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Jeevan Mein Udeshya Kee Khoj
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Jeevan Mein Udeshya Kee Khoj

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About this ebook


There is a pilgrim soul in all of us, an inner searching that continues throughout our lives For lack of a purpose, millions in despair seek refuge in unbridled consumerism, drugs, alcohol, crime or antisocial behaviour. From times immemorial, man has striven to know his place in this bewildering world, find a direction and pursue a purpose higher than his own advancement. In this book, R.M. Lala addresses these issues through the medium of great lives like Abraham Lincoln, Albert Schweitzer, Emperor Asoka, Vinoba Bhave, Mother Teresa, Nelson Mandela, Narayana and Sudha Murthy and others. He highlights the difference between ambition and purpose, career and purpose, and indicates how understanding this lies at the core of understanding oneself. This inspirational and motivational work shows how each of us can find a purpose satisfying to ourselves and meaningful to others.
Languageहिन्दी
PublisherHarperHindi
Release dateNov 3, 2015
ISBN9789351367550
Jeevan Mein Udeshya Kee Khoj
Author

R. M. Lala

R.M. Lala is the author of eleven books, including the bestselling The Creation of Wealth, a book on the Tatas, and the Beyond the Last Blue Mountain, his biography of J.R.D. Tata. He became a journalist at the age of nineteen and entered book publishing in 1951, establishing and managing the UK division of Asia Publishing House, the first Indian publisher to be established in London. In 1964 he became co-founder of the newsmagazine Himmat Weekly, which he edited for the next decade. He was director of the Sir Dorabji Tata Trust, Tata's premier charitable foundation, for eighteen years. He is also co-founder of the centre for the Advancement of Philanthropy and was its chairman from 1993 to 2008. His books have been translated into various languages, including the Japanese.

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    Jeevan Mein Udeshya Kee Khoj - R. M. Lala

    भूमिका

    हम सब के अन्दर एक पवित्र आत्मा होती है, जो जीवन भर हमारी अन्तर्रात्मा को टटोलने में लगी रहती है।

    उद्देश्यहीन जीवन से निराशा में डूबे लाखों लोग नशा, शराब, अपराध और असामाजिक व्यवहार में आश्रय ढूँढ लेते हैं और हमारे समाज के नासूर बन जाते हैं। इनका दुख दूर करने वाला कोई नहीं होता। जिनके पास पैसा है वह भौतिक सुखों और भोग विलास में लिप्त हो जाते हैं और उसे ही अच्छा जीवन समझने लगते हैं, पर अन्दर-ही-अन्दर उनकी आत्मा उन्हें कचोटती रहती है। इस विशाल दुनिया में इन्सान अपना स्थान ढूँढता रहता है, ऐसा स्थान जहाँ वह अपनी आत्मा को जान सके, सही दिशा ढूँढ सके और अपनी उन्नति से ऊपर उठ कर एक उद्देश्य पा सके। जो इस उद्देश्य को पा लेते हैं, उनकी आँखों में जीवन भर (अस्सी वर्ष की आयु में भी) चमक रहती है, और जो नहीं पा सकते उनके चेहरे युवावस्था में ही नीरव लगने लगते हैं।

    उन्नीस वर्ष की आयु में जब मैंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की उस समय मेरी स्थिति भी लगभग ऐसी ही थी। बौद्धिकता के मामले में तो मैं धनी था पर अध्यात्मिकता का मेरे जीवन में अभाव था। जब भी मैं अकेला होता, स्वयं से पूछता, ‘मैं इस संसार में क्यों आया? क्या ईश्वर का कोई अस्तित्व है? ज़िन्दगी के मायने क्या हैं?’ अन्य लोगों की तरह मैंने भी इस समस्या के निवारण के लिए स्वयं को कई कार्यों में व्यस्त करने का यत्न किया। मैंने पत्रकारिता और प्रकाशन के कार्यों में स्वयं को लगा दिया। पर मेरा उद्देश्य व्यवसाय नहीं था। नेक उद्देश्य वह होता है जो न सिर्फ़ आपकी अन्तर्रात्मा को सन्तुष्टि प्रदान करे बल्कि दूसरों का भी भला करे। भाग्यशाली होते हैं वे लोग जिनका व्यवसाय ही उनका उद्देश्य बन जाता है, अन्य मुझ जैसे लोगों को अपने जीवन का उद्देश्य व्यवसाय से अलग या उसमें ही ढूँढना पड़ता है।

    मेरी अपनी खोज

    मेरा ईश्वर पर जो थोड़ा बहुत विश्वास था, वह मार्क्सवादी विचारधारा के एक शिक्षक ने मुझ से चौदह वर्ष की आयु में ही छीन लिया। सोलह वर्ष की आयु तक पहुँचने पर मैं ईश्वर के अस्तित्व को ही नकार बैठा। कुछ समय बाद जब मैं इक्कीस वर्ष का हुआ, मुझे एक व्यक्तिगत समस्या ने ऐसा झकझोरा कि मैं ईश्वर पर विश्वास करने लगा, उसके अस्तित्व को स्वीकारने लगा। मैंने स्वयं से कहा, ‘अगर ईश्वर है तो मुझे इसका प्रमाण चाहिए।’

    मैंने आदर्शवादी जीवन जीने और ईश्वर को खोजने में अपने जीवन का उद्देश्य पा लिया। इस पुस्तक में मैंने यही दर्शाया है और इसका प्रभाव मेरे लेखन पर भी पड़ा है। आलोचनात्मक लेख लिखने की जगह मैं कुछ ऐसा लिखने लगा जिससे लोगों के जीवन पर अच्छा प्रभाव पड़ने लगे। कई वर्ष उपरान्त, १९७९ में मैं मदर टेरेसा से मिला। उन्होंने कहा, ‘ऐसा लिखो जिससे ईश्वर खुश हो।’ मुझे लिखने का लक्ष्य मिल गया।

    जब मैने प्रसिद्ध उद्योगपति जे०आर०डी० टाटा की जीवनी ‘बियोण्ड द लास्ट ब्लू माउण्टेन’ लिखी, तो उन्होंने मुझसे पूछा, ‘आपके लेखन का अगला विषय क्या होगा?’ मैंने तत्काल उत्तर दिया, ‘सर मैं नहीं जानता, जो भी लिखूँगा इन्सान की बेहतरी के लिए लिखूँगा।’

    शिष्य के पदचिह्न

    १९७५-७६ में प्रार्थनाओं के दौरान, मैंने अपनी पहली पुस्तक ‘इन सर्च ऑफ़ लीडरशिप’ लिखी जो सम्राट अशोक, जूलियस सीज़र से ले कर महात्मा गाँधी, मार्टिन लूथर किंग जैसे महान नेताओं के बारे में थी। इसमें मैंने उद्देश्य और उसे पाने के रास्तों के बारे में लिखा है और यह भी बताया है कि गलत रास्ते किस प्रकार अच्छे मकसद को भी बदल देते हैं। मैंने इन्सानों के उस व्यवहार के बारे में लिखा है जिससे उनका उद्देश्य आत्मतुष्टि और प्रसिद्धि से कहीं ऊपर उठ गया। ‘हिम्मत वीकली’ में एक दशक तक सम्पादक के तौर पर मुझे विनोबा भावे जैसे महान नेताओं के बारे में जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिला। अपनी पुस्तक ‘पावर एण्ड मौरेलिटी’ में पिटिरिम सोरोकिन और वाल्टर ल्युण्डन ने महात्मा गाँधी, विनोबा भावे, एब्बे पिएर और अल्बर्ट श्वाईत्जर के बारे में लिखा है। मैंने इस पुस्तक में इनमें से तीन के बारे में लिखा है। सोरोकिन और ल्युण्डन ने लिखा कि ऐसे लोग नि:स्वार्थ प्रेम की महान शक्ति से ओतप्रोत होते हैं और इनके बोलने, सोचने और काम करने में भी यह प्रेम प्रमाणित रूप से देखा जा सकता है। इनको ईश्वर से वही शक्ति मिलती है जिस शक्ति से जीसस, बुद्ध और प्रेम के अन्य प्रतीक बने होते हैं। शायद ये लोग संसार के सर्वाधिक प्रभावकारी लोगों की श्रेणी में आते हैं।

    इसके अलावा सोरोकिन लिखते हैं :

    फिर भी, बुद्ध, जीसस, महावीर, लाऊ-त्ज़े और फ्रांसीस ऑफ़ असीसी के पास न तो कोई हथियार थे, न ऐसी शारीरिक ताकत जो करोड़ों लोगो को प्रभावित कर सके और देशों व संस्कृतियों का इतिहास बदल सके। अपना प्रभाव बनाने के लिए उन्होंने न ही घृणा, लालच, क्रोध जैसी आदतों का सहारा लिया और न ही इनका व्यक्तित्व बहुत शक्तिशाली था। इसके बावजूद अपने कुछ अनुयाईयों के साथ उन्होंने करोड़ों लोगों की सोच और व्यवहार को बदल डाला, उनके संस्कारों और सामाजिक व्यवहार को बदल डाला, और इस तरह इतिहास का रुख ही बदल डाला। किसी भी महान सम्राट या क्रान्तिकारी की तुलना इनसे नहीं की जा सकती। उन्होंने अपने निश्छल प्रेम से लोगों में गहरा परिवर्तन कर डाला।

    टाटा समूह के बारे में लिखते समय मैंने टाटा के संस्थापक जमशेदजी टाटा के बारे में काफी अध्ययन किया। उन्होंने किस तरह एक व्यवसायी से देश की प्रगति को ही अपना व्यवसाय बनाया। इस काम के लिए स्वयं अपने आप को और अपने धन को भी दाँव पर लगा दिया। जिन दिनों मैं यह पुस्तक लिख रहा था, भारत में नकली सरकारी स्टाम्प पेपरों के घोटाले का किस्सा चल रहा था जिसमें ३०,००० करोड़ से भी अधिक रकम शामिल थी।

    उस समय मुझे हिन्दू मिलेनियम लैक्चर देने के लिए चेन्नई से निमन्त्रण मिला। जब मुझे अपना विषय चुनने को कहा गया तो मैंने ‘जीवन में उद्देश्य का महत्व’ पर भाषण देने का निर्णय लिया। कुछ महीने बाद ‘हिन्दू’ समाचार-पत्र समूह के मुख्य सम्पादक एम० राम ने मुझे सुझाव दिया कि ‘तुम इसी विषय पर एक किताब क्यों नहीं लिखते? यह एक महत्वपूर्ण विषय है।’

    यह किताब इस विषय पर कोई आख़िरी या ठोस विचार नहीं है, बल्कि यह अपने हर पाठक को जीवन का उद्देश्य तलाशने में मदद करती है।

    मैंने इसे छ: भागों में बाँटा है। पहला भाग उन तीन प्रसिद्ध व्यक्तियों के बारे में है जिन्होंने अपने उद्देश्य के बल को दुनिया के सामने जाहिर किया, जैसे महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन और अल्बर्ट श्वाईत्जर। दूसरे भाग में महत्वाकांक्षा व उद्देश्य तथा रोजगार व उद्देश्य के अन्तर को बताया गया है। तीसरे भाग में पवित्र उद्देश्य के स्रोत्र जैसे कि दया और किस प्रकार महान लोगों ने दया से अपने आस पास के लोगों को प्रभावित किया, के बारे में है। अमरीका में मार्टिन लूथर किंग और दक्षिणी अफ्रीका में नेलसन मण्डेला और डेस्मण्ड टुटु के उद्देश्यों से पूर्ण नेतृत्व के बारे में बताया गया है। इन लोगों ने ख़ून की एक बूँद भी बहाये बगैर अपने देश के इतिहास में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। अगला भाग उस उद्देश्य को बताता है जो पिता से पुत्र को विरासत में मिला। और पाँचवें भाग में भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम का नेतृत्व, देश के विकास को ले कर उनकी चिन्ता, देश के बच्चों और युवाओं में देश का भविष्य खोजना आदि दिया है। आख़िरी अध्याय में मैंने उद्देश्य पाने के रास्ते और उस रास्ते पर आने वाली मुश्किलों के बारे में लिखा है।

    मुझे याद है एक बार पुणे में मैं ‘जीवन के उद्देश्य’ के बारे में बोल रहा था। मेरे भाषण के अन्त में कई लोगों ने मुझसे वार्तालाप किया। इनमें एक मध्य आयु की, नाटी-सी महिला को मैं भूल नहीं पाया हूँ। उन्होंने बड़ी मिन्नत भरी आवाज़ में पूछा था, ‘मैं अपनी ज़िन्दगी के उद्देश्य को कैसे ढूँढू?’ दो वर्ष बाद मैंने इस पुस्तक को लिखना शुरू किया। यह पुस्तक उस महिला और उस जैसे अनेकों लोगों के लिए है। अगर इस पुस्तक को पढ़ कर उन लोगों को

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