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Prem Diwani (प्रेम दीवानी)
Prem Diwani (प्रेम दीवानी)
Prem Diwani (प्रेम दीवानी)
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Prem Diwani (प्रेम दीवानी)

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About this ebook

प्रेम का एक रंग होता है, एक भाव और एक दिशा। उस पर दूजा रंग नहीं चढ़ सकता। फिर मीरा पर कैसे चढ़ता ! वह तो प्रेम दीवानी थी।
मीरा ने हृदय में डूबकर उसकी गहराई से ऐसा गाया कि वह अमृत वाणी गा उठा।
मीरा ने जो गाया, जिसके लिए गाया, वह उसमें ऐसा डूबकर गाया कि उसमें और मीरा में कोई भेद ही नहीं रहा। मीरा उसकी होकर रह गई। उसने अपने को भुला दिया। उसे अपनी सुध-बुध ही नहीं रही।
दीवानापन पगला देता है। एक बार देखो कृष्ण के प्रेम का ऐसा दीदार करके, तो फिर किसी अन्य का दीदार करने की चाह ही नहीं रहेगी।
अपनी चाह को किसी दूसरों की चाह बना देना प्रेम की पराकाष्ठा है। मीरा में वह थी। मीरा ने गाया है कि "हेरी, मैं तो प्रेम दीवानी, म्हारा दर्द न जाने कोय," वह उसने अन्त करके अन्यतम गहराइयों में उतर कर गाया, जहां उसके अलावा कोई दूसरा नहीं।
वास्तव में मीरा प्रेम की ऐसी पुजारिन है कि उससे समग्र प्रेम की गहनतम अनुभूति होने लगती है कि समर्पण भाव साकार हो उठता है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateDec 21, 2023
ISBN9789356844520
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    Prem Diwani (प्रेम दीवानी) - Dr. Rajendra Mohan Bhatnagar

    एक

    संध्या ढलने की तैयारी कर चुकी है। सुबह से शाम तक क्या कुछ नहीं किया। जाते-जाते वह मर्त्यलोक को अपने सतरंगी आकर्षण में बाँध लेना चाहती है। उसकी आँखों में उन्माद है और उसके अंग-प्रत्यंग में बिजली।

    आसमान में चटकीला फाग मचा हुआ था। सब ओर चटकदार रंग बिखरे हुए थे।

    फुनगियों पर से आँचल समेटती सन्ध्या को पता नहीं क्या हुआ था कि मुट्ठी भर-भर नानाविध रंग फैला उठी। साथ में उसकी चटुल नववय सखियाँ भी सम्मिलित हो गईं। फिर क्या था कि देखते-ही-देखते अम्बर अरुण, नीले, पीले, हरे, गुलाबी आदि अनेक रंगों से भर उठा। उन रंगों ने सारी धरती व सारा आकाश रंगोन्माद कर डाला। जिधर देखो, उधर रंग!

    एकबारगी पक्षियों ने डैने समेट कर आँखें फाड़े अपने आपको निहारा और फिर अपने चारों ओर देखा। सर्वत्र रंग ही रंग था-नानाविध गुलाल ही गुलाल था। मृगशावक चौकड़ी भरना भूल गए थे। खरगोश स्मित भर स्तब्ध थे। मयूर वृक्ष की डाल पर बैठे-बैठे साश्चर्य परस्पर अवलोक रहे थे। सब सोच रहे थे कि क्या हो गया आज मौसम को।

    किस रंगरेज ने धरती-अम्बर का तन-मन रंग डाला था। इतना अबीर, इतना गुलाल! कौन था जो कुमाच में कुमकुम भरकर बिखेर रहा था! किस क्रशित नव मल्लिका से सौरभ सजा थाल छूट गया! किधर से कौशीलव का दल अचानक आ निकला! किस द्वादशांग ध्रूम का यह कमाल है कि उसने पिस्तई, पल्लवी, चंपई, पीताभ, पुष्प-रेणु प्रभृति रंगों से गगनांचल भर डाला! कहीं यह पुष्यार्क की सिद्धि का प्रभाव तो नहीं है! किस भगली का यह काम है! किस बिसाती ने लगाई है यह दुकान! किस दृप्त की दृढ़ताई ने यह ठिठोली की है! कौन है जिसने दुग्धाब्धि को रंग डाला है! किसी को पता नहीं! सब साश्चर्य!

    विस्मित बनी मीरा अपने में विस्मृत थी। कैसा काठिन्य था! जो चाह कर भी टूटता नहीं था।

    वह दुस्त्यज था प्रत्युत दुष्प्रेक्ष्य नहीं।

    यह सब प्रातिहरिक का क्रीड़ा-कौतुक है।

    वह इतनी प्राज्ञी और वाग्मिती कहाँ है?

    यौतुक में वह अपने साथ क्या-क्या न लाई थी! पर बहुत कुछ ऐसा था जिसे योगांजन लगाये बिना नहीं देखा जा सकता था।

    वह लघ्वी है-द्रुम चढ़ी लता-सी तन्वी।

    क्या वह लक्षिता है?

    उन्होंने कितने विनयावनत होकर गुनगुनाया था भ्रमर-स्वर में कि वह उस आम्र मंजरी सौरभानुभूति से गद्गद् होकर विधुप्रिया-सी विनित हो उठी थी। उसे लगा था कि उसमें कोटिशः निर्झर एक साथ पिक स्वर में गा उठे हों। वह साक्षाद्दृष्ट से अधिक महत्त्वमय था। कैसी साकूत-स्मित थी उसमें कि अन्तरात्मा हल्दित हो उठी थी!

    अभ्र उन्मादी हो उठा था।

    प्रभंजन मलजयी बन बह रही थी धीरे-धीरे!

    अद्भुत था वह यौवनोद्दाम। अद्भुत थी वह रंगशाला। अद्भुत था वह रंगावतारक। प्रिथिमी का रन्ध्र-रन्ध्र ताटंक की नाईं थिरक उठा था। कैसा अद्भुत तादर्थ्य था! कैसा था कमनीय मतवाला वह दृश्यबन्ध!

    मन कैसा पगला है! कैसा मनचला! मनाने से और बिखरता है।

    उसने अपने दोनों पागिपल्लवों को परस्पर मिलाया और फिर मुक्त कर दिया। कुछ देर अपलक दृष्टि से अपने मुक्त करों को अवलोकती रही।

    उसने अधः स्वस्तिक की ओर देखा। फिर बचपन में उभरे हुए नीलाम्बरी प्रभाव को अपने में अनुभूत किया। उसमें नानाविध रंग का चटुल चपला से कौंध उठे।

    क्या जीवन का यही सत्य है? क्या यथार्थतः यही जीवन है? क्या यही उसकी सार्थकता है?

    यह सत्य नहीं है तो फिर इस जीवन का सत्य क्या है, यथार्थता क्या है, सार्थकता क्या है और क्या है इस जीवन का मर्म!

    उसी संध्या की तो बात है। वह अम्बर में मचे फाग में लवलीन थी, एकदम अद्वैत बनी। उसे किसी की सुध नहीं थी। कोई उसके पास नहीं था। जटिल खामोशी पिघल रही थी धीरे-धीरे अन्दर ही अन्दर। चेतना उद्बुद्ध थी। अद्भुत अचरज भर उठा था उसमें! जीवन कितना मृदु मधुर है मन्द्र-मन्द्र स्मित-सुमन सा और कितना मकरंदी है-पावन, निश्छल और निर्झरी है!

    उसके मन-मन्दिर में उस साधु की स्वर-लहरियाँ चपला-सी कौंधने लगीं। वह पगी अवस्था का था। घनी जटाएँ सिर पर धारण किए था। कद ठिगना था। चेहरा एकदम अरुण था। आँखें बड़ी-बड़ी और भावपूर्ण थीं। वह आत्म विस्मृत हुआ मंद-मंद गा रहा था-मानो अपने से बात कर रहा हो, क्योंकि गाते-गाते वह बीच-बीच में रुक जाया करता था और कुछ रुक कर फिर गा उठता था-

    बालम आओ हमारे गेह रे

    तुम बिन दुखिया देह रे

    सब कोई कहै तुम्हारी नारी मोकों लागत लाज रे

    दिल से नहीं दिल लगाया तब लग कैसा सनेह रे

    अन्न न भावै नींद न आवै गृह बन धरे न धीर रे

    कामिन को बालम प्यार ज्यों प्यासो को नीर रे

    है कोई ऐसा परउपकारी पिव सौ कहे सुनाय रे

    अब तो बेहाल भयो है बिन देखे जिव जाय रे

    उसमें कैसी अभिरति और कैसी उत्सर्गोन्मुखी चेतना है! मीरा को अनुभव हुआ कि वह स्फूर्त हो उठी है और उसमें उज्जीवन मुस्करा उठा है सद्यः प्रफुल्ल शतदल-सा।

    मीरा का ध्यान फागोम्मद अम्बर से हट उस साधु पर केन्द्रित हो गया था। वह भावों का कोकनद-सा प्रतीत हो रहा था। मीरा साश्चर्य सोच रही थी कि उस माधु के मानस-पटल पर महकते-चटकते पर्यावरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। निसर्ग फाग रचाये है परन्तु उस गांधर्वि में अद्भुत ताटस्थ्य था। उसके गीत में सम्मोहन था, जिसने मीरा को पकड़ लिया था। उससे नहीं रहा गया। वह उस साधु को बुलाना चाहती थी। उससे पूछना चाहती थी कि समग्र जागतिक प्रभावों से सम्पृक्त अपने में कैसे जी रहा है! उसने अपने चारों ओर दृष्टिपात किया! कहीं कोई दृष्टिगोचर नहीं हुआ। तभी अकस्मात् उसकी दृष्टि अनुबाई पर पड़ गई। अनुबाई के विवाह को हुए दूसरा माह था। वह जब-तब उनके यहाँ आ जाया करती थी। प्रायः साथ में उसकी माँ भी होती थी। मीरा उसी से घण्टों बातचीत करती रहती थी। कनाचित् वह उसी को ढूँढने उधर आई है। इससे पूर्व कि वह लौट ले मीरा ने उसे पुकार लिया और उसके पास आने पर उसने उसे अपना सविस्तार मंतव्य समझा दिया और जिज्ञासु बनी उसको निहारती रही।

    अब वह मनस्वी गांधर्वि एक अन्य भजन उठा बैठा था-

    घूँघट के पट खोल रेवताको पीक मिलेंगे

    घट-घट में वह साँई रमता कटुक वचन मत बोल रे

    धन जोबन को गरब न कीजै झूँठा पचरंग चोल रे

    सुन्न महल में दियरा बारि लै आसन से मत डोल रे

    जाग जुगुल सों रंग महल में पिय पायो अनमोल रे

    कहै कबीर आनन्द भयो है, बाजत अनहद ढोल रे

    अनुबाई उसे अपने साथ ले आई।

    उस गांधर्वि के हाथ में इकतारा था। उसका चित्त शान्त था।

    मीरा ने उसका अभिवादन किया। आशीर्वाद पाया।

    -बाबा, आप इतना अच्छा गाते हैं …इतना अच्छा कि पिक सुन ले तो वह भी लजा जाए। -मीरा ने अपने छलक आए हृदय को उल्था दिया।

    उसने प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा। वह आत्मकालीन हुए इकतारा छेड़ता रहा।

    -बाबा, आपके स्वर में अतीव मधुरिमा है -घना मिठास है। -मीरा ने गद्गद् होकर कहा।

    इस बार उसने इकतारा छेड़ना बन्द कर दिया और कुछ सोचता हुआ-सा कहने लगा -कबिरा कबिरा था। पता नाहिं केतिक अमर हो गए और केतुक हो जय्याँ। वह तो आतम गियानी हुतो। जगत रचैया को खूब अच्छी तरह सूँ जानत हुतो। म्हारो जामे का है? हम तो वाही के बनाये भजन कूँ गावैं हैं। जामें कैसो अचरज-अचम्भो।

    -कौन था यह कबिरा? -मीरा ने साश्चर्य प्रश्न किया।

    -अम्ही का कबिरा जान कर करि हौं। वाको जानने के लिए तो बहोऽत लम्बी उमर पड़ी है। तिहारी बतियन सूँ लागत है कि तिहारी उमर चौदह-पन्द्रह बरस से ज्यादा नाहिं है। उस गांधर्वि ने सहज भाव से उत्तर दिया।

    -जा में क्या बड़ी बात कह डाली? यह तो जो देखेगा, वही सहज में बतला देगा, बाबा! -मीरा ने अपने निश्छल हृदय का परिचय दिया।

    -लेकिन बिटिया, हम तो जन्म से सूरदास हैं। -उसने अपनी विवशता व्यक्त की।

    -तो क्या हुआ। नाम से क्या अन्तर पड़ता है -सूरदास हो या मुरलीदास। -मीरा ने ओढ़नी संभालते हुए तपाक से कहा।

    -तू सूरदास को नाहिं जानत। पर जा में तिहारा कुछ दोस नाहि…सब करम का फेर है। म्हारो धरम-करम कूँ इन म्लेच्छन ने नास कर दियो। जैपुर नरेस नूँ अपनी बहन कूँ लेच्छन के बादशाह को विवाह दी-अकबर कूँ। फिर परजा तो वैसा ही आचरण करि हौं, जैसा राजा। सूर कूँ ध्यान को करि हैं… कोई नाहिं…कोई नाहिं… -उस गाँव का कण्ठ भर आया था। उसकी आँखें छलछला आईं और उसका हृदय आर्द्र हो उठा।

    -आप ही बता दें कि सूरदास कौन था? इसमें नाराज होने की क्या बात है! पूर्ण ज्ञानी तो कोई बिरला ही होता है। -मीरा ने ईषद् रुक्षता दरसाते हुए कहा।

    इस पर वह साधु मुस्कराया। इकतारा को तनिक छेड़ा। फिर वह बोला-तू बुरा मान गई, बिटिया। सूरदास अंधो भगत था। किसन-गोपाल कूँ भगत। वा पर वल्लभ अचारच की किरपा थी। वाके पुत्र विट्ठल अचारच हुतो। वाने सूर को अष्टछाप भजनियों का मुखिया बना दियो। सूर अपनी लगन, अपनी भगती और अपनी जिज्ञासा के कारण परसिद्ध हो गयो। वाने हजारनु पद गाए। वो जन्म सूँ अंधो हुतो। वाही के कारण अंधों को अंधा न कह कर वाहे सूरदास कहा जात है। वाही के कारण हमहुँ सूरदास भए… भए न-बाबा ने सहज व्याख्या कर डाली! उसे लगा कि उसका हृदय गा रहा था।

    -तो क्या आपको दीखता नहीं है, बाबा?-मीरा ने द्रवीभूत होकर सहज प्रश्न किया।

    -अँधरो कूँ का दीखे है, बिटिया…सबरी दुनिया सुन्न। जाके आँख नाहिं वाको बनवारी है। बनवारी…-दीर्घोच्छ्वास लेते हुए उसने आर्द्र वाणी से कहा। फिर वह तनिक गुमसुम-सा हो गया। वह किसी सोच में डूब गया अस्त होते सूर्य-सा!

    -फिर उसने कैसे पद बनाये होंगे? कैसे वर्णन किया होगा?-मीरा में जिज्ञासा अंकुर फूटे।

    वह कुछ देर सोचता रहा। उसकी बात मननीय थी। वह खखार कर बोला-उसके मन की आँखें हुतीं।

    -मन की आँखें?-साश्चर्य मीरा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें फैला कर कहा।

    -हाँ, मन की आँखें। बिना मन की अँखियन खुले किसन गोपाल नहीं सूज सकत है… मन की अँखियन का ही वो सब चमत्कार है…

    -यह कैसे खुलती हैं, बाबा? मीरा ने सोचते हुए पूछा।

    -आतम गियान सूँ। -बाबा ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।

    -आत्मज्ञान क्या होता है? कैसे होता है? -मीरा ने सहज होकर पूछा।

    -आतम गियान-यानी अपने को जानना।

    -अपने को जानना। वह कैसे?

    -वह कैसे? -वह भी सकपकाया। ऐसा प्रश्न उससे किसी ने नहीं पूछा था। उसने भी किसी से नहीं पूछा था। अपने गुरु से भी नहीं। गुरु ने कुछेक भजन दे दिए थे। कुछेक भक्त-महात्माओं की जानकारी करा दी थी। देशाटन का महत्त्व समझाते हुए गुरु-मंत्र दे दिया था-महाप्रभून को यही हुक्म हुतो कि अपने कूँ जानना जगत भ्रमण सूँ होवे हैं, सो बराबर घूमते रहो। रुकवे को काम नाहिं है। साधु-भगत नद्-नारे बहते अच्छे। -उसने भी खूब भ्रमण किया। सारे तीर्थ किये। परन्तु क्या वह अपने को जान सका? क्या इस जीवन में जान सकेगा? वह ठीक से कुछ नहीं जानता। उत्तर तो देना था। वह कहने लगा-आतम गियान भ्रमण से होता है।

    -घूमने से! -साश्चर्य मीरा ने तनिक संशय से पूछा।

    -ईश्वर का भजन करवूँ से।

    -ईश्वर का भजन! -ईश्वर क्या है? -मीरा ने जिज्ञासा प्रकट की।

    -ईश्वर क्या है? -उसने मन-ही-मन दोहराया। उसे नहीं मालूम। क्या कहे? वह कहने लगा-किसन कन्हैया ईश्वर है!

    -कहाँ रहता है? -मीरा ने पुनः पूछा।

    -वृन्दावन में।

    -उसके माता-पिता कौन हैं?

    -यशोदा-नंद।

    -उसकी पहचान क्या है?

    -उसके सिर पर मोर का मुकुट सोभायमान है। उसके कानन में कुण्डल हैं। उसके नैन बड़े-बड़े हैं। वह पीताम्बर पहनता है। मेघ-सी उसकी देह है। वह मुरली बजाता, गैयन चराता, रास रचाता और माखन चुराता घूमता रहता है।

    -उसने एक साँस में कह डाला। इसके साथ ही उसने इकतारा के तार छेड़ दिए।

    -उसके लिए वृन्दावन जाना होगा।

    -वह घट-घट बासी है। वाहे जो पुकारत है-साँचे मन से, वो वाही के पास दौड़ता हुता चला आत है। -उसने गदगद् कण्ठ से कहा।

    -तो वह बड़ा नेक है। -बहुत सुंदर है। मलूक है। सज्जन है। -मीरा ने भाव विह्वल होकर कहा और उस साधु की ओर अनसोचे निहारा। साधु आश्चर्य से मीरा की ओर अवलोक रहा था और सोच रहा था कि इस बालिका में ऐसी उत्कंठाएं कैसे! वह कोई साधारण बालिका नहीं है!

    -एकदम सूधो। सच्चो। दीनन कूँ रखवाला।

    -मैं बुलाऊँगी, वह आ जाएगा?

    -जरूर आ जाएगा।

    -आपने उसे देखा है न? -मीरा पूछ रही थी।

    -वह फिर सोच में पड़ गया। क्या कहे, क्या नहीं। अभी तक उसने उसे देखा नहीं था। पर यहाँ तो बात अड़ गई थी, सो असत्य ही बोलना पड़ा-देखो है। वो बड़ा बाँको है। -उस साधु ने धीमे स्वर में कहा।

    -मैं भी उसे देखूँगी।

    -अवस्य देखना।

    वह बाबा चला गया।

    उसके चले जाने के बाद अनुबाई बोली -यह क्या बचपना है?

    -क्या री!

    -यही बाबाओं को बुलाकर उनसे माथापच्ची करने का।

    -तुझे बुरा लगता है क्या?

    -और क्या! इससे लाभ।

    -मुझे इनको देखकर आश्चर्य होता है कि यह लोग कैसे घर-बार छोड़ कर संन्यास ले लेते हैं? क्या मिलता है इन्हें? क्यों छोड़ देते हैं घर-बार? कोई तो अवश्य कारण होगा। हर व्यक्ति अच्छी चीज़ को पाने का यत्न करता है। तो घर से संन्यासी या साधु होना अच्छा है? मैं यही जानना चाहती हूँ। -मीरा ने अपनी जिज्ञासाओं को उजागर करते हुए कहा। उसके मन यह सोच घन घटा-सा न जाने कब से घिरता जा रहा था परन्तु इसका उत्तर नहीं मिल रहा था।

    -तू भी क्या ऊल-जलूल बात ले बैठी है। प्रायः साधु-संन्यासी ढोंगी होते हैं। घर बसाने से संन्यासी या साधु बनने में अधिक लाभ है, अधिक आसान है। कोई काम करना नहीं पड़े। ऊपर से राम नाम अन्दर से छुरी। भोग की पूरी छूट…जब कभी समाज में

    साधुओं की भीड़ भरी है, तभी समाज रसातल को पहुँचा है…इसे देखा, यह तो ऐसे कह रहा था, जैसे सचमुच इसने कृष्ण-कन्हैया देखा होगा-अनुबाई ने ईषद् आक्रोश से कहा और अपनी सारी कड़वाहट उल्था दी।

    तो क्या यह झूठ बोलता था?

    और क्या सच बोलेगा। बात कृष्ण-कन्हैया की करता था और भजता था कबीर के निरगुनिये को। समझता है कि सारी दुनिया मूर्ख है…आँख हैं नहीं… मन की आँखों से देख रहा है। कहीं ऐसा हो सकता है? ऐसा होता तो दुनिया में कोई अंधा नहीं रहता। सब अंधे सूरदास बन जाते-कृष्ण-कन्हैया को पा जाते! वाह…वाह! क्या ढोंग है। और हम, जिन आँखों से हमें नज़ार आ रहा है, उन्हें बन्द करके मन की आँखें खोलना चाहते हैं। आश्चर्य होता…-अनुबाई ने तर्क पैना करते हुए कहा। ओढ़नी को ठीक से लिया और परामर्श दिया कि वह इनकी बातों पर नहीं जाए अन्यथा जीवन चौपट हो जाएगा।

    -मैं तो यों ही…-मीरा ने टालने की दृष्टि से कहा।

    यों ही, यों ही में आदमी फंस जाता है…अच्छा तू यह बता कि क्या वह तेरे स्थान पर होता तो इन चक्करों में पड़ने की सोचता?

    -कैसा चक्कर!

    -ईश्वर का दिया तुम्हारे पास सब कुछ है। उसी की कृपा का फल है कि तुम्हारी शादी इतने ऊँचे घराने में हो रही है। राजा के जा रही हो। राजा भी वह जिसका सारा भारतवर्ष सम्मान करता है। वह राजा जो फिर से म्लेच्छों को देश से बाहर निकालने के लिए कृत संकल्प है और देश की अखण्डता को पुनर्स्थापित करना चाहता है…देश को आज शक्ति की आवश्यकता है, हाथ में मंजीरे, करताल, इकतारा आदि लेकर अलख जगाने वालों की नहीं। -अनुबाई में अपने परिवार का रक्त जोर मारने लगा था। उसके पिता मुगलों के विरुद्ध लड़ाई में मारे गए थे। उसके भाई का भी वही हश्र हुआ था। उसे मुगलों के नाम से चिढ़ थी। उसमें युद्ध को लेकर अद्भुत प्रतिक्रिया अंधड़ उठाने लगती थी और उसकी मुद्राएं धधकते ज्वालामुखी सी बन जाती थीं।

    -तू ठीक ही कहती है अनुबाई! मीरा ने बात को समाप्त करने की दृष्टि से कहा था। व्यर्थ का प्रवाद क्यों मन को दुःखी करे। वह जानती थी कि यदि यह बात बढ़ी तो उससे उसे और क्रोध पैदा होगा।

    एक तरह से अच्छा ही हुआ, जो उसकी माँ का बुलावा आ गया।

    अनुबाई चल पड़ी।

    मीरा वहीं ठहरी रह गई। वह सोचती रही कि सच क्या है! कृष्ण है या नहीं। है तो क्या है? क्या कृष्ण वृन्दावन में मिल जाएगा?

    अब तक आकाश अपनी चमक खो चुका था।

    फाग के रंग गायब थे।

    गहरा सन्नाटा तन गया था शत्रु की सेना-सा। हवा भी थम चुकी थी। आकाश में तारे टिमटिमा उठे थे। लगता था कि धीरे-धीरे हाट भर जाएगी, और मेला पूरे यौवन पर आ जाएगा।

    मीरा के मन में एक वाक्य उछला-जीवन यह है।

    -क्या है?-उसके मन ने प्रश्न किया।

    -जो था और अब नहीं है।

    -क्या था और क्या अब नहीं है!

    -फाग खेलता अम्बर अब कहाँ है?…वह कुछ समय पूर्व था… तो क्या वह सत्य नहीं है। जो अब है क्या वह सत्य है?… थोड़े समय बाद यह भी नहीं रहेगा। फिर क्या सच होगा?

    -क्या होगा? -उसके मन में द्वन्द्व छिड़ गया।

    -दोनों ही असत्य हैं।

    -नहीं, दोनों ही सत्य हैं।

    -दोनों ही न सत्य हैं न असत्य। मात्र स्थिति का आभास है।

    -पुजारी ने कहा था न-सूरज कहाँ छिपता है?

    -पश्चिम में।

    -निकलता किधर से है?

    -पूर्व से।

    -यह भ्रान्ति है। सूरज न निकलता है और न छिपता है।

    -सूरज निकलता और छिपता स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, यह क्या है?

    स्थिति का आभास। जैसे एक ही व्यक्ति शिशु से लेकर जब तक बूढ़ा होता है और वह आयु क्रम के अनुसार भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है परन्तु होता तो वह एक ही है, अनेक नहीं। पृथ्वी सूरज की परिक्रमा लगा रही है, उसी कारण यह भ्रांति होती है कि सूरज निकलता है और छिपता है। सत्य यही है कि वह न निकलता है और न छिपता है…अन्तिम सत्य यह भी नहीं है क्योंकि सत्य गतिशील है-निरन्तर घटता-बढ़ता रहता है…सत्य एक अनुभूति है जो हर कार्य के पीछे और कार्य होने तक बराबर होती रहती है।

    -कैसे?

    -तुम जो कार्य कर रहे हो, उस कार्य को करते हुए मन उमंगित रहेगा, उत्साहित रहेगा और निश्शंक रहेगा। न भय होगा और न पश्चात्ताप, न कठिनाई होगी और न उदासीनता और न चित्त घबराएगा और न मन थकेगा। यही सत्य का साक्षात्कार है, यही सत्यानुभूति है… यही ईश्वरत्व है-यही सच्छास्त्र और सच्चिदानन्द है। सत्य की अनुभूति के उपरान्त व्यक्ति रोगार्त नहीं रहता है। न उसमें रौक्ष्य रहता है…मुक्ति की अनुभूति भी यही है कि सक्रिय रहते हुए भी मुक्ति का अनुभव होता रहे…पापोदय कार्य नहीं करने से होता है। कार्य जितने अधिक लोगों के लिए किया जाता है, सत्यानुभूति उतनी ही तीव्र होती है… न निहंग बनने से शिव है और न गृहस्थ। हर व्यक्ति दूसरे के लिए जीए, दूसरे के लिए जीवनोत्सर्ग करे और अपने लिए न्यून से न्यून ले-यही जीवन का महोत्सव…न नक्तंचर दैत्य है और ब्रह्म मुहूर्त में जगने वाला देव है। जो प्रियंवद है, प्रियंकर है और परमार्थी है, वही सच्चा मानव है, ईश्वरांश है और महात्मा है।

    मीरा का हृदय फगुनहट से भर उठा। उसे अनुभव हुआ जैसे उसका आनन्ददायिता सामने आ खड़ा हुआ है। उसने मन-ही-मन उस अलख को आनति कर अथाह आनन्दोर्मियों को अपने में तरंगित होते अनुभव किया। वह उसका आनन्द आपयिता है।

    वह अनुक्षण घोषवती के स्वर से अनुपूरित रहने लगी। मानो उसका मन चंगेरी बन गया हो। मानो चंडांशु नक्षत्रेन्द्र-सा अमिय वर्षण कर उठा हो।

    उसमें अजीब-सी झुनझुनी सरकती रही। उसने झुबझुबी (कान का एक आभूषण) को छूकर देखा। दौहर्दि शून्य मन में फागोन्मद नीलाभ्र डोल गया। द्यूयोषित् उसमें अवतीर्ण हो गई। वह निर्वाक् की प्रतिमा बनी पात्रत्व भाव से भर उठी।

    सहजता मानो कुमुदोत्सव मना रही हो। मानो पाटीर के वन झूम उठे हों। मुक्त कंचुक-सा परिवेश मानो उसमें नर्तन कर उठा हो। वह सारूप्य हो उठी थी। उसे लगा कि उसका स्वर्ग्य ही उसमें जी उठा है।

    हिमाब्ज से भरा सरोवर उसके मन-हृदय पर छा गया हिम रश्मि-सा। गीतों भरा गगन और नूपुरोन्मद सरितांचल महक उठा मनाम्बर में।

    तब मीरा में गीत ने आँखें खोलीं। उसका जी हो आया कि वह अपनी प्रमत्तता को उल्था कर दे और प्रभूत भावविह्वलता के विकस्वर मन को अभिव्यक्ति दे दे। प्रत्युत वह ऐसा नहीं कर पाई। उसने गीत की प्रसव वेदना को रमणगमना-सा कुछ-कुछ अनुभव किया। उसके रतोपल से रदच्छद सुकम्प से भर उठे। रथोत्सव के लिए सुसज्जित रथ्या बनी वह अपने में प्रमोहानुभूति गहराती पा रही थी। जीवन फाग-सा है।

    एक गहरी निश्वास ले वह वहाँ से चल पड़ी, अद्भुत शिथिलता लिए।

    समग्र पर्यावरण उनींदा-सा सम्मोहित हो चला था।

    कभी क्या होता है कि व्यक्ति में क्या हो रहा है, स्वयं वह व्यक्ति उसे तटस्थ बना मूकदर्शक-सा निहारता रह जाता है। कैसा शैथिल्य उपजता है। क्यों उपजता है? कौन उपजाता है?

    कौन दे उत्तर!

    वह तो स्वयं ही में प्रश्न बुन रही थी। प्रश्न ऐसे जो गूँगे-बहरे। चाह लिए अनचाहे से। बोधाधृतता का पात्र बने प्रमाशून्य।

    सहजता इतनी जटिल होती है क्या?

    अपनापन इसे कहते हैं क्या?

    पता नहीं कैसे और क्यों कौन खिला रहा था उसमें सरसिज प्रश्न?

    क्या अभिप्राय था उन प्रश्नों का?

    चाह कर भी मीरा यह नहीं जान पाती थी।

    वहाँ थाह थी कहाँ?

    अतल में कैसी थाह!

    कसक थी अतीव मधुरिमा संकुल।

    मथित हो उठा था मन। वे उद्वेलित क्षण थे। जलोधि मंथन-सा हो रहा था उसमें। एकान्त मुखर हो रहा था। निःस्वनता अवगुण्ठन उठा सल्लजता संसार को विमुक्त किए थी, नतशिर हुई। अमराई से भर उठा था गगन। हिमाक्षी निर्झर बाँध आनर्तन कर उठी थी। कैरव-कस्तूरी मन खुल-खुल पड़ा था बारम्बार। झोल पदार्घ्य बन गई थी। कोई पहरुआ नहीं था। पाहुना की प्रतीक्षा थी। कैसा होगा? कौन होगा? होगा भी या नहीं। चटुल चंचला चंचरीक-सी चहक उठी शून्याँगन में शत-शत बार! मानों मोक्तिक हार टूट कर बिखर गया हो ज्योत्सना की छाँह तले और वह सरोजाक्षी सौम्यता के भार से झुकी व्रीड़ानत हुए सोचती रह गई हो कि वह क्या करे, क्या नहीं? कदाचित किसी की प्रतीक्षा में अपने में मौन बाँधती और खोलती रही चित्रलिखित-सी।

    ❖❖❖

    दो

    धीरे-धीरे मीरा में अपने में खोने की आदत पड़ती गई। वह मन-ही-मन अपने से बात करने लगी थी। वह क्या बात करती थी, यह उसे मालूम नहीं था। वह तो इतना जानती थी कि उसमें उस अतीव आनंद आता था। वह मगन हो झूम उठती थी। कभी-कभी मीरा का बहुत मन होता कि वह कुछ गा उठे। उसके अन्त रपट पर घन घटनाएँ छा रही थीं। बिजुरी चमक रही थी, परन्तु वर्षा नहीं हो पाती थी। रह-रहकर उसे माधवेन्द्र पुरी¹ का स्मरण हो आता था।

    उन्होंने मेड़ता में चौमासा किया था।

    कई बार मीरा उनसे मिल चुकी थी। वह अत्यन्त सौम्य तथा सहज स्वभाव के थे। उसे स्मरण हो आई भोर की वह वेला, जब माधवेन्द्र पुरी प्रातः स्मरण के बाद एकदम अकेले ध्यानमग्न बैठे हुए थे।

    मीरा के अभिवादन से वह चौंक पड़े थे। बोले-आ मीरा, आ। आज सुबह सुबह…

    -हाँ, आचार्यपाद, सुबह-ही-सुबह। …मैं तो तड़के ही आना चाहती थी, परन्तु तब आना ठीक नहीं समझा।

    -ऐसी क्या बात है? -उन्होंने सहज स्मित भर कहा।

    -है न कोई ऐसी बात। -मीरा ने उल्लसित होकर अंकुर की तरह गद्गद होते हुए कहा-वही तो बताने आई हूँ।

    -निःसंकोच बता, बेटी।

    -आप उस दिन श्रीकृष्ण का महत्त्व और उनकी लीला का वर्णन कर रहे थे न। मीरा ने उन्हें याद दिलाते हुए कहा।

    -फिर? -कृष्ण-स्मरण तो वह रोज ही करते थे। उन्हें स्मरण नहीं हुआ कि वह कौन-सा दिन था, जिसकी मीरा चर्चा कर रही है। फिर भी, उन्होंने उसकी जिज्ञासा को बनाए रखने के लिए हुँकारा भर दिया।

    -आप कृष्ण-राधा की चर्चा कर रहे थे।

    -फिर?

    -कृष्ण का रंग घन घटा-सा बताया था न।

    -हाँ।

    -श्यामल वर्णीय।

    -हाँ।

    -सिर पर उसके मोर मुकुट है न।

    -हाँ।

    -उसके नेत्र विशाल हैं।

    -हाँ।

    -उसके अरुणाभ अधरों पर मुरलिका शोभायमान है।

    -वो भी है।

    -उसके हृदय-प्रवेश पर वैजयन्ती माला विलुलित हो रही है।

    -हाँ।

    -उसने पीताम्बर धारण किया हुआ है।

    -हाँ।

    -कानों में कुण्डल पड़े हैं।

    -वो भी हैं।

    -गौएं चराता है।

    -हाँ-हाँ, बोलती जा…

    -वृन्दावनवासी है-गोप-गोपियों से घिरा रहता है। बड़ा नटखट है। माखन की चोरी करता है…है न वही कृष्ण?-मीरा ने चटुल नेत्रों में रहस्य मयता भर कर कहा। इस समय उसका मुख-मण्डल सद्यः खिल गुलाब-सा मुस्करा रहा था।

    -हाँ वही है कृष्ण।

    -वह मुझसे मिलने आया था।

    एकबारगी तो उन्होंने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन कुछ ही "दिनों के बाद उन्हें लगने लगा कि मीरा में कृष्ण को लेकर गहरा मंथन चल रहा है। इतनी छोटी वय में इतनी गहरी और गहन जिज्ञासा उन्होंने किसी में नहीं देखी थी। किसी संत में भी नहीं। वह तो बाद में वल्लभ सम्प्रदाय की गहराइयों में उतरा था। तब तक उसको सत्य से साक्षात्कार हो चुका था। उसने तनिक -संभल कर पूछा-क्या कृष्ण तुझसे मिलने आया था…मोर मुकुटधारी कृष्ण… मेघ जैसा कृष्ण…

    मीरा ने आँख झपकाकर अत्यन्त सहज भाव से दरसाया-हाँ-हाँ, वही कृष्ण मुझसे मिलने आया।

    उन्होंने मीरा की ओर ध्यान से देखा। वे देखते ही रह गए। वह पीले वस्त्रों में थी। उसमें एकदम भावभरी निश्छलता थी। वह कह रहे थे-क्या कहता था? …कहाँ मिला था? कैसे मिला था?-उन्हें यह विश्वास था कि अन्तरचक्षु खुलने में देर नहीं लगती। वह पूर्व भक्ति का प्रभाव होता है। उसी से नर में नारायण प्रकट होते हैं। उसी से भक्ति की शक्ति भी प्रकट होती है। नारायण भक्तों से जितना प्रफुल्ल प्रसन्न रहता है कदाचित उतना वह किसी अन्य प्राणी से नहीं। पता नहीं वह किस भक्त पर रीझ उठे और उसे दिव्यानन्द के चिर तथा अप्रतिम सौन्दर्य-सुषमा से भर दे।

    -आप किसी से कहिएगा तो नहीं।

    -किसी से नहीं।

    -भैया, जयमल से भी नहीं।

    -उससे भी नहीं।

    -बहन, कृष्णा से भी नहीं।

    -उससे भी नहीं।

    -वह मुझे वृन्दावन में मिला था। गाय चरा रहा था। -तनिक मुस्कराते हुए मीरा ने कहा-एकदम अनाड़ी था वह!

    -वह कैसे?

    -उसे गाय चराना भी नहीं आता था।

    -क्यों भला?

    -अरे भई, गाय बेचारी कहाँ चर रही थीं, वह तो इमली के पेड़ के नीचे बैठा हुआ बाँसुरी बजा रहा था।

    -फिर…

    -अच्छी-भली गाय चर रही थीं। लेकिन…

    -लेकिन क्या?

    -वह जब बांसुरी बजाने लगता था तब गाय घास चरना छोड़कर उसके आसपास घिर आती थीं।

    -अच्छा!

    -गोधूलि तक वह अनेक बार ऐसा कर चुका था। फिर उन्हें लेकर बांसुरी बजाता हुआ चल पड़ा था। इस पर मुझे उस पर बहुत क्रोध आया और मैंने उसका रास्ता रोक लिया। रोककर कहा-ओरे बाँसुरी बजैया!

    उसने मुझे अनदेखा कर दिया-अनसुना। फिर क्या था कि मैं ताव खा गई और उसके सामने आ खड़ी होकर बोली-ओ छोकरे!

    -का है छोकरी…भैं-भैं …किए जा रही है।

    -तू क्या इन गैयन को मारेगो!

    -हाँ मारूँगा, तुझे क्या?

    -क्यों रे तू गौरक्षक है या भक्षक?

    -तुझे क्या दीखता हूँ?

    -गौ भक्षक।

    -तो ऐसी समझ ले तू और मेरा रास्ता छोड़।

    -राऽस्ता छोड़। -मुँह बिराकर मैंने कहा। -चौंरे पावन सूँ तू क्या पंगु है। कानन सूँ का बहिरा है। तुझे कोई कुछ सूझता-दीखता नहीं है का।

    -क्यों बकझक कर रही है, छोकरी।

    -बकझक तो मुरलीधर को तब मालूम पड़ेगी जब गाँव वालों को यह बता दूँगी कि यह छोरा गैयन को मार डालेगो।

    -जा-जा। तूने कह दिया तो गाँव वाले मान जाएँगे…हूँ…फिर हम तो अपनी गैयन चरायें हैं, किसी दूसरे की नहीं। समझी छोकरी।

    -वह तैश में आ जाता।

    -गैया अपनी और पराई नहीं होती, मूरख।

    -ओ छोकरी! तू हद से बढ़ती जा रही है। हमें रिस आ गई तो…

    -तो तू क्या कर लेगो…जब मैं तेरे माँ-बाप से कहूँगी कि तिहारा लला गौ हत्या का पाप लेने फिरै है तब…लला को छठी का दूध याद आ जाएगा जब म्हतारी की वो सटाक-सटाक सोटी पड़ेंगी कि…

    -म्हारी मैया ऐसी नाहीं।

    -तो कैसी हैं?

    -बहुत अच्छी। बहुत प्यारी। बहुत भोली। म्हारी हर बात मानती हैं। म्हारे मन जैसा करती हैं।

    -लला को बहुत प्यार करती हैं।

    -तभी तो…

    -पर लला, इस लली ने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। तू घर पहुँच तो पहले, फिर दिखियो इस लली का कमाल।

    -वह आँख मटकाकर कहती।

    -जा-जा, तुझ जैसी बहुत देखी हैं। वो थारी बात का विश्वास कभी नहीं करेंगी…कदापि नहीं…वो तोहे अच्छी तरह जानती हैं…

    -गौ हत्या, तू जानता है रे क्या होती है?

    -मैं जो काम करता ही नहीं, उसे जानूँ क्यों?

    -करता ही नहीं। वा रे भोरे…अभी तो पानी को तू पप्पा कहता है न…या मम्मम। देखो रे जा भोरे वन मानुष की सकल! बतियन को ढंग। च…च च…कमाल है। -उसे खिजाते मुँह चिढ़ाकर कहती।

    -कैसे करता हूँ?-कृष्ण ने मेरी चपेट में आकर कहा।

    मैं मुस्कराई और बोली-तू गाय चराने आता है न?

    कुछ रुक ऐंठ के साथ कृष्ण बोला-हाँ-तो क्या हुआ? जा में क्या चोरी है-अपनी गौ हैं, चराते हैं।

    -यह मैंने कब कहा रे? परन्तु…

    -फिर परन्तु क्या है री?…

    -तू इमली के तने का सहारा लिए पाँव पसार कर बाँसुरी छेड़ता रहता है न?

    -मैं इमली के तने का सहारा लूँ या कदम्ब के तने का यह मेरी मरजी है। तू काहे को डाह करती है। जलती-भुनती है।

    -वो तो तेरी बात ठीक है, मुरली बजैया। परन्तु तेरी मुरली बजाने से इन बेचारी गैयन पर का बीतती है, वो भी कुछ पता है।

    -का बीतेगी इन गैयन पर।

    -रिसा क्यों रिहो हो, मुरली के बजैया। तनिक सब-जब धर। हौले-हौले सब तेरी समझ में आ जाएगो।

    -कहा न अबेर हो रही है। जो कहना है साफ-साफ कह और झटपट कह डाल।

    -तो थोड़ा चुप होकर सुन तो ले।…हाँ तो मैं कह रही थी कि दोपहर से पहले…बहुत पहले यहाँ आ जाता है और तीसरे पहर बीतने पर जाता है न?

    -हाँ।

    -इत्ते बखत में तू लगभग बाँसुरी बजाता रहता है न।

    -हाँ बाबा, सो तो है ही।

    -तू रिसा क्यों रिहो है…तनिक अब बाँसुरी छेड़ तो…

    -काहे री?

    -छेड़ न। तब तेरी सब समझ में आ जाएगा।

    -नहीं, मैं नहीं छेडूँगा। सबरी गोपियाँ मुझे ऐसे ही चक्कर में फंसाकर तंग करती रहती हैं। उन्हें तो बस बाँसुरी सुननी है…उनकी मैयाएँ घर आकर शिकायत करती हैं-बनवारी की महतारी कान खोलकर सुन ले। वह तुम्हारा लडै़ता जब हमारी लड़कियों को बाँसुरी सुनाने लगता है तब वे सबकी सब बाँसुरी सुनने की लालच में घर का सारा काम-धन्धा छोड़कर वहाँ जा पहुँचती है…कहे देती हूँ, तू उसको बाँसुरी बजाने से रोक ले अन्यथा…हमसे बुरो कोई नहीं होगा।

    -सचमुच वे बहुत बुरी हैं। मैं उनमें से नहीं हूँ रे। छिः छिः ऐसी बात…

    सब ऐसा ही कहती हैं। राधा की ही बात ले लें। परसों की बात है खुद तो मरे निहारे निकालती हुई बोल-कन्हैया, तू बाँसुरी बहुत अच्छी बजाता है। एक बार सुना न।

    नहीं।-मैं साफ नट गया। पर वह कहाँ नटने वाली थी। हाथ जोड़कर बोली-बस एक बार बजा दे रे। कितने दिनन सूँ इस वाँसुरी से जान-पहचान है…तू क्यों तरसाता है रे। तेरो क्या बिगड़ जाइगो रे…लगता है इस बाँसुरी के कारण तुझे बड़ा घमण्ड हो गया है रे…आजकल इतराने भी लगा है… ना सुनाए तो ना सुना। फिर भी हम तेरे साथ नहीं खेलेंगी। समझा-चूनरी को ठीक करती हुई कहती-राधा, राधारानी, तू हमारे साथ न खेलती है, न बोलती है। आखिर क्यों? हमने तेरो क्या बिगाड़ो है…वही है न तू कन्हैया… मैं मान जाता। बाँसुरी सुनाने लगता। वह मगन हो सुनती। मैं भी बाँसुरी में खो जाता। दोनों में से किसी को सुध-बुध नहीं रहती।

    उसकी मैया पता नहीं कहाँ से आ धमकती। कहती-तू राधा, यहाँ बैठी बांसुरी सुन रही है। अरे जा निपूती सिवा बाँसुरी बजाने के काम ही नहीं है… या तो माखन चुराएगा या मटकियाँ फोड़ेगा या लड़कियों-बय्यरों के कपड़े चुरा कर भाग जाएगा। इसका तो नित प्रतिदिन का यही किस्सा है। पर तेरी अक्ल कहाँ घास चरने चली जाती है जो इसके पास आ बैठी है। तुझे कितनी बार कहा, कितनी बार समझाया। लेकिन तेरे पर कोई असर-प्रभाव नहीं। तू एकदम चिकना घड़ा हो गई है। आज मैं तुझे …

    -नहीं मैया, नहीं। पहले हमारी बात भी तो सुन ले। फिर चाहे खूब मारना। -राधा मैया के हाथ में सण्टी देखकर कहती।

    -क्या बात है?

    -मैया, कन्हैया ने रास्ता रोककर कहा था-राऽधा…तू बिना मेरी बाँसुरी सुने आगे नहीं जा सकती…मैंने बहुत मिन्नतें कीं। लेकिन यह पौंड़ा लिए मुझे डराता रहा। फिर क्या करती…बता, तू ही बता मैया!

    -नहीं, यह झूठ बोलती है!…क्यों री राधा की बच्ची, तूने ही मुझे बाँसुरी सुनाने के लिए मेरे निहारे नहीं निकाले थे। हा…हा…नहीं खाई थी!

    -झूठ बोलता है।

    -अरे कन्हैया, सारा गाँव जानता है कि तू कितना सत्यवादी है…आज तेरी मैया को सवा चेत कर आती हूँ कि अपने अलख लड़ैते को संभाल ले। नहीं तो। आखिर हमें क्या समझ रखा है। हम अपनी पर आ जाएँ तो…

    -लेकिन कन्हैया, मैं न राधा हूँ और न गोपी। तेरे गाँव की भी तो नहीं हूँ। फिर मैं तो तुझे जीव हत्या से रचा रही हूँ…जानता है, गौ हमारी माता है। बाकी हत्या का पाप ब्रह्महत्या-सा होता है। -मैंने उसे समझाया।

    -कैसे री?

    -तू बाँसुरी तो बजा। फिर अपनी आँखों से देख लीजो कि कैसे…ऐसे।

    -तू सच कहती है न?

    तेरी सौंह, मैं बिल्कुल सच कहती हूँ।

    -तो ये ले। कहकर वह बाँसुरी बजाने लगता है। कुछ ही देर में सारी गाएँ वहाँ इकट्ठी हो जाती हैं।

    मैं बांसुरी के सुर में आत्म-विस्मृत-सी हो जाती हूँ। मेरे रन्ध्र-रन्ध्र में अमिय निर्झर समाता जाता है और अलौकिक अनुभूति से भर उठती हूँ। माधवी गन्ध मेरे में बहक उठती है। तभी वह कहता है-ओ लड़की! इधर देख… सामने…

    -मैं स्वप्न से जागती हूँ। उसकी ओर देखती हूँ तो देखती रह जाती हूँ।

    -वह फिर कहता है-अब बता।

    मैं उसकी ओर अपलक निहारती हूँ। वह बाँका है। छैला है। बड़ा गुस्सैल है। उसकी बड़ी-बड़ी गहरी झील-सी मादक आँखें बहुत ही सम्मोहक हैं। उसके अरुण अधर हैं-एकदम पारदर्शी। उसके कानों में मकराकृत कुण्डल शोभायमान् हैं।

    वह पुनः कहता है-यों खड़ी-खड़ी क्या घूरती है! कहा नहीं कि अबेर हो रही है…तू मुझे बनाती तो नहीं है री? झूठी सौंह खाई तो तुझे ही पाप लगेगो। देवता तुझे ही शाप देगा राक्षस तुझे डसेगो।

    -आखिर तू रिहो लरिका का लरिका ही। वही लरिकाईपन। छन में रिस से भर उठा। छन में प्रसन्न…तो सुन। कान खोलकर सुन…

    -सुनाए भी तो कुछ।

    -इस समय गैयाँ तिहारे चहुँ तरफ हैं।

    -हाँ हैं।

    -उन्हें अभी तक अपनी सुध नहीं हैं।

    -फिर-इसमें मैं क्या करूं?

    -उत्तर तो दे कि क्या उन्हें अपनी सुध है?

    -नहीं।-सिर खुजलाते हुए कहता।

    -काहे रे।

    -मुझे क्या पता!

    -कुछ देर के लिए मैं भी अपने को भूल गई थी।

    -तो मैं क्या करूँ?

    -और कौन करेगा रे!

    -मैं नहीं जानता।

    -ज़रा अक्ल पर जोर तो दे। जब तू दिन भर इमली के तने के सहारे पसर कर बाँसुरी बजाता रहेगा तब ये पशु इस तरह मदहोश नहीं रहेंगे?

    -रहेंगे तो रहें।

    -बड़ा स्वार्थी है रे। हर मरद-बय्यर दूसरे के लिए जीते हैं। एक तू है कि अपने पशुओं को-जो बेचारे बोल नहीं सकते, गूंगे हैं-मार डालना चाहता है। इनके लिए लोग-बाग प्याऊ लगाते हैं। चारा डालते हैं…इनकी पूजा करते हैं। इनको देवी-देवताओं का मान-सम्मान देते हैं और तू…

    -मैं क्या करता हूँ?

    -तेरी बाँसुरी सुनकर ये बेचारे घास नहीं चर पाते। घास चरना भूल जाते हैं। तू पहले इनका पेट भर जाने दिया कर, फिर जितना जी चाहे बाँसुरी बजाया कर, तुझे कोई नहीं रोकेगा…तुझे कोई नहीं टोकेगा।

    बांसुरी! बाँसुरी!! बाँसुरी!!!…यह बाँसुरी ही सारी झगड़े की जड़ है। जिसे देखो उसे मेरी बाँसुरी से चिढ़ है-नफरत है…घृणा है। आखिर इस बाँसुरी ने किसी का क्या बिगाड़ा है? क्यों

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