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परवाज़
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परवाज़

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'परवाज़' मेरा दूसरा लेखन संग्रह है। 'आगाज़' के बाद परवाज़ हैं ग़ज़लों, नज़्मों, रुबाइयों और कविताओं का मेरा संग्रह। हिंदी और उर्दू दोनों के प्रति मेरा प्रेम मेरी कलम को सम्मोहित कर नाचने पर मजबूर कर देता है अपनी तरह से। कभी-कभी हिंदी कविताओं की आड़ में अपना जादू दिखाती है और कभी-कभी ग़ज़ल, नज़्मों के रूप में उर्दू अपना जादू बिखेरती है और रुबाइस. हालाँकि, मेरा एकमात्र प्रयास निर्देशों का पालन करना रहा है लिखते समय मेरी कलम की, जो खुद ही चुन लेती है किसी भी भाव को मेरे दिल में यादों का बंडल और उसे एक कोरे पन्ने पर फैला देता है। इस पुस्तक की अधिकांश कविताएँ मेरे दिल के बहुत करीब हैं। क्या बनाता है उनमें विशेष बात यह है कि वे मेरे दिल, मेरे जीवन के गीत कैसे गाते हैं। ऐसा लगता है अगर ये कविताएँ मेरे जीवन को एक सुंदर रचना में ढालने वाली मिट्टी हैं। अंत में, मैं प्रत्येक व्यक्ति को श्रेय देना चाहूंगा उन्होंने लगातार मेरा हौसला बढ़ाते हुए मुझे समर्थन दिया और लिखने के लिए प्रोत्साहित किया हर कदम पर और मेरे सर्वश्रेष्ठ आलोचक बनकर मुझे बेहतर बनने के लिए प्रेरित किया। धन्यवाद आप उनमें से हर एक को.

Languageहिन्दी
Release dateFeb 19, 2024
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    परवाज़ - दलजीत सिंह कालरा

    ग़ज़ल

    मेरी कोशिशों को जीत की दरकार नहीं होगी,

    अगर मैं हार भी जाऊँ तो मेरी हार नहीं होगी..

    था कब कहा मैंने के आसमान छू नहीं सकता,

    हौसलों के साथ तदबीर कभी बेकार नहीं होगी..

    दिल के लिए एक दिल और हाथ को एक हाथ,

    के इंसानियत इंसां की कभी व्यापार नहीं होगी..

    मानिंद किताबों के एहतियातन रखेंगे इसे लोग,

    ईमानदारी कभी भी रद्दी की अख़बार नहीं होगी..

    बहुत शिद्दत से छुपाता हूँ अपने पैरहन के पैबंद,

    के मुफ़लिसी की नुमाईश सरे बाज़ार नहीं होगी...

    तदबीर - युक्ति, मानिंद - तरह, पैरहन - लबादा, मुफ़लिसी - गरीबी

    कविता हूँ मैं..

    आदि हूँ अनाद हूँ,

    कभी प्रेम हूँ सिंहनाद हूँ..

    हर्ष हूँ विषाद हूँ,

    कविह्र्दय में आबाद हूँ..

    वृहद हूँ व्योम सी,

    अणु सी बारीक हूँ..

    अजर हूँ अमर हूँ,

    कविता हूँ मैं.. ठीक हूँ...

    मध्य हूँ क्रांति के,

    गीत हूँ मैं शांति के..

    रचनात्मकता हृदय की हूँ

    स्वांग हूँ हर भांति के..

    हूँ धुरी हर भाष की,

    लय हूँ मैं स्वास की..

    ईश साधना की नीत हूँ,

    कविता हूँ मैं.. ठीक हूँ...

    ग़ज़ल

    चाहतों में तुम्हारी, और कितना बिखरते,

    भूल गए हैं खुद को, तुम्हें याद करते करते...

    बातें वो तुम्हारी, हैं अब भी ज़हन पे क़ाबिज़,

    खो गए हैं फिर हम, कोई बात करते करते...

    हक़ जायज़ था हमारा, खैरात तो नहीं थी,

    रूक गए इक दफ़ा फिर, फरियाद करते करते...

    कोई मानता नहीं है, कोई सुनता नहीं हमारी,

    अश्कों से लड़ पड़े हम, दिले शाद करते करते...

    ज़र्रे सा था वज़ूद, खुले आसमां के आगे,

    के परवाज़ रोक ली, आग़ाज़ करते करते...

    क़ाबिज़ - कब्ज़ा, खैरात - दान, शाद - खुश, ज़र्रा - कण, परवाज़ - उड़ान, आग़ाज़ - आरम्भ

    अपने अल्फाज़ अब, खुद को ही सुना लेते

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