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भारतीय संगीत: एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा
भारतीय संगीत: एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा
भारतीय संगीत: एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा
Ebook395 pages3 hours

भारतीय संगीत: एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा

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भारतीय संस्कृति पर प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न युगों की सांस्कृतिक प्रवृतियों की छाप पड़ी है प्रत्येक युग में संगीत की विभिन्न प्रवृत्तियों और भूमिकाओं का भारतीय संस्कृति पर अलग-अलग प्रभाव पड़ा है। संगीत के किस रूप के किस युग में क्या भूमिकाएं रही है और समाज व संस्कृति के लिए उसकी क्या उपियोगिता और प्रासंगिकता रही यह संगीत के लिए एक चुनौती बना रहा। इन सभी बातों पर विचार करते हुए संगीत को सदैव समाज और संस्कृति में आए बदलावों और रूझानों के अनुरूप ही समाज के समक्ष रखने का प्रयास किया और उसकी भूमिका को अग्रणी स्थान दिया। संगीत के संदर्भ में वस्तुत: वही अनुसंधानात्मक दृष्टि उसे हर बद‌लते युग में प्रासंगिक बनाती रही।

Languageहिन्दी
PublisherWkrishind
Release dateDec 11, 2023
ISBN9798224874613

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    भारतीय संगीत - Vinod Sharma

    भारतीय संगीत

    एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा

    Picture 34

    विनोद शर्मा

    WKRISHIND…

    भारतीय संगीत: एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा

    विनोद शर्मा

    ––––––––

    Wkrishind Publishers

    WKRISHIND.IN

    Publication Date: December 2023

    Edition: I

    © विनोद शर्मा

    इस पुस्तक के किसी भी हिस्से को किसी भी रूप में या किसी भी माध्यम से, फोटो-कॉपी, रिकॉर्डिंग सहित इलेक्ट्रॉनिक या मैकेनिकल या किसी भी सूचना भंडारण पुनर्प्राप्ति प्रणाली द्वारा, लेखक की अग्रिम लिखित अनुमति के बिना पुन: प्रस्तुत या उपयोग नहीं किया जा सकता है।

    विनोद शर्मा

    Shimla, Himachal Pradesh

    WKRISHIND.IN

    प्राक्कथन

    image13.png

    भारतीय संगीत पौर्वात्य सभ्यताओं में एक अति प्राचीन और कलात्मक दृष्टि से गुणवन्त परम्परा है जिसके सुदीर्घ विकास के पीछे जम्बूद्वीप कहलाए जाने वाले विराट भारत का गौरवमय अतीत यहां की सुसभ्य और सुसंस्कृत जातियों का लम्बा इतिहास रहा है। लगभग दस हजार वर्षों की दशसहस्राब्दिक काल यात्रा कुछ कुछ अस्पष्ट तथा कुछ-कुछ पूर्णतः प्रमाणिक है। इसके निर्माण में जिन जातियों का योगदान रहा उनमें मोटे तौर पर आर्य, अनार्य और दक्षिण भारत के द्रविड़ है। यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, कोल, किरात आदि भी संगीत की दृष्टि से भारतीय संस्कृति के अंग रहे हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों और उसके पूर्व की आदिम जन-जातियों में संगीत निःसंदेह रहा होगा। हमारे पुराणों मिथकों, देवासुर संग्रामों के प्रकरणों और लोक गाथाओं में भी संगीत के प्रचलन होने के अनेक प्रमाण मिलते है। संगीत मनुष्य के आंतरिक और मूल जातिय भावों का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखता है। वह चाहे शास्त्रीय हो गैर शास्त्रीय हो लोक तत्वों से परिचालित अथवा आदिम वन्य जातियों के लोकोत्सवों से जुड़ा हो। संगीत में बदलाव के साथ-साथ निरन्तरता भी है। इसलिए आज के समय में भी हमें पर्वतीय मैदानी तथा जलतटीय जाति समुदायों में संगीत और नृत्य के अनेक रूप एवं विधाएं सुरक्षित देखने और सुनने को मिलती है। भारतीय षोड़श हिन्दु संस्कारों में तत्संबन्धी लोक संगीत एवं छन्द रचनाओं का विशेष महत्व है। चूड़ाकर्म, विवाह आदि कर्मों के अतिरिक्त धार्मिक कर्मकाण्डों में भी स्तुत्य एवं स्तवनिक गायन का अपना महत्व है। जिसके अभाव में किसी भी पारम्परिक धार्मिक कृत्य की कल्पना नहीं की जा सकती। रूद्र, सोमादि यागों में ऋचाओं एवं साम के छान्दस गान की मुद्रा सहित परिपाटी आज जीवित देखी जा सकती है।

    भारतीय संस्कृति की सुस्पष्ट झलक हमें आर्यों के सप्त सिन्धु क्षेत्र में प्रथम आगमन के बाद ऋक् तथा उत्तरोत्तर अन्य वेदों में मिलती है। यद्यपि इनके रचना काल में कोई सर्वसम्मत निर्णय नहीं बन पाया है फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि इन आर्ष ग्रन्थों की रचना से पूर्व के प्रागेतिहासिक काल में भी गायन एवं संगीत की परम्परा अवश्य ही रही होगी। इसके संदर्भ में ऋषियों-मुनियों द्वारा सम्पादित श्रुतियों और स्मृतियों में भी मौजूद है। वैदिक और वेदोत्तर पुराकाल से लेकर आज तक भारतीय समाज पौवर्तय संगीत और तत्कालीन सांस्कृतिक प्रभावों से जिस प्रकार अलग-अलग कालान्तरों में परिचालित रहा है, मेरी यह पुस्तक वस्तुतः उन्हीं तथ्यों की अनुसंधानात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है। साथ में इसको लिखते हुए मेरा लक्ष्य यह भी रहा है कि भारतीय अस्मिता के निर्माण में इन प्रभावों की अनेक आयामी भूमिका को भी रेखांकित करता चलूं और मैने, जहां तक सम्भव हो सका है इसका यथाशक्ति आंकलन करने का प्रयास भी किया है। अपनी सुदीर्घ काल यात्रा में भारतीय संगीत ने विभिन्न जातीय रूपों से एकमेव रूपाकार ग्रहण किया। जैसे गांधर्वगान, सामगान, मार्गी संगीत, देसी संगीत, ध्रुपद, धमार, ख्याल, भक्ति संगीत, सूफी संगीत, लोक संगीत आदि। इनसे भारतीय संगीत का विराट रूप अनुप्राणित और पल्लवित हुआ और आज भी निर्बाध आगे बढ़ रहा है। इस पुस्तक में लेखक द्वारा मूल रूप से उसी का निर्धारण संस्थापन और विवेचन किया गया है। वैदिक ऋचाएं और वेदोतर ज्ञान हमारे यहां पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत की शक्ल में मौखिक रूप से आगे हस्तांतरित होता रहा। इनका लेखन और पुस्तकों के रूप में प्रसारण बाद में हुआ। गुरू शिष्य परम्परा के रूप में भारतीय मनीषियों की यह कोशिश रही है कि मौखिक रूप से सम्प्रेषित करते हुए इसकी प्रमाणिकता बनी रहे। वेदों के बाद उपनिषद्, वेदान्त और पुराण आदि का स्थान है। महाकाव्य गाथाएं रामायण और महाभारत भी वस्तुतः वैदिक ऋचाओं में हमारी संस्कृति के जितने भी घटक हैं उन सभी का समावेश आज के समय में भी क्रमबद्ध रूप से उपलब्ध होता है। चयनित संस्कारों में समय-समय पर भारतीय संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों की व्याख्याओं का पूर्ण समावेश किया गया है। इसके अतिरिक्त आचार संहिता, साहित्य, कला, शासनतन्त्र और सामाजिक व्यवस्था इन सभी में भी हमारी संस्कृति के मूल तत्वों का समायोजन हुआ है। वास्तव में संगीत और संस्कृति निश्चय ही इस दृष्टिकोण से एक दूसरे के पूरक कहे जा सकते है। जहां कहीं भी संस्कृति का आरम्भ हुआ, संगीत सांस्कृतिक तत्वों को अपना कर सरस विधि से संस्कृति को सर्व साधारण के लिए उपयोगी और समृद्धशाली बनाता गया। संस्कृति के सैद्धान्तिक पक्ष को व्यवहारिक रूप देने का श्रेय संगीत को दिया जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी या यूँ कहा जाए कि संगीत संस्कृति की प्रयोगशाला है, जिसमें सांस्कृतिक तत्वों की व्यवहारिक योग्यता का विश्लेषण होता है। संस्कृति के जिन तत्वों को सहृदय व्यक्ति, विद्वान, लेखक या साहित्यकार उपयोगी पाते है, संगीत उनको व्यवहारिक रूप में अपने अंदर समेटे रहता है और आने वाली पीढ़ियों को इस सुसंस्कृति का परिचय वह अपने माध्यमों से प्रायः देता रहता है। प्राचीन संगीत को समझने के लिए हमें तत्सम्बन्धी संस्कृति का ज्ञान भी होना चाहिए। इसके अभाव में दोनों ही मीमांसा करना सम्भव नहीं। समय की गति के साथ न केवल वस्तुओं के रूप में परिवर्तन आता है अपितु लोगों की जीवन शैली, हाव भाव, अभिव्यक्तियों इन सभी में बदलाव भी होता रहता है। पूर्व अतीत में जिन चीजों की आवश्यकता होती थी आज वह निश्चय ही अप्रासंगिक हो रही है। उनकी जगह नए नए अविष्कारों ने सहज ही स्थान ले लिया है। पूर्व की जीर्ण और लुप्त प्रायः चीजों की प्रासंगिकता को समझने के लिए निश्चय ही उस काल विशेष की उपयोगिता को भी पूरी तरह टटोल कर देख लेना परम आवश्यक हो जाता है। किसी वस्तु को उसके परिपेक्ष्य में जान लेने के लिए निश्चय ही यह देख लेना आवश्यक हो जाता है कि उस काल में क्या धारणाएं और व्यवस्थाएं प्रचलन में थी। भारतीय संस्कृति पर प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न युगों की सासंस्कृतिक प्रवृतियों की छाप पड़ी है। जहां तक संगीत से संबन्धित उपलब्ध सामग्री का प्रश्न है। विद्वानों ने अब पौराणिक इतिहास के अध्ययन को ही अपने ग्रंथों का आधार बनाया है। अब प्रश्न यह उठता है कि संगीत के पौराणिक इतिहास में से किसको प्रासंगिक माना जाए? प्रत्येक युग में संगीत की विभिन्न प्रवृतियों और भूमिकाओं का संस्कृति पर अलग-अलग प्रभाव पड़ा है। संगीत के किस रूप की किस युग में क्या भूमिकाएं रही है और समाज व संस्कृति के लिए उसकी क्या उपयोगिता और प्रासंगिकता रही। यह संगीत के लिए सदैव ही चुनौति बना रहा। इन सभी बातों पर विचार करते हुए संगीत के मनीषियों ने संगीत को सदैव समाज और संस्कृति में आए बदलावों और रूझानों के अनुरूप ही समाज के समक्ष रखने का प्रयास किया और उसकी भूमिका को अग्रणी स्थान दिया। संगीत के संदर्भ में वस्तुतः यही अनुसंधानात्मक दृष्टि उसे हर बदलते युग में प्रासंगिक बनाती रही। संगीत के विभिन्न अंगों और उसके सांस्कृतिक महत्व को समझने के लिए सर्वप्रथम प्राचीन सांस्कृतिक परम्पराओं और लोक चरित्र को समझना परम आवश्यक है। यह बड़े दुःख की बात है कि हमारा संबन्ध अपनी प्राचीन संस्कृति से बड़ी तेजी से छूटता जा रहा है। इसलिए सम्भवतः आज के विद्यार्थियों के लिए भारत की विशाल सांस्कृतिक निधि का आंकलन करना कठिन होता जा रहा है। यदि हमें प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों, जो विश्व भर में हमें अलग पहचान देते है, की रक्षा करनी है और भविष्य में उसे अक्षुण्ण बनाए रखना है तो हमारे लिए अपनी तमाम प्राचीन सांसकृतिक विरासत के संबन्ध में ज्ञान रखना परम आवश्यक है। प्राचीन संस्कृति को जब हम संगीत के माध्यम से देखते है तो हमारे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम प्राचीन संस्कृति को उसके मूल रूप में देखें। इसके लिए भारतीय वाङ्गमय में उपलब्ध जो प्रामाणिक ग्रन्थ मिलते है वे हैं आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रचित महागाथा काव्य रामायण और महर्षि वेद व्यास द्वारा रचित महाभारत। यह दो गाथिक काव्य ऐसी जीवन्त परम्परा के स्रोत हैं जिनमें हमें भारतीय संस्कृति के व्यवहारिक रूप के दर्शन होते है। आदर्श और मर्यादित जीवन मनुष्य को किस तरह जीना चाहिए और कर्म की जीवन में क्या महता है इन बातों को रामायण और महाभारत के महानायकों ने अपने चरित्र में उतारकर भारतीय संस्कृति के मूल्यों को श्रेष्ठम् बनाकर मानव जीवन के समक्ष रखा।

    प्राचीन भारतीय जीवन के सांसारिक मनुष्य के रूप में चार साधन रहे है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। संगीत और संस्कृति के लिए इन चारों साधनों की समान रूप से प्रतिष्ठा रही है। इनमें से धर्म और मोक्ष का स्थान सबसे ऊपर रहा है। मोक्ष प्राप्त करने की आधारशिला धर्म ही है। जिसकी नींव जीवन के आरम्भ में ही डाली जा सकती है। आजीवन इसकी साधना मनुष्य को मोक्ष तक पहुंचाती है। ऐसा हमारे वैदिक ग्रन्थों में कहा गया है। आदर्श जीवन के इन महत्वपूर्ण सूत्रों से ही अंततः संस्कृति का निर्माण होता है। इन तथ्यों से संबन्धित विचारों को इस पुस्तक में मैने क्रम से उपस्थित करने का प्रयास किया है। किसी भी बात की सार्थकता के लिए यह आवश्यक है कि उसका सैद्धान्तिक पक्ष व्यवहारिक पक्ष में रूपान्तरित हो। भारतीय वाङ्गमय में संगीत और संस्कृति का विकास इन दोनों पक्षों का एक साथ समर्थन करता चला आया है। हमारी संस्कृति और हमारा संगीत उस समय के ज्ञान-विज्ञान पर आधारित रहा। किसी भी विषय का वैज्ञानिक पक्ष, सैद्धान्तिक पक्ष से स्पष्ट और प्रयोजनीय न हो तो वह केवल मात्र विचार बन कर रह जाता है। उसकी प्रासंगिकता केवल कोरा सिद्धान्त बन कर ही रह जाती है। भारतीय संगीत, वैज्ञानिक और व्यवहारिक दोनों दृष्टियों से सदैव सार्थक बना है। संगीत निश्चय ही तभी प्रभावशाली बना है, जब वह प्रत्यक्ष अनुसंधान से गुजरा है। संगीत सभी कलाओं में एक श्रेष्ठ सूक्ष्म ओर मर्म स्पर्शी कला विधा है क्योंकि उसकी बुनियाद में उपर्युक्त सभी तत्वों का समावेश पूर्व निर्धारित है।

    प्रस्तुत पुस्तक के विषय की स्पष्टता के लिए वैदिक काल की संहिताओं से लेकर आधुनिक काल के विचारकों के विचार संग्रहों, कलाकृतियों व लेखों द्वारा उपलब्ध सामग्री का आंकलन इस पुस्तक में किया गया है। रामायण और महाभारत हमारी संस्कृति के आधार ग्रन्थ है। इन दोनों ग्रंथों को भारतीय वाङ्ङ्गमय में अपूर्व प्रतिष्ठा मिली है। पौराणिक सामग्री का भी विषय की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है। पुस्तक के विषय का लक्ष्य आंतरिक रूप से संगीत की व्यवहारिक जीवन में उपयोगिता और उपादेयता को लेकर है। हालांकि वैदिक सूत्रों, स्मृतियों में सांस्कृतिक जीवन और उसमें संगीत के योगदान की सर्वाङ्गीण झांकी प्रस्तुत की गई है। फिर भी अपने लेखन के विषय को और अधिक व्यापक और प्रमाणमूलक बनाने के उद्देश्य से मैने संगीत के व्यवहारिक पक्ष के लिए इसका अनुसंधान करने की दिशा में वैदिक संहिताओं, पुराणों, इतिहास ग्रन्थों, जैन व बौद्ध कथा साहित्य तथा अनेक काव्य ग्रंथों का अध्ययन विशेष रूप से किया है।

    लेखन के विषय से संबन्धित पुस्तकों का अभाव होने के कारण इस विषय का अनुसंधान करना मेरे लिए चुनौति सा बन पड़ा है फिर भी विषय को स्पष्ट करने का भरपूर प्रयास किया है। प्रस्तुत पुस्तक इस दिशा में एक नया प्रयास है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए उसके अनुकूल सामग्री चयन करके विषय को प्रस्तुत किया गया है। संगीत में संगीत विषय के विभिन्न पक्षों पर भिन्न-भिन्न विद्वानों के अलग-अलग विचार होते हैं और संगीत के हर पक्ष की संस्कृति में अपनी पृथक-पृथक भूमिकाएं होती है। इन सभी भूमिकाओं को इस पुस्तक में प्रस्तुत करना निश्चय ही मेरे लिए नितान्त असंभव सा प्रतीत हुआ, फिर भी जहां तक हो सका अधिक से अधिक तथ्यों को अपनी इस पुस्तक में समाविष्ट करने का प्रयास किया है।

    प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय संगीत और संस्कृति के तत्वों को उजागर करने वाले विभिन्न ग्रंथकारों, लेखकों, साहित्यकारों, संगीतज्ञों का चिन्तन लेखक के लिए सदा अनुकरणीय और आदरणीय रहा है। इसके बिना पुस्तक की कल्पना करना निरी मूर्खता है। निःसंदेह प्राचीन भारतीय संगीत और संस्कृति के विषयों ने अनगिनत भारतीय और विदेशी मनीषियों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। इस दिशा में जो भी कार्य हुआ है वह इन विद्वानों के तप ओर कर्मठता का परिचायक है। लेखक उन सभी श्रद्धेय पण्डितों के प्रति नतमस्तक है। यद्यपि पुस्तक एक नई प्रस्तुति है फिर भी जहां तक बन पड़ा है, विषय को स्पष्ट करने के लिए लेखक द्वारा हर सम्भव प्रयास किया गया है ताकि उस संदर्भ में उसकी मूल दृष्टि स्पष्ट हो सके।

    प्रस्तुत पुस्तक को मुख्य रूप से सात अध्यायों में विभाजित किया गया है। प्रथम अध्याय में संस्कृति, भारतीय संस्कृति और संगीत के बारे में विषय की आवश्यकता के अनुसार उनकी परिभाषओं और विशेषताओं का वर्णन किया गया है ताकि पुस्तक में आगे आने वाले विषय के संदर्भ में उन्हें विषय को स्पष्ट करने के लिए जोड़ा जा सके। दूसरे अध्याय में पूर्व वैदिक काल और वैदिक काल की संस्कृति के उत्थान में संगीत के योगदान को स्पष्ट किया गया है। तृतीय अध्याय में रामायण काल और महाभारत काल की संस्कृति के उत्थान में संगीत के योगदान को सारगर्भित रूप में स्पष्ट किया गया है। चौथे अध्याय में जैन काल और बौद्ध काल का संक्षिप्त वर्णन किया गया है और उस काल में संगीत की तत्कालीन भारतीय संस्कृति के उत्थान में जो भूमिका और योगदान रहा उसे प्रस्तुत किया गया है। पांचवें अध्याय में मध्यकालीन भारतीय संस्कृति के उत्थान में संगीत के योगदान को स्पष्ट किया गया है। छठे अध्याय में आधुनिक भारतीय संस्कृति के उत्थान में संगीत के योगदान को प्रस्तुत किया गया है और अंतिम अध्याय में पूरे पुस्तक के सार को उपसंहार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

    कृतज्ञता ज्ञापन

    image13.png

    "सच्चिदानन्दरुपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे।

    तापत्रयविनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः।।"

    प्रस्तुत पुस्तक के कुशल निर्देशन के लिए मैं श्रद्धेय रीडर डॉ० परमा नन्द बंसल (संगीत विभाग-हि०प्र० विश्वविद्यालय) का हृदय से आभारी हूँ। जिनके आद्यान्त प्रेरणा एवं सतत निर्देशन से यह मेरा लेखन कार्य पूरा हो सका। इस पुस्तक की रूपरेखा से लेकर लेखन कार्य की समाप्ति तक उनके बहुमूल्य परामर्शों से मैं अत्यन्त लाभान्वित हुआ। अनेक बार हतोत्साहित होने पर भी उन्होंने अपने कुशल निर्देशन से विषय को अपने श्रेष्ठ सुझाव देकर शोध कार्य में मेरी सहज रूचि बनाए रखी।

    माता-पिता इस संसार में एक व्यक्ति को जन्म देने का कारण बनते हैं और गुरू उस व्यक्ति को संसार में जीने के लिए सही मार्ग प्रशस्त करने का माध्यम। इन दोनों के व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब उस व्यक्ति की जीवनशैली में देखा जा सकता है। या यूँ कहा जाए कि व्यक्ति के जीवन में माता-पिता और गुरू की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इनके अपेक्षारहित आशीर्वाद और योगदान को शब्दों में बांधना या वाणी से व्यक्त करना शायद ही किसी के लिए संभव हो। इन के प्रति कृतज्ञ होना या इनकी प्रशंसा में कुछ कहना सूर्य को दीया दिखाने जैसा है। माता-पिता और गुरू के रूप में परमात्मा प्रतिबिम्बित होकर अपने अस्तित्व का लौकिक आभास करवाते रहते हैं।

    मैं अपने माता-पिता का आजीवन ऋणी रहूंगा जिनके स्नेहमयी आशीर्वाद से मैं इस लेखन कार्यको पूर्ण कर सका।

    "अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।

    चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।"

    मैं अपने परम श्रद्धेय गुरू प्रो० सतीश शर्मा (सितार वादक) और उनकी धर्म पत्नी श्रीमती सुषमा शर्मा जी का आजीवन ऋणी रहूंगा जिनके स्नेहमयी और अपेक्षारहित आशीर्वाद और मार्गदर्शन से मैं संगीत जैसी पवित्र विधा में आगे बढ़ पाया। इन्होंने न केवल मुझमें संगीत को समझने की सोच पैदा की अपितु संगीत के वास्तविक अर्थ को सही मायनों में समझाया। आज इस पुस्तक को लिखने के योग्य बन पाया, यह सब उन्हीं की मेरे उपर की गई मेहनत का प्रतिफल है। उनकी सांगीतिक जीवनशैली मेरे लिए सदैव ही प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी। इसी के साथ-साथ में संगीत विभाग के सभी गुरूजनों (डॉ० जीत राम (विभागाध्यक्ष), डॉ० राम स्वरूप शांडिल और प्रो० चमन लाल वर्मा) जी का आभारी हूँ और इस विभाग के सभी कर्मचारी वर्ग का भी धन्यवादी हूँ जो समय-समय पर मुझे इस कार्य के लिए शुभकामनाएं देते रहे।

    में अपनी धर्म पत्नी श्रीमती सावित्री शर्मा का भी हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य समय को मेरे इस प्रयास के लिए त्याग कर दिया।

    में अपने छोटे भाई मदन मोहन और राजन सुशांत का भी आभारी हूँ जो समय-समय पर मेरे सांसारिक उत्तरदायित्वों को निभाते रहे। विशेषरूप से आभारी हूँ श्रीकान्त श्री निवास जी का जो एक लेखक भी है। इन्होंने मेरे इस कार्य में संशोधन कर मेरी अनेक त्रुटियों को निकाल कर इसे पाठनयोग्य बनाया और विशेषरूप से आभारी हूँ अपने जीजा जी श्री नरेन्द्र कुमार शर्मा और बड़ी बहन श्रीमती सुनीता शर्मा जी का जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय निकालकर मेरे इस कार्य को टंक्ति कर संपूर्ण किया।

    किसी पुस्तकालय के और पुस्तकालय के कर्मचारी वर्ग के

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