होने के समय ही देखा था, इसलिए वे उसे पहचान ही नहीं सके।

    उस तेजस्वी कुमार ने महाराज शांतनु को अपनी माया से मोहित कर लिया और स्वयं अंतर्ध्यान हो गया।

    गंगा को संबोधित करते हुए शांतनु ने कहा- देवी! यह क्या माया है, मुझे यह रहस्य समझ में नहीं आया, कृपया स्पष्ट करो। मैं उस कुमार को देखना चाहता हूं। मुझे ऐसा भान हो रहा है कि निश्चय ही हमारा पुत्र देवव्रत है, यदि मेरा कथन सत्य है तो मुझे शीघ्र ही मेरे पुत्र से मिलवाओ। मैं उससे भेंट करना चाहता हूं। हां, और इस बात को सोलह वर्ष तो हो ही गए देवी! अवश्य यह देवव्रत ही है जो अपने कौशल से मुझे अचंभित करना चाहता है।

    मुस्कुराती हुई, अभिवादन की मुद्रा में झुकती हुई गंगा ने शांतनु को प्रणाम किया और अपने साथ हाथ पकड़कर लाए पुत्र को उपस्थित किया।

    अनुपम सौंदर्य, दिव्य आभूषण और निर्मल वस्त्र से सज्जित वह युवक महादेव शंकर, इंद्र और सूर्य के संयुक्त तेज से युक्त आभासित हो रहा था।

    गंगा ने कहा- महाराज! यह आपका आठवां पुत्र आपके सम्मुख है, जो मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ था, आप इसे स्वीकार कीजिए, मैंने अपना दायित्व पूर्ण किया। अब आप इसे अपने महल में ले जाइए।

    देवव्रत को इस प्रकार अपने सम्मुख देखकर शांतनु के हर्ष का ठिकाना न रहा। निश्चय ही पुत्र को पाकर गंगा के प्रति उनका सारा मैल भाव जाता रहा और एक बार फिर गंगा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा- देवी! मैं तुम्हारा ऋणी रहूंगा। तुमने इतना तेजस्वी बालक मुझे दिया है।

    आर्य! इसे वशिष्ठ ऋषि ने वेदों का अध्ययन कराया है, श्रेष्ठ धनुर्धर यह, युद्ध में इंद्र के समान है, देव गुरु वृहस्पति और दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य जो कुछ जानते हैं, वह सब इसे मालूम है। स्वयं भगवान परशुराम ने इसे अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान कराया है। धर्मार्थ निपुण इस धनुर्धर वीर को आज मैं आपके हाथों सौंपती हूं।

    पुत्र देवव्रत, एक अपरिचित व्यक्ति को अपने पिता के रूप में पाकर और माता-पिता के संवाद को सुनकर हतप्रभ रह गया। मां को पीछे लौटते देखता हुआ और पिता के साथ स्वयं आगे बढ़ता हुआ देवव्रत मानो एक नाव से दूसरी नाव में पैर रखकर नई यात्रा के लिए तैयार हो रहा था। उस शीलवान बालक ने यह जानकर कि यह प्रतापी पुरुष आकृति उसके अपने पिता हैं, उनके चरण स्पर्श किए।

    अपने अंक से लगाकर शांतनु ने एक अभूतपूर्व सुख का अनुभव किया। आज उनके कुल का दीपक अपनी कीर्ति पताका को फहराने के लिए, महाराज कुरु का वंशज कुमार देवव्रत, एक समर्थ व्यक्तित्व के रूप में उन्हें लगा।

    मां से विदा लेकर देवव्रत पिता के साथ राजमहल में आ गया।

    जिस दिन पहली बार महाराज शांतनु को उनकी परिचारिका ने यह समाचार दिया था कि महारानी गंगा ने पुत्र को जन्म दिया है तो शांतनु ने पूरे हस्तिनापुर के लिए दीपावली की योजना बनाई थी। उस घटना के तेइस वर्ष बाद आज शांतनु को अपने मन की वह इच्छा पूरी करने का अवसर मिला। वह परिचारिका जो अब बूढ़ी हो गई थी, जब शांतनु के सम्मुख आई तो महाराज को अपने पुत्र के साथ देखकर उसकी आंखों में खुशी के आंसू झलक आए।

    शांतनु उसकी पीड़ा पहचान गए, बोले- सुनो सेविका! तुम्हारी प्रफुल्लता में जो समय ने अवरोध डाल दिया था, देखो समय ने ही आज उसे स्वयं समाप्त कर दिया है। पहला तो नहीं लेकिन ये आठवां पुत्र तुम्हारे सम्मुख है। जाओ समूचे हस्तिनापुर में खुशी और उल्लास के नगाड़े बजवा दो। पूरा नगर आज दिवाली मनाएगा। राजकुमार देवव्रत नगर का भ्रमण करेंगे। जाओ सब तरफ यह समाचार दे दो।

    दुल्हन की तरह सजी हुई हस्तिनापुर नगरी, इंद्रपुरी अमरावती को भी अपनी सुंदरता से मात दे रही थी। राज्य सभा का आयोजन हुआ और सभी सभासदों के बीच में महाराज शांतनु ने अपने पुत्र देवव्रत को हस्तिनापुर का युवराज घोषित किया। राजगुरु ने और अनेक ब्राह्मणों ने

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