विजय यात्रा
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यह खण्डकाव्य बुराई पर अच्छाई की विजय, सत्य पर असत्य की विजय, रावण पर श्रीराम की विजय को सुंदर काव्य रूप में प्रस्तुत करती है। अयोध्या के सुकुमार राजकुमार श्रीराम व लक्ष्मण का जन्म राजमहल में हुआ था व बचपन सेवक-सेविकाओं के बीच सम्पूर्ण सुख-सुविधा के साथ बीता था। माता कैकयी द्वारा महाराज दशरथ से मांगे वचन के कारण श्रीराम को वनवास जाना पड़ा। चौदह वर्षों तक अरण्य में वास को उन्होंने सहजता से स्वीकारा।वनवास के दौरान उन्हें असंख्य कष्टों को झेलना पड़ा।रावण पर विजय से वे प्रसन्न नहीं थे, परन्तु अन्याय का विरोध व दमन आवश्यक था। उन्होंने समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया इसलिए वे पुरुषोत्तम कहलाये। यह यात्रा, जो सम्पूर्ण जगत को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है का नाम ' विजय यात्रा ' है।
डॉ. प्रमोद कुमार जैन 'प्रखर'
कवि रसायनशास्त्र विषय के समर्पित प्राध्यापक हैं जिन्होंने अपने जीवन के 43 वर्ष अध्यापन कार्य में लगाए हैं। बचपन से ही सृजनशीलता का गुण इन्हें विरासत में मिला है। कला की विभिन्न विधाओं में इनकी अभिरुचि है। ड्राइंग, पेंटिंग, कबाड़ से सुंदर आकृतियां बनाना व पत्थरों से विभिन्न कलात्मक वस्तुएं बनाना इनका शौक है। समसामयिक व सामाजिक विषयों पर इनकी लेखनी ने काव्य रचनायें की हैं। अपनी सेवानिवृति के पश्चात ये अपना समय और काव्य सृजन में व्यतीत करने की इच्छा रखते हैं। विजय यात्रा इनका पहला प्रकाशित खण्डकाव्य है।
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विजय यात्रा - डॉ. प्रमोद कुमार जैन 'प्रखर'
प्राक्कथन
मान्यवर,
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारतीय संस्कृति व सभ्यता के प्रतीक हैं। प्रत्येक भारतवासी के लिए वे पूजनीय हैं तथा सबके हृदय में उनके प्रति अगाध श्रद्धा व सम्मान है। प्रस्तुत खण्डकाव्य 'विजय यात्रा' प्रभु श्रीराम की जीवन यात्रा का एक अंश मात्र है। इसको लिखने का विचार गत विजयादशमी के शुभ दिन आया। इस खण्डकाव्य में 201 पद्यांश हैं तथा इसमें मैंने अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकाण्ड, सुंदरकाण्ड तथा लंकाकाण्ड के वृत्तांत को शामिल किया है।
प्रभु श्रीराम के वनवास की तेरह वर्ष की अवधि चित्रकूट में अपेक्षाकृत शांति से व्यतीत हुई। चौदहवें वर्ष के आरंभ में वे पंचवटी गये। वहाँ लक्ष्मण जी ने राक्षसी सूर्पणखा का अंग-भंग किया और उसी क्षण श्रीराम की विजय यात्रा का अंकुरण हुआ। लंकाधिपति रावण का संहार इस यात्रा का उपसंहार है।
भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों व कालों में अनेक महर्षियों ने श्रीराम-कथा के विभिन्न प्रसंगों का वर्णन किया है। गोस्वामी तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस में लक्ष्मण जी रा लक्ष्मण-रेखा खींचने का प्रसंग वर्णित नहीं है। इसी प्रकार महर्षि कम्बन रा तमिल भाषा में रचित 'इरामावतारम्' में निम्नलिखित मार्मिक प्रसंग का वर्णन मिलता है।
महेश्वर-लिंग-विग्रह की स्थापना के लिए प्रभु श्रीराम ने कई पण्डितों के नाम पर विचार किया, किन्तु उन्हें रावण से उपयुक्त कोई ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव नहीं मिला। उन्होंने जाम्बवंत को रावण के पास महेश्वर-लिंग-विग्रह की स्थापना के प्रतिष्ठाचार्य पद हेतु निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा। जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना और आचार्य बनने योग्य जाना था। आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य-पद रावण के लिए अस्वीकार करना संभव नहीं था। रावण ने कहा, राम से कहिए कि मैंने उनका आचार्यत्व स्वीकार किया।
लंकेश ने स्थापना हेतु आवश्यक सामग्री संग्रह करवाई व स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे और सीता जी से कहा, यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है। तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं। विमान आ रहा है; उस पर बैठ जाना। पर ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी। अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान में पुनः बैठ जाना।
यह सुनकर सीता जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया। सौभाग्यवती भव
कहते