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2012 Mahavinash Ya Naye Yug Ka Aramb
2012 Mahavinash Ya Naye Yug Ka Aramb
2012 Mahavinash Ya Naye Yug Ka Aramb
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2012 Mahavinash Ya Naye Yug Ka Aramb

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On December 17, 2008, NASA discovered an unexpected, thick layer of solar particles inside Earth's magnetic field and concluded that the next period of high solar activity, due to start in 2012, Earth will experience some of the worst solar storms and disasters seen in decades...
... Even if the apocalypse doesn't occur in 2012, there are plenty of another catastrophe ready to destroy Earth...
... The CERN Large Hadron Collider in France, the largest and most advanced machine on the planet, would accidentally create a black hole on Earth, and Soon it will grow out of control and eventually the Earth would be sucked into that vacant infinity...
.... The Earth is heading towards a large asteroid collision that would immediately vaporize all living things around the world...
Internet is flooded with warnings, web sites, survival techniques and suddenly everybody started talking about the December 21, 2012, the day when our planet will be destroyed as predicted and warned by several ancient civilizations and prophets.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateApr 15, 2021
ISBN9789390088324
2012 Mahavinash Ya Naye Yug Ka Aramb

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    2012 Mahavinash Ya Naye Yug Ka Aramb - Ashok Kumar Sharma

    Resources

    अध्याय 1

    विषय-प्रवेश

    यद्यपि संसाधनों और मूल ढाँचों की कमी तो प्राचीन या आदिम सभ्यताओं को रही होगी परन्तु फिर भी उनके पास ब्रह्मांड एवं आकाशीय घटनाओं के बारे में विशिष्ट ज्ञान उपलब्ध था। उनके पास ऐसे सन्त, भविष्यवेत्ता और खगोलशास्त्रियों, ज्योतिषियों इत्यादि का समर्थन करने की एक पूरी परम्परा रही थी। लगभग सम्पूर्ण विश्व में न जाने कितनी वेधशालाएं मंदिर इत्यादि मिलते हैं जिससे ग्रह नक्षत्रों एवं अन्य आकाशीय पिण्डों का अवलोकन होता था। हम देखते हैं कि प्राचीन काल में खगोलशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र भविष्यवाणी कथन के प्रारंभिक विकास में तीन मूलभूत विशेषताएं थीं‒

    खगोलशास्त्री ग्रह नक्षत्र की चालों का सूक्ष्म अध्ययन एवं गणना तो करते थे, पर उनका उद्देश्य सिर्फ अपने शासकों के हितों की ओर ही केन्द्रित था। इसलिए इस ज्ञान को गुप्त ही रखा गया।

    राशिचक्र महीनों (Zodiac months)) की खोज की संभावना बनी सूर्य के मार्ग पर दीर्घवृत्तीय चलनों के सिद्धांतों से, जिसमें पूरे वर्ष की 12 राशि-समूहों में विभाजित कर दिया गया जिससे हर भाग की माप 300 आए।

    प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने सूर्य व चन्द्र की गतियों के अध्ययन हेतु कुछ नियम भी बनाए। सितारों के प्रमुख समूहों में जानवरों की आकृतियों के साथ सादृश्य खोजा गया और इस प्रकार खगोलशास्त्र में कुछ नई चीजों का समावेश हुआ। खगोलशास्त्र के कई स्कूल पैदा हो गए और कई सिद्धांत या पद्धतियाँ पैदा हुईं। इस ज्ञान को मिट्टी के आकारों तथा चित्रात्मक पाठ के साथ सहेजा गया। धीरे-धीरे हर विकासशील सभ्यता के पास आकाशीय गतियों के आधार पर भविष्यवाणी करने का एक खास तरीका आ गया।

    भविष्य कथन के बारे में

    ऐसा दावा किया जाता है कि खगोलशास्त्र में दस्तावेजों की बहुलता के साथ कई संहिताएं, कई देशों में आज से लगभग 2500 वर्ष पहले तैयार की गई थीं।

    इसका विवरण भारत में सर्वप्रथम वेदों में मिलता है जिसमें कई खगोलशास्त्रीय धारणाओं का उल्लेख है। ऋग्वेद में ब्रह्मांड के उद्भव और बनावट के बारे में कई मेधावी उक्तियाँ मिलती है जैसे पृथ्वी गोलाकार होने के कारण स्वयं समर्पित रहती है तथा वर्ष के 360 दिवसों को बारह से भाग करने पर 30 दिनों का एक महीना बन जाता है। प्रागैतिहासिक काव्य-ग्रन्थों, यथा रामायण एवं महाभारत में भी खगोलशास्त्र के बड़े तर्क-सम्मत संदर्भ हैं तथा भविष्यवाणी की कला का भी उल्लेख है।

    प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्रियों जैसे लगधा, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कर, ब्रह्मगुप्त, लल्ला, श्रीपति एवं वटेश्वर ने कई पुस्तकों का भी प्रणयन किया। प्राचीन युग में खगोलशास्त्रीय उपकरणों एवं गणित के आधार पर सूर्य माप और काल-गणना बड़ी चतुरता से की गई।

    कई विदेशी यात्रियों ने प्राचीन भारत में इस कला के विकास पर काफी विशुद्धता से वर्णन किया है। उनके अनुसार यहाँ वाचनालयों में बड़ी दुर्लभ पुस्तकें उपलब्ध थीं जिनको बाद में मंगोल एवम् रोमन लुटेरों ने लूटा और बचा भी लिया।

    शीघ्र ही ज्ञान और अनुभव के आधार पर भारत, मिस्र और यूनान के आने वाले समय को पहले से जानने के लिए रुचि पैदा होने लगी। खगालेशास्त्रीगण ग्रहण, भूकम्प, बाढ़, सूखा, अकाल इत्यादि के बारे में भविष्यवाणी कर और शासकों को आगाह करने लगे। कुछ एक राज्यों में तो राज-ज्योतिषी का पद भी बना दिया। इस प्रकार जन्मकुंडली- ज्योतिष का कई भारतीय राज्यों में विकास होने लगा। मिस्र और रोम में भी ज्योतिष लोकप्रिय होने लगी। किसी जातक की जन्म कुंडली बनाना और ग्रहों की स्थिति के अनुसार उसके आगामी जीवन के बारे में बताने की पद्धति का निर्माण शासक प्राचीन एवं यूनानी विद्वानों की महत्ती उपलब्धि है।

    यूनानी खगोलशास्त्री हिप्पारकूस को श्रेय जाता है कि उसने अयनों (प्रिसेशन ऑफ दी इक्वेनॉक्सेस) का सिद्धांत विकसित किया जिससे किसी व्यक्ति के भाग्य पर ग्रहों का प्रभाव स्पष्ट होता है। प्रारंभ के ज्योतिष विस्तृत विवरण के साथ आकाशीय पिण्डों की चाल का अध्ययन करने में सक्षम हो चुके थे। उन्होंने पाया कि अयनों (इक्विनॉक्स) की प्रक्रिया साल में दो बार होती है जब पृथ्वी अपने अयन से सूर्य की ओर या उससे परे नहीं झुकी प्रतीत होती है। अयन या इक्विनॉक्स शब्द उन तिथियों का प्रतीक है जब ऐसा होता है। शब्द ‘इक्विनॉक्स’ लैटिन के शब्द ‘एक्यूस’ (बराबर) से निकला है और ‘नॉक्स’ का अर्थ रात्रि होता है क्योंकि इक्विनॉक्स के आस-पास रात और दिन की अवधि लगभग बराबर ही रहती है।

    मध्यकाल में ज्योतिषी (एस्ट्रोलॉजर्स) को गणितज्ञ कहा जाता था। ऐतिहासिक दृष्टि से प्रारंभ में मैथमैटिक्स शब्द का प्रयोग उन विद्वानों के लिए होता था जो ज्योतिष शास्त्र, खगोलशास्त्र और गणित में माहिर होते थे। चूंकि औषधि-विज्ञान भी थोड़ा-बहुत ज्योतिष पर निर्भर करता है इसलिए चिकित्सक लोग भी गणित और ज्योतिष का अध्ययन करने लगे। लेकिन मध्ययुग तथा पुनर्जागरणकालीन ज्योतिषियों ने ग्रहचाल अध्ययन की ताकत मोल नहीं ली और चेहरा देखकर ही भविष्यवाणी करने में लिप्त रहे। इन लोगों में कीरोमैन्सी (पामिस्ट्री या हस्तरेखा शास्त्र) भी पढ़ना प्रारम्भ किया और उसी आधार पर जन्मकुण्डलियां भी बनाने लगे।

    प्राचीन कलैण्डर पद्धतियाँ

    ‘ऐत्रेय ब्राह्मण्ड’ स्पष्ट करता है कि चन्द्रमा का मासिक दीर्घीकरण (ईलॉन्गेशन) क्यों होता है जिसके कारण रात और दिन उभरते हैं। शायद हिन्दू विद्वान इस क्षेत्र में अग्रणी हैं जिन्होंने चन्द्र दिवस, सप्ताह-दिवस, नक्षत्र तथा अर्ध-चन्द्र दिवस इत्यादि की गणना की जिससे सामाजिक एवं धार्मिक घटनाएं निर्धारित हुई। क्लोस्टर मायर (2003) के अनुसार, "भारतीय खगोलशास्त्रियों ने एक कल्प (ब्रह्मांड का वह क्रम जब सभी आकाशीय पिण्ड अपनी मूलस्थिति पर लौट आते हैं) की गणना कर बताया कि यह 4,320,00,000 वर्ष का होता है।

    वेदांग ज्योतिष के अनुसार वर्ष का प्रारंभ दक्षिणी अयनांत या मकर-संक्रांति से माना जाता है। हिन्दू पंचांग (कैलेण्डर) में कई-संवत बताए जाते हैं।

    हिन्दू कलैण्डर (पंचांग) : इसकी शुरुआत कलियुग के आगमन से होती है जो 18 फरवरी 3102 ई.पू. जूलियन (23 जनवरी 3102 बी.सी.ई. ग्रेगोरियन) को प्रारंभ हुआ था।

    विक्रम संवत : कैलेण्डर शायद बारहवीं शताब्दी से लागू किया गया जिसकी गणना 56-57 बी.सी.ई से होती है।

    शक संवत : इस कैलेण्डर का प्रयोग भी कुछ हिन्दू कैलेण्डरों में होता है तथा भारत का राष्ट्रीय कलैण्डर इसी पर आधारित है। इसकी शुरूआत वासन्तिक अयन से वर्ष 78 में हुई थी।

    सप्तर्षि कैलेण्डर : पारम्परिक रूप से अपनी गणना वर्ष 3076 बी.सी.ई (बिफोर क्राइस्ट) से हुई थी।

    लेकिन प्री-कोलम्बियन मैसोअमेरिकी के कैलेण्डर उस पद्धति पर आधारित हैं जिसका इस्तेमाल उस पूरे क्षेत्र में होता है तथा जिसकी शुरुआत कम से कम छठी शताब्दी (ई.पू) से मानी जाती है। इससे पहले के कैलेण्डरों का इस्तेमाल ज़ैपोटेक्स एवम् ऑलमैक्स और बाद में अन्य जातियों जैसे माया, मिक्सटेक्स और एज़्टेकस ने किया था।

    यद्यपि मेसोअमेरिकी कैलेण्डर की शुरुआत तो माया कैलेण्डरों से नहीं हुई थी, इस कैलेण्डर में बाद में बहुत विस्तार और पारिमार्जन किया गया था। एज़्टेक के कैलेण्डर के साथ ही माया कैलेण्डर पूरे दस्तावेजों से लैस और पूरी तरह समझ में आने वाले थे।

    विशिष्ट माया कैलेण्डर और माया ज्योतिष मेसो-अमेरिका में कम से कम छठी शताब्दी ई.पू. से प्रचलन में रहे। इनके दो प्रमुख कैलेण्डर थे - एक के अनुसार एक सौर वर्ष 360 दिवस का माना गया था जिसके अनुसार फसलें और अन्य घरेलू काम के निर्देश मिलते थे तथा दूसरा जोल्किन था जो 260 दिवस का था जिसके अनुसार बाकी रीति-रिवाज निर्धारित होते थे। यह दोनों ही एक विशद ज्योतिषीय पद्धति से सम्बद्ध थे, जो जीवन के हर पहलू को समेटती थी।

    उपलब्ध प्रमाणों से ज्ञात होता है कि माया पद्धति में शुक्र, बुध, मंगल तथा गुरु की गति और चालन का आकलन किया जाता था और एक तरह का राशिचक्र भी उनके पास था। वृश्चिक तारा समूह का माया नाम स्कोर्पियो तथा मिथुन तारा समूह को ‘पैकेरी’ कहते थे। ऐसे भी प्रमाण उपलब्ध हैं जो बताते हैं कि अन्य तारा-समूह के नाम जानवरों की आकृतियों के अनुसार रखे गए थे यद्यपि यह तथ्य स्पष्ट नहीं है। आज भी साबुत खड़ी माया वेधशाला ‘कैराकोल वेधशाला या आब्ज़र्ववेट्री’ है। यह प्राचीन माया शहर चिमैन इत्ज़ा में थी, जो

    अब आधुनिक मैक्सिको का भाग हैं।

    एज़्टेक कैलेण्डर और माया कैलेण्डर का मूल आधार काफी कुछ एक- सा है- यद्यपि उनके दो मूल कालक्रम 360 दिवस और 260 दिवस के हैं। 260 दिवस वाले कैलेण्डर को एज़्टेक टोना व पोहुआली नाम देते थे और उसका प्रयोग मुख्यतः शगुन-विचारने के लिए ही होता था। माया कैलेण्डर की भाँति यह दो कालक्रम एक 52 वर्ष की शताब्दी बनाते थे जिसे ‘कैलेण्डर-राउण्ड’ भी कहा जाता था।

    लोकप्रिय ज्योतिष

    अमेरिका में 1900 ई. से 1949 ई. के मध्य लोगों में ज्योतिष के बारे में रुचि काफी तेज़ी से जागी। न्यूयॉर्क सिटी में रहने वाले एक बहुत लोकप्रिय ज्योतिषी, एवेन्गेलाइन एडम्स ने अपनी सही भविष्यवाणियों से लोगों की ज्योतिष के प्रति रुचि को और भड़का दिया था, जैसाकि उनके आत्मकथाकारों का कथन है। एक मशहूर विवाद, जिसमें एडम्स स्वयं भी फँसे थे - जिनकी गिरफ्तारी भी हुई थी और उन पर 1914 में झूठी भविष्यवाणियां करने का आरोप था - बाद में खारिज कर दिया गया जब एडम्स ने जज के पुत्र की जन्मपत्री पढ़ी और बनाई जबकि उसकी सिर्फ जन्म-तिथि ही उपलब्ध थी। उनके बाद अमेरिका में यह स्वीकार किया जाने लगा कि यदि कोई ज्योतिषी पेशवर तरीके से ज्योतिष की प्रैक्टिस करता है तो वह कुछ गलत नहीं करता। ज्योतिष की प्रैक्टिस संबंधी गंभीर और जटिल लेख एवं धारणाएं अट्ठारहवीं सदी के अंतिम वर्षों से बीसवीं सदी के दूसरे, तीसरे और चौथे दशक में काफी लोकप्रिय होने लगीं। ज्योतिष संबंधी कई जटिलताओं को आसान किया गया और एक स्पष्ट रेखा खींची गई कि क्या विवादास्पद है। फलस्वरूप ज्योतिष काफी आसान-सी लगने लगी। खासतौर पर पेशेवर लोगों के लिए और आपसी विचार-विनिमय से विवादास्पद मुद्दों को उससे अलग ही रखा गया।

    1920 से 1940 के मध्य लोकप्रिय मीडिया ने लोगों के मन में ज्योतिष के प्रति जबरदस्त आकर्षण पैदा कर दिया। प्रकाशकों की भी समझ में आ गया कि लोगों को ज्योतिषीय भविष्यवाणियों में काफी रुचि आने लगी है जो अमेरिका के प्रथम विश्व युद्ध में घुसने से तीव्र होने लगी थी। पत्रकारों ने भविष्यवाणी पर आधारित लेख लिखना शुरू कर दिया। ये भविष्यवाणी मात्र संबंधित व्यक्ति की सौर तिथि से उपलब्ध जन्मतिथि और जन्म वर्ष पर ही आधारित होती थी। फलस्वरूप आज की बहुप्रभावित सूर्य-राशि आधारित स्तंभों की शुरुआत पत्र-पत्रिकाओं में हुई तथा ज्योतिष सम्बन्धित पुस्तकों की बाढ़ आ गयी।

    इतिहास गवाह है कि कुछ ज्योतिषियों ने भविष्यवाणियां की। इनमें कुछ तो लेखकी की अपेक्षाओं को पूरा करते हैं, कुछ परेशानी तथा संशयों को और बढ़ा देते हैं।

    ‘विश्व का आसन्न अंत’ सारे देशों के ज्योतिषियों का एक प्रिय विषय रहा है। इस प्रकार के ‘अन्त’ की 1186 बार भविष्यवाणियां असंख्य लोकप्रिय ज्योतिषियों द्वारा की जा चुकी हैं। प्रसिद्ध ज्योतिषी स्टॉफकर ने सन् 1524 में समस्त विश्व में जल-प्रलय की भविष्यवाणी की थी जबकि उस वर्ष सिर्फ भयंकर-सूखा पड़ा था। उनकी गणना थी कि उस वर्ष तीन ग्रह जल राशि मीन में मिलेंगे। अतः कई देश पानी में डूब जाएंगे। लेकिन इस भविष्यवाणी का प्रभाव काफी दूर तक और गहरा रहा - यहाँ तक प्रैसीडेंट विन्सेन्ट जूल्स ऑरिऑल ने टाउलूज़ पर अपनी सुरक्षा के लिए एक ‘नूह की कश्ती’ भी बनवा ली थी जिसमें चुने हुए नेतागण और परिवार संभावित जल-प्रलय में सुरक्षित रह सकें?

    सर्वाधिक प्रसिद्ध भविष्यवाणी विश्व व यूरोपीय देशो के संबंध में - फ्रैन्च ज्योतिषी नास्त्रेदमस (1503-66) की रही। सन् 1555

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