Ansuni Fariyad (अनसुनी फरियाद)
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About this ebook
यह पुस्तक चेहरे ओढ़े हुए मानव की दिल दहला देने वाली काली घिनौनी तस्वीर को प्रमाणिकता के साथ उजागर करती है। साथ ही उन लोगों का भी उल्लेख इस किताब में किया गया है जो जीवों के प्रति परोपकारी हैं। इसके अलावा हम प्राणी कल्याण हेतु क्या कर सकते हैं, इसके बारे में भी अमूल्य सुझाव दिए गए हैं।
मात्र आर्थिक लाभ उठाने के उद्देश्य से लिखी गई पुस्तकों की तरह यह कोई साधारण किताब नहीं है। अपितु यह पुस्तक एक संदेश, एक उद्घोषणा, एक मिशन है कि पशुओं के साथ भी हम इंसानियत का रिश्ता निभा पाए । यह एक उपेक्षित अनसुनी फरियाद है जीवों के दुःख, दर्द, पीड़ा और बेबसी की, क्योंकि वह खुद बोल नहीं सकते।
यह पुस्तक लेखक के 40 (चालीस) वर्षों के अथक भावनात्मक परिश्रम का परिणाम है, जोकि पाठकों को निश्चित ही सोचने पर विवश कर देगी।
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Ansuni Fariyad (अनसुनी फरियाद) - Kamal Jit Singh
1
बंद करो मत द्वार दया का
अब्राहिम लिंकन (भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति) का वकालत की प्रैक्टिस के दिनों में विभिन्न कचहरियों में आवागमन हुआ करता था। एक बार वे वकील मित्रों के संग किसी सभा में जा रहे थे रास्ते में एक कीचड़ भरा दलदला मार्ग आ गया, वहां एक सूअर का बच्चा कीचड़ में फंसा हुआ था एवं बुरी तरह चीख रहा था और रक्षा की गुहार लगा रहा था। लिंकन के मित्र उस बेबस सूअर की हालत देखकर जोर-जोर से ठहाके लगाने लगे और उस पर फब्तियां कसने लगे। लेकिन लिंकन चिंताग्रस्त हो गए और उन्होंने कहा कि हमें इसकी रक्षा करनी चाहिए। उसके साथियों ने कहा हमारे कपड़े बहुत गंदे हो जाएंगे और एक बड़ी सभा में हमने जाना है, वहां पर अनेक गणमान्य व्यक्ति भी उपस्थित होंगे।
यह कहकर लिंकन के संगी आगे बढ़ गये। लिंकन कीचड़ में घुस गये और अपने दोनों हाथों से उस सूअर के बच्चे को कीचड़ से बाहर निकाल दिया। उन्हें तब तक चैन न पड़ा जब तक उन्होंने उस मासूम सुअर को कष्ट से मुक्ति न दिला दी। कीचड़ से सने ही वे महत्वपूर्ण सभा में शामिल हुए। परंतु अंदर से उन्हें संतुष्टि थी कि उन्होंने उस गरीब सूअर को असहनीय वेदना से मुक्त किया। भरी सभा में उन्होंने कहा कि सुअर की दयनीय हालत देख कर, भीतर ही भीतर वह सुअर से अधिक तड़प रहे थे।
दुर्भाग्यवश अक्सर जानवरों के प्रति दयावान व्यक्ति को कमजोर हृदय वाला समझा जाता है। अब्राहम लिंकन को क्या हम कमजोर दिल वाला कहेंगे? एक सूअर को कीचड़ में फंसा देख उनका दिल पिघल गया था। आमतौर पर समाज द्वारा ऐसे लोगों को दिल पक्का करने की नसीहतें दी जाती हैं। जबकि सच्चाई बिल्कुल विपरीत है, दयालुता कमजोर व्यक्ति का पर्यायवाची कतई नहीं है, न ही यह किसी कमजोर व्यक्ति की विशेषता है। दयाशील का शाब्दिक अर्थ होता है उदारवान व्यक्ति। याने कि दूसरे के दुख को अपना दुख समझने वाला व्यक्ति एवं औरों के जीवन को सम्मान देने वाला व्यक्ति। किसी के प्रति रहम दिल होना कोई कमजोरी नहीं अपितु वास्तविक ताकत है दूसरे की पीड़ा को समझने की। दयालु संवेदनशील व्यक्ति वास्तव में परम जागृत व्यक्ति होता है जो कि कभी किसी का अहित नहीं कर सकता। दयालु व्यक्ति को कमजोर समझना मनुष्य जाति की एक बहुत बड़ी भूल है। महान लेखक कवि खलील जिब्रान ने कहा है कि दयालु होना एवं नरमी का रुख कमजोरी और मायूसी के लक्षण नहीं है अपितु शक्ति तथा दृढ़ चित्त की अभिव्यक्ति है। दयाभावना वाला व्यक्ति निस्वार्थ रूप से, बिना किसी अपेक्षा के, दूसरों का भला करता है।
अक्सर कुछ लोग दूसरे की पीड़ा की चिंता तो करते हैं परंतु अधिकांशत उनकी यह भावना अपनी ही प्रजाति (मानव) तक ही सीमित होती है। हमारा दयाभाव मनुष्यजाति मात्र तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, अपितु प्रकृति के समस्त प्राणियों के प्रति होना चाहिए। क्योंकि दर्द, पीड़ा और भय सारे जीवों को हमारी तरह ही होता है। वास्तविक अहिंसक व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति अधिक संवेदनशील, अधिक विचारशील और अधिक कनेक्टेड होता है।
अपना दर्द तो सभी को पता होता है परंतु दयाशील व्यक्ति दूसरे के दर्द को भी अपने दर्द की तरह महसूस करता है।
यदि हमें स्वयं का दर्द महसूस होता है तो निश्चित ही हम शारीरिक रूप से जिन्दा है, यदि हम औरों के दर्द को भी महसूस कर पाते हैं तो हम आत्मिक रुप से भी जीवित है।
लगभग सभी संत महात्मा दूसरे का दर्द समझने की क्षमता रखते हैं। पंद्रहवीं शताब्दी के शीर्ष-कवि नरसिंह मेहता (नरसी भगत) द्वारा कृत भजन दया करुणा प्रेम का गहन संदेश लिए हुए हैं।
‘वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे।’
‘पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान ना आणे रे’
भावार्थ:-
सच्चा वैष्णव वही है, जो दूसरों की पीड़ा को समझता हो।
दूसरे के दु:ख पर जब वह उपकार करे, तो अपने मन में कोई अभिमान ना आने दे।।
नरसी कहते हैं सच्चा धार्मिक वही है जो दूसरे की पीड़ा स्वयं को होती महसूस कर सके। यह भाव राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को बहुत ही प्रिय था। गांधी जी का जीवन इस भजन से बहुत प्रभावित रहा। प्रार्थना के समय प्रतिदिन वह नियमित रूप से इस भजन के गहन भावों को आत्मसात करते।
महात्मा गांधी कहा करते थे कि दया वह सुनहरी जंजीर है जिससे सारा मानव समाज एक साथ बंधा हुआ है।
महान दार्शनिक ओशो तो यहां तक कहते हैं कि दया भाव में ही सब कुछ शामिल है यानी संपूर्ण सृष्टि। क्योंकि दया का संबंध अंतरात्मा से होता है। यदि आप में करुणा की भावना होगी तभी आप पीड़ा-हर्ता बन पाएंगे।
जानवरों के प्रति हिंसक होना कोई बहादुरी का कार्य नहीं, अपितु कायरता है। किसी का गला काटने में क्या बहादुरी है। किसी को दुख देने में बड़ा दिल होने की क्या सेंस है। अपने से कमजोर को दुख देने में क्या विराटता है। पूरी तरह हथियार से लैस होकर व ट्रेनिंग लेकर निहत्थे शेर से लड़ाई कर मानव यदि जीत भी जाता है तो इसमें कौन सी बहादुरी है। निश्चित ही जानवरों में शातिर मानव से कम बुद्धि है, और उनके पास औजार हथियार उपयोग करने की सामर्थ्य तो है ही नहीं। ना ही वह मानव की तरह कानूनी समर्थन हासिल कर सकते हैं।
कोई भी मानसिक रूप से रुग्ण व अपराधिक मानसिकता वाला व्यक्ति दूसरे को कष्ट देने का निम्न कार्य कर सकता है। जानवरों के प्रति किसी व्यक्ति का दयावान होना इस बात का प्रतीक है कि वह व्यक्ति किसी भी कमजोर, असहाय, बेजुबान, बेसहारा का शोषण नहीं करेगा। यदि आप किसी के प्रति भी दयाभाव रखते हैं तो आप उसका कभी बुरा नहीं सोचेंगे। क्योंकि जो व्यक्ति जीव के प्रति करुणाभाव रखता हो वह अपने से कमजोर मानव का अहित कर ही नहीं सकता, वह अत्याचारी या शोषक हो ही नहीं सकता। जानवरों के प्रति आपका बर्ताव आपके व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है। जो व्यक्ति जीवों के प्रति रूखापन, हिंसात्मक रवैया रखता है स्पष्टत: वह व्यक्ति अपने से कमजोर मानव के प्रति भी इसी तरह का व्यवहार रखेगा।
गांधी जी का प्रसिद्ध वचन है कि किसी राष्ट्र व उसके नैतिक विकास का अनुमान जानवरों के प्रति उसके बर्ताव को देखकर लगाया जा सकता है। उल्लेखनीय है अपने अहिंसक और करुणामई व्यवहार के कारण महात्मा गांधी आज भी राष्ट्रपिता कहलाए जाते हैं। चीन जानवरों के प्रति क्रूरता के लिए सबसे आगे है। जानवरों को जिंदा जलाना, जिंदा उबालना, जिंदा भूनना, जिंदा चमड़ी उतारना, जिंदा चबाना चीन में बहुत आम बात है। दुर्भाग्य से वहां प्राणियों पर होती क्रूरता विरोधी कोई खास कानून नहीं है। चीन के नैतिक विकास का स्तर आज पूरे विश्व के सामने उजागर है।
बच्चे अधिक दयावान, अधिक करुणावान होते हैं। परंतु संसार धीरे-धीरे उन्हें कठोर बना देता है। कई बार हम सोचते हैं कि हम बालक को जीवन जीना सिखाते हैं परंतु अक्सर बच्चा ही हमें गहरी शिक्षा दे जाता है।
अप्रैल 12, 2019 को ‘संगा’ नाम के एक व्यक्ति ने फेसबुक पर एक बहुत ही प्रेरणादायक पोस्ट सांझा की। इस पोस्ट में उसने छ: साल के एक बच्चे ‘डेरेक सी लालछन्हिमा’ की तस्वीर डाली। फेसबुक उपयोगकर्ता संगा ने इस तस्वीर के साथ वर्णित किया कि किस तरह इस बच्चे ने एक चूजे की प्राणरक्षा के लिए अपने अभिभावकों को जिद करके निकटवर्ती अस्पताल ले जाने को विवश किया। सैरंग, मिजोरम का यह बालक दुर्घटनावश गलती से अपने पड़ोसी के चूजे के ऊपर चढ़ गया था। एक हाथ में चूजा और दूसरे हाथ में है यह बच्चा डॉक्टर के लिए फीस 10 का नोट लिए हुए है। चूजे के जख्मी होने पर इस बच्चे की आंखें अश्रुओं से भर गई थी। इसके माता-पिता ने बड़ी मुश्किल से समझाया कि यह चूजा मर चुका है और इसके इलाज की कोई संभावना नहीं। मानव की भीतरी भावनाएं जगा देने वाला यह समाचार सोशल मीडिया पर बहुत अधिक वायरल हुआ।
बालक जैसी संवेदनशीलता हमारी निष्पाप निर्दोष भावना हमें परम सत्ता का एहसास करवा देती है। हिंसारहित निर्दोष मन निश्चित ही परमात्मा स्वरूप होता है।
अक्सर सुनने में आता है कि फलां डॉग लवर है या पशु प्रेमी है। हमें अनिवार्य रूपेण प्राणी कल्याणकारी होना चाहिए, इसके लिए हमारा पशु प्रेमी होना जरूरी नहीं। परंतु यह तभी संभव है जब हमारे भीतर संवेदनशीलता हो।
भगवान महावीर अत्यधिक संवेदनशील थे। हमें किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिए, उनकी प्रमुख देशना है।
गांधी, साधु वासवानी, भगवान स्वामीनारायण, महात्मा बुद्ध, महावीर, की करुणा शिखर पर थी।
असीसी, इटली के संत फ्रांसिस (1181-1226) सभी जीवों के प्रति सम्मान की भावना रखते थे। बिश्नोई समाज के लोग इतने दयावान होते हैं कि यदि किसी हिरण की मां मर जाए तो बिश्नोई स्त्रियां उसे खुद स्तनपान करवाती हैं। जानवरों के प्रति दयालुता भाव होने के कारण मेनका गांधी ने प्राणी कल्याण केंद्र की स्थापना की।
हमारा मस्तिष्क जितना सक्षम होगा, उतना ही संवेदनशील भी होगा। दयालुता मानव का सर्वोच्च गुण है। ठीक इसके विपरीत निर्दयता व कठोरता निर्गुणता के प्रतीक हैं। चेतना और संवेदनशीलता के अभाव में हम पशु-पक्षियों के साथ हमदर्दी रखने की बजाय बेदर्द व क्रूर हो जाते हैं।
दया मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। हमारी आत्मा हमें क्षण क्षण सचेत करती है, बुरे कर्मों से रोकती है। दयाभाव तभी सम्भव है यदि हमारी आत्मा पल-पल जागृत हो। अपने से कमजोर व निर्धन जीव या मनुष्य का शोषण करना एवं उसे प्रताड़ित करना हमारी दुर्बल मानसिकता की निशानी है। दयावान मनुष्य कभी बलात्कार, हत्या या अन्य हिंसात्मक कार्य नहीं करेगा। क्या कभी आपने सुना है कि किसी दयालु व्यक्ति ने किसी की हत्या कर दी या बलात्कार कर दिया। जी नहीं, ऐसा संभव ही नहीं है। दुनिया में वही उग्रवादी या आतंकवादी बनते हैं जिनमें करुणा समाप्त हो जाती है।
दयावान व्यक्ति सपने में भी किसी की हत्या नहीं कर सकता। हत्या, बलात्कार और बुरे कर्म वही करते हैं जिनकी आत्मा मर जाती है, जिनके भीतर दया भावना मर जाती है। विचारहीन, संवेदनशीलताहीन, आत्माविहीन व्यक्ति ही क्रुर हो सकते हैं। खूंखार अपराधियों की ट्रेनिंग कुछ इस प्रकार से होती है, कि यह लोग आत्मा विहीन हो जाते हैं, तभी तो सैकड़ों कत्ल करने पर भी इनके हाथ-पांव नहीं कांपते, इनकी रूह नहीं थर्राती। निठारी, नोएडा के पंधेर तथा उसका सेवक शायद विचारहीन लोग थे, उनकी शायद आत्मा मरी हुई थी। तभी तो उन्होंने कई बच्चियों का कत्ल किया।
सच्चा दयालु मनुष्य अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करता यानि अपनी शक्ति द्वारा दूसरों का शोषण नहीं करता, उसे सताता नहीं। जो व्यक्ति प्राणियों के प्रति हिंसक है वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। पशुओं के प्रति दयावान होना एक उच्चतम मानवीय गुणवत्ता का प्रतीक है।
करुणा, दया दुनिया के महानतम गुणों में सर्वोच्च गुण है। संसार अत्यंत सुंदर स्वर्गतुल्य बन जाए यदि सभी मनुष्य करुणामई हो जाएं। आपस में भी, जीव-मात्र के प्रति भी। करुणा मनुष्य का आंतरिक स्वभाव होना चाहिए ना कि सामाजिक दिखावा या अहंकार पोषण के लिए किया गया कार्य।
करुणामई व्यक्ति दूसरे को निम्न नहीं समझता अपितु अपने ही समान समझता है, फर्क है परिस्थिति व व्यवस्था का।
मार्क टवेन के अनुसार ‘दयालुता’ एक ऐसी भाषा है जिसे बहरे सुन सकते हैं तथा अंधे (नेत्रहीन) देख सकते हैं।
दलाई लामा (xiv) का मानना है कि बहुत ही साधारण है उनका धर्म, वह है दयालुता/करुणा।
जो व्यक्ति पशुओं के साथ क्रूर हो, बर्बरता पूर्वक बर्ताव करें, ऐसे इंसान को आप क्या कहेंगे? सच तो यह है कि वह इंसान कहलाने लायक ही नहीं है। जेएम कोएट्जी कहते हैं कि हिंसक होने के लिए हमें दूसरों की पीड़ा के प्रति अपने हृदय को बंद करना होता है।
अक्सर कुछ लोग दयावान भी होते हैं संवेदनशील भी होते हैं और विचारशील भी होते हैं। परंतु कई बार वे भी भीड़ के आगे साहस नहीं जुटा पाते। और पशुओं के साथ होता हिंसक बर्ताव देखकर भी मूकदर्शक बने रह जाते हैं। दयावान के साथ-साथ साहसी होना भी अति आवश्यक है ताकि हिंसा के खिलाफ आवाज उठा सकें।
महात्मा बुद्ध का हृदय इतना निर्मल था कि वे बूढ़े बैल की पिटाई, पक्षियों का शिकार, जानवरों की बलि होते देख द्रवित हो उठते। औरों के दुख और जीवन की कृत्रिमता, पाखंड और नीरसता देख उनका जीवन के प्रति मोह खत्म हो गया। नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में लागू करते हुए उन्होंने परम ज्ञान प्राप्त किया।
दया भावना को अक्सर कमजोरी माना जाता है, यह बहुत बड़ी गलतफहमी है। ऐसा माना जाता है कि इस क्रूर संसार में नेक होना किसी काम का नहीं। किसी की पीड़ा से सरोकार रखना प्रासंगिक नहीं समझा जाता। कठोर आदमी को समाज के अनुकूल माना जाता है। निश्चित ही कुछ परिस्थितियों में इंसान को कठोर होना ही पड़ता है परंतु गरीब बेसहारा जानवरों के प्रति कठोर होना बिल्कुल ही गलत है।
आंतरिक या आत्मिक शक्ति का प्रसार है करुणा भाव। उल्लेखनीय है कि यदि कोई भलाई का कार्य करता है तो उसे कोई अपेक्षा नहीं होती कि उसके बदले में उसे कोई रिवार्ड या पुरस्कार मिले। क्योंकि परोपकार करने में ही उसे अपूर्व/अमूल्य संतुष्टि मिल जाती है। प्रोफेसर स्टीफन पोस्ट, लेखक (व्हाय गुड थिंग्स हैपन टू गुड पीपल), ने अपने अनुभव से जाना कि रहमदिल होना स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है, जो लोग नियमित रूप से भलाई के कार्य करते हैं उनकी मनोस्थिति औरों से कहीं बेहतर पाई गई है। साथ ही ऐसे लोगों में अवसाद की मात्रा काफी कम होती है। उनकी रोगप्रतिरोधात्मक क्षमता भी औरों से काफी अच्छी पाई गई है। अक्सर यह लोग दीर्घकालीन रोगों से बचे रहते हैं। इतना ही नहीं सर्वाधिक-बिकाऊ (बेस्ट सेलिंग) लेखक डॉक्टर वेन डायर तो कहते हैं करुणा का यदि विस्तार या मात्र निरीक्षण ही क्यों न किया जाए, ऐसी भावनाओं का आपके तन-मन पर निश्चित ही लाभकारी प्रभाव पड़ता है।
जिस प्रकार एक फूल बेचने वाले के कपड़ों और बदन से फूलों की सुगंध नहीं जा सकती, उसी प्रकार दूसरों की ‘भलाई’ करने वाले व्यक्ति का कभी अहित नहीं हो सकता। दूसरों की मदद अथवा परोपकार का निस्संदेह बड़ा महत्व है: प्रत्यक्ष रूप से ही नहीं, अप्रत्यक्ष रूप से भी।
दयालुता हमारा आदर्श/हमारा परम सिद्धांत होना चाहिए। परोपकार हमारी कार्यप्रणाली का अहम हिस्सा होना चाहिए। संपन्नता, समृद्धि, खुशहाली अवश्य ही कल्याणकारी लोगों से दूर नहीं रहतीं। अदाकारा शमा सिकंदर का मानना है कि दयालुता द्वारा आप विश्व में सर्वाधिक सुंदर व्यक्ति बन जाते है।
अमेलिया ईअरहार्ट का कहना है कि दयालुता एकमात्र ऐसा कार्य है जिसकी जड़ों का फैलाव सभी दिशाओं की ओर होता है, और यही जड़ें वसंत और नए वृक्ष बनाती हैं।
विश्व प्रसिद्ध रहस्यदर्शी ओशो का कहना है कि दया भाव में ही सब कुछ शामिल है यानी संपूर्ण सृष्टि। यदि अपने पड़ोसी के प्रति आप में दया भाव नहीं है तो ध्यान इत्यादि की बात छोड़ दें, क्योंकि इसका किसी व्यक्ति विशेष से नहीं, बल्कि अंतरात्मा से संबंध होता है। दया-भाव बगैर शर्त, इजहार और बेइरादा होना चाहिए तभी इस दुखिया संसार में आप पीड़ा-हर्ता बन पाएंगे।
चीन में एक दयावान व्यक्ति हैं 51 वर्षीय चीनी साधु ज़्ही क्सिअंग (Zhi Xiang), इसने शंघाई में 8000 (आठ हजार) से अधिक कुत्तों की रक्षा की है। यह आदमी वर्ष 1994 से आवारा व बहिष्कृत कुत्तों के बचाव के लिए कार्य करता रहा है। काश, दुनिया में और भी अधिक ऐसे लोग हों।
बेसहारा जानवरों की भलाई हमारी दिनचर्या का सर्वाधिक अनिवार्य कार्य होना चाहिए। इससे बेहतर मानवता का कोई उदाहरण नहीं हो सकता। जानवरों के प्रति दयावान होना आत्मबोध, आनंद एवं संतुष्टि से भर देता है। आप कितने ही तनावग्रस्त या कितने ही परेशान क्यों ना हो, आप किसी पर एक छोटा सा उपकार करके देखिए आपको इतना सुकून मिलेगा, कि मानो आप को अनमोल उपहार मिल गया हो। अनेक वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह प्रमाणित रुप से सिद्ध हो चुका है की दयालुता द्वारा हम खुशियों से भर जाते हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के एक अध्ययन के अनुसार विभिन्न प्रकार के अच्छे कर्म हमें कई स्तरों पर प्रसन्नता देते हैं। किसी का भला करने पर भीतर गहन संतुष्टि का अहसास होता है, जोकि अमूल्य है।
चाहे हम किसी भी वर्ण, जाति, धर्म, समुदाय या समाज से संबंधित हों; मनुष्यता अधूरी है अगर हमारे व्यवहार में दया-भावना समाविष्ट नहीं है।
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िये जब तक घट में प्राण।।
तुलसीदास जी के इस उपरोक्त दोहे का भावार्थ है कि दया-भावना धर्म का आधार-तत्व है अर्थात दया से ही वास्तविक धर्म का उक्चव होता है और अभिमान तो केवल पाप को ही जन्म देता हैं, मनुष्य के शरीर में जब तक प्राण हैं तब तक दया-भावना कभी नहीं छोड़नी चाहिए।
यदि हम जानवरों के प्रति दयालु नहीं हैं, तो हम एक-दूसरे के लिए भी दया नहीं कर सकते हैं। जीवों के प्रति दया और इंसानियत भरा भाव मानव जाति का अनिवार्य अंग है। मूक जीव संवेदना के पात्र हैं क्योंकि वे विवश हैं और अपना दर्द शब्दों में बयां नहीं कर पाते। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर प्राणियों के लिए दया की भावना उत्पन्न करने के उद्देश्य से पशु क्रूरता के खिलाफ सभी को जागरूक करना हमारा नैतिक कर्तव्य है।
इंग्रिड न्युकर्क और जीन स्टोन की पुस्तक ‘एनिमलकाइंड’ मानव को जीवों के प्रति करुणावान होने के लिए अनेक मूल्यवान ढंगों से प्रोत्साहित करती है।
आपके इर्द-गिर्द आपके कार्यस्थल, घर-परिवार या मित्र मंडल में कुछ ऐसे लोग अवश्य ही मिल जाएंगे जो आपके लिए प्रेरणास्रोत बन सकते हैं। भलाई की भावना अति-संक्रामक है, ऐसे लोगों से संबंध बनाए रखें। दयावान लोग आज की दुनिया में चाहे कम ही क्यों ना हो परंतु धरती शायद उन्हीं के कारण आज भी अस्तित्वगत है। प्रत्येक व्यक्ति यदि प्राणियों के प्रति कल्याण की भावना रखे तो निश्चित ही यह पृथ्वी अति सुंदर ग्रह हो जाएगा। आइए स्वप्न साकार करें एक सुंदर क्रूरता-रहित वसुंधरा का।
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धर्म के नाम पर दरिंदगी : या मेरे मौला रहम
धर्म का मूल या व्यापक अर्थ है मनुष्य द्वारा धारण करने योग्य सात्विक गुण एवं उसके नैतिक आत्मिक कर्तव्य। विश्व भर के समस्त धर्मों का मूल संदेश है: अहिंसा, दया, करुणा। यही सिद्धांत धर्म की समस्त शिक्षाओं का आधारभूत तत्व रहा है।
गीता, बाइबल, कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब या दुनियाभर का कोई भी धर्मग्रंथ ही क्यों न हो। विचारों, या व्याख्यान के ढंग, में उनमें मतभेद हो सकता है, परंतु एक बात निश्चित ही सभी धर्मग्रंथों में समान है, वह है सर्व के प्रति करुणामई भाव एवं मंगल कामना का पैगाम। इस प्रकार दुनिया के समस्त धर्म-संप्रदाय प्रमुखत: दया धर्म ही सिखाते हैं। इसी प्रकार जगत के समस्त ऋषि, मुनि, दार्शनिक, आध्यात्मिक गुरु व साधु संत चाहे वह किसी भी पीठ या पंथ से संबंधित ही क्यों ना हो, सभी अपने अनुयायियों को नियमित रूप से दयापूर्वक व्यवहार व आचरण की शिक्षा देते रहे हैं। महावीर, नानक, बुद्ध, कबीर, ईसा, गुलाल, मोहम्मद, साधु वासवानी, साईं बाबा, जंभेश्वर जी महाराज, सुकरात, जे कृष्णमूर्ति, ओशो, स्वामीनारायण आदि धर्म-अध्यात्म के सभी शीर्ष-स्तंभ महात्माओं की देशनाओं का सार करुणा शांति, प्रेम, अहिंसा रहा है। उल्लेखनीय है इस मामले में समस्त सयाने एकमत हैं। सभी धर्म दयालुता की नींव पर टिके हैं। यह सुनिश्चित है कि कोई भी धर्म अन्य जीवों के प्रति दुष्ट भावना नहीं सिखा सकता। हमारा आंतरिक, आत्मिक विवेक भी कभी किसी प्राणी के संहार को, किसी भी कीमत पर, न्यायसंगत नहीं ठहरा सकता। धर्म का ठप्पा लगा कर भी नहीं।
वैसे भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां जानवरों को भी अनेक देवी-देवताओं के प्रतीकों के रूप में पूजा जाता है। गरुड़, गज, वानर, मूसा, सिंह, शेर, गाय, सांड आदि। बीकानेर में करणी देवी मंदिर में चूहों का वंदन किया जाता है, लाखों भगत दुनिया भर से आते हैं और इस छोटे जानवर के प्रति सम्मान की भावना प्रकट करते हैं। इसके अलावा लखीमपुर जिले (उत्तर प्रदेश) के एक मंदिर में मेंढक की पूजा भी की जाती है।
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजाघर आदि ऐसे पवित्र उपासनागृह हैं जहां सर्व के प्रति दया प्रेम और करुणामय भावना की