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Nehru: Bharat ko Paribhashit Karne Wale Samvaad
Nehru: Bharat ko Paribhashit Karne Wale Samvaad
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Ebook562 pages5 hours

Nehru: Bharat ko Paribhashit Karne Wale Samvaad

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About this ebook

From being elected as Congress president in 1929 till his death in 1964, Jawaharlal Nehru remained a towering figure in Indian politics, a man who left an indelible stamp on the history of South Asia. As a leading light of the nationalist struggle and as India's first and longest-serving prime minister, his ideas shaped the political contours of the country and left an imprint so deep that his legacy continues to be debated furiously today.

In life, as in afterlife, Nehru was many things to many people. Going beyond the imposed labels of contemporary discourse, this book illuminates four encounters that Nehru had with contemporaries from across the political spectrum - Muhammad Iqbal, Muhammad Ali Jinnah, Sardar Patel and Syama Prasad Mookerjee - that are critical to understanding his ideas, and his long afterlife and impress on the present.

Nehru may no longer be alive to answer his critics today, but there was a time when he pitted himself vigorously against his opponents in the marketplace of ideas, debating the most profound questions in South Asian history and decisively influencing political events. It is this intellectually combative Nehru whom we meet in this book, the Hindi translation of the critically acclaimed Nehru: The Debates That Defined India - voicing ideological disagreements, forging political alliances, moulding political opinion, offering visions of the future and staking out the political field - a key figure in the debates that defined India

LanguageEnglish
PublisherHarperHindi
Release dateDec 10, 2022
ISBN9789356294219
Nehru: Bharat ko Paribhashit Karne Wale Samvaad
Author

Adeel Hussain

Adeel Hussain is an assistant professor at Leiden University and a senior research affiliate at the Max Planck Institute for Comparative Public Law and International Law in Heidelberg. He was born in Sialkot, Pakistan, and holds two degrees in German Law (first and second state examination) as well as a master's and PhD from the University of Cambridge. His next book, Law and Muslim Political Thought in Late Colonial North India, is forthcoming in 2022. He now lives and works in The Hague.

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    Nehru - Adeel Hussain

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    नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद आधुनिक भारत के निर्माण में नेहरू की भूमिका के निरंतर मूल्यांकन में एक महत्वपूर्ण योगदान है। धर्म, विदेश नीति और नागरिक स्वतंत्रता पर नेहरू और उनके समय की प्रमुख हस्तियों के बीच चार प्रमुख बहसों को गहराई से देखते हुए, त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन ने इन लोगों के शब्दों में ही बातें रखी हैं। हमारे समय की कुछ सबसे महत्वपूर्ण वैचारिक बहसों में तल्लीन करते हुए, ये किताब बड़ी कुशलता से उस सोच और संवाद को रेखांकित करती है जिसने गणतंत्र की नींव रखी और जो आज भी प्रासंगिक है और इसपर अब भी बहस जारी है।

    —शशि थरूर, लोक सभा सांसद और

    इन्ग्लोरियस एम्पायर के लेखक

    समकालीन भारत में, जवाहरलाल नेहरू एक ऐसे शख्स बन गए हैं जिनके इर्द-गिर्द ध्रुवीकरण होने लगा है। उनके चाहने वाले उन्हें पूजते हैं और विरोधी उन्हें बकवास ठहराते हैं। इस सब के दौरान उनकी जटिलता और उनके विचारों को तेज़ी से दफ़न कर दिया गया है। नेहरू और उन्हें चुनौती देने वाले मुख्य लोगों के बीच हुई चार बहसों के माध्यम से त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन ने उस बौद्धिक जीवटता और उत्साह को दोबारा ज़िन्दा कर दिया जो बहसों के चारों ओर छाया रहता था। ये महज़ राजनीतिक बहसबाज़ी नहीं थी बल्कि दिमागी द्वंद्व था जिसने लोगों के जीवन को समृद्ध किया। आज के देखने-पढ़ने वालों के लिये इसे लेकर आना असल में सार्वजनिक सेवा है।

    —स्वपन दासगुप्ता, राज्य सभा सांसद

    और अवेकनिंग भारत माता के लेखक

    ये बेहद नयी तरह की किताब उनके करियर की कुछ बेहद महत्वपूर्ण बहसों पर ध्यान केंद्रित करके हमें नेहरू की विरासत को समझने में मदद करती है। जिन्ना से लेकर सरदार पटेल तक, ताकतवर प्रतिद्वंद्वियों और साथियों के साथ उनके पत्राचार और बातचीत को संकलित कर लेखकों ने पहली बार एक जगह इकट्ठा किया है। इसमें वो गहन संवाद मिलते हैं जिन्होंने आधुनिक भारत की रचना की। इसका नतीजा ये हुआ कि हमें देश के पहले प्रधानमंत्री की ताक़तों और कमज़ोरियों के बारे में जानने को मिला।

    —फैसल देवजी, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में भारतीय इतिहास के प्रोफ़ेसर

    और मुस्लिम ज़ायन के लेखक

    [एक किताब जो] हमें उस दौर की याद दिलाती है जब भारतीय राजनीति विचारों और बहसों से समृद्ध थी और लोगों की बातों में विश्वास और सभ्यता व्याप्त थी। आधुनिक भारत के कुछ बेहद विवादपूर्ण संवादों के इस संग्रह से बहुत कुछ सीखने को मिलता है और बदले में इसपर और बहस भी की जा सकती है।

    —सुनील खिलनानी, अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति इतिहास

    के प्रोफ़ेसर और द आइडिया ऑफ़ इंडिया के लेखक

    गहरी जानकारी देने वाली ये किताब नेहरू की राजनीतिक विचारधारा के अब तक के छोटे-छोटे कई आयामों को सामने रखती है। संभव है कि इसके चलते नेहरू की इस्लाम, इस्लाम और साम्यवाद की व्याख्याओं जैसे रोचक विषयों पर नये सिरे से बहस की शुरुआत हो। इसलिये ये एक ऐसा काम है जिससे हमें पंडित नेहरू की दृष्टि के बारे में एक नये सिरे से जानने का मौका मिल सकेगा और यही इसे और भी रोमांचक बनाता है।

    —ताहिर कामरान, बीकनहाउस नेशनल यूनिवर्सिटी में इतिहास

    के प्रोफ़ेसर और कॉलोनियल लाहौर के लेखक

    हमारे माता-पिता को समर्पित

    परिचय

    आधुनिक भारत पर जवाहरलाल नेहरू का गहरा प्रभाव¹ रहा है। उनका जीवन और उनकी विरासत इसके इतिहास और वर्तमान के साथ गुंथी हुई है। राष्ट्रीय आंदोलन के मार्गदर्शक, आज़ादी और विभाजन² के रंगकर्म के मुख्य अभिनेता और भारत के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू ने समूचे उपमहाद्वीप की नियति तय की और दक्षिण एशिया के इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ दी। एक जीवनी लेखक के शब्दों में, वो बीसवीं सदी की सबसे महान शख्सियतों में से एक थे।³ जैसा कि एक समकालीन समीक्षक ने दर्ज किया है, 1946 में अंतरिम प्रधानमंत्री चुने जाने से लेकर 1964 में मृत्यु तक, और, विशेषकर 1950 में उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल के निधन के बाद नेहरू के पास जैसा एकाधिकार था, वैसा सिर्फ और सिर्फ तानाशाहों⁴ को हासिल होता है। अगर ठीक-ठीक कहा जाए तो इन अखंडनीय सालों⁵ में, जब उन्हें चमत्कारी व्यक्तित्व⁶ के तौर पर परिभाषित किया जाता था, पैक्स-नेहरूआना माहौल में उनके विचारों ने दो-दो पीढ़ियों की सोच को आकार दिया। इसने भारत के राजनैतिक ढांचे को परिभाषित किया और ऐसी गहरी छाप छोड़ी कि इनपर विद्वानों, बुद्धिजीवियों, समीक्षकों, पत्रकारों और राजनेताओं के बीच आज भी बहस चलती है। न्यू यॉर्क टाइम्स में नेहरू की मौत के बाद उनका परिचय छपा। इसमें लिखा था, ‘जवाहरलाल नेहरू की कहानी समकालीन भारत की कहानी है, जिसका एक बड़ा हिस्सा उन्होंने ही गढ़ा था।’⁷

    निधन के लगभग छह दशक बाद भी, न सिर्फ इतिहास, बल्कि वर्तमान संदर्भ में भी, नेहरू आश्चर्यजनक रूप से अख़बारों में जगह पाते रहे हैं। उनका समान रूप से सम्मान और तिरस्कार होता रहा है। वो लगातार राजनैतिक बहसों के केंद्र में रहे हैं। वो अक्सर मौजूदा समय की बहसों का हिस्सा बनते रहते हैं। उदाहरण के लिए, मई 2021 में जब भारत कोविड-19 की भयानक दूसरी लहर से जूझ रहा था, तब कुछ नाराज़ टीकाकारों ने सरकार की कार्यवाही के खिलाफ क्रोध प्रकट करने के लिए नेहरू को याद किया। गल्फ़ न्यूज़⁸ ने एक हेडलाइन लगाई थी, ‘भारत में कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने क्या किया होता’। नेहरू की मौत के तुरंत बाद लिखते हुए ऑस्ट्रेलियाई कूटनीतिज्ञ (और नेहरू के जीवनी-लेखक) वॉल्टर क्रॉकर ने दर्ज किया था: ‘नेहरू पर इतिहास का जो भी फैसला हो, एक व्यक्ति या नेता के रूप में वो हमेशा उन दुर्लभ लोगों में गिने जाएंगे जिनका जीवन अविभाज्य बन गया। दूरदर्शिता के आधार पर, हम एक उपसंहार जोड़ सकते हैं: भारत में नेहरू हर उम्र के लोगों का अभिन्न हिस्सा हैं।’⁹ आज भी, भारतीय राजनीति के केंद्र में नेहरू के विचार हैं और वैचारिक दायरा उनसे असहमति के स्तर के आधार पर निर्धारित होता है।

    हालांकि ऐसा हमेशा नहीं था और एकछत्र अधिकार¹⁰ मिलने व उनके तर्कों की अकाट्य स्थिति तय होने से पहले, नेहरू के विचारों पर जमकर बहस होती थी। ऐसी राजनैतिक और बौद्धिक शख़्सियतों, जो अगर प्रतिद्वंदी नहीं तो ख़ुद को समकक्ष और हमउम्र मानते थे, से नेहरू को सार्वजनिक क्षेत्र में पूरी ताक़त लगाकर निपटना पड़ता था। विचारों के इस मैदान में, उन्हें सिर्फ ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना और हिंदू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे राजनैतिक विरोधियों से ही नहीं बल्कि अक्सर असहमत रहने वाले कांग्रेस के सरदार पटेल सरीखे नेताओं से भी लड़ना होता था।

    इस चुनौती को नेहरू ने उत्साह के साथ स्वीकारा था। उनसे उलझ कर, बहस कर, तर्क-वितर्क कर और उन्हें साथ मिलाने की कोशिश कर, नेहरू ने अपनी लड़ाई लड़ी और इसी प्रक्रिया में उन्होंने अपने विचारों को सुघड़ बनाना जारी रखा। इस बौद्धिक संघर्ष में उन्होंने महात्मा गांधी को भी रियायत नहीं दी। हालांकि, वो अपने मार्गदर्शक से खुली लड़ाई से बचते रहे। भारत छोड़ो आंदोलन पर अपने शिष्य से बहस करने के बाद, एक दफा गांधी ने वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो से कहा था कि नेहरू के पास कई दिनों तक तर्क-वितर्क करने की ‘ऐसी क्षमता और जुनून है, जिसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता’।¹¹

    दक्षिण एशिया के इतिहास के कुछ गंभीर प्रश्नों पर इस तरह चर्चा हुई, जिनमें से कईयों का जवाब आज तक नहीं मिल सका है। इन सवालों ने समकालीन दुनिया को उतना ही परेशान किया, जितना नेहरू को किया था। उदाहरण के लिए, मुस्लिम प्रतिनिधित्व, सार्वजनिक ज़िंदगी में धर्म की भूमिका, मौलिक अधिकारों की पवित्रता और निर्मलता, या पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंधों से जुड़े प्रश्न। इस तरह के वाद-विवाद अक्सर सीधे और खुले तौर पर भाषणों, पत्राचारों और लेखों के जरिए किए जाते थे। वैचारिक असहमतियां जताई जाती थीं, राजनैतिक निष्ठा गढ़ी जाती थीं और लोगों की सोच को मोड़ने की कोशिश होती थी। इन महत्वपूर्ण बहसों ने राजनैतिक घटनाओं पर निर्णायक प्रभाव डाला, जिसके दूरगामी परिणाम देखने को मिले।

    क्रॉकर (और दूसरे जीवनी-लेखक) तर्क देते हैं कि ‘नेहरू की लड़ाई हमेशा वैचारिक रही थी, उनमें उनका कोई निजी हित नहीं होता था। हालांकि, उन्होंने इसे बिना किसी आधार के आगे बढ़ाया और इससे कई व्यक्तिगत दुश्मनी बढ़ गईं।’¹² ये पूरा सत्य नहीं है, क्योंकि कई बार इन संघर्षों में जरूरी तार्किकता की झलक से अधिक चीज होती थी, खासतौर पर तब जब नेहरू का वाद-विवाद अपने समकक्षों के साथ होता था। जिस तरह से वो विवाद छेड़ते थे, जिस तरह के उपकरणों का वो इस्तेमाल करते थे और जैसे तर्क वो देते थे, उसने हर एक संघर्ष को नेहरू की अल्पकालीन लाभ के लिए की जाने वाली पैंतरेबाजी और राजनैतिक शक्ति हासिल करने और अपनी स्थिति को मजबूत करने की कोशिश का हिस्सा बना दिया। ये उनके रणनीतिक और सामरिक हिस्से के साथ-साथ स्वप्नदर्शी और वैचारिक हिस्से को भी दिखाते हैं। इन बहसों में हिस्सा लेकर, नेहरू और उनके समकालीनों ने अपनी वैचारिक स्थिति को विलीन कर दिया, भविष्य के लिए प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण और योजनाएं दीं, और राजनैतिक क्षेत्र का चरित्र तय किया। इसका अक्स आज भी दिखता है।

    इस किताब में ऐसी चार निर्णायक बहसों पर प्रकाश डाला गया है जिनमें नेहरू शामिल रहे: शायर और दार्शनिक इक़बाल, मुस्लिम लीग के नेता और पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना, नेहरू के उप-प्रधानमंत्री और सहयोगी सरदार पटेल और संसद में अपने पहले आलोचक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ। नेहरू और जिन्ना के बीच हिंदू-मुस्लिम संबंध और मुस्लिम लीग की मांगों को लेकर तीखी चिट्ठियों का आदान-प्रदान हुआ। इक़बाल के साथ उनकी भिड़ंत मुस्लिम एकता, और सार्वजनिक जीवन में धर्म और धार्मिक कट्टरता की भूमिका के मुद्दे पर हुई। पटेल और नेहरू के बीच बहस की वजह बनी, चीन और तिब्बत के प्रति भारत की नीति। और, मुखर्जी के साथ नेहरू संसद में नागरिक स्वतंत्रता और संविधान के पहले संशोधन के मुद्दे पर उलझे। ये चारों बहसें दक्षिण एशियाई इतिहास के अतिगंभीर पड़ावों को दर्शाती हैं। इन पलों ने इतिहास के पेंडुलम की दिशा निर्धारित की। इसलिए, हर एक बहस बाद में होने वाली घटनाओं का जरूरी हिस्सा हैं। उदाहरण के लिए, नेहरू और जिन्ना के बीच हुई बहस ने विभाजन की नींव रखी थी। ये वैसा ही था, जैसे नेहरू और पटेल के वैचारिक झगड़े में 1962 का बीज छिपा था।

    नेहरू के एक जीवनी-लेखक जूडिथ ब्राउन ने लिखा है, ‘नेहरू का राजनैतिक जीवन नए भारत की परिकल्पना से जुड़ा हुआ था और उस शख़्सियत को समझने के लिए इस नज़रिए की शक्ति और उद्गम पर गौर करना आवश्यक है।’¹³ ये सच भी है क्योंकि उनकी जीवनी लिखने वाले अधिकतर लेखकों ने ये बात दर्ज की है। इसके बावजूद, एक सच ये भी है कि इस नजरिए को नीति में उतारने का मतलब था वैश्विक दृष्टिकोण को नजरअंदाज करना और राजनीति के सांसारिक पक्ष से साक्षात्कार करना, जहां उनके समकालीनों के तर्कों और विकल्पों को शांत (या अक्सर खारिज) कर दिया जाता, विरोधियों का सामना किया जाता और उन्हें मात दी जाती, समझौते किए जाते, विकल्प तय किए जाते, घटनाओं का जवाब दिया जाता और सबसे जरूरी ये था कि राजनैतिक शक्ति पर नेहरू की पकड़ मजबूत की जाती।

    ये भी उतना ही सच है कि नेहरू के जटिल और समान रूप से विरोधाभासी व्यक्तित्व ने उनकी राजनीति को काफी प्रभावित किया। कड़ी मेहनत, आकर्षण, आदर्शवाद और निर्ममता को घमंड, बचपना और अक्सर (और प्रसिद्ध) उठने वाले क्रोध,¹⁴ नेहरू की भविष्यवाणियों और पूर्वाग्रहों, उनकी पसंद और नापसंद ने मिलकर समकालीनों के साथ उनके संबंधों पर गहरा प्रभाव डाला। नेहरू का राजनैतिक करियर सिर्फ उनके नजरिए में नहीं, बल्कि व्यावहारिक राजनीति और निजी संबंधों की अनिवार्यता में भी समाहित था। ये उनकी राजनीति का वो पहलू था जिसके बारे में उनके प्रशंसक घटाकर और उनके आलोचक बढ़ा-चढ़ाकर बताते थे।

    इस व्यवस्था में, दूसरे राजनैतिक किरदारों के साथ उनका जुड़ाव जितना इंस्ट्रूमेन्टल था उतना ही वैचारिक था, और जितना व्यक्तिगत था, उतना ही सार्वजनिक भी था। अगर दूरदर्शी नेहरू आदर्शवादी थे तो राजनैतिक किरदार के तौर पर वो सख्ती से यथार्थवादी थे। नेहरू का दृष्टिकोण कहानी का एक हिस्सा भर है। ऐसा ही एक हिस्सा उनकी विस्तृत राजनैतिक दुनिया के साथ उनके नजरिए का मिलना भी है। नेहरू के लिखे और उनके सार्वजनिक वक्तव्यों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इन्हें उनके अन्य राजनैतिक किरदारों के साथ बौद्धिक और सामरिक एंगेजमेंट के कारकों और खुद को नेहरूआना दौर के पहले की अस्थिर राजनीति में अपनी दशा और दिशा तय करने के उपाय की तरह देखा जा सकता है। भारत के बारे में नेहरू के दृष्टिकोण की उत्पत्ति और शक्ति को समझकर—जैसा कि ब्राउन कहते हैं, ये उस व्यक्ति को समझने के लिए आवश्यक है, इसलिए इसे इस तरह से समझना चाहिए कि कैसे ये दृष्टिकोण नेहरू के विचारों, उनके समकालीनों के विचारों, व्यावहारिक राजनीति की अनिश्चितताओं और नेहरू के अपने व्यक्तित्व की चारित्रिक दुर्बलताओं के चौराहे पर उभरकर सामने आया। उनकी बहसों पर नजर डालकर हम ऐसा कर सकते हैं।

    यहां उन्हें उनके मूल रूप में पेश किया गया है। साथ में परिचय भी संलग्न हैं जिससे ऐतिहासिक संदर्भ और बौद्धिक मंच मिलता है, जो उन्हें पूरी तरह समझने के लिए बेहद जरूरी है। नेहरू और उनके समकालीनों के बीच हुई चारों बहसें उस व्यक्ति और उसके विचारों के बारे में अंतरंग जानकारी देती हैं। जैसा कि उन्होंने राजनीति के मुश्किल दौर में आकार लिया, विरोधियों और सहयोगियों के विचारों के सामने डटकर खड़े रहे और सार्वजनिक क्षेत्र में अपनी जमीन तैयार की। वे हमें कार्यशील नेहरू की प्रत्यक्ष झलक मुहैया कराते हैं। ये हमें उस प्रक्रिया को लेकर एक निर्णायक नजरिया देते हैं जिसके जरिए उनके विचार उनके समकालीनों पर भारी पड़े और इसने नेहरू की समग्र छवि के उभार का रास्ता साफ किया।

    जितने भी बुनियादी सवालों पर नेहरू बहस कर रहे थे—मसलन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संविधान की पवित्रता, सार्वजनिक जीवन में धर्म की भूमिका, मुस्लिम प्रतिनिधित्व, चीन के साथ तालमेल आदि। ये सभी मुद्दे एक बार फिर से भारत में विवाद का विषय बने हुए हैं और नेहरू की विरासत (और नेहरूवादी विषय) पर अभूतपूर्व तरीके से सवाल उठ रहे हैं। इस वजह से इन बहसों पर गौर करना प्रांसगिक और समय के अनुकूल हो गया है। इस संदर्भ में ये बात नोट करने लायक है कि किस तरह से समीक्षक और अध्ययनकर्ता, मौजूदा दौर की स्थिति का मतलब समझने के लिए अक्सर नेहरू और उनके समकालीनों के बीच हुई बहसों का रुख कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, जब जून 2020 में हिमालय में चीन और भारत के बीच विवाद हुआ, तब क्विंट ने एक लेख प्रकाशित किया था। इसका शीर्षक था, ‘अगर नेहरू ने पटेल की बात सुनी होती तो क्या चीन 1962 में जीत पाता?’¹⁵ ये इन बहसों की लंबी उम्र और असंख्य तरीकों से मौजूदा दौर से टकराने की क्षमता की गवाही देता है।

    आज के दिन, भले ही नेहरू अपने आलोचकों को जवाब देने के लिए जीवित नहीं हैं, लेकिन उनके विचार इस वैचारिक लड़ाई का हिस्सा बने हुए हैं। इसने कई बहसों को पुनर्जीवित कर दिया है, जिन्हें इतिहास में गुम माना जा रहा था। संघर्ष की आपाधापी में, सभी पक्ष अक्सर इन विचारों को ग़लत तरीके से पेश करते हैं या उनका गलत मतलब बताते हैं। ऐसा सिर्फ पक्षधरता वाली राजनीति के कारण नहीं हो रहा है बल्कि इसलिए भी हो रहा है क्योंकि नेहरू संभाषियों के जरिए मध्यस्थता करते थे। अलग-अलग लोग इसका अलग-अलग मतलब निकाल लेते हैं। जैसा कि उनके एक जीवनी-लेखक बी.आर. नंदा ने लिखा, वो ‘रूढ़िवादियों के लिए चरमपंथी, मार्क्सवादियों के लिए पाखंडी, गांधीवादियों के लिए गैर-गांधीवादी और बड़े उद्योगपतियों के लिए उग्र सुधारवादी थे।’¹⁶ आज के समय में ये सूची और भी लंबी हो सकती है। तमाम परिचयों में घिरे, असली नेहरू कौन थे? नेहरू और उनके समकालीनों, दोनों के विचारों को सामने लाकर, आगे के अध्यायों में सीधे मुद्दे की बात की गई है। इनमें नेहरू अपना पक्ष स्वयं रखते हैं। इससे उन बहसों का सीदा नजारा दिखता है, जिन्होंने भारत का चरित्र तय किया।

    1

    ‘पंडित के लेखों से लगता है जैसे इस्लाम से उनका बहुत परिचय है नहीं’

    मोहम्मद इक़बाल और जवाहरलाल नेहरू की इस्लामी एकता
    और धार्मिक कट्टरता पर बहस

    1938 में, अपने जीवन के अंत के क़रीब महान मुस्लिम दार्शनिक मोहम्मद इक़बाल लगभग अंधे हो चुके थे और छोटे से छोटे काम के लिए भी सहायक पर आश्रित रहे थे। ऐसे समय में, जब उन्हें मालूम पड़ा कि जवाहरलाल नेहरू लाहौर में थे, उन्होंने नेहरू को बुला भेजा। अपनी आत्मकथा में नेहरू ने इस मुलाक़ात को विस्तार से जगह दी। उन्होंने एक सामान्य से मोहल्ले के दो मंज़िला मकान में इक़बाल से हुई उस मुलाक़ात को दो यारों का पुनर्मिलन बताया जो अपने सामाजिक उसूलों के चलते दोस्त बने थे।

    उस वक़्त भी, आज की ही तरह, इक़बाल को समाजवादी कहना विवाद को न्योता देने जैसा था। लेकिन नेहरू ने इक़बाल की विचारधारा में अपने विश्वास के बारे में विस्तार से लिखा। उन्हें लगता था कि 1930 के दशक में ‘सोवियत रूस की प्रगति’ ने इक़बाल को सूफ़ी रहस्यवाद छोड़कर भौतिकवाद अपनाने का रास्ता दिखा दिया था।¹ नेहरू ने इस बात पर ज़ोर दिया कि बारीक़ी से पढ़ने वालों को इक़बाल की बाद की कविताओं और बाकी रचनाओं में उनका समाजवाद की ओर झुकाव दिखायी दे रहा था। उन्होंने ये भी दावा किया कि इक़बाल को ये भी समझ में आ गया था कि भारतीय ज़मीन पर एक अलग मुस्लिम राज्य की स्थापना करके मुस्लिम पिछड़ेपन से नहीं लड़ा जा सकता था। इक़बाल को उसके ‘अंतर्निहित ख़तरों और बेतुकेपन’² का पूरा ख़याल था। हालांकि उस मुलाक़ात के सबसे कुख्यात शब्द वो आख़िरी शब्द थे जो इक़बाल ने नेहरू के जाने से ठीक पहले कहे थे। ‘तुम्हारे और जिन्ना के बीच समानता क्या है? वो राजनेता है, तुम देशभक्त हो।’³ नेहरू को मालूम था कि ये तुलना दोधारी शाबाशी थी। झेंपते हुए उन्होंने ये माना कि वो कभी भी ठीक-ठाक राजनेता नहीं ही बन पाये थे। नेहरू ने आगे कहा कि अगर उन्हें बस देशभक्त कहा जायेगा तो वो ‘सम्पूर्ण दुनिया की’ समस्याओं का समाधान निकालने की उनकी तमाम कोशिशों के साथ अन्याय होगा।⁴

    चाहे इक़बाल ने समाजवाद को लेकर नेहरू के ठोस विचारों पर सहमति जतायी हो या नहीं, या फिर किसी मौके पर जाकर एक अलग मुस्लिम राज्य की वक़ालत करनी बंद कर दी हो, वो कितने ही मामलों में पंडित नेहरू के जैसे ही थे। दोनों जन भारतीय और पश्चिमी साहित्य और दर्शन में ख़ास रुचि रखते थे। दोनों की जड़ें कश्मीर में थीं और उन्होंने अपनी लिखावट और भाषण में भारत के उत्तर में स्थित पहाड़ों को ख़ूब महिमामंडित किया।

    इक़बाल और नेहरू, दोनों शानदार वक्ता थे और भारी भीड़ को घंटों बांधे रख सकते थे। दोनों ख़ुद को अनैच्छिक या असफ़ल राजनेता मानते थे लेकिन वो अपने मिशन में खासे कामयाब हो रहे थे। राजनीतिक गलियारों में दोनों ही सम्मानित शख्स थे और अपनी-अपनी पार्टियों के लिये वार्ताकार भी थे। जिस दौर में भारतीयों का विदेश में पढ़ना आम बात नहीं थी, नेहरू और इक़बाल ने केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की और लंदन में बैरिस्टर की ट्रेनिंग ली। दोनों ही लोग शासित भारत के आर्थिक रूप से पीड़ित और पिछड़े लोगों से हमदर्दी का भाव रखते थे और उन्होंने अपना पूरा जीवन ग़रीबों की स्थिति में परिवर्तन लाने की कोशिशों को समर्पित कर दिया।

    अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी उन्होंने कई मसलों पर पूरी दृढ़ता के साथ अपनी बातें रखीं। मसलन, दोनों जनों ने ‘फ़िलिस्तीन को यहूदियों का राष्ट्रीय घर बनाने के विचार’ का घोर विरोध किया। इक़बाल को फ़िलिस्तीन का बंटवारा एक ‘ख़तरनाक प्रयोग’ मालूम दे रहा था और यहूदियों के लिये एक स्वायत्त जगह उन्हें ‘मुसलमानों के धार्मिक घर में’ ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सेंधमारी लग रही थी।⁵ नेहरू, जो हमेशा ही अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा के शख्स थे, फ़िलिस्तीन मसले को ‘अरब से विश्वासघात’ मानते थे और अरब राष्ट्रवाद की ब्रिटिश साम्राज्यवाद से ‘स्वाधीनता की ओजपूर्ण लड़ाई’ के साथ खड़े दिखते थे।⁶

    इन दोनों को जो बातें अलग करती थीं, उसकी लिस्ट भी इतनी ही लम्बी है। दोनों का पालन-पोषण सबसे पहला अंतर है। लाहौर के अंदरूनी इलाक़े में एक टोपी बनाने वाले ग़रीब के घर में इक़बाल पले-बढ़े। उनकी पढ़ाई-लिखाई लाहौर में भारतीय मिशन स्कूल और गवर्नमेंट कॉलेज में हुई। नेहरू के पिता मोतीलाल भारत के सबसे बड़े और रईस वकीलों में एक थे और उन्होंने नेहरू को हैरो में पढ़ने के लिये भेजा जो इंग्लैंड का एक बोर्डिंग स्कूल है। बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में दोनों लोग केम्ब्रिज में पढ़ रहे थे। लेकिन उस वक़्त नेहरू बतौर पूर्व स्नातक छात्र साइंस ट्रिप पर थे और उन पर पैसों का कोई बोझ नहीं था। जबकि इक़बाल वहां डिग्री लेने नहीं पहुंचे थे बल्कि उन्होंने लाहौर में टेम्पररी लेक्चरी के काम से कुछ समय लिया हुआ था और अपने बड़े भाई से मिलने वाले कुछ रुपयों के दम पर गुजर-बसर कर रहे थे। उनका छोटा बच्चा और पत्नी लाहौर में ही थे।

    मतभेद यहां भी था कि नेहरू ऐसा राष्ट्रवाद चाहते थे जो सभी को लेकर चले और वो हर निर्वाचक वर्ग को साथ लाकर एक लोकतांत्रिक भविष्य की कल्पना करते थे। वहीं इक़बाल मुसलमानों के अधिकारों और भारतीय राजनीतिक और सांस्कृतिक नक़्शे में उनकी जगह पर ध्यान केंद्रित रखते थे। इस वजह से उन्होंने मुसलमानों का अलग निर्वाचक क्षेत्र और मुसलमानों के लिए सीटें रिज़र्व करवानी चाहीं।⁷ इक़बाल को नाइटहुड भी मिली और वो उन्होंने वापस नहीं की। भारतीयों के बीच जब ब्रिटिश विरोधी उन्माद चरम पर था, तब भी वो ख़ुद को सर मोहम्मद कहलवाना पसंद करते थे। 1930 में, बतौर मुस्लिम लीग के अध्यक्ष, इक़बाल ने सुझाया कि भारत के उत्तर-पश्चिम में मुस्लिम बहुल प्रान्त गठित होना चाहिये। ये विचार आगे चलकर हर संभव आकार-प्रकार में पाकिस्तान मूवमेंट के पक्षधरों ने आगे बढ़ाया।

    1933 में, शुरुआती मतभेदों के दौर में, इक़बाल ने अपने बयान में नेहरू की कड़ी आलोचना की क्यूंकि वो गोल मेज सभा, जहां भारत के लोकतांत्रिक भविष्य पर विमर्श हो रहा था, की असफ़लता के पीछे मुस्लिम प्रतिनिधि मंडल की राजनीतिक विचारधारा और उनके कमतर राष्ट्रवाद को दोषी ठहरा रहे थे। इस आलोचना को कुछ हद तक सही मानते हुए इक़बाल ने कहा कि अगर ‘राष्ट्रवाद से उनका (नेहरू का) मतलब भौतिक रूप से समुदायों का मिलन है तो मैं ख़ुद राष्ट्र-विरोधी होने का आरोप स्वीकार करता हूं’।⁸ इक़बाल की समझ में जो राष्ट्रवाद था उसके अनुसार समुदायों के एकीकरण से इनकार करना राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में नहीं आता था। भारत में राष्ट्रवाद को अलग-अलग समुदायों को एक तम्बू के नीचे लाने से इतर देखे जाने की ज़रूरत थी।

    इसलिये भारत को सभी धार्मिक समूहों के साथ रहने लायक जगह बनाने के लिये ज़रूरी था कि ‘भारतीय राजनीतिक नेता समुदायों के एकीकरण सरीखी बातों के आधार पर देश को एकता के सूत्र में बांधने का विचार त्याग देते।’⁹ इक़बाल ने इसके बाद नेहरू की बात दुरुस्त करते हुए कहा कि भारतीय मुस्लमान लोकतंत्र से नहीं डरते थे, जैसा कि नेहरू ने अपने एक भाषण में कहा था। असल में मुस्लिम ‘लोकतंत्र के भेस में साम्प्रदायिक (हिंदू) गुटतंत्र’ से डर रहे थे।¹⁰ इक़बाल ने पूरे विश्वास के साथ कहा था कि यदि नेहरू राष्ट्रवाद को भारत की सभी सांप्रदायिक और लोकतांत्रिक समस्याओं का एकमात्र इलाज बताते रहेंगे तो ‘देश का धार्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधारों पर पुनर्विभाजन करना पड़ जायेगा’।¹¹

    इक़बाल ने नेहरू की समाजवादी एकता को भी एक शर्त पर अपना लिया होता। वो चाहते कि नेहरू मार्क्सवाद की क्लासिकल थ्योरी को अनीश्वरवाद से अलग रखा जाए और नये सिरे से न्याय दिलाने की पूरी दलील को धार्मिक आधार पर और भी सहज बनाया जाए।¹² इक़बाल ने एक ब्रिटिश प्रशंसक को लिखा कि सिर्फ़ ‘बोल्शेविकवाद और ईश्वर’ ही उस इस्लामिक न्याय की धारणा के क़रीब आ सकते थे जो उन्हें रास आती ही।¹³ शायद यही वजह थी कि ये ‘और ईश्वर’ वाला हिस्सा ही 1935 में उनके और नेहरू के बीच गरमागरम बहस का कारक बना।

    इक़बाल पहली बार राष्ट्रीय तौर पर 1905 में चर्चा में आये। यंग मेंस क्रिश्चियन असोसिएशन की तर्ज पर बने यंग मेंस इंडिया असोसिएशन के लिये एक लेक्चर के दौरान उन्होंने अपने भाषण को किनारे रखते हुए एक गीत सुनाया जो उन्होंने हाल ही में लिखा था। कुछ साल बाद वही गीत पूरे ब्रिटिश भारत में उपनिवेश विरोधी रैलियों में पूरे जोश के साथ गाया जाने लगा: ‘सारे जहां से अच्छा, ये हिन्दोस्तां हमारा [...] हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा’।¹⁴ उनकी दर्शन से भरी लिखावटों या राजनीतिक विचारों से लबालब लेखों की बजाय उनकी ये रचना इक़बाल की पहचान बनी और इसने उन्हें भारत की सांस्कृतिक विरासत का एक मज़बूत हिस्सा बना दिया जिसे हर कोई पहचान रहा था।

    इससे पहले ही, 1899 में, जब इक़बाल एक युवा ग्रेजुएट छात्र थे, वो लाहौर के सरकारी कॉलेज में पढ़ा रहे इतिहासकार सर थॉमस अर्नोल्ड की नज़रों में आ चुके थे। दर्शनशास्त्र की फ़ाइनल परीक्षा में सबसे ज़्यादा नंबर लाने पर इक़बाल को गोल्ड मेडल मिल चुका था। असल में, उस साल वो अकेले छात्र थे जिसने दर्शनशास्त्र की परीक्षा दी थी। ग्रेजुएट होते ही उन्हें अर्थशास्त्र के लेक्चरर की नौकरी मिल गयी। हाल ही में अरबी और दर्शनशास्त्र से ग्रेजुएट हुए इक़बाल की नियुक्ति कुछ अजीब थी। लेकिन उन्होंने बहुत ही जल्द अर्थशास्त्र को राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विस्तृत नज़रिये से देखते हुए इल्म-उल-इक्तिसाद किताब लिखी जो उनका पहला प्रकाशन था और आधुनिक अर्थशास्त्र की पहली उर्दू में लिखी क़िताब थी।¹⁵ इस तरह से उन्होंने अपनी कमियों को पूरा किया। अपने इस काम में उन्होंने मानक नैतिक शिक्षा के पीछे के तर्क, ‘अच्छे और बुरे’ और बाज़ार के लॉजिक, ‘लाभकारी और ग़ैर-लाभकारी’ के बीच रेखाएं खींचीं और इनके बारे में समझाया। उन्होंने नयी सदी के मुहाने पर प्रचलित अर्थव्यवस्था के मॉडलों के बारे में सधी हुई बातें बतायीं। फिर जब अर्नोल्ड केम्ब्रिज में ट्रिनिटी कॉलेज में फ़ेलोशिप के लिये चले गए तो उन्होंने फ़ैकल्टी बदल ली और अर्नाल्ड की जगह तीन साल के लिये अरबी पढ़ाई। वो इस रोल के लिये ज़्यादा मुफ़ीद थे।

    कुछ साल बाद अर्नाल्ड ने इक़बाल को केम्ब्रिज में आगे की पढ़ाई करने का न्योता भेजा। 28 बरस के इक़बाल ने पंजाब यूनिवर्सिटी में छुट्टी के लिये प्रार्थना पत्र डाला और 1905 में भाप के जहाज़ से डोवर पहुंच गए। चूंकि वो एडवांस पढ़ाई करने आये थे, उन्हें ट्राईपोज़ इग्ज़ाम से नहीं गुज़रना पड़ा। बल्कि अपने दिनों में उन्होंने फ़ारसी तत्वविज्ञान पर एक शॉर्ट थीसिस तैयार की। चूंकि 1907 में केम्ब्रिज डॉक्टरेट डिग्री नहीं देता था, अर्नाल्ड ने इक़बाल को सुझाव दिया कि वो अपने शोध निबंध को म्यूनिख यूनिवर्सिटी को दें जिससे इक़बाल पीएचडी किये हुए माने जाएं। हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी इक़बाल की पहली पसंद थी। उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखी थीसिस लेने से इंकार कर दिया क्यूंकि उनका मानना था कि ये भाषा शिक्षा से जुड़े कामों के लिये अच्छी नहीं थी और इससे परीक्षा के मापदंडों में गिरावट आ सकती थी।

    अगर जर्मनी में अपने छोटे से प्रवास के बाद 1907 में लाहौर लौट जाने की

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