Bharat Ke 75 Vismrit Veer (भारत के 75 विस्मृत वीर)
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Bharat Ke 75 Vismrit Veer (भारत के 75 विस्मृत वीर) - Rinkal Sharma
1. स्व. पंडित अभिन्न हरि
कोटा आन्दोलन का एक चित्र
(जन्म-1905)
देश पर मरने वाला कभी नहीं मरता है।
पंडित अभिन्न हरि का जन्म 27 सितंबर 1905 को मांगरोल के पास सिंघानिया ग्राम में हुआ था। पंडित अभिन्न हरि का मूल नाम बदरीलाल शर्मा था। अभिन्न हरि हाड़कौती में स्वतंत्रता आंदोलन के सूत्रधार, जुझारू पत्रकार और ओजस्वी कवि भी थे। पंडित अभिन्न हरि किशोरावस्था से ही स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गए। पंडित अभिन्न हरि ने वर्ष 1922 से 1927 तक माध्यमिक स्कूल के प्रधानाध्यापक के रूप में कार्य किया। इसके बाद 1927 से 1930 तक उज्जैन के ‘कल्पवृक्ष’ पत्र में संपादन कार्य किया। पंडित अभिन्न हरि ने माखनलाल चतुर्वेदी के ‘कर्मवीर’ पत्र तथा विजय सिंह पथिक द्वारा प्रकाशित ‘राजस्थान संदेश’ का भी संपादन किया।
जब 1930 में सत्याग्रह प्रारंभ हुआ, तो पंडित अभिन्न हरि के नेतृत्व में कोटा से सत्याग्रह का जत्था अजमेर भिजवाया गया, जहां उन्हें रणभेरी नाम से सत्याग्रह के साइक्लोस्टाइल दैनिक निकालने का कार्य सौंपा गया। 1931 में वे सत्याग्रह के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए। कहा जाता है कि 1931 में एक बार इन्हें कोटा से छबड़ा स्टेशन पर उतरते ही सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि इन्होंने गाँधी टोपी पहन रखी थी, जिसे उतारने से उन्होंने मना कर दिया था। इस पर पंडित अभिन्न हरि को तीन दिन और तीन रात गुगोर किले की हवालात में रहना पड़ा। इसके बाद 1932 में स्वतंत्रता सेनानी रामचंद्र बापट द्वारा गिब्सन पर गोली चलाने के आरोप में भी इन्हें फंसाने का प्रयास किया गया था, लेकिन इसमें पुलिस सफल नहीं हो सकी। इस घटना के बाद पंडित अभिन्न हरि कुछ समय के लिए मध्यप्रदेश चले गए।
साल 1934 में, पंडित अभिन्न हरि ने हाड़ौती अंचल में स्वाधीनता आंदोलन के अगुवा पंडित नयनूराम शर्मा के साथ विजयादशमी को हाड़ौती प्रजामंडल की स्थापना की और दो साल तक कार्य किया। 1936-38 में दिल्ली के दैनिक हिंदुस्तान के संपादक के रूप में भी कार्य किया और दिल्ली से ‘अग्रसर’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला। इसके साथ ही पंडित अभिन्न हरि ने सन् 1938 में ही, अपने दिल्ली प्रवास के दौरान, दिल्ली में उत्तर भारतीय देश की प्रजा परिषद’ की स्थापना की। इस दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस से उनकी मुलाकात हुई और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की ओर से गठित फारवर्ड ब्लॉक संगठन में वे सक्रिय रूप से कार्यरत रहे। पंडित अभिन्न हरि ने 1941 में कोटा राज्य प्रजा मंडल के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। कोटा में स्वतंत्रता संग्राम के वे मुख्य सूत्रधार थे और नेतृत्व का दायित्व भी उन्हीं पर था। इसीलिए इस दौरान उन्होंने जिम्मेदार हुकूमत के लिए लोकशक्तियों को संगठित किया।
सन् 1942 में राष्ट्रव्यापी अगस्त क्रांति में पंडित अभिन्न हरि ने कोटा मंडल में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। ऐसा कहा जाता है कि पंडित अभिन्न हरि महात्मा गाँधी से बहुत प्रभावित थे। महात्मा गाँधी के आह्वान पर 8 व 9 अगस्त, 1942 को बंबई के ग्वालिया टेक मैदान में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए कोटा से जाने वाले अभिन्न हरि एकमात्र स्वतंत्रता सेनानी थे। वहां से जाने से पहले ही इनकी मौजूदगी में कोटा में राष्ट्रीय क्रांति की ज्वाला धधक उठी थी। 13 अगस्त, 1942 को बंबई अधिवेशन से लौटने पर जैसे ही इनको पता लगा कि कुछ साथी रामपुरा कोतवाली में बंद हैं तो अपने समाचार पत्र ‘लोक सेवक’ के लिए ख़बर लेने के बहाने वहां पहुंचे। उसी समय इनको भी गिरफ्तार कर लिया गया। पंडित अभिन्न हरि और उनके साथियों की गिरफ्तारी से कोटा की जनता भड़क उठी। दूसरे दिन 14 अगस्त, 1942 से कोटा में जनआंदोलन तेज हो गया। जिसके चलते कोतवाली के सामने घुड़सवार पुलिस ने निर्ममता से जनता पर लाठीचार्ज किया। लेकिन कोटा की निडर जनता ने कोतवाली पर कब्जा कर पुलिस को बंदी बना लिया। तीन दिन तक पूरे कोटा शहर पर जनता राज कायम रहा। इन तीन दिनों तक रामपुरा कोतवाली पर तिरंगा झंडा लहराया गया। यह घटना कोटा के इतिहास में अविस्मरणीय घटना बन गई। इस आन्दोलन के बाद में कोटा के तत्कालीन शासक को 23 अगस्त को सत्याग्रहियों से समझौता करके 24 अगस्त को इन्हें जेल से रिहा करना पड़ा। पंडित अभिन्न हरि देश की आजादी तक लगातार आंदोलन में लगे रहे। 1942 में पंडित अभिन्न हरि ने कोटा से ‘लोक सेवक’ पत्र निकाला जो 1951 तक चला। साथ ही उन्होंने ‘फ्री वर्ल्ड साप्ताहिक’ का संपादन भी किया।
देश की आजादी के बाद राजस्थान की देशी रियासतों के एकीकरण का महत्त्वपूर्ण कार्य आरंभ हुआ। एकीकरण की तीसरी कड़ी में संयुक्त राजस्थान की स्थापना में 18 अप्रैल 1948 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त राजस्थान का उद्घाटन किया, जिसकी राजधानी उदयपुर थी। संयुक्त राजस्थान के प्रथम मंत्रिमंडल में पंडित अभिन्न हरि को कृषि, सूचना प्रकाशन तथा वन विभाग का मंत्री बनाया गया था।
*
2. बिरसा मुंडा
(1875–1900)
"देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक्स करना है तो फिर पाँव की जंजीर न देख।"
बिरसा मुंडा झारखंड के महान क्रांतिकारी और समाज सुधारक हुए। बिरसा मुंडा आदिवासियों के बहुत ही लोकप्रिय हैं, आदिवासी उन्हें बिरसा भगवान कहकर पुकारते हैं। आजादी की लड़ाई में उनका भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर, 1875 में झारखण्ड के खुटी जिले के उलीहातु गाँव में हुआ था। इनका जन्म मुंडा जनजाति के गरीब किसान परिवार में हुआ था। इनकी माता का नाम कर्मी मुंडा और पिता का नाम सुगना मुंडा था। इनके पिता ने गरीबी के कारण ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया था। उन्होंने साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद, चाईबासागोस्नर एवंजिलकल लुथार विद्यालय इंग्लिश स्कूल से उच्च शिक्षा प्राप्त की। बचपन में बिरसा मुंडा भी ईसाई थे। लेकिन उच्च प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे आजीविका के लिए गौर पेड़ा के स्वामी परिवार में नौकरी करने लगे। यहीं से बिरसा के जीवन में एक नया मोड़ आया। इनके मालिक का नाम आनंद पांडे था जोकि वैष्णव थे और सनातन धर्म मानते थे। इनके संपर्क में आने पर बिरसा भी सनातन धर्म से प्रभावित हए और वैष्णव हो गए। वे हल्दी रंग मे रंगी धोती पहनने लगे।
बचपन में मुंडा एक बेहद चंचल बालक थे। यूँ तो बिरसा मुंडा अंग्रेजों के बीच रहते हुए वह बड़े हुए थे लेकिन मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था। बिरसा मुंडा के मन में, अंग्रेजों के प्रति जो विद्रोह था वो 1894 में खुलकर सामने आया, जब 1894 में आए अकाल के दौरान, बिरसा मुंडा ने अपने मंडा समदाय और अन्य लोगों के लिए, अंग्रेजों से लगान माफी की मांग के लिए आंदोलन किया। अंग्रेज जनजातीय कृषि प्रणाली को सामंती शासन में बदलना चाहते थे। वे आदिवासियों की जमीनों को हथियाना चाहते थे। आदिवासी लोग गरीबी और शक्ति के अभाव के कारण उन्हें नहीं रोक पाए। बिरसा और कुछ अन्य मुंडा लोगों ने इसके विरुद्ध लड़ने का निर्णय लिया। वे भूमि का वास्तविक अधिकार मुंडा लोगों को दिलवाना चाहते थे। इसने अनेक विद्रोहों को उत्पन्न किया। आदिवासी गरीब और अशिक्षित थे। बिरसा ने उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया। वे अन्याय के विरुद्ध उन्हें खड़ा करना चाहते थे, ताकि उन्हें अपना हक मिल सके।
1895 तक बिरसा मुंडा एक सफल नेता के रुप में उभरने लगे जो लोगों में जागरुकता फैलाना चाहते थे। उन्होंने कई अंधविश्वासों को हतोत्साहित किया और नए सिद्धांतों एवं प्रार्थनाओं की शुरूआत की। बिरसा ने आदिवासियों को ‘सिरमारे फिरुन राजा जय’ या पैतृक राजा की जीत’ की ओर प्रेरित करते हुए भूमि पर आदिवासियों के पैतृक स्वायत्त नियंत्रण का आह्वान किया। सन् 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा ने महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चलाया, जोकि एक ऐसी व्यवस्था के विरुद्ध था, जो किसानी समाज के मूल्यों और नैतिकताओं का विरोधी था। जो किसानी समाज को लूट कर अपने व्यापारिक और औद्योगिक पूंजी का विस्तार करना चाहता था। यह देखकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें, लोगों की भीड़ जमा करने से रोका। बिरसा का कहना था कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूँ।
इस आन्दोलन के दौरान 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे। परन्तु बिरसा कहाँ मानने वाले थे। बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी जिसके चलते पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने अनुयायियों के दो दल बनाए। एक दल मुंडा धर्म का प्रचार करने लगा और दूसरा राजनीतिक कार्य करने लगा।
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उनके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। अगस्त 1897 में बिरसा और उनके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़त अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी। फिर धीरे-धीरे बिरसा एक जन नेता बन गए और उन्हें उनके अनुयायियों द्वारा ‘भगवान’ और ‘धरती बाबा’ के रूप में माना जाने लगा।
बिरसा मुंडा देशभक्त थे। उन्होंने आजादी की लड़ाई के लिए सक्रिय रूप से भाग लिया। प्रारंभ में वो एक सुधारवादी थे मगर बाद में वे अंग्रेज के खिलाफ बहुत सारे विद्रोहों में शामिल हुए और अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ने लगे। अंग्रेज शासक बिरसा मुंडा को पसंद नहीं करते थे। वे उनके विद्रोह को रोकना चाहते थे। जनवरी 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर, जहाँ बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे, एक संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे। इसमें बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी। इसके बाद 3 फरवरी 1900 को उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें राँची के जेल में रखा गया। वहाँ उन्हें घोर यातनाएँ दी गई। वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया जिसकी वजह से 9 जून 1900 को वो शहीद हो गये।
बिरसा मुंडा एक युगांतरकारी शख्सियत थे, उन्होंने आदिवासी जनजीवन के कल्याण एवं उत्थान के लिये बिहार, झारखंड और ओडिशा में जननायक की पहचान बनाई। वे महान् धर्मनायक थे, तो प्रभावी समाज-सुधारक थे। वे राष्ट्रनायक थे तो जन-जन की आस्था के केन्द्र भी थे। सामाजिक न्याय, आदिवासी संस्कृति एवं राष्ट्रीय आन्दोलन में उनके अनूठे एवं विलक्षण योगदान के लिये न केवल आदिवासी जनजीवन बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति सदा उनकी ऋणी रहेगी। बिरसा की बहादुरी और देशभक्ति कभी भी भुलाई नहीं जाएगी। इसीलिए 10 नवंबर, 2021 को भारत सरकार ने 15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
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3.पं. विशम्भर दयाल शर्मा
(1893–1931)
"साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन
तूफ़ान से लड़ने में मज़ा और ही कुछ है।"
देश को आजादी दिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों, शहीदों और क्रांतिकारियों को जब याद किया जाता है तो कुछ गुमनाम नामों में एक और नाम, पंडित विशम्भर दयाल शर्मा का नाम सामने आता है। बहरोड़ के सबलपुरा मोहल्ला निवासी शहीद पंडित विशंभरदयाल भी अंग्रेजों के समय क्रांतिकारी रहे।
पंडित विशम्भर दयाल शर्मा जी का जन्म 1893 में सबलपुरा मोहल्ले में हुआ था। पंडित जी की योग्यता स्नातक थी। बचपन में ही पिता की मृत्यु के बाद, उनके दादा, विशम्भर दयाल शर्मा को दिल्ली ले गए। पंडित जी के दादा उन दिनों दिल्ली में गाडोलिया बैंक में नौकरी करते थे। पंडित विशम्भर दयाल शर्मा बड़े ही मेधावी छात्र थे। दिल्ली में रहते हुए विशम्भर दयाल शर्मा ने बीएससी परीक्षा पास की। स्नातक होते ही पंडित जी को कई अच्छी नौकरियों के प्रस्ताव आये। लेकिन पण्डित विशंभरदयाल ने अग्रेजों के ऊंचे पदों को ठुकरा कर, देश की आजादी के लिए अपना योगदान देने का काम किया। पंडित जी अपने जीवनकाल में अविवाहित रहे। 19 साल की उम्र में सन् 1912 में क्रांतिकारी बने।
दरअसल 1912 के दौरान अंग्रेजों का कोलकाता में विरोध बढ़ रहा था। इस विरोधाभास से बचने के लिए अंग्रेज दिल्ली को राजधानी बनाने की तैयारी में थे। इसी के लिये 1912 में वायसराय लार्ड हार्डिंग का एक दल दिल्ली आया था। तभी वर्ष 1912 में दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग के एक जुलूस पर बम फेंकने की घटना हुई। इसमें वायसराय तो बच गए, लेकिन उनका महावत मारा गया। कहा जाता है कि इस घटना में विशम्भर दयाल शर्मा मुख्य भूमिका में थे और शामिल रहे वायसराय पर बम फेंककर उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को हिला दिया था। लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के आरोप में पं विशंभर दयाल को पकड़ने की मुहिम चलाई गई और अंग्रेज शासन की सीआईडी और पुलिस, पं. विशम्भर दयाल शर्मा के पीछे लग गई। लेकिन 17 साल तक वह अंग्रेजों के हाथ नहीं आए और इस दौरान वो देश आजादी की मुहिम में क्रांतिकारियों को एकजुट करते रहे। वायसराय पर बम फेंकने के बाद में गाडोलिया बैंक में एक लूट की घटना हुई, उसमें भी शर्मा की संलिप्तता मानी गई थी। इसके बाद में वे रिवोल्युशनरी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए और स्वतंत्रता आंदोलन से पूरी तरह जुड़ गए। पंडित विशम्भर दयाल शर्मा क्रांतिकारी विचारधारा के व्यक्ति थे और अपने क्रांतिकारी विचारों के चलते वे नरम दल के बजाय क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगतसिंह, सुखदेव, और रामप्रसाद बिस्मिल के सम्पर्क में आए।
ऐसा कहा जाता है कि स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाले चंद्रशेखर आजाद का राजस्थान के अलवर जिले से गहरा नाता रहा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक बार बहरोड़ के सबलपुरा गांव में आजाद के आने का ज़िक्र भी सबलपुरा गांव के लोग करते हैं। चंद्रशेखर आजाद का अलवर जिले से जुड़ाव के पीछे सबलपुरा निवासी पं. विशम्भर दयाल शर्मा से उनकी दोस्ती बताया जाता है। चंद्रशेखर आजाद ने अलवर में ही बम बनाने का प्रशिक्षण लिया था। सिर्फ़ चंद्रशेखर आजाद ही नहीं बल्कि देश को आजाद कराने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महान क्रांतिकारी योद्धा सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव इत्यादि पर जब अंग्रेजी सरकार दमन चक्र चला रही थी। तब अंग्रेजी सरकार से मुकाबला करने के दौरान सभी क्रान्तिकारी बहरोड़ में आकर शरण लेते थे और यहां रह कर देश को आजाद कराने के लिए गुप्त चर्चा कर योजनाएं बनाते थे। योजनाओं के साथ-साथ यहां हथियार चलाने का अभ्यास और बम बनाने का प्रयोग भी करते थे। सबलपुरा के लोग बताते हैं कि प्रशिक्षण के दौरान एक बम फूट गया, जिससे सबलपुरा गांव स्थित हवेली का एक हिस्सा ढह गया। हवेली का वह ढहा हिस्सा आज भी सबलपुरा में कायम है।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने 1928 में लाहौर में एक ब्रिटिश जूनियर पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की गोली मारकर हत्या कर दी थी। भारत के तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन ने इस मामले पर मुकदमे के लिए एक विशेष ट्राइब्यूनल का गठन किया, जिसने तीनों को फांसी की सजा सुनाई। भगतसिंह, सुखदेव आदि को जेल से बाहर निकालने की पंडित विशम्भर दयाल शर्मा ने योजना तैयार की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई और 16 मार्च 1931 को पं. विशम्भर दयाल शर्मा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। गिरफ़्तारी के दौरान अंग्रेजी सेना के आमने-सामने में पंडित जी के पेट में गोलियां दागी गई। उनके घाव के टांके लगाकर दिल्ली लाया गया लेकिन पंडित जी को अंग्रेजों द्वारा जाने वाली मौत गवारा नहीं थी इसलिए उन्होंने पुलिस गिरफ़्त में अपने ज़ख्मों पर लगे टांकों को फाड़ दिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। अंततः देश के लिये लड़ते-लड़ते सन् 1931 में वो शहीद हो गए थे। ऐसे वीर की शहादत को तो देश नमन करता है। इसीलिए उनकी स्मृति में सबलपुरा में, नगरपालिका सार्वजनिक पार्क बनाने जा रही है।
*
4. रामप्रसाद बिस्मिल
(1897–1927)
"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है।"
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-कातिल में है
ये लाइनें भारत में बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं और इन्हें सुनकर जिस व्यक्ति का नाम उभरकर आता है, वो हैं राम प्रसाद बिस्मिला हालाँकि ये पंक्तियाँ शाह मोहम्मद हसन बिस्मिल अज़ीमाबादी ने लिखी थीं। लेकिन राम प्रसाद बिस्मिल ने फांसी पर चढ़ने के पहले इस गीत को गाया और इसलिए ये इनके नाम से मशहूर हो गया।
महान क्रान्तिकारी और प्रसिद्ध लेखक रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून, 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर गाँव में हुआ था। इनके पिता मुरलीधर कचहरी में सरकारी स्टॉम्प बेचा करते थे और इनकी माता मूलमति एक कुशल गृहणी थी। रामप्रसाद बिस्मिल एक महान क्रांतिकारी, कवि, शायर, साहित्यकार थे। उन्होंने कई कविताएँ, ग़ज़लें एवं पुस्तकें लिखी थीं। बिस्मिल को 6 वर्ष की आयु में पढ़ने के लिये बैठा दिया गया। सात साल की आयु में इन्हें उर्दू की शिक्षा प्राप्त करने के लिये मौलवी के पास भेजा गया। जिनसे इन्होंने उर्दू सीखा। इसके बाद इन्हें स्कूल में भर्ती कराया गया। लगभग 14 वर्ष की आयु में बिस्मिल ने चौथी कक्षा को उत्तीर्ण किया। इन्होंने कम उम्र में ही उर्दू, हिन्दी और इंग्लिश की शिक्षा प्राप्त की। अपनी कुछ पारिवारिक परिस्थितियों के कारण इन्होंने आठवीं के आगे पढ़ाई नहीं की। रामप्रसाद बिस्मिल बचपन से ही दृढ़ निश्चयी और सत्य पर अडिग रहने वाले व्यक्तित्व के स्वामी थे। इनके बचपन से जुड़ी एक घटना है कि इनके पिताजी दीवानी में किसी पर दावा करके वकील से कह गए थे कि जो काम हो वह बिस्मिल से करा लें। कछ ज़रूरत पड़ने पर वकील साहब ने इन्हें बलाया और कहा कि वकालतनामें पर पिताजी के हस्ताक्षर कर दो। पर बिस्मिल ने ऐसा करने से मना कर दिया क्योंकि इन्हें वो पाप लगा। वकील साहब ने बहुत समझाया कि सौ रुपए से अधिक का दावा है, मुकदमा खारिज हो जायेगा। लेकिन इन पर कोई असर नहीं पड़ा और आखिरकार इन्होंने दस्तखत नहीं किए। रामप्रसाद बिस्मिल ने ताउम्र विवाह नहीं किया। दरअसल इनके घर के पास के मंदिर में एक मुंशी जी आते रहते थे। एक बार उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल को सलाह दी कि संध्या किया करो। संध्या के बारे में जानने के लिए इन्होंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा, जहां से इन्हें ब्रह्मचर्य की प्रेरणा मिली।
1916 में लाहौर षड़यन्त्र के अभियुक्तों पर मुकदमा चलाया जा रहा था। बिस्मिल इस मुकदमें से संबंधित प्रत्येक खबर को बड़ी गहराई से पढ़ते थे। क्योंकि ये इस मुकदमें के मुख्य अभियुक्त भाई परमानंद द्वारा लिखित पुस्तक ‘तारीख हिन्द’ को पढ़कर इनके विचारों से बहुत अधिक प्रभावित हो गये थे। मुकदमें के अन्त में जब परमानंद को फाँसी की सजा सुनायी गयी तो उस समय बिस्मिल बहुत आहत हुये। इन्होंने महसूस किया कि अंग्रेज बहुत अत्याचारी है। इनके शासन काल में भारतीयों के लिये कोई न्याय नहीं है। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को नष्ट करने की प्रतिज्ञा ली। रामप्रसाद ने पं० गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में मातृवेदी नामक एक संगठन का गठन किया। इस संगठन की ओर से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा भी प्रकाशित की गई। लेकिन संगठन को चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी। धन एकत्र करने के उद्देश्य से रामप्रसाद ने जून 1918 में दो तथा सितम्बर 1918 में एक; कुल मिलाकर तीन डकैतियां डालीं। मैनपुरी डकैती में शाहजहाँपुर के तीन युवक शामिल थे, जिनके मुखिया रामप्रसाद बिस्मिल थे, किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आए, वह तत्काल फरार हो गए। जिसके चलते स्थानीय पुलिस द्वारा उनके खिलाफ गिरफ्तारी का नोटिस जारी किया गया। मैनपुरी षड़यन्त्र के मुख्य आरोपी के रुप में फरार होते समय इन्होंने यमुना में छलांग लगायी थी, जिससे इनका कुर्ता नदी में बह गया था और ये तैरकर सुरक्षित नदी के दूसरे किनारे पर चले गये। इनके कुर्ते को नदी में देखकर पुलिस को लगा कि शायद गोली लगने से इनकी मौत हो गयी है। अतः इन्हें मृत मान लिया गया। वहीं जब रामप्रसाद को ये ज्ञात हुआ कि इन्हें मृत घोषित कर दिया गया है तो इन्होंने मैनपुरी षड़यन्त्र पर फैसले होने तक स्वंय को प्रत्यक्ष न करने का निर्णय किया।1919-20 में भूमिगत रहते हुये राम प्रसाद बिस्मिल उत्तर प्रदेश के कई गाँवों में रहे। बिस्मिल ने भूमिगत रहते हुये अनेक पुस्तकें लिखी। जिनमें से उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं – मन की लहर’ (कविताओं का संग्रह), ‘बोल्वेशिक की करतूत’ (एक क्रान्तिकारी उपन्यास), योगिक साधन’ (आत्मचिंतन के लिये योगा को परिभाषित किया गया है), ‘स्वाधीनता की देवी या कैथरीन’ (रुसी क्रान्ति की ग्रांड मदर कैथरीन लिये समर्पित आत्मकथा) इत्यादि।
बिस्मिल के विषय में ये भी कहा जाता है कि उन्होंने अहमदाबाद के अधिवेशन में मौलाना हसरत मोहानी के साथ मिलकर कांग्रेस की साधारण सभा में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित करवाने में अहम योगदान दिया था। वह ‘असहयोग आंदोलन’ को सफल बनाने के लिए अपनी ओर से पूर्ण प्रयास में थे, लेकिन चौरीचौरा कांड के बाद अचानक असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के बाद देश में फैली निराशा को देखकर उनका कांग्रेस के आजादी के अहिंसक प्रयासों से विश्वास सा ही उठ गया। इसके बाद बिस्मिल ने चंद्रशेखर आजाद’ के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ मिलकर अंग्रेज़ों से लोहा लेना शुरू कर दिया। इस संघर्ष की लड़ाई में उन्हें हथियारों जैसी ज़रूरत के लिए पैसों की कमी महसूस हुई और इसी वजह से काकोरी कांड होता है। जिन क्रान्तिकारी उद्देश्यों के लिये संगठन को स्थापित किया गया उन्हें संचालित करने के लिये धन की आवश्यकता थी। इसके लिये शाहजहाँपुर में उनके घर पर 7 अगस्त, 1925 को संगठन की बैठक बुलायी गयी और 9 अगस्त 1925 की शाम को ट्रेन से सरकारी धन लूटने की योजना पर अशफ़ाक़ को छोड़कर सबने सहमति दे दी और डकैती की योजना बना ली गयी। इस डकैती की योजना में 10 सदस्यों राजेन्द्र लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खाँ,चन्द्रशेखर आजाद, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), मुरारी शर्मा (छद्मनाम), तथा बनवारी लाल ने भाग लिया और नेतृत्व का सारा भार इनके ऊपर था।
इमर्जेन्सी मीटिंग में हुए निर्णय के अनुसार 9 अगस्त, 1925 को शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग, जिनमें से 8 सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर जैसे ही लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर आगे बढ़ी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। बक्से को खोलने की कोशिश की गयी, लेकिन वह नहीं खुला, तो हथौड़े से बक्सा खोला गया और खजाना लूट लिया गया, लेकिन जल्दी के कारण चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के कुछ थैले वहीं छूट गये। इन गमछों की पहचान से पुलिस ने ये पता लगाया कि ये डकैती क्रांतिकारियों द्वारा की गयी सोची-समझी साजिश है। ब्रिटिश सरकार ने इस डकैती को काफी गंभीरता से लिया और सी.आई.डी. इंस्पेक्टर आर.ए. हार्टन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया। 6 अप्रैल, 1927 को विशेष सेशन जज ए. हैमिल्टन ने 115 पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर गंभीर आरोप लगाये और डकैती को ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की साजिश बताया था। काकोरी काण्ड के बाद बिस्मिल पलिस को चकमा देकर कुछ समय के लिये दिल्ली में भूमिगत रहे और अपने एक मित्र के यहाँ छुपे रहे। लेकिन जनवरी की कड़ाके की ठंड में रात के समय ये अपने घर आये। इनके घर आने की सूचना पुलिस को गुप्तचरों के माध्यम से उसी रात मिल गयी। अगली सुबह इन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया।
बिस्मिल की गिरफ़्तारी के बाद कोर्ट की 18 महीने तक चली लम्बी प्रक्रिया के बाद, दस में से केवल चार यानि रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह की फाँसी की सजा को बरकरार रखा गया और बाकियों की सजा में कुछ रियायत दी गयी। जेल की सजा के दौरान बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा ‘अंतिम समय की बातें लिखना शुरू किया और आत्मकथा का आखिरी अध्याय (अन्तिम समय की बातें) 16 दिसम्बर, 1927 को पूरा किया था और 18 दिसम्बर 1927 को माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की।
ब्रिटिश सरकार ने चारों क्रांतिकारियों में से राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी की निश्चित तिथि से 2 दिन पहले 17 दिसम्बर को, गोंडा जेल में फाँसी दे दी। उसके बाद 19 दिसम्बर 1927 को ब्रिटिश सरकार ने अशफ़ाक़ को फैजाबाद जेल में और रोशन सिंह को इलाहबाद के नैनी जेल में फाँसी दी और रामप्रसाद बिस्मिल को