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Bachchon Ki Sadabahaar Kahaniyan (बच्चों की सदाबहार कहानियां)
Bachchon Ki Sadabahaar Kahaniyan (बच्चों की सदाबहार कहानियां)
Bachchon Ki Sadabahaar Kahaniyan (बच्चों की सदाबहार कहानियां)
Ebook541 pages4 hours

Bachchon Ki Sadabahaar Kahaniyan (बच्चों की सदाबहार कहानियां)

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About this ebook

बच्चों की इन सदाबहार कहानियों की एक विशेषता यह भी है कि इन्हें पढ़कर मन में उम्मीद के नन्हे नन्हे दीये टिमटिमाने लगते हैं। वैसे भी कहानी है, तो उजाला भी है। इसलिए कि कहानी अँधेरे में रास्ता टटोलने का ही दूसरा नाम है। और जब एक बार मन में उजाला भर जाता है तो वह हमारे जरिए बहुतों तक पहुँचता है। तब हमारी यह दुनिया भी जाने-अनजाने थोड़ी सी तो जरूर उजली हो जाती होगी।
उम्मीद है, ये मीठी-मीठी, सदाबहार कहानियाँ पढ़कर बच्चे अपनी प्यारी सी नन्ही-मुन्नी चिट्ठी जरूर लिखेंगे। मुझे बड़ी उत्सुकता से उसका इंतजार रहेगा।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateDec 21, 2023
ISBN9789359200422
Bachchon Ki Sadabahaar Kahaniyan (बच्चों की सदाबहार कहानियां)

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    Bachchon Ki Sadabahaar Kahaniyan (बच्चों की सदाबहार कहानियां) - Prakash Manu

    1

    खुशी को मिला मकई का दाना

    छो टी-सी थी खुशी और हरदम खुश रहती थी। इसीलिए मम्मी ने उसका नाम रखा खुशी खुशी को भी अपना नाम बड़ा प्यारा लगता। है। इसीलिए वह खुद तो खुश रहती ही है, दूसरों को भी अपनी भोली बातों और नटखटपन से खुश कर देती है।

    पर इधर कुछ दिनों से नन्ही खुशी जरा सीरियस है। उसके इम्तिहान पास आ गए हैं, इसलिए वह सब कुछ छोड़कर पढ़ाई-लिखाई में लग गई है। अब तो रात-दिन वह अपने होमवर्क की कॉपी लिए कभी उस पर गिनती लिख रही होती, कभी पहाड़े, कभी क, ख, ग, और कभी ए - बी-सी-डी-ई।

    मम्मी को बड़ा अजीब लगता कि नन्ही खुशी पढ़ाई-लिखाई में इतनी सीरियस हो गई! इतनी ज्यादा सीरियस कि पढ़ाई के अलावा बाकी सारी चीजें भूल ही गई। मम्मी जो कुछ बनाकर देतीं, झटपट खा लेती और फिर से पढ़ाई में लग जाती। उसने सोच लिया था, इस बार मुझे अपने क्लास में अव्वल आकर दिखाना है, ताकि लोग कहें, ‘देखो, नन्ही खुशी कितनी होशियार है। इस बार इसका एक भी नंबर नहीं कटा। पूरे में पूरे नंबर आए हैं।’

    आखिर दस दिन बाद खुशी के इम्तिहान खत्म हो गए। अब तो फुर्सत थी, छुट्टियाँ ही छुट्टियाँ! खुशी जमकर उछली-कूदी और नाची।

    नाचते-नाचते वह लॉन में गई तो पेड़ों ने फूलों ने और फूलों पर उड़ती रंग-बिरंगी तितलियों ने हँसकर कहा, हैलो खुशी, कैसी हो? बड़े दिनों बाद इतना खुश देखा है तुम्हें। रोज इतनी ही खुश रहो तो कितना अच्छा लगेगा हमें भी।

    इस पर खुशी बोली, अरे, मेरे पेपर थे ना! तो जरा पेपर की तैयारी तो जमकर करनी ही होती है। इस बार मेरे सारे सवाल सही। देखना पूरे में पूरे नंबर आएँगे।

    कहते-कहते खुशी का ध्यान गुलाब के फूल पर बैठी काले रंग की तितली की ओर गया।

    अरे वाह! काली तितली और इतनी सुंदर! ... और फिर खुश-खुश भी कितनी है। लगता है, जैसे हँस रही हो! खुशी ने सोचा।

    और क्या हँसँगी नहीं? तुम बातें ही ऐसी मजेदार करती हो। कहकर काली तितली बड़े जोर से हँस दी। फिर बोली, आओ खुशी, दौड़ें।

    सुनकर खुशी दौड़ी, वाकई दौड़ पड़ी। आगे-आगे काली तितली, पीछे-पीछे खुशी। खुशी बड़ी तेजी से दौड़ रही थी और उसे लगता, लो जी लो, ये पकड़ा मैंने काली तितली को!

    मगर तितली भी कम न थी। वह उड़कर यहाँ से वहाँ बैठ जाती, वहाँ से वहाँ। कभी गुड़हल के लाल सुर्ख फूल पर तो कभी चंपा - चमेली और बेला - मोगरा के सफेद फूलों की कतार पर। खुशी खूब दौड़ी, उछली - कूदी, मगर तितली ने उसे खूब छकाया। न उसे पकड़ में आना था और न आई। और फिर खुशी जब घास की लॉन पर बैठी - बैठी सुस्ता रही थी, तितली ने उसे ‘बाय’ किया और यह जा, वह जा।

    खुशी सोच रही थी, अब क्या करूँ?

    अच्छी-अच्छी धूप खिली थी और उसका खेलने का मन कर रहा था। तभी उसकी सहेली मीनू आई। बोली, चल खुशी, गेंद खेलें।

    मीनू के पास सुंदर-सी हरे रंग की गेंद थी। खुशी झट उसके साथ खेलने चल दी। झूला पार्क में जाकर दोनों देर तक खेलती रहीं। गेंद टप्पा खाकर कभी इधर जाती, कभी उधर। दोनों सहेलियाँ उसे पकड़ने दौड़तीं। जिसके हाथ वह गेंद आ जाती, उसका एक नंबर बढ़ जाता। कभी खुशी जीतती तो कभी हारती, पर हारने पर खुशी का मन उदास हो जाता। उसे हारने की आदत जो नहीं थी।

    आखिर खेलते-खेलते मीनू के चार प्वाइंट ज्यादा हो गए। खुशी कुछ उदास हो गई। उसकी आँखों में मोती जैसे आँसू झिलमिला उठे।

    इस पर मीनू बोली, देखो खुशी, यह तो अच्छी बात नहीं है। अब हार गई हो तो रो रही हो। तब तो मैं ही झूठी - मूठी हार जाती हूँ, ताकि तुम हँसो, हँसती रहो।

    खुशी ने झट आँसू पोंछ लिए। बोली, मैं रो कहाँ रही हूँ?

    और क्या, रो ही तो रही हो! मीनू बोली, इसका मतलब तो यह है कि तुम चाहती हो, खाली तुम जीतो, कोई और नहीं। अब मैं समझ गई, सब चाहे तुम्हें कुछ भी कहें, मगर तुम तुनकमिजाज हो।

    अब तो खुशी का जोर का रोना छूट गया। इस पर मीनू ने चुप कराने के बजाय उसका और मजाक उड़ाया। अपनी हरी गेंद लेकर हँसते-हँसते बोली, अच्छा खुशी, अब तू बैठकर आराम से रो, मैं तो अपने घर जाती हूँ।

    सुनकर खुशी का मन दुखी हो गया। इतनी चोट तो आज तक उसे किसी ने नहीं पहुँचाई थी। वह कुछ देर उदास - सी झूला पार्क में बैठी रही। फिर चुपचाप अपने घर की ओर जाने लगी।

    खुशी इतनी उदास थी कि उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। यहाँ तक कि झूला झूलने की भी उसकी इच्छा नहीं हुई।

    घर जाते हुए भी रास्ते में वह बस मीनू की हरी गेंद के बारे में सोच रही थी। मन ही मन कह रही थी, देखो कितना घमंड हैं मीनू को अपनी गेंद का! मैं भी आज पापा से कहकर अपने लिए नई गेंद मँगवाऊँगी।

    ... पर हाँ, यह बात तो मीनू की ठीक है कि मुझे अपनी हार पर रोना नहीं चाहिए था। खेल में जीत-हार तो चलती ही रहती है। इसमें भला रोना कैसा! यह मेरी गलती है। मुझे मीनू के आगे सॉरी फील करना चाहिए।

    खुशी यह सोचती हुई जा रही थी कि अचानक चलते-चलते वह चौंक गई। उसे लगा, रास्ते में कोई उसे देखकर हँस रहा है।

    उसका ध्यान खुद-ब-खुद अपने पैरों के पास गया। वहाँ एक मकई का दाना था, बहुत बड़ा-सा मकई का दाना। एकदम सुनहरा - सुनहरा। वह खुशी को देखकर हँस रहा था। उसकी हँसी इतनी प्यारी और इतनी भोली थी कि खुशी चलते-चलते रुक गई।

    कुछ देर खुशी खड़ी खड़ी उस गोलमटोल, भोले-भाले मगर शरारती मकई के दाने को देखती रही। फिर बोली, अरे-अरे, तुम हँस क्यों रहे हो मकई के दाने?

    इस पर मकई का दाना और भी जोरों से हँसा, खुदर - खुदर...खुदर खुदर! खुशी को बड़ी हैरानी हुई। बोली, ओ रे ओ मकई के दाने! तुमने बताया नहीं कि तुम हँस क्यों रहे हो...?

    क्योंकि तुम बुद्ध हो, बुद्धू- बिल्कुल बुद्ध! मकई का दाना फिर हँसा। फिर थोड़ा सीरियस होकर बोला, तुम तो इतनी बुद्ध हो खुशी कि जरा-सी बात पर रो देती हो। अगर तुम्हारी सहेली मीनू ने मजाक उड़ाया तो इसका मतलब यह तो नहीं कि सारे के सारे लोग बुरे हैं। आओ चलो, मेरे साथ खेलो।

    तुम्हारे साथ...? खुशी की उदासी एकदम खत्म हो गई। उसे इतनी हैरानी हुई कि मारे खुशी के वह हँसने लगी। फिर बोली, ओ रे ओ मकई के दाने! भला तुम्हारे साथ मैं क्या खेलूँ?

    अरे, मैं दौड़ तो लगा ही सकता हूँ! तुम क्या मुझे कम समझती हो? खूब तेज दौड़ता हूँ मैं, खूब तेज। आओ, दौड़ो मेरे साथ। मकई का दाना खिलखिलाकर बोला और झटपट उसने दौड़ लगा दी। साथ ही साथ खुशी भी दौड़ पड़ी।

    दोनों दौड़ते रहे, दौड़ते रहे देर तक। देर तक मगन होकर खेलते रहे। खुशी पहली बार इतनी तेज, इतनी तेज दौड़ी थी कि एकदम पसीने-पसीने होकर हाँफ रही थी। पर उसे अच्छा भी लग रहा था। बड़े दिनों बाद वह अपने कमरे से निकलकर पार्क की खुली हवा में आई थी।

    उसने एक बार फिर मकई के दाने की ओर देखा। वह अब भी उतनी ही शरारत से हँस रहा था और पार्क में बिल्कुल मीनू की हरी गेंद की तरह टप्पे खा रहा था। मजे में उछल और कूद रहा था।

    मकई के दाने के ये अजीबोगरीब करतब देखकर खुशी भी उछल पड़ी और जोर-जोर से तालियाँ बजाकर हँसने लगी।

    *

    कुछ देर बाद खुशी की मम्मी उसे ढूँढ़ते हुए झूला पार्क में आ गईं। वे कुछ परेशान - सी थीं। असल में अभी कुछ देर पहले ही उनका ध्यान गया कि खुशी तो घर में कहीं नजर नहीं आ रही! उन्होंने घर में ऊपर-नीचे, इधर-उधर हर जगह देखा। एक-एक कमरा खँगाल लिया। फिर भी नहीं मिली तो सोचा, शायद झूला पार्क में खेलने आ गई होगी।

    वाकई झूला पार्क में खुशी थी। खूब खुश थी और मकई के दाने के पीछे-पीछे दौड़ती हुई, उसके करतब देखती, तालियाँ बजाकर हँस रही थी।

    मम्मी आई तो मकई का दाना न जाने कहाँ लुक-छिप गया। मम्मी ने देखा, खुशी मगन होकर तालियाँ बजा रही है। नाच - गा रही है और उसके चेहरे पर बड़ी लाली और रौनक है।

    मम्मी ने बड़े प्यार से खुशी का माथा चूम लिया। बोलीं, आज बड़े दिनों बाद तुझे इतना खुश देख रही हूँ। आज क्या बात है खुशी?

    मम्मी-मम्मी, वो... मकई का दाना! खुशी के मुँह से निकला।

    कौन - सा ... कौन - सा मकई का दाना? क्या कह रही है तू? मम्मी ने हैरानी से खुशी की ओर देखकर पूछा।

    अरे, वाकई! नन्ही खुशी ने हैरानी से देखा, मकई का दाना तो कहीं था ही नहीं। एकदम गायब हो गया था।

    खुशी ने घर चलते हुए मम्मी को मकई के दाने का किस्सा सुनाया तो मम्मी हँसकर बोलीं, ओह, मैं समझ गई, तू जरूर कोई कहानी सुना रही है। वरना मकई का दाना भी कहीं गेंद की तरह उछलता कूदता, नाचना और दौड़ता है!

    खुशी बिल्कुल समझ नहीं पा रही थी कि वह कैसे मम्मी को बताए कि मम्मी-मम्मी, वाकई मकई का दाना था और अभी-अभी मेरे साथ खूब जोरों से दौड़-भाग रहा था और खेल रहा था। तभी तो आज मैं खुश हूँ। इतनी खुश, इतनी खुश... कि क्या कहूँ!

    उसने सोचा, अगली बार मकई का दाना आया तो वह उसे मम्मी से जरूर मिलवाएगी।

    2

    ऐसे मना पिंकी का जन्मदिन

    पिं की का जन्मदिन था। पर उसके मम्मी-पापा दोनों ही काम पर गए थे। पिंकी के पापा तो रोज रात के ग्यारह बारह बजे आते थे। एक कंपनी में मैनेजर थे। जल्दी आना उनके लिए मुश्किल था। मम्मी के दफ्तर में भी उस दिन कोई जरूरी काम आ पड़ा था। उन्होंने कहा था, पिंकी, मैं कोशिश करूँगी कि शाम को छह बजे तक जरूर आ जाऊँ। ऐसा करो, तुम अपनी सहेलियों को सात बजे के आसपास बुला लो।

    सुनकर पिंकी उदास हो गई। सोचने लगी, ‘मेरी सहेलियाँ तो दूर-दूर रहती हैं। सर्दी के दिन में वे मेरी बर्थ-डे पार्टी में शामिल होने के लिए रात को सात बजे आएँगी तो वापस घर कब पहुँचेंगी? उन्हें घर पहुँचाने कौन जाएगा? इस चिंता में तो जन्मदिन का सारा मजा ही किरकिरा हो जाएगा।’

    पर भला पिंकी मम्मी- पापा को कैसे समझाए यह बात? चलो, पापा न सही, पर मम्मी ही एक दिन की छुट्टी ले लेतीं तो मजा आ जाता। पर मम्मी कह रही थीं, इन दिनों दफ्तर में छुट्टी किसी को मिल ही नहीं सकती। छोटे से लेकर बड़े तक सभी सुबह से शाम तक डटे रहते हैं। दफ्तर में कोई जरूरी इंस्पेक्शन होना है! फिर मैं कैसे आ सकती हूँ?

    यही सब सोचते हुए पिंकी घर में परेशान सी बैठी थी। बार- बार एक ही बात उसके मन में आती, ‘अच्छा है मेरा जन्मदिन! ओह! आज के दिन भी मेरे जीवन में कोई खुशी नहीं।’

    पिंकी सोच रही थी कि क्या करूँ, जिससे मेरी ऊब मिटे? इतने में सीढ़ियों पर जोर-जोर की धप्प - धप्प की आवाज सुनाई पड़ी। और फिर जोर से दरवाजा पीटने की आवाजें।

    पिंकी दौड़कर गई। दरवाजा खोला तो उसके मुँह से खुशी के मारे चीख निकल गई। एक-एक कर उसकी सारी सहेलियाँ और दोस्त धप्प-धप्प करते घर के अंदर दाखिल हो रहे थे। सबने ‘हैप्पी बर्थ-डे’ और ‘जन्मदिन मुबारक’ कहकर पूरे घर को गुँजा दिया था।

    पिंकी की खुशी का ठिकाना न रहा। बोली, अरे वाह! तुम लोगों ने तो कमाल कर दिया! मैं सोच रही थी कि तुम लोगों को किस समय बुलाऊँ, क्योंकि पापा तो आज रात देर से लौटेंगे। मम्मी भी छह सात बजे से पहले दफ्तर से आने से रहीं। लेकिन तुम लोगों ने अच्छा किया, बिन बुलाए आ पहुँचे।

    और क्या! भला अपनी प्यारी-प्यारी पिंकी के जन्मदिन पर भी क्या हमें किसी बुलावे का इंतजार करना था। गुंजन चहककर बोली।

    इस पर पिंकी के चेहरे पर खुशी छा गई। बोली, सच तुम लोगों के आने से बहुत अच्छा लग रहा है।

    सो तो ठीक है! मगर तुमने यह तो पूछा ही नहीं, पिंकी कि हम तुम्हारे लिए क्या उपहार लाए हैं? चिनिया आँखें नचाती हुई बोली।

    देखना चाहोगी? बोलो! कहकर चुनमुन ने उपहार के सारे पैकेटों को खींचकर पास रख लिया।

    और फिर तो जैसे रंग-बिरंगे पैकेटों में छिपी खुशियाँ उछल-उछलकर बाहर आने लगीं। सबने खोल-खोलकर पैकेट दिखाना शुरू कर दिया था। सबसे पहले गुंजन ने डांस करने वाली अपनी जापानी गुड़िया निकाली। बटन दबाया तो वह अपना घाघरा फैलाकर नाचने लगी। और उसमें से गाने की आवाज आने लगी, ‘हैप्पी बर्थ-डे टू यू...!’

    चिनिया एक सुंदर पेंटिंग लाई थी, जिसमें पहाड़ों के बीच मोती जैसी एक सुंदर झील का दृश्य बना था। बरखा हरे पन्नों वाली एक खूबसूरत डायरी लाई थी, जिसके हर पेज पर एक अलग पेंटिंग बनी हुई थी। लतिका ने गणेश जी की एक बड़ी ही सुंदर कलात्मक मूर्ति भेंट की थी। चुनमुन एक खूबसूरत पेन सेट लाया था और धीरू हरे, नीले, पीले सुंदर फूलों से सजा पीतल का चमचमाता फूलदान।

    देखकर पिंकी तो झूम उठी। बोली, तुम लोगों को पता है, अभी थोड़ी ही देर पहले मैं अपने जन्मदिन को लेकर कितनी दुखी थी। लेकिन अब तो लग रहा है मेरे जन्मदिन पर खुशियाँ ही खुशियाँ बिखर रही हैं। रंगों की बरसात हो रही है। ओह, मैं कितनी खुश हूँ!

    इस पर पिंकी की सहेलियाँ और दोस्त मिलकर गाने लगे-

    बार-बार आए, बार-बार आए

    पिंकी का जन्मदिन!

    खुशियाँ भर लाए,

    सबको गुदगुदाए...

    पिंकी का जन्मदिन!!

    यह प्यारा गाना सुनकर पिंकी का चेहरा खुशी के मारे लाल हो गया। बोली, ठहरो, तुम्हारे लिए कुछ खाने को लाती हूँ। मम्मी तो हैं नहीं, पर जो कुछ भी रूखा-सूखा है...!

    क्या है रूखा-सूखा? जरा बताना तो! बरखा ने भौंहें नचाकर कहा।

    घर में ब्रेड पड़ा है। जैम भी है और बिस्किट - नमकीन! कुछ फल पड़े हैं, काजू-बादाम वाले लड्डू भी। और कल ही मम्मी ने बनाया था गाजर का हलवा!

    ठीक है, मगर जन्मदिन क्या इसी से मन जाएगा? कुछ स्पेशल डिश होनी चाहिए पिंकी रानी स्पेशल! समझीं कुछ?

    पर स्पेशल क्या? पिंकी झिझकती हुई बोली, मुझे तो कुछ बनाना नहीं आता।

    अरे, तुम्हें नहीं आता तो हमें तो आता है! चिनिया ने कहा तो पिंकी की सभी सहेलियाँ और दोस्त हँस पड़े।

    बस, तुम यह बताती जाओ पिंकी कि चीजें कहाँ पड़ी हैं! बरखा बोली, बाकी तो हम खुद बना लेंगी।

    और फिर पूरी की पूरी मंडली धप्प-धप्प करती रसोईघर में जा पहुँची। वहाँ पहले गरम-गरम पकौड़े बने, फिर पराँठे और उबले हुए आलू की चाट ।

    सबने जी- भरकर खाया। फिर ऊपर से गाजर का हलवा भी, जो पिंकी की मम्मी ने कल ही बनाया था। खाने-पीने के बाद सबने किस्से-कहानियाँ छेड़ दीं। चिनिया ने ऐसे प्यारे गाने सुनाए कि चुनमुन उठा और सिर पर हाथ रखकर नाचने लगा। सभी हँसते-हँसते लोटपोट थे।

    पिंकी का ऐसा शानदार जन्मदिन मना कि पिंकी भी खुश और उसकी मित्र-मंडली भी खुश। बाद में सबने मिलकर एक बार फिर खूब शानदार डांस किया। शाम को पाँच बजे पिंकी की सहेलियों ने विदा ली। जाते-जाते उन्होंने पिंकी के साथ मिलकर रसोई को भी खूब साफ करके चमका दिया था।

    कोई सात बजे पिंकी की मम्मी आई तो बोलीं, अरे, मैं बहुत थक गई हूँ, पिंकी। बता तो, तेरे दोस्त कब आएँगे?

    मम्मी, वे सब आकर चले भी गए। लो आप भी खाओ आलू की यह चाट। कहकर पिंकी ने पूरा किस्सा सुनाया तो मम्मी भी धीरे से मुसकरा दीं। प्यार से चाट खाते हुए बोलीं, हैप्पी बर्थ-डे टू यू पिंकी। और उन्होंने पिंकी का माथा चूम लिया।

    तभी एकाएक गुंजन की दी हुई जापानी गुड़िया घाघरा फैलाकर नाचने लगी, ‘हैपी बर्थ-डे टू यू!’

    इस पर पिंकी और उसकी मम्मी की एक साथ हँसी छूट गई। और पिंकी को लगा, ‘अरे, मैं तो बेकार परेशान हो रही थी। जबकि मेरा बर्थ-डे तो इस बार ऐसे मजेदार ढंग से मना कि हमेशा याद रहेगा।’

    3

    एक स्कूल मोरों वाला

    ता न्या कंधे पर बस्ता टाँगे मम्मी के साथ स्कूल जा रही थी। अभी वे स्कूल के पिछवाड़े वाली दीवार के पास ही पहुँचे थे कि एकाएक मोर की प्रसन्न आवाज सुनाई दी, ‘केऊँ- केऊँ!’ और उसके बाद तो बार-बार हवा को गुँजाने लगी यह टेर, ‘केऊँ- केऊँ...केऊँ-केऊँ... केऊँ- केऊँ....केऊँ...!!’

    तान्या अचानक चौंकी। बोली, मम्मी-मम्मी, मोर...! फिर जैसे अपनी बेकाबू हो चुकी उत्सुकता से उसने पूछा, मम्मी-मम्मी, यह मोर की ही आवाज है न!

    हाँ बेटी! मम्मी ने मुसकराते हुए कहा।

    तब तक फिर ‘केऊँ- केऊँ’ का मीठा - सुरीला संगीत शुरू हो गया था। अब तान्या को समझ में आ गया कि मोर एक नहीं, कई हैं।

    तो मम्मी, ये मोर हमारे में क्यों आए स्कूल हैं? तान्या ने जानना चाह्रा।

    ये भी तो पढ़ेंगे, जैसे तुम पढ़ती हो। कहते-कहते मम्मी को हँसी आ गई।

    हैं मम्मी? सच्ची! अब तो मारे अचरज के तान्या की आँखें निकली पड़ रही थीं।

    और क्या? मोर भी तो पढ़ सकते हैं। मोर भला क्यों नहीं पढ़ सकते? वो कोई बुद्ध थोड़े ही ना होते हैं।

    मम्मी ने कहा तो तान्या के भीतर पूरी फिल्म चल पड़ी। डिस्कवरी चैनल की तरह। यह कल्पना वाकई कितनी मजेदार थी कि जिस क्लास में वह पढ़े, उसी में बगल की चेयर पर कोई मोर भी किताब खोलकर बैठा, ध्यान से मैडम का लेक्चर सुनता हुआ लैसन पढ़ रहा हो।

    उसे सच्ची - मुच्ची अपने क्लासरूम में आगे की सीट पर बैठे मोर नजर आ गए। उनके पास तान्या की तरह ही स्कूल बैग था, बुक्स, कॉपियाँ, पेंसिल और कलर बॉक्स भी। तान्या सोचने लगी, फिर तो मैं स्कूल जाते ही सबसे पहले उन्हें हैलो किया करूँगी।

    पर मम्मी, मैडम इन्हें मारेंगी तो नहीं? अब तान्या को दूसरी चिंता सताने लगी।

    तान्या बेटी, भला मोरों को कोई मारता है? वे तो इतने प्यारे होते हैं। मैडम जरूर उन्हें प्यार से पढ़ाएँगी।

    तो मम्मी, मोर पढ़ेंगे कैसे? उन्हें ए- बी-सी-डी बोलना आता है? तान्या के सवाल खत्म होने में ही नहीं आ रहे थे।

    आता नहीं है तो क्या सीख जाएँगे! शुरू-शुरू में तुम्हें भी तो कहाँ आती थी इंगलिश। तुम कितना परेशान होती थीं। पर फिर सीख गईं न! मम्मी ने समझाया।

    वाह मम्मी, फिर तो बड़ा मजा आएगा। कहकर तान्या तालियाँ बजाकर हँसने लगी। फिर हँसते-हँसते बोली, मालूम है मम्मी, हमारे स्कूल में लास्ट पीरियड में सारे बच्चे मिलकर पहाड़े याद करते हैं। फिर तो मोर भी हमारे साथ-साथ पहाड़े याद करेंगे! कितना मजा आएगा ना मम्मी।

    हाँ, मगर साथ-साथ क्यों? देखना, मैडम तो ऐसा करेंगी कि एक तरफ तुम सारे के सारे बच्चे बोलेंगे और दूसरी ओर से मोर...!

    वाह मम्मी, फिर तो कमाल हो जाएगा! हम प्रिंसिपल सर से कहेंगे, वे इसकी वीडियो फिल्म बनवा लें। कहकर तान्या फिर से तालियाँ बजाने लगी। फिर बोली, ऐसा हो सकता है न मम्मी...?

    हाँ-हाँ बेटी, क्यों नहीं? जरूर हो सकता है। मम्मी ने भरोसा दिलाया। पर तान्या को शायद अब भी पूरा-पूरा यकीन नहीं था। सोच रही थी, कहीं मम्मी मजाक तो नहीं कर रहीं?

    थोड़ी देर में तान्या स्कूल पहुँची तो देखा, एक-दो नहीं, पूरे चार मोर एक पेड़ के नीचे खड़े हैं। बच्चे दूर से उन्हें देख रहे थे और खुश हो रहे थे। अभी प्रेयर का टाइम नहीं हुआ था, इसलिए कोई उन्हें टोक नहीं रहा था। पर आरती मैडम ने देखा तो पास आकर कहा, अरे, यहाँ क्या हो रहा है। चलो सब, अपनी-अपनी क्लास में।

    आरती मैडम की बात पूरी होने से पहले ही सारे बच्चे एक साथ चीखे, मैडम मोर...!

    मैडम तो मोर नहीं हैं, मोर वो रहे सामने। कहकर आरती मैडम हँसने लगीं।

    तब तक रूपा मैडम, मालिनी मैडम, वंदना कौल मैडम, पीटी के देवा सर और कंप्यूटर वाले सक्सेना सर भी आ गए थे। एक साथ चार-चार मोरों को देखकर उन्हें भी बड़ी हैरानी हो रही थी।

    इतने में स्कूल के पीयून राधेलाल ने पास ही थोड़ा दाना लाकर बिखेर दिया। मोरों को शायद भूख लगी थी। उन्होंने देखा तो झट वहाँ आ गए और मजे में खाने लगे।

    लगता है, अब ये रोज आएँगे! मेघना बोली।

    मुझे भी लगता है। जरूर इन्हें हमारा स्कूल पसंद आ गया है। फिर यहाँ ऊँचे-ऊँचे पेड़ भी कितने हैं, खूब हरियाली है। नंदिनी बोली।

    हैं? फिर तो बड़ा मजा आएगा। तान्या खुश हो गई। सच तो यह है कि आज वह इतनी खुश थी कि खुशी उसके भीतर समा नहीं रही थी। उसे लग रहा था, असल में देख नहीं रही, कोई फिल्म चल रही है उसके सामने।

    अच्छा, अब सब लोग चलो अपनी-अपनी क्लास में। इतनी भीड़ देखकर मोर कहीं भाग न जाएँ! पीटी सर ने चेताया।

    हाँ-हाँ, चलो! बच्चों ने एक-दूसरे से कहा। पर क्लास में जाते हुए भी वे मुड़-मुड़कर मोरों को ही देख रहे थे। और जब वे क्लास में जाकर बैठे, तब भी सबके खयालों में बस मोर ही थे।

    *

    और सचमुच जो बच्चों ने सोचा था, वही हुआ। मोर जो उस दिन आए थे, तो रोज आने लगे। और ऐसा पिछले कोई पंद्रह-बीस दिनों से हो रहा था।

    यह इतनी अजब-निराली चीज थी कि इससे देखते ही देखते पूरे स्कूल का माहौल बदल गया। बच्चे इतने उत्साहित थे कि जैसे उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा खजाना मिल गया हो।

    प्रिंसिपल आनंद सर बच्चों से बहुत प्यार करते थे। जब बच्चे इतने खुश थे तो वे भला कैसे खुश न होते? उन्होंने राधेलाल से कहा, देखो, मोरों के लिए दाना डाल दो और ध्यान रखना, कोई इन्हें नुकसान न पहुँचाए। फिर जैसे कुछ याद आया, उन्होंने कहा, और हाँ, बच्चों से कहना, भीड़ न लगाएँ। नहीं तो हो सकता है, फिर ये आना बंद कर दें।

    इधर बच्चों के उत्साह का भी ठिकाना न था। यह तो कुछ ऐसा हो गया था, जिसकी उन्होंने सपने में भी कल्पना न की थी। बच्चे घर से दाना लाकर राधेलाल को दे देते, और राधेलाल मोरों के आगे उन्हें डालता तो वे खुशी के मारे किलकारी भरने लगते।

    फिर एक दिन प्रिंसिपल सर ने प्रेयर में कहा, यह हमारी खुशकिस्मती है कि जैसे तुम सारे के सारे बच्चों को हमारा स्कूल अच्छा लगता है, वैसे ही मोरों को भी यह स्कूल पसंद है। लगता है, मोर घूमते-घूमते निकल आए होंगे और उन्होंने हमारे स्कूल को इसलिए चुना, क्योंकि उन्हें यहाँ के बच्चे अच्छे लगे। ऐसे प्यारे बच्चे भला उन्हें कहाँ मिलेंगे? अब आप लोग कोई ऐसा काम न करें, जिससे इन्हें दुख हो। कहीं ये ऐसा न सोचें कि हम तो यह समझकर आए थे कि यहाँ के बच्चे अच्छे हैं, पर ये तो बड़े गंदे हैं। तो बताइए आप लोग, कोई बच्चा इन्हें तंग तो नहीं करेगा ना!

    नहीं! सब बच्चों की एक साथ आवाज गूँजी।

    अब तो हर दिन प्रेयर में प्रिंसिपल सर मोरों को लेकर कुछ न कुछ जरूर कहते। सुनकर बच्चों को अच्छा लगता। कुछ बच्चे कविता लिखकर लाते और मंच पर जाकर सुनाते। कुछ बच्चों ने चित्र भी बनाए। प्रिंसिपल सर ने एसेंबली में सब बच्चों को वे चित्र दिखाए। हर कोई उन्हें देखकर ‘वाह वाह’ कह उठा।

    इससे उत्साहित होकर प्रिंसिपल सर ने स्कूल में एक चित्रकला प्रतियोगिता कराई। सब बच्चों ने वहीं बैठकर मोरों के एक से एक सुंदर चित्र बनाए। कुछ बच्चों ने तो मोर और बच्चों की दोस्ती की सुंदर झाँकी ही पेश कर दी। किस्म-किस्म के चित्र, जिनमें हर बच्चे का कुछ अलग अंदाज था।

    तान्या का बनाया चित्र सबको बहुत पसंद आया। उसने एक मोर को गले में बस्ता टाँगकर स्कूल जाते हुए दिखाया। पर इससे भी अच्छा चित्र एक नन्हे बच्चे कर्ण ने बनाया था। उसमें सारे मोर मिलकर एक उदास बच्चे को खुश करने की कोशिश कर रहे थे। बीच में बच्चा था और आसपास गोला बनाकर नाचते ढेर सारे मोर। उसे देखते ही सब बच्चों ने तालियाँ बजानी शुरू कर दीं। उसी चित्र को पहला इनाम

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