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Prasiddh Hastiyon or Buddhijiviyon Ki Nazar Main Osho - (प्रसिद्ध हस्तियों और बुद्धिजीवियों की नज़र में ओशो)
Prasiddh Hastiyon or Buddhijiviyon Ki Nazar Main Osho - (प्रसिद्ध हस्तियों और बुद्धिजीवियों की नज़र में ओशो)
Prasiddh Hastiyon or Buddhijiviyon Ki Nazar Main Osho - (प्रसिद्ध हस्तियों और बुद्धिजीवियों की नज़र में ओशो)
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Prasiddh Hastiyon or Buddhijiviyon Ki Nazar Main Osho - (प्रसिद्ध हस्तियों और बुद्धिजीवियों की नज़र में ओशो)

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About this ebook

हालांकि यह बात कोई मायने नहीं रखती कि लोगों की नज़र में ओशो कौन हैं। स्वयं ओशो ने भी इस बात की कभी परवाह नहीं की, कि लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। सच तो यह है कि ओशो को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, न ही वह मोहताज हैं किसी भीड़ या समर्थन के। पर एक समाज है, जो अपने अलावा सबकी खबर रखता है, जो निरंतर भीतर नहीं, बाहर झांकता रहता शशिकांत ‘सदैव’ है। जो अपनी संकुचित बुद्धि से अंदाजे लगाता रहता है और गढ़ता रहता है अधूरेपन से एक पूरी तस्वीर। न केवल स्वयं भटकता है, बल्कि दूसरों को भी गुमराह करता है। जिसका नतीजा यह होता है कि ओशो जैसा संबुद्ध, रहस्यदर्शी सद्गुरु, एक सेक्स गुरु या अमीरों का ही गुरु बनकर रह जाता है। जबकि सच तो यह है कि जिसने भी ओशो को पढ़ा है, सुना है या ओशो के आश्रमों में गया है वह चमत्कृत हुआ है। ओशो के प्रति न केवल उसकी सोच बदली है बल्कि उसका स्वयं का जीवन भी रूपांतरित हुआ है।
यह पुस्तक प्रमाण है की ओशो ने कितनों को झंकृत किया है। ओशो उन बुद्धिजीवियों और प्रसिद्ध हस्तियों के प्रेरणा स्रोत व प्रिय रहे हैं जिनकी दुनिया दीवानी है। ओशो को किस कदर, किस कद के लोग, किस हद तक चाहते हैं, आप इस पुस्तक से पढ़कर अंदाजा लगा सकते हैं, जबकि यह पुस्तक अपने आप में महज़ ट्रेलर भर है। क्योंकि गुप्त रूप से ओशो को चाहने और चुराने वालों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है जो न केवल ओशो को पढ़ते-सुनते हैं बल्कि अपनी सहूलियत एवं जरूरत अनुसार कट-पेस्ट भी करते हैं, परन्तु मानने से हिचकिचाते हैं कि वो ओशो ही हैं जिससे यह दुनिया सम्मानित हुई है, दुनिया के इतने सम्मानित लोग सम्मानित हुए हैं।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 1, 2020
ISBN9789390088867
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    Prasiddh Hastiyon or Buddhijiviyon Ki Nazar Main Osho - (प्रसिद्ध हस्तियों और बुद्धिजीवियों की नज़र में ओशो) - Shashikant ‘Sadaiv’

    परिचय

    ओशो ने चेतना के अंतिम

    स्तर को स्पर्श किया है

    - पद्मभूषण, गोपालदास नीरज (कवि एवं गीतकार)

    मेरे मन में ओशो के लिए अगाध प्रेम है बुद्ध के बाद वे ही एकमात्र व्यक्ति हैं, जिन्होंने चेतना के अंतिम स्तर महापरिनिर्वाणात्मक स्तर का स्पर्श किया है। उनके साथ जुड़कर मैं स्वयं को धन्य मानता हूं।

    मैंने जब से ओशो को पढ़ना शुरू किया, मैं किसी और को पढ़ता ही नहीं, क्योंकि ओशो को पढ़ने का मतलब है, संपूर्ण अस्तित्व की जानकारी प्राप्त करना। राजनीति, शिक्षा, विज्ञान, ध्यान, विवेक, प्रतिष्ठा, अध्यात्म, गांधी, मार्क्स, महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट... ऐसा कोई भी विषय नहीं है जिस पर ओशो ने अपने ज्ञान की रोशनी डाली नहीं है।

    उन्होंने जो बोला है, जो लिखा है उसे पढ़कर ऐसा लगता है कि विश्व की सारी समस्याओं का हल उन्हीं के चिंतन से हो सकता है, और किसी उपाय से नहीं। धर्म, कला और विज्ञान, इन तीनों का समन्वय जब होता है तभी चेतना के तीनों स्तरों का विकास होता है। जीवन के जितने भी क्षितिज हैं, जितने आयाम हैं उनको ओशो ने स्पर्श किया है। ऐसा चिंतक, ऐसा प्रज्ञा-पुरुष हमारे संसार में दूसरा हुआ नहीं।

    ओशो इस शताब्दी के सर्वाधिक चर्चित एवं विवादास्पद व्यक्ति हैं। अमेरिका की जेलों में बिना किसी दोष के, बारह दिनों तक तरह-तरह की यातनाएं भोगने के बाद जब वे वहां से मुक्त हुए तो वे इस युग के सबसे खतरनाक व्यक्ति भी माने जाने लगे। उनके हाथों में न बंदूक थी, न तलवार थी, न वे कोई करिश्मा करते थे, न वे कोई जादू दिखाते थे, भक्तों को न वे अंगूठियां बांटते थे, न भभूति ही देते थे, फिर भी सारे पंडित, सारे औलिए, सारे चर्च, सारे संप्रदाय, सारा संसार और संसार की सारी सरकारें उनसे डरती थीं। वे खतरनाक हैं, इसलिए कि वे मनुष्य को मनुष्य से दूर करने वाली जो भी दीवार है, चाहे वह संप्रदाय की हो, चाहे वह राजनीति की हो, चाहे वह परंपराओं की हो, चाहे वह विचारों की हो, चाहे वह जाति, वर्ग तथा वर्ण की हो, वे उसे गिराकर एक नए मानव समाज की रचना करना चाहते हैं। मनुष्य की आत्मा पर नाम रूप और उपाधि के जितने भी परदे हैं, जितने भी घूंघट हैं वे उन सब को उघाड़ कर हमें हमारे शुद्ध, निर्मल, चेतनरूप का दर्शन कराना चाहते हैं। यानी तरह-तरह के कपड़े पहने हुए हम लोग जो आवरण मात्र रह गए हैं। वे उन्हें हटाकर हमें नग्न करना चाहते हैं।

    वे खतरनाक हैं इसलिए भी क्योंकि वे एक ऐसे समष्टिवादी लोक के निर्माण का स्वप्न देख रहे हैं जिसका आधार पैसा न होकर प्रेम हो। वे खतरनाक हैं इसलिए कि वे सड़ी-गली रूढ़ियों, दम तोड़ती हुई परंपराओं और झूठे अंधविश्वासों के खिलाफ एक धर्मयुद्ध छेड़ रहे हैं। वे खतरनाक हैं इसलिए कि वे आपसे आपकी मुलाकात कराना चाहते हैं। यही आखिरी काम बड़ा मुश्किल भी है और खतरनाक भी।

    ओशो का समस्त जीवन यह प्रयत्न रहा है कि मनुष्य की नारकीय यात्रा को किस प्रकार स्वर्गोन्मुख किया जाए। ओशो की पूरी जीवनशैली, उनका उठना-बैठना, उनका होना इस बात का संदेश है कि सत्य की अभिव्यक्ति सुंदरम् से हो तो वह कहीं अधिक मुखर हो उठता है।

    यह तो निश्चित ही हमारा सौभाग्य है कि ओशो जैसे व्यक्ति ने इस धरती पर जन्म लिया।

    ओशो के विचार, ओशो की देशनाएं, ओशो का दर्शन इतना अगाध है- अथाह सागर के समान है कि जिसमें कितनी बार ही आप डुबकी लगाएं तब भी आपको आसानी से रत्ती भर प्राप्त नहीं हो पायेगा।

    ओशो को मैं कवियों का कवि मानता हूं। साहित्यकारों का साहित्यकार मानता हूं। ये शताब्दी ओशो की है। उन्हें अधिक पढ़ा जायेगा, समझा जायेगा। ओशो कहीं गए नहीं हैं, हमारे बीच में ही किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। और ऐसे महान पुरुष जाया नहीं करते। हमेशा हमारे बीच में ही रहा करते हैं। वे आज भी हमारे बीच में है। मैं उन्हें प्रणाम करता हूं और बार-बार उनको नमन करता हूं।

    ओशो की देशना है कि धर्म का अवतरण नहीं हुआ और जिन्हें धर्म की अनुभूति हुई कृष्ण को हुई, जीसस को हुई, बुद्ध को, महावीर को हुई और इनकी उस धर्म की अनुभूति को पंडितों ने, पादरी व मौलवी ने तोते की भांति उसे बिना समझे रटना शुरू कर दिया व उन्होंने धर्म को मार दिया। धर्म को मारने वाले ये लोग थे। इसलिए धर्म के अवतार के बिना संसार में सुख-शांति नहीं हो सकती।

    ओशो इस युग के एनलाइटेंड सोल थे। जब भौतिकता और आध्यात्मिकता का संगम होता है, तब मनुष्य जाति संपूर्ण होती है। ओशो कहते हैं कि भौतिक जिससे समृद्ध हो और आंतरिक भी जिससे समृद्ध हो तभी जीवन का सही विकास होगा।

    ओशो के जीवन काल में उनका बहुत विरोध हुआ और ये विरोध उन लोगों ने किया जो धर्म के नाम पर पैसा इकट्ठा करते थे। हम बहुत जगह गये, हरिद्वार गये और हमने देखा कि वहां लोग संत बने बैठे हैं और अपनी आरती उतरवाते हैं इस तरह के लोगों ने उनका विरोध किया। और ये विरोध सही भी था क्योंकि वे अपने समय से बहुत आगे थे। और जो भी अपने समय से आगे चला है या तो उसे अपने समय में सूली लगी क्राइस्ट की तरह या सुकरात की तरह उसे जहर पीना पड़ा या मीरा की तरह उसे विषपान करना पड़ा पर वे ही लोग पहचाने गये। आज ओशो को जितना पढ़ा जा रहा है, जितना सुना जा रहा है और कोई इतना नहीं बिक पा रहा है। बड़े-बड़े संत हैं इस देश में लेकिन हुआ यह बिना पढ़े ही लोगों ने उन पर कमेंट करना शुरू कर दिया।

    जितनी सुंदर व्याख्या उन्होंने कबीर की, दादू की, संत कवियों के साहित्य के बारे में की है, जो शैली प्रयोग की है, वह कविता ही है। उस शैली की आप उपेक्षा नहीं कर सकते। आप विरोध भले ही कर लो, नेगलेक्ट नहीं कर सकते। उदासीन नहीं हो सकते उनके प्रति। ये सबसे बड़ा योगदान उनका रहा।

    ओशो की देशना रही कि प्रेम जितना बांटोगे उतना ही बढ़ता चला जाता है। तो प्रेम समाज में बांटो। ओशो कहते थे कि जीवन के प्रत्येक क्षण को धर्म बनाओ। मंदिर मत भागो, मस्जिद मत भागो, माला मत लो, धार्मिकता बड़ी चीज है धर्म से।

    कृष्ण-बुद्ध मिलकर हुए जिसमें एकाकार, वो ओशो हैं इस युग के अवतार।

    ओशो ने अध्यात्म में सौंदर्य को जोड़ा

    ओशो ने सौंदर्य को अध्यात्मिक के जगत में बहुत बड़ा स्थान दिया यह नए प्रकार का चिंतन है। ओशो की जो साधना है, सही धर्म के अवतरण की साधना है। उसी के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन दिया। दिया क्या, उसे पूरी तरह जिया। ओशो का सबसे बड़ा योगदान यही है कि उन्होंने जो कहा, उसको जिया। और वो जिस तरह जिये उस तरह से अगर मनुष्य जिये तो वह संपूर्ण जीवन को प्राप्त कर पायेगा।

    यह कृष्ण का धर्म फिर से लौट आया है। ऐसा संपूर्ण धर्म सिर्फ भारत ने ही दिया है। यहां माखन भी है और युद्ध भी है। और युद्ध से भागना भी है। यह बांसुरी बजाता हुआ धर्म है। यह हंसता हुआ धर्म है। यह नाचता हुआ धर्म है।

    ओशो अस्तित्व की

    एक अभिव्यक्ति हैं

    - पद्मभूषण, गुलजार (गीतकार)

    ‘उनके कदमों के निशां तक नजर नहीं आते। हवा के झोंके पर जो चला उसके कदमों के निशां नहीं ढूंढ़ियेगा?’ मैं तो अपने सजदे में पड़ा रह गया वो गया तो अपने निशां साथ ले गया।

    ‘कुछ इस तरह जुड़ा हूं ओशो से’। ओशो से मिलना एक ही शर्त पर होगा- आईना हो जाओ। फिर दो आईने मिलेंगे-इनफिनिट एम्प्टीनैस-अनंत शून्यता। मेरी नजर में ओशो मतलब ‘ओशो’ है। ओशो स्वयं में तलाश हैं तथा हासिल भी हैं उस तलाश का। मेरे लिए ओशो एक पढ़ा हुआ या छपा हुआ शब्द नहीं हैं वह एक जाना हुआ शब्द हैं। ओशो मुझे हमेशा अस्तित्व की एक अभिव्यक्ति लगे हैं: ‘ह्यूमन वैल्यूज’ का एक गुच्छा। वे एक अमूर्त कवि हैं। ‘ही वॉज ए ग्रेट थिंकर ऑफ आवर टाइम।’ एक कसक सी होती है मुझे कि हमारे वक्त में इतनी बड़ी हस्ती गुजर गई और हमने ध्यान नहीं दिया। बाद में जाकर, एक सदी के बाद हम तलाश करेंगे कि वे क्या थे?

    ओशो कलाकारों के रहनुमा हैं, रहबर हैं। वे भीतर रचनात्मक ऊर्जा को जगाते हैं। उनको सुनें या उनको पढ़ें तो ऐसा लगता है, जो रचनात्मक लोग हैं उनके लिए ही ये रहनुमा पैदा हुए हैं। ये उन्हीं की रहबरी कर रहे हैं। वे उन्हीं अमूर्त अवकाश की तरफ ले जाने वालों में से हैं। वे उनके भगवान नहीं हैं जो दुनियावी ख्वाहिशें पूरी करवाने के लिए आते हैं कि मुझे नौकरी चाहिए तो भगवान के पास जाकर एक ताबीज बनवा लिया जाए।

    मैं उन्हें रहबर कहता हूं, क्योंकि परमात्मा की हमारी परिभाषा बिलकुल अलग है। हमारे लिए परमात्मा शरीर में नहीं होता और ये मसीहा शरीर में जीते हैं। इनकी शक्ल-सूरत होती है। ये रहनुमा हमारे सामने होते हैं जिनको हमने छुआ, सुना, देखा-कभी उनकी आवाज से, कभी उनके अल्फाज से, कभी उनके ख्याल से। मुझे जब भी उनका ख्याल आता है तो उनकी आवाज के अलावा उनका एहसास जरूर साथ में आता है। अगर आपके दिमाग के तसव्वुर के, ख्यालात के एंटीना खुले हों तो आप उन्हें महसूस करने लगते हैं। वे आपके पास उसी तरह आते हैं जिस तरह आप चाहते हैं- ध्वनि की तरह, मौसिकी की तरह। उनके साथ एक बड़ी खूबसूरत बात यह है कि जब वे आपको खुदा की खोज करने के लिए कहते हैं तब वे आपको खुद की ही तलाश में भेज रहे होते हैं, क्योंकि आप अपनी तलाश में जो निकलते हैं तो वह दरअसल ‘उसी’ की तलाश होती है, क्योंकि उसको तलाश करके अपने अंदर शामिल कर लेना अपने आप में एक वर्तुल है, एक प्रक्रिया है। फिर वे अंतर ध्यान की तरफ ले जाते हैं। ओशो प्रेरित करते हैं और यह राह दिखाते हैं कि अपने अंदर ढूंढो। तुम गलत राह पर तलाश कर रहे हो। यह जो रहनुमाई है, यह ओशो की देन है। एक और बड़ी बात कि हमने साधु के साथ गरीबी को जोड़ा हुआ था, इसे भी तोड़ दिया ओशो ने।

    ओशो के साथ जो सबसे खूबसूरत बात मैं महसूस करता हूं वह यह कि उन्होंने किसी एक संप्रदाय की, किसी एक मजहब की तरफदारी नहीं की। ओशो का जो मेडिटेशन रिजॉर्ट है वह न तो हिंदू है, न सिख है, न ईसाई है। मजहब का कोई लेन-देन नहीं है, आज के दौर में यह बात, यह विचार महान बात है। एक ही झोंके से हमें उन्होंने सारे शास्त्रों से आजाद कर दिया। वे कहते हैं-‘आओ, हम इंसान के तौर पर मिलें और एक-दूसरे को खोजें। यह जो एक-दूसरे को पहचानने का सफर है, वह अपने आप में बड़ी गहरी बात है। उन्होंने कोई ऐसी बंदिश या कोई ऐसा अहाता नहीं बांधा कि आप इसको मानते हैं तो इस तरफ आइए और उसको मानते हैं तो उस तरफ चले जाइए।

    इसलिए मैं सोचता हूं कि ओशो ने एक अलग विचार, एक अलग फलसफा शुरू किया। मैं मानता हूं कि यह ओशो का मौलिक योगदान है। ओशो के जीवन-दर्शन में यही आलम है। हर मौसम का रस है, हर लम्हें का रस है यहां। ओशो का जीवन-दर्शन रूखा-सूखा नहीं है। ऐसा नहीं है कि सब बर्दाश्त कर लो और किसी तरह निकल चलो वक्त की सुरंग से। हर सुबह का, शाम का, हर धूप का, छांव का रस है यहां। और कच्ची मिट्टी की दीवार यानी जिस्म। इसकी दूसरी तरफ कोई और है जो सारे रस लेते हुए भी सन्नाटे की तरह बैठा है। मेरे लिए यही ओशो हैं।

    मेरे लिए यह खुशकिस्मती की बात है कि एक बार मैं उनकी कोई किताब पढ़ रहा था तो हैरान रह गया कि मेरी एक नज्म है जिसे वे एक्स्प्लेन कर रहे थे। मैं बहुत हैरान। विनोद मुझसे मिलने आए तो मैंने उनसे पूछा कि मेरी यह नज्म ओशो के पास कैसे पहुंची। विनोद बोले कि ‘उनके पास सब कुछ पहुंचता है, और वे सब कुछ पढ़ते हैं।’ खैर, कैसे पहुंची की बात को छोड़ दें- पहुंची। और उन्होंने अपने प्रवचन में कही। मुझे ऑस्कर तो बहुत बाद में मिला, लेकिन ऑस्कर से बड़ा पुस्कार तो मुझे तभी मिल गया जब ओशो ने मेरी नज्म कही।

    आने वाली पीढ़ियां भी

    ओशो में रुचि लेंगी

    - डॉ. वेदप्रताप वैदिक (लेखक एवं पत्रकार)

    ओशो बेजोड़ हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि 20 वीं सदी में ओशो जैसा अध्ययनशील, विचारशील, मौलिक बुद्धि का धनी और शैली का राजकुमार शायद कोई दूसरा आदमी हुआ ही नहीं। ओशो ने लिखा कम है, बोला ज्यादा है। उनके हर प्रवचन को लिपिबद्ध करने का श्रमसाध्य कार्य उनके शिष्यों ने बखूबी किया है। वे लगभग हर रोज प्रवचन करते थे। कौन सा विषय है, जो उनसे छूटा है। दर्शन, राजनीति, धर्म, दैनंदिन जीवन, मनोविज्ञान, लगभग हर विषय पर ओशो ने अपनी अंतर्दृष्टि दी। उन्होंने जितने विषयों को छुआ है, पश्चिम के किसी दार्शनिक ने नहीं छुआ। सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, हीगल, कांट वगैरह की दुनिया भी ओशो के आगे छोटी लगती है। आचार्य रजनीश, जो बाद में भगवान और अंत में ओशो कहलाए, एक अर्थ में भारतीय और विदेशी चिंतकों में अपना अलग स्थान रखते हैं। ओशो की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे कठिन से कठिन बात को भी सरल से सरल ढंग से कह सकते थे। वे दर्शन और मानव मन की गूढ़ से गूढ़ पहेलियों को भी रोचक ढंग से सुलझा लेते थे। वे बोलते थे। यदि बोले हुए वाक्य लंबे और जटिल होंगे तो वे श्रोताओं के सिर पर से निकल जाएंगे। ओशो का बोला हुआ शब्द सीधा श्रोता के दिल में घर कर लेता था। इसीलिए मैं उन्हें ‘शैली का राजकुमार’ कहा करता था। उनके वक्तृत्व इतने प्रभावशाली होते थे कि उनके अनुवाद भी दुनिया की कई भाषाओं में हुए। 1976 की बात है कि मैं तेहरान के एक बाजार से गुजर रहा था। फारसी किताबों की दुकान पर भीड़ लगी हुई थी। मैंने कतार में लगे एक आदमी से फारसी में पूछा कि यह भीड़ क्यों लगी हुई है? उसने कहा कि एक हिन्दी हुज्जतुल्लाह (तर्कशास्त्री) की नई किताब आई हुई है। अमेरिका, यूरोप और जापान में ही नहीं, कट्टरपंथी मुस्लिम देशों में भी ओशो की गूंज सुनाई देती थी।

    जहां तक सवाल है कि ओशो विवादित क्यों रहे? इसका जवाब यही है कि ओशो परम बौद्धिक थे। साधारण लोग तर्क से दूर अंध श्रद्धा से परिचालित होते हैं। ओशो उनके लिए थे ही नहीं। जिनके लिए ओशो बोलते थे, उन लोगों के लिए ओशो हमेशा रहेंगे। ओशो ने पाखंड नहीं फैलाया। लोगों का शोषण नहीं किया। इसलिए आप देखेंगे कि उनके प्रवचनों में अनेक स्थानों पर गहरा उतार चढ़ाव है और परस्पर विरोध भी है। उन्होंने किसी व्यवस्थित दर्शन या संप्रदाय को जन्म नहीं दिया कि लोग जिसका आंख मींचकर पालन करें। ओशो की खूबी यह थी कि वे जिस विषय पर भी बोलते थे, उसकी गहराइयों तक उतर जाते थे और अपने श्रोताओं को भी उतार ले जाते थे। ओशो ने अपने भक्तों को धर्म की अफीम नहीं चटवाई बल्कि उन्हें सत्य का स्वाद लेना सिखाया।

    ओशो से मेरा परिचय लगभग 55-56 साल पहले इंदौर में हुआ था। मेरा उनसे मिलना-जुलना कम ही हुआ लेकिन हमारा संपर्क बराबर बना रहता था। इतना ही नहीं ओशो की दो-तीन पुस्तकों की भूमिका लिखने का सम्मान भी मुझे मिला।

    ओशो मुझे इतने प्रिय थे कि उनकी जो भी किताब मुझे हाथ लगी, हिंदी, अंग्रेजी, फारसी, रूसी, उसे मैंने पढ़ना चाहा। अभी भी मेरे पास ओशो की तीन-चार किताबें सिरहाने रखी रहती हैं। ज्यों ही समय मिलता है, मैं उन्हें पढ़ता हूं। मुझे लगता है कि जबलपुर से पुणे की यात्रा के दौरान उनका जबर्दस्त विकास हुआ है। उनकी सोच भी बदली है और शैली भी। पहले शेरो शायरी, किस्से-कविताएं, दृष्टांत, चुटकुले उनके व्याख्यानों में होते थे। तीखे आक्रमण भी लेकिन ज्यों-ज्यों उनकी आयु और कीर्ति बढ़ती गई, उनका गांभीर्य भी बढ़ता गया।

    ओशो के चाहे करोड़ों अंधभक्त न हों, वे चाहे कोई संप्रदाय अपने पीछे न छोड़ गए हों लेकिन ओशो ऐसी विलक्षण प्रतिभा और बौद्धिकता के धनी थे कि आनेवाली पीढ़ियां भी उनमें गहरी रुचि लेती रहेंगी।

    ओशो ने परंपराओं में जकड़े

    मन को आजाद किया

    पद्मम विभूषण, खुशवंत सिंह (लेखक एवं पत्रकार)

    मैं ओशो से पहली और आखिरी बार मिला बंबई में, सन 1971 में, जब वे वुडलैंड्स में रहते थे और मैं इलस्टेरटेड वीकली का संपादक था। मैं उनके संबंध में खबरें पढ़ता रहता था और देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में उनके फोटो भी देखा करता था।

    ओशो ने मुझसे पूछा, आप किसलिए मिलने आए हैं?

    मैंने कहा, ईमानदारी से कहूं तो कुतूहलवश। मुझे गाडमेन, संत कहलाने वाले लोगों से मिलने का शौक है। मैं यह देखना चाहता हूं कि उनके शिष्यों को उनसे क्या उपलब्धि होती है। मैंने न्यूयॉर्क टाइम्स में इस विषय पर कुछ लेख लिखे हैं। और सच पूछें तो आपके शिष्यों में मेरी अधिक उत्सुकता है। वे क्या खोज रहे हैं जो उन्हें अन्यत्र नहीं मिलता और वे आपके पास आते हैं?

    ओशो ने पूछा, आप क्या खोज रहे हैं? मैंने कहा, कुछ नहीं। मैं अपने आप में संतुष्ट हूं। मेरी कोई समस्याएं नहीं हैं। न ही मैं कोई आध्यात्मिक मार्गदर्शन चाहता हूं।

    ओशो ने कहा, अगर आपकी कोई समस्याएं नहीं हैं, आपको कोई आध्यात्मिक मार्गदर्शन नहीं चाहिए तो आप अपना और मेरा समय क्यों व्यर्थ गवां रहे हैं।

    मैंने कहा, सिर्फ एक चीज है जो मुझे सालती रहती है। चूंकि आपने इतनी किताबें पढ़ी हैं- अभी मैंने आपकी लाइब्रेरी देखी है, उसमें हर विषय पर किताब है- इसलिए मैंने सोचा, इस विषय में आपसे पूछ लूँ। मेरी समस्या है मौत का डर। मैं निरंतर मृत्यु के विचार से घिरा रहता हूं। हालांकि मैं जानता हूं कि मृत्यु सुनिश्चित है, फिर भी मैं उसके भय से मुक्त नहीं हो पाता। फिर उन्होंने कुछ देर तक मृत्यु पर बातचीत की। वह पूरी की पूरी तो मुझे याद नहीं है लेकिन सारांश में उन्होंने यह कहा था, मृत्यु के भय से छुटकारा पाने के लिए मरने के भय का और मौत का साक्षात्कार करो।। श्मशान जाकर मुर्दों को जलते हुए देखो, उनके रिश्तेदारों की प्रतिक्रियाएं देखो। और वही मैं करता रहा हूं।

    मैंने उनसे कहा ‘मुझे अध्यात्म से कोई लगाव नहीं है। मैं अज्ञेयवादी हूं। मैं किसी ईश्वर में या धर्म में विश्वास नहीं करता।’ वो बोले, ‘कोई हर्ज नहीं।’

    उनसे मिलने के पहले उनके बारे में कुछ ऐसी ही हवा फैला दी गई थी। मैं खुले दिमाग से नहीं गया था। मैंने इतने लोगों को इन संतों के सम्मोहन में बंधते हुए देखा है कि मेरी भीतर उनकेखिलाफ एक दीवार सी खड़ी हो गई थी। मैंने ठान लिया था कि मैं उनका लिबास या उनकी शोहरत इत्यादि से प्रभावित होने वाला नहीं हूं। मैं सिर्फ मृत्यु पर चर्चा करने के इरादे से गया था। लेकिन सभी इरादे तो सफल नहीं होते हैं। कुछ इरादे ऐसे भी होते हैं जिनकी असफलता ही अंतत: इंसान की सफलता सिद्ध होती है।

    उनकी मौजूदगी का असर देर तक मेरे दिमाग पर छाया रहा। मेरा कुतूहल एक व्यक्तिगत उत्सुकता में बदल गया। इसके बाद मैं ओशो का नवीनतम साहित्य पढ़ता गया। उनके बारे में छपने वाली रॉल्स रॉयस और मुक्त यौन की खबरों का मेरे ऊपर असर होना बंद हो गया। क्योंकि बुनियादी रूप से मैं उन्हें एक विचारक मानता था। मेरा मानना है कि इस व्यक्ति की प्रज्ञा सुस्पष्ट है। ऐसी आज तक मैंने किसी की देखी नहीं है। दुरूह से दुरूह विषय को वे इतना पारदर्शी बनाकर कहते हैं और इतने अच्छे उदाहरणों से उसे समझाते हैं कि मैं आसानी से पढ़ सकता हूं। नीत्शे की किताब पर उनके जरथुस्त्र के प्रवचन... और भी कई किताबें मैंने पढ़ी हैं। और न केवल मैं पढ़ता हूं मैं लोगों को थमा देता हूं कि इसे पढ़ो।

    मैं उन्हें पढ़ता रहा, उन पर लेख लिखता रहा। मैंने यह कहा है कि आदि शंकराचार्य के बाद ओशो जैसी प्रतिभा भारत में पैदा नहीं हुई। जब भी ओशो पर लेख छपते, लोग मेरे से आकर पूछते, क्या वाकई तुम ऐसा महसूस करते हो? मैं कहता, बिल्कुल।

    ओशो जिस तरह का संदेश देना चाह रहे थे मैं समझता हूं उसमें हमेशा संवाद की तकलीफ होती है। वे बहुत ही सुशिक्षित थे और सुशिक्षित भारतीयों को उनकी बात एकदम समझ आ रही थी। लेकिन बिना पढ़े लिखें लोग जिन्हें कोई बात समझनी ही नहीं है वे शुरू-शुरू में तो ओशो को कोई साधु-महात्मा समझकर उनके दर्शनों के लिए आने लगे, लेकिन फिर ऐसे लोग धीरे-धीरे छंट गये।

    अब तो भारतीय मानस में ओशो का संदेश काफी घुसपैठ कर गया है।

    ओशो के जाने के बाद भारतीय प्रेस बेमन से ही सही, इस तथ्य को स्वीकार कर रही है कि उसने ओशो के साथ अन्याय किया है। अब धीरे-धीरे कई अखबारों में उनके संबंध में विधायक लेख छप रहे हैं। और सेक्स और मादक द्रव्यों का उनके नाम पर लगा हुआ दाग अब धुल रहा है बल्कि लोग उन्हें एक गहन विचारक, और शायद एक नये मसीहा की तरह भी देखने लगे हैं।

    ओशो ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की। उन्हें जैसा लगता था, वैसा ही वे बोलते थे और जो वे कहते थे उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार नजरिया देने में लगे हुए थे।

    मैं सोचता हूं, ओशो ने जो बुनियादी काम किया, वह था धर्मों पर जमी हुई धूल को पोंछ डालने का और जो-जो चीजें बेकार की थीं, जो आदमी की छाती पर हावी हो गई थीं, उन्हें काट-काटकर अलग करने में उन्होंने जरा भी दया नहीं दिखाई, पूरे साहस के साथ उन्होंने उन चीजों की आलोचना की और जो-जो सार था, फिर वह चाहे जहां भी हो, उसे उन्होंने संजोकर मनुष्य के लिए उपलब्ध करा दिया।

    उन्होंने सारे धर्मों का सार-सूत्र निचोड़ लिया है। उनमें जो मरी हुई चीजें थीं वे निकाल दीं। मेरी दृष्टि में यह सबसे बड़ा योगदान है। आप ईश्वर या मसीहा या मंदिर और शास्त्र, इन सब धारणाओं में न उलझकर सीधे आध्यात्मिक संतुष्टि पा सकते हैं। ये धारणाएं ही तथाकथित धर्मों के आधार स्तंभ रही हैं।

    ओशो ने परंपरागत बेड़ियों में जकड़े हुए आदमी के मन को आजाद किया है। और अब उनके हृदय के साथ हमें एक नवीन धर्म उपलब्ध हुआ है, जो कि निरर्थक साज-समान से मुक्त है। जिसके पास प्रश्न करने की क्षमता है, जैसी बुद्ध में थी-कि सिर्फ मैं कहता हूं इसलिए विश्वास मत करना। अगर तुम्हें नहीं जंचती है बात, तो छोड़ दो। इसलिए मैं मानता हूं कि विचारशील जगत के लिए उनका संदेश बहुत सार्थक है।

    ओशो ने जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम किया, वह था धर्म को दुख और उदासी से मुक्त करना। उन्होंने धर्म को मुक्ति और उत्सव का रूप दिया। उनके शिष्यों की ओर देखो तो उनके चेहरों पर हमेशा एक मुस्कान बनी रहती है।

    बहुत कम लोग सेक्स के विषय में बोलते या लिखते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि उन्हें गलत समझा जाएगा। एक शख्स जिसमें सेक्स पर बोलने का साहस है बिना इसकी परवाह किए कि लोग उसके बारे में क्या कहते हैं, वह हैं ओशो।

    वस्तुत: वे जो कर रहे थे वह बहुत गंभीर था, लेकिन मिथ्या नैतिकता से ग्रसित हमारे नेताओं ने उसे छिछला बना दिया। उनके आचरण में जो झूठ, फरेब, चोरी, धोखाधड़ी और अन्य दुराचरण है उसे मध्यवर्ग के लोग बर्दाश्त कर लेते हैं, लेकिन कोई व्यक्ति यदि आदमी के द्वारा बनाई गई सेक्स की सीमाओं को लांघता है तो उस पर अनैतिक होने का लेबल लगाया जाता है।

    संत होने के लिए तो भारत में यही धारणा है कि उस व्यक्ति का जीवन गरीबी को समर्पित हो, वो सदा उदास ही रहे और ओशो इस परिभाषा में फिट नहीं होते थे, क्योंकि वे और धर्म गुरुओं की तरह पाखंडी नहीं थे, क्योंकि आपने देखा धर्म गुरुओं के दो चेहरे होते हैं। वे भगवा या सफेद कपड़े पहन कर त्यागी होने का दिखावा करते हैं। और भीतर ही भीतर क्या चलता है ये किसी से छिपा नहीं है। और ओशो ने ऐसी कोई छवि का कभी प्रयास नहीं किया और न किसी की परवाह की। और उनके बारे में बड़ी मजेदार बात यह है कि वे जब भी अपना प्रवचन समाप्त करते उसके अंत में ऐसे चुटकुले सुनाते कि लोग उनके विचारों में से कोई कल्ट न बना लें, उन्हें महात्मा न समझने लगे। पर सही मायने में वे महात्मा थे। उनका यह अंदाज बहुत निराला था।

    ओशो के प्रवचनों ने मुझे विस्मय विमुग्ध किया है। एक तो उनका हिंदी बोलने का लहजा मुझे अच्छा लगा। दूसरे, जब आप उनकी वाणी सुनते हो तो आपका मन यहां वहां भटकता नहीं है। वे आपको बांधकर रखते हैं।

    मैंने भी जपुजी का अंग्रेजी अनुवाद किया है लेकिन मैंने देखा कि ओशो नानक के हर सूत्र की कितने विभिन्न पहलुओं से व्याख्या करते हैं। उनके प्रवचन सुनकर मुझे लगा कि मैं जपुजी के संबंध में कितना कम जानता था। और हम लोग सारी जिंदगी जपुजी का पाठ करते रहते हैं।

    सबसे कीमती बात जो मुझे ओशो की लगी वो यह कि वे हर श्लोक को, उपनिषद को, सूफी कहानियों को न जाने कितने किस्म की पृष्ठभूमि देकर प्रस्तुत करते हैं। मैंने

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