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Ghar Aur Var (घर और वर)
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Ghar Aur Var (घर और वर)

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About this ebook

पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों को उभार कर अपना तीसरा उपन्यास 'घर और वर' को आपके समक्ष उपस्थित करते हुए मुझे बेहद खुशी मिल रही है। परिस्थिति मुनष्य को बिना डोर के बन्धन में ना चाहती है, चाहे उसकी नींव मजबूत हो या नहीं हो। मनुष्य परिस्थिति का गुलाम सदा रहा है। फलतः वह अपने स्वतंत्र भाव से अपने बच्चों के भविष्य का निर्वाचन नहीं कर पाता है। फल यह होता है कि उसे अपनी किस्मत पर ही नहीं रोना पड़ता है, बल्कि अपनी मूर्खता, अपनी अज्ञानता, अपनी परिस्थिति के कारण समाज की निगाहों में शर्मिन्दा होना पड़ता है। 'घर और वर' मनुष्य की स्थिति का, सामाजिक बन्धनों का, नारी के दुर्भाग्य और सौभाग्य का जीता-जागता एक नमूना है। घर की समस्या, वर की समस्या से कोई मनुष्य अछूता नहीं रहा है। किसी-न-किसी दिन पारिवारिक एवं सामाजिक बन्धनों में बँधकर रहना उसे स्वीकार करना ही पड़ता है। 'घर और वर' समाज की ऐसी ही कहानी का उद्गार है। अगर आपके मन को मेरा यह उपन्यास पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की गहराइयों की अनुभूति करा सके, तो मेरा समय और परिश्रम जो इसको लिखने में लगा है, व्यर्थ सिद्ध नहीं होगा।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateAug 25, 2021
ISBN9789354861116
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    Ghar Aur Var (घर और वर) - Umesh Pandit (Utpal)

    (1)

    मुझे वर बेहद पसन्द है, रामलाल बाबू!, चाय की चुस्की लेते हुए धनेश्वर ने कहा।

    यह सुनते सुनील धनेश्वर के पाँव पर अपना सिर टेक दिया। उसके मन में एक अजीब-सी हलचल पैदा हो गई। वह फूला न समा रहा था।

    जीते रहो बेटे!, सुनील को आशीष देते हुए धनेश्वर बोले। पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है?

    अच्छी तरह, धीमी आवाज में सुनील ने कहा।

    परीक्षा कब होगी?

    जी, इस साल परीक्षा में बैठना न चाह रहा हूँ।

    क्यों?

    तैयारी अच्छी नहीं है।

    खैर, इसके लिए चिन्ता करने की बात नहीं है। आज न कल तो परीक्षा में पास होओगे ही। भगवान ने चाहा तो अच्छी नौकरी मिल जायेगी। आज-कल बी. एस-सी. की परीक्षा पास कर लेने के बाद लड़के थोड़े बैठे रहते हैं। धनेश्वर कहते गये-

    तकदीर और तदवीर में बड़ा फर्क है, बेटा! इन्सान चाहे तो अपना भाग्य स्वयं बना सकता है। पर, कौन जानता है कि किसके भाग्य में क्या लिखा है। माता-पिता तो लड़की या लड़के के जन्म देने के भागी होते हैं। जिन्दगी में जीने के लिए कर्म तो लड़के को ही करना पड़ता है।

    हाँ, एक बात का हमेशा ख्याल रखना बेटा! - कोई भी पत्नी अपने पति के विश्वास और आशा पर ही जिन्दगी बीता देती है। और हर पति का कर्त्तव्य होता है कि वह अपनी पत्नी के हर आवश्यकता को यथा संभव पूर्ति करे।

    सुनील चुपचाप सिर झुकाये उनकी बातें को सुनता रहा। बीच-बीच में धनेश्वर अपनी निगाहों से उसके मन के भाव को पढ़ लेते। रामलाल उनकी बातों में कुछ भी अभिरुचि नहीं ले रहे थे।

    अच्छा रामलाल बाबू, अब मुझे जाने दीजिए। रामलाल की ओर मुड़कर धनेश्वर ने कहा।

    इतनी जल्दी भी क्या है? आज तो रविवार है। ऑफिस भी बन्द ही होगा। रामलाल बोले।

    बात तो सही है। लेकिन, घर के राशन भी तो लाना है। सब काम तो मुझे ही करना पड़ता है। ..... कहा कहूं, रामलाल बाबू, इस जमाने में तो अन्न का भाव एवरेस्ट की चोटी को छू रहा है। तन्खाह भी सीमित है। धनेश्वर ने कहा।

    टोन कसते हुए रामलाल बोले- मालूम पड़ता है कि इस महँगाई ने आपकी कमर तोड़ दी है, धनेश्वर बाबू।

    नहीं, नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है। दरअसल मैं यह सोच रहा था कि नीलू की शादी कैसे करूँ? कुछ समझ में नहीं आता। धनेश्वर बोले।

    शादी के बारे में तो बाद में सोचना, अरे भई, पहले तो यह बता कि सौदा पसन्द हुआ या नहीं। ... भई, जमाने के ख्याल से हर बाप अपने औलाद का लाज उसके ससुर से लेना चाहता है। ..... लड़का कोई कपड़ा नहीं है जो फटने पर काम में नहीं आवे। ..... जिन्दगी-भर का सौदा खरीदना कोई आसान काम नहीं है .... इसके लिए भारी रकम की आवश्यकता होती है। .... आज-कल तो अपने बाप को भी कोई बेटा घर बैठे नहीं खिलाता है ..... भला, अपनी बीबी को जिन्दगी-भर अपनी छाती पर बैठाये मुफ्त में कौन खिलावेगा? रामलाल कहते गये- धनेश्वर बाबू, आपको सौदा तो पसन्द है न? याद रख लीजिए ऐसा सूरत का वर आपको ढूँढ़ने में भी वर्षों का समय लगेगा। ... आप जानते हैं कि लड़की की शादी उसके निश्चित उम्र से अधिक में नहीं होनी चाहिए।

    उनकी बात धनेश्वर चुपचाप सुनते रहे। उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि रामलाल भी अपने लड़के का सौदा तय करना चाहेंगे। जब वह नीलू के लिए वर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गये थे तो नीलू की माँ उन्हें किसी तरह समझा-बुझाकर रामलाल के पास भेजी थी। उसे उम्मीद थी कि रामलाल बाबू का विचार उच्च कोटि का है। शायद वह लेन-देन की बात नहीं करेंगे। उनका घर भी बहुत अच्छा है। उनका लड़का बहुत ही नेक है। नीलू को उनके घर में कठिनाई नहीं होगी। वह तो उनके घर की रानी बन जायेगी।

    पर, धनेश्वर के सामने परिस्थिति प्रतिकूल थी। वह भी नहीं सोच पाये थे कि उसकी आशाएँ पर पानी फेर जायेगा।

    लेकिन, रामलाल बाबू ....। साहस कर धनेश्वर कुछ कहना चाहे। पर उनका कहना पूरा भी नहीं हुआ था कि रामलाल बोल उठे, समझ गया मैं कि आप क्या कहना चाहते हैं- यही न कि इस सौदो के लिए कपड़े कहाँ से लाऊँगा?

    स्वीकारात्मक भाव में धनेश्वर ने अपना सिर हिलाये। रामलाल उनकी स्थिति से अवगत थे, फिर भी वह कुछ पाने की लालच से धनेश्वर से कुछ कहवा लेना उचित समझते थे। जीवन में ऐसा मौका बार-बार थोड़े आता है। भविष्य में तो उनका मुँह भी न खुलेगा कुछ पाने के लिए।

    फिर, रामलाल बोले- मैं तो आपकी स्थिति से अवगत हूँ, धनेश्वर बाबू! लेकिन, मैं क्या करूँ? मैं भी तो लाचार हूँ। बेटे की पढ़ाई ने मेरी कमर तोड़ दी है। आज के जमाने में बेटे को पढ़ाना आसान काम नहीं है, धनेश्वर बाबू! .... अच्छा-अच्छा आदमी का दम टूट जाता है पढ़ाने में। ... बेटे की फर्माइश में अगर कुछ कमी रही तो वह अपना अनशन जारी कर देता है। .... समय पर कॉलेज में फीस न जमा होती है तो नाम कट जाता है।

    बीच-बीच में रामलाल, धनेश्वर के चेहरा का भाव पढ़ लेते थे। वह बुत-सा चुपचाप उनकी बातें को सुनते रहे। मानसिक तनाव के कारण उनका दिमाग फट रहा था।

    उनकी परिस्थिति को समझने वाला कोई न था। एक बेटी रहे तो किसी तरह घर भी गिरवी रखकर उसकी शादी कर दी जा सकती है। पर, उन्हें तो एक पर एक तीन-तीन बेटियाँ सयानी हो चुकी थीं।

    किसके सामने अपनी झोली फैलाकर वह वर की माँग करे और पहले किसके लिए!

    नीलू सबसे बड़ी बेटी थी। उसकी सेवा पिता की निगाहों में थी। हर पिता को पहले अपने बड़ी बेटी के भविष्य के बारे में चिन्ता रहता है।

    रामलाल बाबू, मेरी भी एक विनती सुन लीजिए- मैं तो एक साधारण-सा क्लर्क ठहरा। आप तो मेरे तन्खाह के बारे में जानते ही हैं- पूरे दो सौ रुपये मिलते हैं। ... समस्या हमेशा मुँह फैलाये खड़ी रहती है। ..... मेरे पास उतने दौलत नहीं है, जिससे आपकी चाह पूरी कर सकूँ। ..... लेकिन, बेटी के भविष्य के लिए तो कुछ जरूर कर सकता हूँ। ..... कम-से-कम तो वर की शोभा जरूर कर दूँगा। .... इसके सिवा कुछ कहना आपको धोखा देना होगा। यह कहते धनेश्वर की आँखें भर गईं।

    दिल अपनी परिस्थिति और मजबूरी पर रोना चाह रहा था, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा का ख्याल कर रो न सका।

    धनेश्वर की वह स्थिति देखकर रामलाल का दिल तड़प उठा। लेकिन, बेटे की पढ़ाई में खर्च किये गये रुपये को याद कर वह सहम गये।

    आखिर, रामलाल भी तो एक इन्सान थे। वह इन्सान की परिस्थिति को समझते थे। यद्यपि कि उन्हें वह किसी तरह की नाजुक स्थिति का सामना नहीं किये थे, फिर भी, उन्हें गरीबों के प्रति अपार सहानुभूति थी।

    उन्हें कमी ही क्या चीज की थी? अच्छा बंगला था। उन्हें रामलाल गन फैक्ट्री से बेहद आमदनी आ जाती थी। वह दौलत का भूखा शेर नहीं थे। हाँ, दिल का वह जरूर भूखे थे। जिसका दिल अपने दिल में बैठ जाता, वह उसे हर संभव सहायता करने की कोशिश करते।

    नीलू उन्हें बेहद पसन्द थी। वह यहाँ तक सोच लिये थे कि अगर धनेश्वर उसे कुछ भी दान-दहेज न दे सकेंगे, तो भी वह नीलू को बहू बना ही लेंगे। फिर भी, पैसे के मामले में अपना जानते कौन नहीं कोशिश करता है।

    लेकिन, धनेश्वर बाबू, सिर्फ वर की शोभा हो और घर की न हो; यह शोभा नहीं देती। रामलाल अपनी पैनी दृष्टि से धनेश्वर को देखते हुए बोले।

    रामलाल बाबू, ... यह मुझसे नहीं हो सकता .....। भर्राये स्वर में हाथ जोड़ते हुए धनेश्वर ने कहा।

    अरे भाई, इसमें हाथ जोड़ने का क्या सवाल है। .... सौदा कोई मनमानी ढंग से थोड़े खरीद लेता है।

    रामलाल बाबू, यह सौदा.....।

    हाँ, आज के पैसे प्रधान-युग में शादी सौदेबाजी से होती है।

    लेकिन...।

    इसमें घबराने की बात नहीं है। .... मेरी शादी में भी तो मेरे बाप ने दस हजार रुपये नगद लिये थे। इसके अलावा दहेज में मुझे काफी सम्पत्ति हाथ आयी थी।

    दस हजार।

    इसमें आश्चर्य करने की बात नहीं है। पहले लोगों को कमी ही क्या चीज की थी? हर आदमी का समय मस्ती में गुजर जाता था।

    ....।

    धनेश्वर बाबू, आप जानते हैं कि मेरे सुनील के लिए अनेक संबंधियों ने पत्र लिखा। पर, मैंने अभी तक टालता रहा।

    ...।

    मानता हूँ कि परिस्थिति मनुष्य को लाचार बना देती है। .... लेकिन, अपनी बेटी के भविष्य के लिए पिता को सोचना नहीं चाहिए, ..... खुले हाथ बेटी का दान कर देने से बेटी का जीवन सुखमय नहीं गुजरता। .... किसी तरह अगर शादी हो भी गई तो उसे जीवन-भर उलाहना सुनना पड़ता है।

    ....।

    कुछ तो कहिए, धनेश्वर बाबू! आज-कल तो क्लर्कों की काफी चलती हो गई है। .... अफसर उतना नहीं कमा पाते जितना कि एक साधारण-सा क्लर्क।

    आपने तो मुझे बोलने का मौका ही कब दिया। कुछ समझ में नहीं आ रहा है। क्या कहूँ।

    एक बात आप रख लीजिए धनेश्वर बाबू, कहीं भी जाइएगा वर मिल जायेगा, पर, घर नहीं।

    हूँ।

    मैं आपकी परिस्थिति को देखकर ज्यादा चीज की माँग नहीं कर रहा हूँ- सिर्फ पाँच हजार रुपये आप नगद दे दीजिएगा। वर के शोभा के बारे में आपने तो कह ही दिया है। .... क्या कहूँ, आजकल फैक्ट्री से आमदनी भी कम हो गई है। नहीं तो, मैं उतना भी आपसे नहीं माँगता। रामलाल ने अपनी इच्छा प्रकट करते हुए कहा।

    परिस्थिति का मारा धनेश्वर बेचारा को कुछ भी समझ में नहीं आ रहे थे। अगर वह ऐसा जानते तो उनके बंगले में पाँव भी नहीं रखते। पाँच हजार क्या, पाँच सौ रुपये देने की भी उन्हें शक्ति नहीं थी।

    उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि बिना कुछ कहे वह कैसे वहाँ से जायेगा। आखिर, हाँ या नहीं का तो जवाब देना ही पड़ेगा। अगर रामलाल बाबू कुछ कम भी कर दिये, फिर भी तो वह दे न सकेगा।

    कुछ साहसकर धनेश्वर ने कहा, धन की इतनी राशि मैं कहाँ से लाऊँगा!

    रामलाल ने कहा, जिस तरह मैं बेटे के भविष्य के लिए अपने धन की चिन्ता नहीं करता हूँ, उसी तरह तो आपको भी अपनी बेटी के भविष्य के लिए धन की चिन्ता नहीं करनी चाहिए।

    रामलाल बाबू, शादी के पवित्र बंधन के बीच बड़े आदमी के लिए धन की चाह शोभा नहीं देती। धनेश्वर ने कहा।

    आखिर, सब काम तो धन के सहारे ही होता है। धन का महत्त्व बताते हुए रामलाल बोले।

    "यह याद रख लीजिए, रामलाल बाबू, आज भारत की करोड़ों जनता सिर्फ धन के बल पर ही नहीं

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