अंतरदस (Antardas)
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कोई पण सिरजण करणार आपणां रचनाकर्म मअें पौते खुद आपणी हाज़री मांडै'स खरौ भले ई हेता अे जगत ना समाज नी वकालत आपडी रचना मअें मांडतो देखाय। अैना सिरजण नी सरुआत आंतरिक द्वन्द थकी थाय। मोटियार साहित्यकार किशन 'प्रणय' नु 'अंतरदस' काव्य संग्रै आ वात नी हामी भरै कै रचना कैम ने कैणासारु थाय। मानसिक द्वन्द ना कारण थकी संवेदना नु उदय थाय ने सिरजण नु रूप लेती जाय। मनखाचारा ना अनुभव थकी संवेदना, अनुभूति ने अनुभव ने रस्ते रचनाकर्म आपणी हूंस थकी मनखपणा नी थरपणा करै। कवि प्रणय नी रचनाए सौंदर्य बोध नो अनुभव करावतै-करावतै ई वात कैवा मअें जरापण न्है हिचकांय कै मन ने बुद्धि ना द्वन्द मअें बुद्धि नी विवेक संगति मनखपणा सारु आपणो संघर्ष जारी राखी रई है। आ कविताए आपडा समै ने ध्यान मअें राखतै थके सामा ऊभा खतरा, नकारात्मक सक्तिये, बर्बरता, हिंसा, आत्ममुग्धता, छल-कपट, कड़वाहट नै खिलाफ आपडो संखनाद करी रई हैं। मानवीय आस्था ने विसवास ना वखेराता विचारं नै पाछा भेळां करी नै सक्रीय करवा नो जतन करैं। आ कविताअै राजस्थानी भाषा ना हाड़ौती रंग-रूप नै हबाड़ती-हबाड़ती राजस्थानी नी नवी कविता ना नवा रूप नै उजागर करती अेक कुदरती झण्णां वजू यति, गति, ताल, लय नो आंतरिक सवाद नो परसाद वांटती लोक-मंगल नी कामना नो भाव राखै। कवि किशन प्रणय ना आ आखर लोक नै घणी-घणी मंगलकामनाअै। - डॉ ज्योतिपुंज (उदयपुर)
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अंतरदस (Antardas) - Kishan 'Pranay'
दसों दसावां कै बाद बी
एक दसा अस्यी छै
कै थां
कस्यी बी दसा मं जावो
कै नं जावो
वा थां कै
लारै ई रहै छै
अर वा छै
‘अंतरदस’
- किशन ‘प्रणय’
––––––––
वरिष्ठ साहित्यकार-कवि डॉ ज्योतिपुंज जी अर वरिष्ठ समीक्षक-कथाकार विजय जोशी जी कै तांई घणेमान सूं धन्यवाद।
अंतरदस नो आखर लोक
कोई पण सिरजण करणार आपणां रचनाकर्म मअें पौते खुद आपणी हाज़री मांडै’स खरौ भले ई हेता अे जगत ना समाज नी वकालत आपडी रचना मअें मांडतो देखाय। अैना सिरजण नी सरुआत आंतरिक द्वन्द थकी थाय। मोटियार साहित्यकार किशन ‘प्रणय’ नु ‘अंतरदस’ काव्य संग्रै आ वात नी हामी भरै कै रचना कैम ने कैणासारु थाय। मानसिक द्वन्द ना कारण थकी संवेदना नु उदय थाय ने सिरजण नु रूप लेती जाय। मनखाचारा ना अनुभव थकी संवेदना, अनुभूति ने अनुभव ने रस्ते रचनाकर्म आपणी हूंस थकी मनखपणा नी थरपणा करै। कवि प्रणय नी रचनाए सौंदर्य बोध नो अनुभव करावतै-करावतै ई वात कैवा मअें जरापण न्है हिचकांय कै मन ने बुद्धि ना द्वन्द मअें बुद्धि नी विवेक संगति मनखपणा सारु आपणो संघर्ष जारी राखी रई है। आ कविताए आपडा समै ने ध्यान मअें राखतै थके सामा ऊभा खतरा, नकारात्मक सक्तिये, बर्बरता, हिंसा, आत्ममुग्धता, छल-कपट, कड़वाहट नै खिलाफ आपडो संखनाद करी रई हैं। मानवीय आस्था ने विसवास ना वखेराता विचारं नै पाछा भेळां करी नै सक्रीय करवा नो जतन करैं।
आ कविताअै राजस्थानी भाषा ना हाड़ौती रंग-रूप नै हबाड़ती-हबाड़ती राजस्थानी नी नवी कविता ना नवा रूप नै उजागर करती अेक कुदरती झण्णां वजू यति, गति, ताल, लय नो आंतरिक सवाद नो परसाद वांटती लोक-मंगल नी कामना नो भाव राखै। कवि किशन प्रणय ना आ आखर लोक नै घणी-घणी मंगलकामनाअै।
- डॉ ज्योतिपुंज (उदयपुर)
मो. 9413752996
द्वन्द्व की धारा ईं दिसा देती 'अंतरदस'
आपणा परिवेश ईं खँगाळतो मनख जद असल रूप ईं सामै पावै छै तो ऊँ का