Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Jaishankar Prasad Granthawali Skandagupta Vikramaditya (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (दूसरा खंड - नाटक)
Jaishankar Prasad Granthawali Skandagupta Vikramaditya (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (दूसरा खंड - नाटक)
Jaishankar Prasad Granthawali Skandagupta Vikramaditya (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (दूसरा खंड - नाटक)
Ebook349 pages5 hours

Jaishankar Prasad Granthawali Skandagupta Vikramaditya (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (दूसरा खंड - नाटक)

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

जिस समय खड़ी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे। काशी के 'सुंघनी साहु' के प्रसिद्ध घराने में श्री जयशंकर प्रसाद का संवत् 1946 में जन्म हुआ। व्यापार में कुशल और साहित्य सेवी - आपके पिता श्री देवी प्रसाद पर लक्ष्मी की कृपा थी। इस तरह प्रसाद का पालन पोषण लक्ष्मी और सरस्वती के कृपापात्र घराने में हुआ। प्रसाद जी का बचपन अत्यन्त सुख के साथ व्यतीत हुआ। आपने अपनी माता के साथ अनेक तीर्थों की यात्राएं की। पिता और माता के दिवंगत होने पर प्रसाद जी को अपनी कॉलेज की पढ़ाई रोक देनी पड़ी और घर पर ही बड़े भाई श्री शम्भुरत्न द्वारा पढ़ाई की व्यवस्था की गई। आपकी सत्रह वर्ष की आयु में ही बड़े भाई का भी स्वर्गवास हो गया। फिर प्रसाद जी ने पारिवारिक ऋण मुक्ति के लिए सम्पत्ति का कुछ भाग बेचा। इस प्रकार आर्थिक सम्पन्नता और कठिनता के किनारों में झूलता प्रसाद का लेखकीय व्यक्तित्व समृद्धि पाता। गया। संवत् 1984 में आपने पार्थिव शरीर त्यागकर परलोक गमन किया।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 1, 2020
ISBN9789390088997
Jaishankar Prasad Granthawali Skandagupta Vikramaditya (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (दूसरा खंड - नाटक)

Read more from Jaishankar Prasad

Related to Jaishankar Prasad Granthawali Skandagupta Vikramaditya (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (दूसरा खंड - नाटक)

Related ebooks

Reviews for Jaishankar Prasad Granthawali Skandagupta Vikramaditya (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (दूसरा खंड - नाटक)

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Jaishankar Prasad Granthawali Skandagupta Vikramaditya (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (दूसरा खंड - नाटक) - Jaishankar Prasad

    ***

    स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य

    इस नाट्य रचना का आधार दो मन्तव्यों पर स्थिर किया गया है; जिनके सम्बन्ध में हमें कुछ कहना हैः पहला यह है कि उज्जयिनी का पर-दुःख भञ्जक विक्रमादित्य गुप्त वंशीय स्कंदगुप्त था और दूसरा यह कि मातृगुप्त ही दूसरा कालिदास था, जिसने ‘रघुवंश’ आदि काव्य बनाए।

    स्कंदगुप्त का विक्रमादित्य होना तो प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध होता है। शिप्रा से तुम्बी में जल भरकर ले आने वाले, और चटाई पर सोने वाले उज्जयिनी के विक्रमादित्य स्कंदगुप्त के ही साम्राज्य के खंडहर पर भोज के परमार पुरखों ने मालव का नवीन साम्राज्य बनाया था। परन्तु मातृगुप्त के कालिदास होने में अनुमान का विशेष सम्बन्ध है। हो सकता है कि आगे चलकर कोई प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिल जाये, परन्तु हमें उसके लिए कोई आग्रह नहीं। इसलिए हमने नाटक में मातृगुप्त का ही प्रयोग किया है। मातृगुप्त का काश्मीर का शासन और तोरमाण का समय तो निश्चित-सा है। विक्रमादित्य के मरने पर उसका दिया काश्मीर-राज्य वह छोड़ देता है, और वही समय सिंहल के कुमार धातुसेन का निर्धारित होता है। इसलिए इस नाटक में धातुसेन भी एक पात्र है। वंधुवर्मा, चक्रपालित, पर्णदत्त, शर्वनाग, भटार्क, पृथ्वीसेन, खिंगिल, प्रख्यातकीर्ति, भीमवर्मा (इसका शिलालेख कौशाम्बी में मिला है) गोविन्दगुप्त, आदि सब ऐतिहासिक व्यक्ति हैं।

    इसमें प्रपंचबुद्धि और मुद्गल कल्पित पात्र हैं। स्त्री पात्रों में स्कंद की जननी का नाम मैंने देवकी रखा है। स्कंदगुप्त के एक शिलालेख में - हतरिपुरिव कृष्णों देवकी मम्युपेत मिलता है। सम्भव है कि स्कंद की माता के नाम देवकी से ही कवि को यह उपमा सूझी हो। अनन्त देवी का तो स्पष्ट उल्लेख पुरगुप्त के माता के रूप में मिलता है। यही पुरगुप्त स्कंदगुप्त के बाद शासक हुआ है। देवसेना और जयमाला वास्तविक और काल्पनिक पात्र, दोनों हो सकते हैं। विजया, कमला, रामा और मालिनी जैसी किसी दूसरी नामधारिणी स्त्री की भी उस काल में सम्भावना है; तब भी ये कल्पित हैं। पात्रों की ऐतिहासिकता के विरुद्ध चरित्र की सृष्टि, जहाँ तक संभव हो सका, नहीं होने दी गई। फिर भी कल्पना का अवलम्ब लेना ही पड़ा है, केवल घटना की परम्परा ठीक करने के लिए।

    विक्रमादित्य

    जिसके नाम से विक्रमीय संवत् का प्रचार है, भारत के उस आबाल-वृद्ध परिचित प्रसिद्ध विक्रमादित्य का ऐतिहासिक अस्तित्व कुछ विद्वान लोग स्वीकार नहीं करते। इसके कई कारण है। इसका कोई शिलालेख नहीं मिलता। विक्रमीय संवत् का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है। स्वयं मालव में अति प्राचीन काल से एक मालव संवत् का प्रचार था, जैसे - ‘मालवानां गणास्थित्या याते शतचतुष्टये’ इत्यादि - इसलिए कुछ विद्वानों का मत है कि गुप्तवंशीय प्रतापी द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ही असली विक्रमादित्य था, उसी ने सौराष्ट्र के शकों को पराजित किया और प्रचलित मालव संवत् के साथ अपनी ‘विक्रम’ उपाधि जोड़कर विक्रमीय संवत् का प्रचार किया।

    परन्तु यह मत निस्सांर है; क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का नाम तो चन्द्रगुप्त था, पर उपाधि विक्रमादित्य थी; उसने सौराष्ट्र के शकों को पराजित कियाः इससे यह तात्पर्य निकलता है कि शकारि होना विक्रमादित्य होने के लिए आवश्यक था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शकारि होने का हम आगे चलकर विवेचन करेंगे। पर चन्द्रगुप्त उज्जयिनी-नाथ न होकर पाटलीपुत्र के थे। उनके शिलालेखों में गुप्त संवत् का हम आगे चलकर विवेचन करेंगे। पर संवत् व्यवहृत हैं, तब वह दो संवतों के अकेले प्रचारक नहीं हो सकते। विक्रमादित्य उनकी उपाधि थी, नाम नहीं था। इन्हीं के लिए ‘कथासरित्सागर’ में लिखा है -विक्रमादित्य इत्यासीद्राजा पाटलिपुत्राके सिकन्दरसानी और आलमगीरसानी के उदाहरण पर मानना होगा कि जिसकी ऐसी उपाधि होती है उससे पहले उस नाम का कोई व्यक्ति भी हो चुकता है। चन्द्रगुप्त का राज्यकाल 385-413 ई. तक माना जाता है। तब, यह भी मानना पड़ेगा कि 380 के पहले कोई विक्रमादित्य हो गया है, जिसका अनुकरण करने पर उक्त गुप्तवंशीय सम्राट् चन्द्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि से अपने को विभूषित किया। तख्तेवाही के शिलालेख का, जो गोंडोफोरस का हैं, काल 103 ई. है। तत्कालीन ईसाई कथाओं के आधार पर जो समय उसका निर्धारित होता है उससे वह विक्रमीय संवत ही ठहरता है। तब यह भी स्थिर हो जाता है कि उस प्राचीन काल में शक सवत् के अतिरिक्त एक संवत् का प्रचार था और वह विक्रमीय था। मालव लोग उसके व्यवहार में ‘मालव’ शब्द का प्रयोग करते थे।

    चन्द्रगुप्त का शक - विजय

    कहा जाता है गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने मालव और सौराष्ट्र के पश्चिमी क्षत्रपों को पराजित किया, जो शक थे। इसलिए यही चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य था। सौराष्ट्र में रूद्र सिंह तृतीय के बाद किसी के सिक्के नहीं मिलते। इसलिए यह माना जाता है कि इसी चन्द्रगुप्त ने रूद्र सिंह को पराजित करके शकों को निर्मूल किया। पर, बात कुछ दूसरी है। चन्द्रगुप्त के पिता समुद्रगुप्त ने ही भारत की विजय यात्रा की थी। हरिषेण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आर्यावर्त के विजित राजाओं में एक नाम रूद्रदेव भी है। संभवतः यही रूद्रदेव स्वामी रुद्रसेन था, जो सौराष्ट्र का भी क्षत्रप था। तब यह विजय समुद्र-गुप्त की थी, फिर चन्द्रगुप्त ने किन शकों को निर्मूल किया ? चन्द्रगुप्त का शिलालेख बेतवा और यमुना के पश्चिमी तट पर नहीं मिला। समुद्रगुप्त के शिलालेख से प्रकट होता है कि उसी ने विजय यात्रा में राजाओं को भारतीय पद्धति के अनुसार पराजित किया। तात्पर्य; कुछ लोगों से उपहार लिया कुछ लोगों को उनके सिंहासनों पर बिठला दिया, कुछ लोगों से नियमित ‘कर’ लिया इत्यादि। चन्द्रगुप्त के पहले ही यह सब हो चुका था, वस्तुतः वे सब शासन में स्वतंत्र थे। तब कैसे मान लिया जाय कि सौराष्ट्र और मालव में शकों को चन्द्रगुप्त ने निर्मूल किया, जिसका उल्लेख स्वयं चन्द्रगुप्त के किसी भी शिलालेख में नहीं मिलता। गुप्त वंशियों की राष्ट्रनीति सफल हुई, वे भारत के प्रधान सम्राट् माने जाने लगे। पर स्वयं चन्द्रगुप्त का समकालीन नरवर्मा (Gangdhar के शिलालेख में) और वह भी मालव का स्वतंत्र नरेश माना जाता है। फिर मालव चक्रवर्ती उज्जयिनी नाथ विक्रमादित्य और सम्राट चन्द्रगुप्त, जो मगध और कुसुमपुर के थे, कैसे एक माने जा सकते हैं ? चन्द्रगुप्त का समय 413 ई. तक है। इधर मान्दसोर वाले 424 ई. के शिलालेख में विश्ववर्मा और उसके पिता नरवर्मा स्वतन्त्र मालवेश है। यदि मालव गुप्तों के अधीन होता तो अवश्य किसी गुप्त राजाधिराज का उसमें उल्लेख होता, जैसा कि पिछले शिलालेख में (जो 437 ई. का है) कुमार गुप्त का उल्लेख है - वनान्तवान्तस्फुट पुष्पहासिनी कुमार गुप्तेपृथिवी प्रशासति इससे यह सिद्ध हो जाता है कि चन्द्रगुप्त का सम्पूर्ण अधिकार मालव पर नहीं था, वह उज्जयिनी नाथ नहीं थे, उनकी उपाधि विक्रमादित्य थी। तब उनके पहले एक विक्रमादित्य 385 से पूर्व हुए थे। हमारे प्राचीन लेखों में भी इस प्रथम विक्रमादित्य का अनुसंधान मिलता है। ‘गाथा सप्तशती’ एक प्राचीन गाथाओं का संग्रह ‘हाल’ भूपति के नाम से उपलब्ध है। पैठन में इसकी राजधानी थी इसका समय इसवीय सन् की पहली शताब्दी है। महामहोपाध्याय पं. दुर्गा प्रसाद ने अभिनन्दन के रामचरित से

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1