Ek Pratidhwani : Jan Kendrit Shasan Ki Ore (एक प्रतिध्वनि : जन केंद्रित शासन की ओर)
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Ek Pratidhwani - Dr. Shailendra Kumar Joshi
प्रशस्तियां
‘एक प्रतिध्वनि-जन केंद्रित शासन की ओर’
आनोभद्राः कर्त्वोयंतुविश्वतः
संसार में हर स्थान से श्रेष्ठ विचार आने दें : ऋग्वेद
सामान्यतः बारह मास तथा छः ऋतुओं के साथ एक वर्ष पूरा होता है किंतु एक नौकरशाह के लिए कार्य अवधि में प्रतिदिन एक नयी ऋतु होती है जो उसे जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव कराती है। एक लोकसेवक होने के नाते लगभग चार दशकों के अनुभव के साथ, गाँव से अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक समाज की सेवा करने तथा जमीनी हकीकत से उच्चतम स्तर तक पारस्परिक व्यवहार से समृद्ध होकर, मुझे इस बात का सौभाग्य मिला है कि मैं कुछ हद तक शासन की बारीकियों को समझ सकूँ।
जनता की दृष्टि में ज्यादातर सरकारी सेवक अपने सेवाकाल में, उनके आसपास होने वाली घटनाओं को लेकर मूक-दर्शक बने नजर आते हैं। ऐसी स्थिति में लोग अक्सर नौकरशाही की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं। इसका कारण बिल्कुल साधारण है। सेवा के दौरान ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर पाबंदी के कारण चुप्पी ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प होता है। इसलिए यह देखा गया है कि नौकरशाहों को सेवानिवृत्ति के पश्चात ही बुद्धि आती है। मेरी भी स्थिति कुछ ऐसी ही है और इसीलिए मैं आपका सहयोग चाहता हूं। मुझे लगता है कि अब विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला पर अपना दृष्टिकोण साझा करने का समय आ गया है। उनमें से कुछ के बारे में, मेरे विचार पारम्परिक बुद्धिमत्ता को चुनौती दे सकते हैं। यह सिर्फ सोच को एक नया आयाम देने के लिए किया गया है।
किसी भी प्रशासनिक ढांचे का प्राथमिक उद्देश्य सभी नागरिकों के ‘सहज जीवन’ के लिए अनुकूल परिवेश उपलब्ध कराना है। सहजता में वह सभी घटक शामिल हैं, जो लोगों के जीवन की समग्र गुणवत्ता में सुधार लाने से जुड़े हैं।
यह पुस्तक लोगों के जीवन को स्पर्श करने वाले विभिन्न रूपों के साथ सामने आये अवलोकनों, अनुमानों और विचारों का कैलाइडोस्कोप है, जो जनजीवन को प्रभावित भी करती है। मुझे विश्वास है कि विभिन्न विषयों पर मेरे विचार कुछ नये अंतर्दृष्टि के साथ विभिन्न बिंदुओं पर प्रकाश डालेंगे, तर्क-वितर्क को बढ़ायेंगे और उठाए गए मुद्दों पर नए तरीके से विचार करने का अवसर प्रदान करेंगे।
शासन
हमारे देश के संदर्भ में, शासन, विशेष रूप से, सुशासन, का एक ऐतिहासिक महत्त्व है और यह शब्द हमारी सभ्यता जितना ही पुराना है। हमारे प्राचीन शास्त्रों में, राज धर्म
का उल्लेख है, जिसे वर्तमान में सुशासन के बराबर माना जा सकता है। राज धर्म
का अर्थ है कि राजा और उनकी प्रजा के लिए अलग-अलग नियम का न होना और दोनों का एक समान नियमों और कानूनों का पालन करना।
एक राजा को हमेशा अपनी प्रजा के हितों की रक्षा करनी चाहिए और उनके कल्याण पर ध्यान देना चाहिए। महान अर्थशास्त्री और प्रशासक कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि- अपनी प्रजा की खुशी में ही राजा का सुख निहित है, लोगों के कल्याण में ही उनका कल्याण है, जिस चीज से राजा को खुशी मिलती हो, उसे सही नहीं मानना चाहिए, बल्कि जिससे प्रजा को खुशी मिलती हो, उसे सही मानना चाहिए।
यह उद्धरण सुशासन की पूरी तरह से व्याख्या करता है।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, महात्मा गांधी ने भी राम राज्य
के बारे में बात की थी, जो भारतीय लोकाचार पर आधारित एक मूलभूत संकल्पना है। तथाकथित रूप से जनमत के परिपेक्ष में, राजा राम ने अपनी गर्भवती पत्नी सीता को वन में छोड़ दिया था, बावजूद इसके कि वह ‘अग्नि परीक्षा’ से गुजर चुकी थी और वह खुद उनकी पवित्रता के बारे में आश्वस्त थे। इस मामले में, जनमत सिर्फ एक व्यक्ति यानी एक धोबी, जो अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह करते हुए उससे झगड़ रहा था, के विचारों पर आधारित था। राम ने एक बार फिर सार्वजनिक जीवन में समग्रता को बनाए रखने के लिए अपने व्यक्तिगत जीवन का बलिदान कर दिया।
इससे पहले, पिता राजा दशरथ के ‘राज धर्म’ की खातिर, राम ने रानी कैकेयी को अपने पिता द्वारा दिए गए वचन का सम्मान करते हुए चौदह वर्षों का निर्वासन स्वीकार किया था। राम ने ‘राज धर्म’ के लिए ही हर अवसर पर अपने भौतिक सुखों का त्याग करने में एक पल की भी देर नहीं की। इन उदाहरणों को ध्यान में रखते हुए, किसी के मन में यह विचार आ सकता है कि राम ने न तो अपने साथ, न ही अपनी पत्नी सीता के साथ और न ही अपने अजन्मे बच्चों के साथ न्याय किया। इसके लिए प्रश्न चिन्ह लगाया जा सकता है, लेकिन राम के लिए ‘राज धर्म’ ही सर्वोच्च था। यही कारण है कि, इतने समय बाद में भी लोग उनके शासन को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और उसके बारे में ही बातें करते मिलते हैं।
जनमत के प्रति पूर्ण उत्तरदायित्व राम राज्य
का सटीक मानक है। आज के समय में कोई भी इस तरह के उच्च नैतिक मूल्यों और स्वयं की खुशी त्यागने के बारे में सोच भी नहीं सकता है। यह बिना कहे भी समझा जा सकता है कि गांधी जी के राम राज्य
की अवधारणा, बिना किसी धार्मिक अर्थ के महज एक प्रशासनिक और राजनीतिक आदर्श से प्रेरित थी।
इस परिप्रेक्ष्य में, आधुनिक भारत में शासन की जमीनी सच्चाई पर एक तेज नजर हमारी आंखें खोल सकती है। एक कल्याणकारी देश के रूप में विकास के प्रति समर्पित केंद्र और राज्य सरकारें बड़ी संख्या में विभिन्न योजनाओं जैसे कि, ‘खाद्यान्न के लिए जन वितरण प्रणाली’ से लेकर ‘गरिमापूर्ण आवास’ के निर्माण तक, का संचालन करती हैं। इस तरह के कार्यक्रमों और योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए उचित वित्तीय और अन्य संसाधनों की व्यवस्था करना अनिवार्य शर्त है।
एक ही समय में समाज के सभी वर्गों का ध्यान रखने की अपनी होड़ में सरकारें अक्सर उपलब्ध सार्वजनिक संसाधनों का सीमा से अधिक आवंटन करने लगती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप एक तरफ जवाबदेही कमजोर होती है तो दूसरी तरफ परियोजनाओं के पूर्ण होने का समय और लागत बढ़ जाती है। देश में परिपक्व नेतृत्व कम जवाबदेही वाले किसी कार्यक्रम के लिए वित्तीय संसाधनों की अपर्याप्तता और समय तथा लागत की अधिकता के बीच के संबंधों को अच्छी तरह से समझता है।
पिछले दिनों, बढ़ते हुए राजकोषीय अंतर के कारण की सीमाओं को पहचानते हुए कई राजनीतिक दल और नेता सामाजिक मुद्दों और अभियानों पर सीमित खर्चे को देखते हुए जन अभियान के रूप में अब लोगों को शामिल करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि इस तरह के जन अभियान कुछ समय के लिए लोगों को व्यस्त रख सकते हैं, लेकिन जीवन स्तर में सुधार के लिए उनकी अपेक्षाओं का विकल्प नहीं बन सकते।
इसलिए, प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति के परिणामस्वरूप संसाधनों की उपलब्धता पर ध्यान दिये बिना आकर्षक एवं लोक लुभावन योजनाओं की घोषणा की जाती है। कार्यान्वयन के स्तर पर, संसाधनों की कमी के कारण जवाबदेही गर्त में चली जाती है। इसके अतिरिक्त, हमारी योजना, रूपरेखा और सेवा वितरण तंत्र आदर्श से काफी नीचे है। वास्तव में, भारत में सामाजिक और विकासात्मक कार्यक्रमों के निष्पादन को नया रूप देने की जरूरत है।
विकासात्मक गतिविधियों पर हमारे वितरण तंत्र के प्रभाव का अंदाजा 1985 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा की गई इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है कि लोगों के कल्याण के लिए भेजे गये प्रत्येक रुपये का केवल 15 पैसा ही उन तक पहुंचता है
। बाकी 85 पैसों के बारे में पता लगाने के लिए किये गये कुछ बुनियादी विश्लेषण उच्च स्थापना लागतों, अबूझ संचरण, वितरण घाटे और रिसाव एवं चोरी के लिए गोल-मटोल बहाने बनाने की ओर इशारा करते हैं।
विगत में वितरण तंत्र को बेहतर बनाने के कई प्रयास किए गए लेकिन उसमें सीमित सफलता ही मिली है। यह तथ्य सर्वविदित है, हम सभी इसका अनुभव करते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं। सम्पूर्ण प्रणाली में सुधार की सख्त आवश्यकता है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और यथास्थिति को चुनौती देने वाले प्रशासनिक संकल्प का अभाव चिंता की बात है, क्योंकि यह निहित स्वार्थों के अनुकूल है।
ऐसे में यह स्मरण करना आवश्यक है कि हमारा स्वतंत्रता संग्राम मुख्य रूप से दो कारणों अर्थात् ‘स्वराज’ (स्व-शासन) और ‘सुराज्य’ (सुशासन) की स्थापना पर आधारित था। हमने 1947 में ‘स्वराज’ हासिल किया, जिसके लिए सारा देश सभी साहसी स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति आभारी है। हालाँकि, दूसरे घटक, ‘सुराज्य’ पर कार्य अभी भी प्रगति पर है। वास्तव में सुराज्य अभी भी कोसों दूर है। हमारे देश में, सुशासन आजादी के बाद से ही चिंता का विषय बना हुआ है।
भारत में समय-समय पर कई घोटाले सामने आते रहे हैं। हालाँकि, 1990 के दशक में बोफोर्स कांड और उसके बाद के घटनाक्रमों के दौरान यह इतना गम्भीर था, जिसने भारतीय प्रतिष्ठान की नींव हिला दी थी। इसके परिणामस्वरूप तत्कालीन योजना आयोग ने इशारा करते हुए शासन के मुद्दे को उठाया था। 1999 में जारी नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) दस्तावेज में कार्यान्वयन और वितरण तंत्र पर एक पृथक अध्याय था, इस प्रकार भारत में पहली बार शासन के अभाव के मुद्दे पर पुनर्विचार किया गया। योजना दस्तावेज के इस अध्याय में, योजनाओं के कार्यान्वयन में कमजोर स्थानों की पहचान करने और कमजोरियों का समाधान खोजने के लिए एक समीक्षा की गई थी। इसमें योजनाओं के कार्यान्वयन में जवाबदेही और पारदर्शिता के मुद्दे को भी उठाया गया था।
दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) के दस्तावेज में एक और विशिष्ट अध्याय था जिसका शीर्षक था शासन और कार्यान्वयन
। यह योजनाओं के कार्यान्वयन में केंद्र और राज्य की भूमिका को परिभाषित करता है और लोगों तथा व्यवसायों को अवसर प्रदान करने में उनके कर्तव्यों के बारे में बताता है। अध्याय में राजनीतिक, सामाजिक और वित्तीय गतिविधियों में जन सामान्य की भागीदारी का भी वर्णन किया गया है। इसमें जोर दिया गया है कि कार्यान्वित की गई नीतियां या कार्यक्रम गैर-भेदभावपूर्ण, पारदर्शी, सामाजिक रूप से संवेदनशील और जनता के प्रति उत्तरदायी होनी चाहिए। वांछित उद्देश्यों के प्राप्त नहीं होने पर तथा जवाबदेही तय नहीं करने से यह सोच भी कारगर साबित नहीं हुई।
तत्पश्चात, सफलता की घटती-बढ़ती स्थिति को देखते हुए विभिन्न हितधारकों ने सुशासन के घटकों को प्रस्तुत करते हुए कई प्रयास किए। इनमें से अधिकांश सफलता की कहानियाँ स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहीं और अन्य स्थानों तक फैलने में असफल रहीं। अधिक गहराई से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सफलता की यह कहानियाँ किसी विशिष्ट संदर्भ में एक नायक (किसी व्यक्ति या समूह) के नेतृत्व में हासिल हुई हैं। नायक के अभाव में या अलग परिस्थितियों के कारण अन्य स्थानों पर यही फार्मूला काम नहीं कर सका।
हम अपनी मानसिकता, दृष्टिकोण एवं जवाबदेही में प्रणालीगत बदलाव लाकर और उचित कार्यान्वयन कर सुशासन की राह में आगे बढ़ सकते हैं। यह तभी हासिल किया जा सकता है जब हममें से प्रत्येक अल्पकालिक परिणामों के बारे में चिंता न करते हुए अपने ‘धर्म’ का पालन करे। एक बार पुनः महात्मा गांधी को उद्धृत करना चाहूँगा क्योंकि उन्होंने बिल्कुल सही कहा था कि आप अपने में वही बदलाव लाइये जो आप दूसरों में देखना चाहते हैं
। जागो और उठो, मेरे देशवासियों, क्योंकि पूरी दुनिया हमें उत्सुकता से देख रही है कि हम सतत विकास के लिए आवश्यक ‘सुराज्य’ हासिल कर सकते हैं या नहीं।
यह कार्य कठिन अवश्य है लेकिन असंभव बिलकुल नहीं है। पूर्ण इच्छा शक्ति होने पर, आधुनिक तकनीक और शासन विधियों से मानव जीवन और भौतिक कल्याण में सुधार आने की उम्मीद है। हालाँकि, यह मनुष्य की समानांतर नैतिक प्रगति पर भी निर्भर करता है। चूंकि हम सभी ने अपने जीवन शैली में अभी तक सुशासन को शामिल नहीं किया है, शायद इसीलिए 1947 में आजादी मिलने के बाद से ही देश ‘सुराज्य’ की तलाश में भटक रहा है।
ये जो पब्लिक है, सब जानती है
अपने सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की विविधता के बावजूद भी भारतीय जनता बहुत परिपक्व और राजनीतिक रूप से जागरूक हैं। संसद और विधानसभा चुनावों में हाल के रुझानों से पता चलता कि बड़ी संख्या में भारतीय मतदाता जाति, धन और धार्मिक विचारों से प्रभावित नहीं हो रहे हैं। जनता विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों एवं योजनाओं और जमीनी स्तर पर उनके कार्यान्वयन के बारे में अच्छी तरह से जागरूक हैं। स्वाभाविक रूप से, शासन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर, साझा करने के लिए लोगों के पास अनुभव हैं क्योंकि यह उनके जीवन से संबंधित है।
इसी प्रकार, शासन एक ऐसा विषय है जिस पर हम में से प्रत्येक के पास अपनी राय है जो उसके देखने और अनुभव पर आधारित है। हमारा दृष्टिकोण व्यक्तिगत के साथ-साथ द्वितीयक अनुभवों के आधार पर आकार लेता है, जिसमें मीडिया में जनमत निर्माताओं द्वारा चित्रित किया गया परिदृश्य भी शामिल है। चूंकि इन में से अधिकांश पेशेवर मत निर्माताओं की अपनी विचारधारा है और वे पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं, अतः उनके परिणामों का सावधानी पूर्वक मूल्यांकन करना चाहिए। गांठ को खोलने से पहले, हमें अलग दृष्टिकोण से यह समझना चाहिए कि शासन क्या है।
सरल शब्दों में, शासन किसी संस्था के संघटकों के बीच पारस्परिक प्रभाव और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं से संबंधित होता है। इसे या तो कानून या सामाजिक नियमों या शक्ति प्रयोग या इनके किसी संयोजन के द्वारा सम्पादित किया जाता है। शासित संस्था भौगोलिक क्षेत्र, बाजार, संगठन या नेटवर्क हो सकती है। शासन प्रायः वर्गीकृत होता है और इसका प्रयोग औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों तरीकों से किया जा सकता है। प्रायः रिमोट नियंत्रित शासन को अल्प या बिना जवाबदेही के बहुस्तरीय प्रशासनिक ढांचे के द्वारा अनुभव किया जाता है। दुर्भाग्य से प्रशासनिक तंत्र, तेजी से उसका अनुकरण करता है और खेदपूर्वक उसे आगे बढ़ाता है। यह ‘रिमोट नियंत्रण’ राजनीतिक, आर्थिक या वैचारिक हो सकता है।
कुछ निस्वार्थी एवं अंतरात्मा की आवाज सुनने वालों (मुखबिरों और अन्य अग्रणी योद्धाओं) की उपस्थिति उत्तरदायी शासन के लिए आवश्यक है। वर्तमान समय में इस प्रकार की सोच वाले व्यक्ति स्थानान्तरण, दूरस्थ पदस्थापना और दूसरे तरीकों से मानसिक एवं शारीरिक उत्पीड़न किये जाने के डर से अपना मुँह नहीं खोलते। वैसे भी हमारी शासन प्रणाली में इस प्रकार के व्यक्ति काफी कम संख्या में हैं। इसका एक पहलू और भी है। कुछ मुखबिर ब्लैकमेलर्स और जबरन वसूली करने वाले बन जाते हैं। इसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड़ता है। इसलिए, वह इस धारणा में नहीं रह सकता कि इस तरह की चीजें उसे प्रभावित नहीं करेंगी। यह प्रभावित करती हैं और करती रहेंगी। हमें ‘प्राचीन काल के ऋषियों’ की तरह आधुनिक ऋषियों की खोज करनी पड़ेगी, जो ‘राज्य धर्म’ का पालन ना करने पर, राजा को भी चेतावनी देने का साहस रखें।
व्यक्तियों, संस्थानों और प्रक्रियाओं की
कार्यप्रणाली के रूप में शासन
सबसे सामान्य रूप में शासन का आशय व्यक्तियों, संस्थानों और प्रक्रियाओं की कार्यप्रणाली से है। सुदृढ़ एवं सद्चरित्र व्यक्ति, अभी तक अपने प्रयासों से समाज की सेवा कर रहे हैं और उसी प्रकार सत्यनिष्ठ संस्थाएं शासन की गुणवत्ता का निर्धारण करने में अंतर पैदा कर सकती हैं।
शासन के अभिन्न अंग के रूप में, व्यक्ति, प्रक्रिया और संस्थान एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। कमजोर, असक्षम और साहसहीन व्यक्ति किन्हीं भी सर्वश्रेष्ठ संस्थानों को नष्ट करने की क्षमता रखते है। दूसरी ओर, एक प्रतिष्ठित संस्थान सक्षम व्यक्तियों को आकर्षित करता है, जो आगे चलकर संस्थान के ब्रांड वैल्यू को बढ़ा सकते हैं। इसी प्रकार, संहिता या अनौपचारिकता को आगे बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है और परिणाम के अभिन्न अंग हैं।
यह एक तथ्य है कि निर्धारित प्रक्रियाओं का अनुपालन करते हुए व्यक्तिगत जिम्मेदारी कम हो जाती है। तदनुसार, कई व्यक्तियों और संस्थानों को लगता है कि उनके द्वारा केवल प्रक्रियाओं का पालन करना ही एकमात्र उद्देश्य है और इससे वांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। लेकिन निश्चित रूप से ऐसा सम्भव नहीं है। अंतिम उद्देश्यों को ध्यान में रखे बिना की जाने वाली प्रक्रियाएं लक्ष्यहीन भटकने वालों की तरह होती हैं, जिन्हें अपने लक्ष्य का भी पता नहीं होता। प्रायः, उद्देश्य की परवाह किए बिना शासन कर्मकांडवादी प्रक्रियाओं से ग्रसित हो जाता है। इसलिए इच्छित परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रक्रियाएं लक्ष्य उन्मुख, पर्याप्त रूप से फुर्तीला और एक ही समय पर विभिन्न चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होनी चाहिए।
किसी भी संस्थान के लिए निर्धारित प्रक्रियाओं में लचीलापन लाना कठिन है। अतः यह संस्थान के उत्तरदायी व्यक्तियों की जिम्मेदारी है कि वह सही निर्णय ले। इसे हासिल करने के लिए उन संस्थानों को सशक्त बनाने वाले व्यक्तियों द्वारा अपने विवेक का प्रयोग करना ही एकमात्र विकल्प है। इसके लिए व्यक्तियों में स्वाभाविक विश्वास एवं आस्था और समकालीन सार्वजनिक प्रशासन के लिए एक पूर्ण प्रतिपक्षता की आवश्यकता है। जब तक व्यक्तियों में आस्था नहीं होगी, वांछित परिणाम नहीं आयेंगे।
सूचना के सामान्य आदान-प्रदान हेतु लिखित और मौखिक दो लोकप्रिय तरीके हैं। एक कुशल संस्थान मौखिक सूचना पर भी निर्भर करता है। तत्पश्चात आवश्यकता के आधार पर कोई भी पक्ष आवश्यकता अनुसार सम्प्रेषण में इसकी लिखित पुष्टी के लिए आग्रह कर सकता है। यह इस विश्वास पर आधारित है कि सूचना देने वाले और लेने वाले जिम्मेदार व्यक्ति होते हैं जिनमें आपसी आस्था और विश्वास होता है। इसका अभाव ही अक्षम संस्थानों की पहचान है। बेशक, सार्वजनिक संस्थानों की एक और श्रेणी है, जो उनके साथ किए गए मौखिक या लिखित संप्रेषण को नजरअंदाज करते हुए कभी कोई सूचना प्रदान नहीं करते हैं।
जटिल प्रक्रियाएं प्रायः वांछित परिणाम प्राप्त करने में बाधा डालती हैं और तंत्र को अप्रभावी बना देती हैं। अधिकांश मौकों पर शासन भ्रामक आंकड़ों, अवास्तविक लक्ष्यों और उपलब्धियों की अविश्वसनीय रिपोर्टिंग के आधार पर किया जाता है। यह दिखाने के लिए कि, लक्ष्य हासिल हो गया है, तथ्यों, आंकड़ों, कार्यप्रणाली और रिपोर्टिंग के मामले में बाजीगरी शुरू हो जाती है। अधिकांश तीव्र बुद्धि वाले व्यक्ति इस लक्ष्य केंद्रित दृष्टिकोण के आधार पर सरकारी क्षेत्र में अपना करियर बनाते हैं।
इतना सब करने के बाद भी, गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों संदर्भों में जमीनी प्रगति घोषित उपलब्धियों के आनुपातिक नहीं होगी। औसत दर्जे का प्रशासन व्यापक प्रचार और मीडिया प्रचार पर आधारित होते हैं। जब इस तरह के प्रशासन अपने खोखले दावों के कारण चुनाव पूर्व की राजनैतिक गतिविधियों में डूब जाते हैं, तो वे कृतघ्न मतदाताओं को इसके लिए दोषी मानते हैं। लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बिना किसी रणनीति के केवल महत्त्वाकांक्षी सोच रखना व्यर्थ है। अपेक्षाकृत बेहतर प्रशासन में, इनपुट आधारित हस्तक्षेप पर विश्वास किया जाता है। निःसंदेह, केवल इनपुट आधारित प्रक्रियाएं अपेक्षित परिणामों की गारंटी नहीं दे सकती हैं। इसलिए, गौर करने योग्य परिणामों के आधार पर सुशासन का आंकलन करने की आवश्यकता है।
आइए हम प्राथमिक शिक्षा का उदाहरण लें। एक सरलीकृत आदर्श विद्यालय को संस्थान, शिक्षक एवं छात्र को व्यक्ति और शिक्षण को प्रक्रिया मानना है। इनपुट आधारित शासन विद्यालयों, छात्रों और शिक्षकों की संख्या और अनुपात के बारे में बात करता है। जबकि परिणाम आधारित तंत्र पढ़ने-लिखने और गणितीय कौशल में दक्षता के स्तर में वृद्धि पर जोर देती है जिसे छात्रों द्वारा हासिल किया जाता है।
शासन का उद्देश्य
आगे बढ़ने से पहले, शासन के मूल उद्देश्य को समझना महत्त्वपूर्ण है। शासन का अंगीकृत उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान देने के साथ-साथ अधिक से अधिक लोगों का कल्याण करना है। हालाँकि, हम यह जान कर परेशान हो जायेंगे कि शासन तेजी से सत्ताधारी विशिष्ट वर्ग के अधिकतम कल्याण में बदल रहा है। शासन तंत्र में लोगों के विश्वास को बनाये रखने के लिए सत्तारूढ़ विशिष्ट लोगों को वास्तविक विकास संबंधी कार्यों को पूरा कर शासन की उपस्थिति को सुनिश्चित करना चाहिए। यहां तक कि ऐसी वास्तविक विकासात्मक प्रक्रियाएं भी विजेताओं और विफल होने वालों के लिए आवश्यक हैं। उदाहरणार्थ, यह अपेक्षा की जाती है कि सिंचाई परियोजना के निर्माण से कई किसानों को लाभ होगा। हालांकि, कुछ किसान व्यापक सार्वजनिक कल्याण को पूरा करने के लिए