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दी राइडर ऑफ़ टाइम
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Ebook148 pages1 hour

दी राइडर ऑफ़ टाइम

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About this ebook

यह एक बच्चे की अद्भुत कहानी है, जो टाइम मशीन की मदद से अपने पिता को मौत से बचाने के लिए मदद पाने के लिए भगवान से मिलने जाता है।
यह कहानी हमें जीवन की सच्चाई को स्वीकार करने का साहस देती है और साथ ही आज के समय में पैसे के पीछे भाग रहे इंसानों को वापस मानवता के रास्ते पर लाने की कोशिश करती है।

Languageहिन्दी
Release dateNov 23, 2022
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    दी राइडर ऑफ़ टाइम - डॉ जसमित साहनी

    साल 1981 । ये कहानी है द्वारका के पास एक छोटे से शहर जामनगर में रहने वाले कबीर वर्मा की। कबीर जो इस वक्‍त सिर्फ 6 साल का है, अपनी माँ स्वाती वर्मा की गोद में बैठा हुआ, अस्पताल के एक बिस्तर पर पड़े, अपने पिता आकाश वर्मा को देख रहा है। कबीर के मासूम मन में एक कशमकश सी चल रही थी। वो बहुत घबराया हुआ था। कबीर कभी अपनी माँ की आँख से बहते आँसूओं को देख रहा था तो कभी उसी रूम में खड़े डाक्टर को । वो बहुत ध्यान से उस कमरे में चल रही बातों को सुन रहा था……

    माँ:- डाक्टर साहब । हम लोग बहुत गरीब परिवार से हैं। इनके इलाज में हमारा सारा पैसा लग चुका है। फिर भी मैं कहीं न कहीं से कुछ और पैसों का इन्तज़ाम कर लूंगी। आप बस पूरी कोशिश करके मेरे पति को बचा लीजिये ।

    डाक्टर:- देखिये बात पैसों की नहीं है। असल में आपके पति को लिवर की जो बीमारी हुई है, उसका अभी तक पूरी दुनियाँ में कोई भी इलाज नही है। जो भी दवाईयाँ या इलाज, मेडिकल साइंस में उपलब्ध है, हम उसी को इस्तेमाल कर सकते हैं। हम अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं।

    माँ:-- आपको क्‍या लगता है डाक्टर साहब ? क्‍या ये ठीक हो पायेंगे ?

    डाक्टर:- आप मेरी बात समझने की कोशिश कीजिए । मैं आपको किसी भी प्रकार की झूठी तसल्‍्ली नहीं देना चाहता । मुझे बहुत भारी मन से कहना पड़ रहा है कि इनके पास अब ज्यादा समय नहीं बचा है।"

    डाक्टर की यह बात सुनकर माँ और ज्यादा टूट कर रोने लगी। डाक्टर ने माँ को ढाढस बंधाते हुए कहा…

    डाक्टर:-- मेरी मानिये तो आप इन्हे हॉस्पिटल से डिस्चार्ज करवा कर अपने साथ घर ले जाईये। जितना भी समय इनके पास बचा हैवो समय इन्हे अपने परिवार के साथ अपने घर पर बिताना चाहिये। इससे इन्हे शान्ति मिलेगी । स्वाती अपने पति को डिस्चार्ज करवा कर, बेटे कबीर के साथ घर चली जाती है। और अपने पति की घर पर ही भरपूर सेवा करने लगती है।

    ✥ ✥ ✥ ✥ ✥

    अगला दिन । कबीर अपने माँ-बाप के साथ अपने घर पर है। घर को देखकर कोई भी बता सकता था कि कबीर के परिवार की माली हालत अच्छी नही है। कमरे का टूटा प्लास्टर, लगभग गलने की हालत तक पहुँच चुके पर्दे, चरमराती हुई कुर्सीयाँ और पलंग, काफी कुछ बयाँ कर रहे थे।

    अगर इन सबके बीच कोई अच्छी बात थी, तो वह यह थी कि कबीर पढ़ाई-लिखाई में बहुत होशियार था। अपनी क्लास में हमेशा अव्वल आना और अपने गुरूजनों की प्रशंसा अर्जित करना कबीर का शौक बन चुका था। अपने परिवार के अच्छे भविष्य की उम्मीद अब खुद कबीर ही था। कबीर के पिता आकाश को अब कबीर की शिक्षा की चिन्ता खाये जा रही थी।

    आकाश:- स्वाती, तुम मेरी चिन्ता मत करो। मैं अब ज्यादा दिनों का मेहमान नही हूँ। अब हमें कबीर के भविष्य को लेकर गम्भीरता से सोंचना होगा।

    स्वाती:- मैं आपके हाथ जोड़ती हूँ, आप अपने बारे में इस तरह की बाते ना किया करिए । आपको कुछ नहीं होने जा रहा । सब ठीक हो जायेगा ।

    आकाश:- किस्मत के भरोसे कब तक बैठे रहेगें स्वाती। अब कबीर के बारे में हमें कुछ तो करना ही पड़ेगा । यही तो तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा है।

    स्वाती:- पर हमारे पास इतने रूपये नहीं हैं कि किसी अच्छे स्कूल में कबीर का दाखिला करवा सकें।

    आकाश:-- तुम परेशान मत हो। हमारे पड़ोसी प्रवीण की शिक्षा क्षेत्र में अच्छी जान पहचान है। वो कबीर को छात्रवृत्ति दिलवा देंगे और वैसे भी हमारा बेटा बहुत होशियार है। वो स्कूलों और कालेजों में होने वाली छात्रवृत्ति प्रतियोगिताओं को अपनी काबिलियत से जीत सकता है। भगवान श्रीकृष्ण पर भरोसा रखो । वही कोई रास्ता निकालेंगें ।

    स्वाती:- आप सही कह रहे हैं। मैं आज ही प्रवीण जी से इस बारे में बात करूंगी ।

    आकाश:- हम्म, सोचो तो स्वाती, अगर हमारा कबीर अच्छा पढ़-लिख कर तरक्की कर गया, तो तुम को वो सब परेशानियाँ नहीं झेलनी पड़ेंगी, जो अभी झेल रही हो। एक बड़ा घर होगा, तुम दोनो के पास हर सुख-सुविधा होगी।

    ✥ ✥ ✥ ✥ ✥

    लगभग एक महीने बाद 40 अगस्त 4984 को वह काला दिन आ गया । सुबह के वक्‍त जब खिड़की से सूरज की हल्की सी किरणें कमरे में आ रही थीं, कुछ चिड़ियाँ भी चहक रही थी, तब रोज की तरह स्वाती कमरे में आकाश के लिये चाय लेकर दाखिल हुई । पास बैठकर उसने आकाश के कन्धे पर हाथ रखकर उसे उठाने की कोशिश की। दो तीन आवाजों में भी जब आकाश नही उठा, तो स्वाती के माथे पर पसीना आ गया । उसने आकाश की धड़कन चेक करी तो उसमें कुछ भी हरकत नही हो रही थी। स्वाती चीख पड़ी और उसके हाथ से चाय की प्याली फर्श पर गिर गई । अपनी माँ की चीख सुनकर कबीर भागता हुआ कमरे में आया। स्वाती कबीर से लिपटकर रोते हुए बोली……….

    माँ:-- तेरे पापा हमें छोड़कर चले गये।

    कबीर भी फूट-फूटकर रो रहा था और अपने पिता को देखे

    जा रहा था।

    एक घंटे बाद कबीर के घर के बाहर मोहल्ले वालों की भीड़

    लग चुकी थी। आकाश की अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू हो चुकी

    थी । कबीर, भीड़ के बीच बैठा हुआ यह सब कुछ देख रहा था।

    महीने बीतते चले गये। अगले साल 4982 में आकाश के

    पड़ोसी प्रवीण ने, कबीर को एक अच्छे स्कूल में दाखिले की प्रतियोगिता

    में बैठाया । और जैसा कि सबको उम्मीद थी, कबीर ने बहुत ही अच्छे

    मार्क्स से प्रतियोगिता को जीतकर, छात्रवृत्ति हासिल की और इस

    प्रकार शहर के एक अच्छे स्कूल में कबीर का दाखिला हो गया।

    बहुत दिनों बाद आज स्वाती बहुत खुश थी। वो कबीर को

    लेकर कृष्ण भगवान के मन्दिर, प्रसाद चढ़ाने गई । कबीर भी अपनी

    माँ के साथ था। भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा के सामने खड़े होकर

    स्वाती ने श्रीकृष्ण से सुख एवं शान्ति की कामना की । फिर कबीर से

    माँ:-- क्या तुम श्रीकृष्ण से कुछ नहीं मांगोगे ?

    कबीर:- "क्यों नही माँ ? भगवान जी आप प्लीज़ मुझे बहुत अमीर

    बना दीजिए । इतना अमीर कि मैं अपनी माँ को हर चीज खरीद कर

    दे सकूँ।'

    स्वाती अपने बेटे की बात सुनकर उसकी मासूमियत पर हँस

    पड़ी । पर अन्दर से वह यह बात जानती थी कि सिर्फ कबीर का

    अच्छे स्कूल में दाखिला ही काफी नहीं है। रोजमर्रा के खर्चे चलाने

    के लिये भी कुछ करने की जरूरत थी। स्वाती ने घर में सिलाई का

    काम करने की ठान ली। उनके आस-पास के मोहल्लों में कोई भी

    सिलाई वाला नहीं था। स्वाती समझ चुकी थी कि इस काम से उसे

    ठीक-ठाक आमदनी हो सकती है। मन्दिर से घर वापस आते समय

    उसने रास्ते में कबाड़ी की दुकान से एक पुरानी सिलाई की मशीन

    खरीदी और घर पर ही सिलाई का काम शुरू कर दिया। स्वाती के

    इस काम से घर में थोड़ी-बहुत आमदनी आनी शुरू हो गई थी।

    साल बीतते गये। कबीर अब १2वीं क्लास में आ गया था।

    एक दिन कबीर बहुत गुस्से में स्कूल से घर

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