Sikka Ek, Pehlu Do: Pyaar,Shadi,Parivar Ke Maamle
By Sonal Mittra
()
About this ebook
This book is meant for married, about-to-be-married and live-in couples. What do they expect from a relationship? Why does a marriage succeed or fail? How does one deal with unreasonable orthodox traditions? How can you understand your partner better? What is the difference between mutual understanding and compromise? Keeping in mind how fast India is changing, here is a book which answers all these questions and throws at you real-life situations you hate to be in and solutions you'll simply love.
Related to Sikka Ek, Pehlu Do
Related ebooks
BACHHO KO BIGADNE SE KAISE ROKE Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsSAHAS AUR AATMAVISHWAS Rating: 5 out of 5 stars5/5Dhairya Evam Sahenshilta: Steps to gain confidence and acquire patience Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsKya Karen Jab Maa Banana Chahen - (क्या करे जब मां बनना चाहें) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAatma Samman Kyun Aur Kaise Badhyein: Sure ways to build confidence and self-improvement Rating: 0 out of 5 stars0 ratings1% का नियम Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMotapa Karan Avam Nivaran: Managing weight and how to stay that way Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsतैयारी जीत की: Motivational, #1 Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsImprove Your Memory Power (Hindi): A simple and effective course to sharpen your memory in 30 days in Hindi Rating: 0 out of 5 stars0 ratings108 Investment Mantras in Hindi Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsKhushi Ke 7 Kadam: 7 points that ensure a life worth enjoying Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBHARAT KI PRATHAM MAHILAYEIN (Hindi) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAane Wale Kal Ki Kahaniyan Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsOh! Priya Maheshwari Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsDushkaram : Kaise Lage Lagam? - (दुष्कर्म : कैसे लगे लगाम?) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBhay Mukt Kaise Ho: Guide to become fearless in life Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsNEW LADIES HEALTH GUIDE (Hindi) Rating: 5 out of 5 stars5/5Aao shikhe yog Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsJeevan Me Safal Hone Ke Upaye: Short cuts to succeed in life Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsNew Modern Cookery Book (Hindi): Crisp guide to prepare delicious recipes from across the world, in Hindi Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBody language Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsमैं कौन हूँ? Rating: 5 out of 5 stars5/5Hamare Rashtrapati Ramnath Kovind Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsभीम-गाथा (महाकाव्य) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsPehle Lakchay Tay Karain Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsKYA AAP JANTE HAI? (4/C) Rating: 5 out of 5 stars5/5Ajibogarib Tathya: Unusual facts that will surprise you Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMagic For Children (Hindi): Summarised version of popular stories on love & romance Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsNetworking Marketing Kitna Sach Kitna Jhuth Rating: 3 out of 5 stars3/5
Reviews for Sikka Ek, Pehlu Do
0 ratings0 reviews
Book preview
Sikka Ek, Pehlu Do - Sonal Mittra
भाग 1
विवाह का बदलता स्वरूप
एक आदर्श विवाह आदर्श जीवन की तरह होता है। जिसमें घटनाएँ घटती रहती हैं और व्यक्ति में बदलाव आता रहता है और व्यक्ति का विकास होता रहता है। बदलाव जीवन की ज़रूरत होता है।
बहुत पहले आदिकाल में जब परिवार और समाज की व्यवस्था नहीं हुई थी मनुष्य समुदायों में रहते थे। उस वक्त रिश्ते, नाते, भाई-बहन जैसे सम्बन्ध, भावनाओं आदि का अस्तित्व नहीं था। समुदाय की स्त्रियाँ, उस समुदाय के सभी पुरुषों की स्त्रियाँ समझी जाती थीं। उनसे पैदा हुई सन्तान भी सामूहिक सन्तान होती थी। महाभारत में एक उपाख्यान आता है कि इस व्यवस्था के दोषों को देख कर श्वेतकेतु नामक सामाजिक नेता ने विवाह-प्रणाली की स्थापना की और तभी से परिवार की शुरुआत हुई। हमारे ऋषियों-मुनियों ने विवाह को सुनियोजित तरीके से धर्म से जोड़ कर पवित्र बना दिया। और धीरे-धीरे इसी से हमारे सोलह संस्कार उत्पन्न हुए। आगे चल कर परिवार से जातियाँ बनी और जातियों से देश पैदा हुए।
तो हम देखते हैं कि आज से नहीं बल्कि सदा से ही प्रकृति ने पुरुष और स्त्री को एक-दूसरे की ज़रूरत के रूप में बनाया है। दोनों का जीवन परस्पर एक-दूसरे पर आश्रित होता है। एक-दूसरे के बिना वे अधूरे होते हैं। तभी तो दोनों को एक-दूसरे का पूरक कहा जाता है। समाज ने इन दोनों को एक साथ रखने के लिये विवाह रूपी संस्था बना दी। जिसके अनुसार दोनों जीवन साथी कहलाते हैं और उन्हें जीवन पर्यन्त एक-दूसरे के साथ रहना होता है। पर देखा गया है कि विवाह के बाद दोनों पुरुष और स्त्री पति व पत्नी तो बन जाते हैं पर जीवन साथी कम ही बन पाते हैं। जीवन साथी का अर्थ होता है अपने साथी के जीवन को अपना समझना और हर काम में एक-दूसरे का साथ देना, हर मुश्किल में एक-दूसरे का साथ देना। उसके दुख-दर्द को अपना समझना, उसकी भावनाओं को स्वयं अपनी भावना समझना। यदि एक साथी किसी परेशानी में है तो दूसरा उसे सुझाव दे और उसके विकास में सहयोग दे। विवाह के बाद पति-पत्नी मिल कर ‘मैं’ नहीं बल्कि ‘हम’ हो जाते हैं शायद इसीलिए उन्हें हमसफ़र, हमराही, हमदर्द, हमदम, हमनवां की उपमा भी दी जाती है। आजकल के युवा इस बात को बख़ूबी निभाते देखे गये हैं। वे अपने साथी के साथ सुख में भी और दुख में भी साथ देते हैं।
लड़के लड़कियाँ अपना साथी स्वयं चुनना चाहते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दे रहे हैं जिसके कारण बच्चों को भी विवाह के मायने समझ में आ रहे हैं। उनका जीवन की ओर नज़रिया बदल रहा है। आज का युवा सन्तान उत्पत्ति, अपने माता-पिता की सेवा या सैक्स के लिए विवाह नहीं करना चाहता, उसे विवाह से अलग ही अपेक्षाएँ हैं। आज काम को, अपनी नौकरी को अधिक प्राथमिकता दी जाने लगी है। लड़के विवाह व पिता बनने की जिम्मेदारी जल्दी नहीं उठाना चाहते। इसी तरह लड़कियाँ भी अपनी नौकरी को आगे बढ़ाना चाहती हैं और दुनिया में कुछ नाम कमाना चाहती हैं। यह नहीं कि वह विवाह बिल्कुल ही नहीं करना चाहते। पर जब तक हो सके उसे टालते रहते हैं। अगर उनकी विवाह में रुचि ही न होती तो अख़बार दूसरी/तीसरी शादी या तलाकशुदा लोगों की शादी की याचिका वाले विज्ञापनों से भरे न होते। पर फिर भी आज विवाह ज़रूरत नहीं बन कर रह गया। जब तक युवाओं को अपनी पसन्द का और तालमेल का साथी नहीं मिल जाता तब तक वे शादी की बात स्थगित कर देते हैं।
आज २१वीं सदी में पुरुषों के कन्धों पर से सदियों से चली आ रही परम्परागत जिम्मेदारी कम होती जा रही है। अब वे घर के लिये कमाने वाला मुखिया नहीं रह गये हैं। बल्कि स्त्रियाँ भी उनके साथ कन्धे-से-कन्धा मिला कर घर से बाहर जा कर काम करने लगी हैं। आज वे कई तरह के ऐसे काम जो पहले पुरुष करते थे करने लगी हैं। पुरुष भी महिलाओं वाले काम बख़ूबी करने लगे हैं और उन्हें इसमें कोई झिझक नहीं। आज का पुरुष पहले के पुरुष से अधिक समझदार है। वे घर के कामों में हाथ बँटाते हैं। आजकल तो हॉउसवाईफ़ की तरह घर में रह कर बच्चों को पालने वाले युवाओं को हॉउस हसबैंड कहा जाता है। और ऐसा बहुत से घरों में होता देखा गया है।
आज के युवा को शादी से अलग किस्म की अपेक्षाएँ हैं। वे अपना जीवन-स्तर सुधारना चाहते हैं। वे अपने बुजुर्गों की तरह विवाह कर और उनकी तरह की बेमानी ज़िन्दगी बसर नहीं करना चाहते। वे विवाह से अपनी भावनात्मक ज़रूरतें पूरी करना चाहते हैं और एक-दूसरे के पूरक बनना चाहते हैं। आदमी को औरत की और औरत को आदमी की भावनात्मक रूप से ज़रूरत होती है। अकेले रह कर सज़ा तो काटी जा सकती है पर ज़िन्दगी नहीं। इसलिए अकेले रह कर भी खुशी नहीं मिलती। यह आदमी का स्वभाव है कि वह अकेला रह ही नहीं सकता। जो शादी नहीं करते उनके भी दूसरे लिंग के लोग मित्र होते हैं जिनसे उनका उठना-बैठना, बोल-चाल रहती है। सो बात वहीं आ जाती है कि आदमी व औरत दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत होती है। दोनों एक दूजे के पूरक होते हैं। वे विवाह को सांझेदारी के रूप में देखते हैं। इसे दो वयस्क लोगों के बीच में समझौते के रूप में देखते हैं। जिसके अनुसार वे दोनों एक-दूसरे की ज़िन्दगी को और अधिक सफल बनाने के लिए, उसमें विकास के लिए और स्वयं अपने विकास के लिए योगदान देंगे। एक-दूसरे को सम्मान, प्रेम, विश्वास, भरोसा, भावनात्मक खुशी देंगे।
पर जब इतना सोच-समझ कर विवाह किया जाता है तो क्यों आपस में झगड़े होते हैं? क्यों विवाह के कुछ दिन बाद ही दोनों तलाक लेने पर उतर आते हैं? क्यों वही दो व्यक्ति जो विवाह से पहले एक-दूसरे के बगैर रह नहीं सकते थे, जिन्हें एक-दूसरे की हर बात अच्छी लगती थी विवाह होते ही आपस में दुश्मन बन जाते हैं। क्यों विवाह उनके लिये बोझ बन जाता है? चाहे विवाह माता-पिता द्वारा तय किया गया हो, या लव मैरिज हो दोनों में ही खुशी मिलने की कोई गारण्टी नहीं है। तलाक पहले भी होते थे, आज भी होते हैं। आज ज़्यादा होते हैं। आज का युवा विवाह अपनी मर्ज़ी से करना चाहता है। काफ़ी हद तक आज उसके माता-पिता भी उससे सहमत हैं। उसे पूरी छूट दी जाती है। पर फिर भी उसे विवाह से वह खुशी नहीं मिलती। क्यों?
शायद इसका जवाब होगा कि विवाह के इस बदलते स्वरूप का अनुभव किसी को भी नहीं है। यह सब अभी नया-नया और प्रथम स्तर पर हो रहा है। इसमें गलतियाँ होना स्वाभाविक है। आज का युवा अपनी आज़ादी तो चाहता है, पर क्या वह अपने साथी को भी वैसी ही आज़ादी दे पा रहा है? उसे समझना चाहिए कि उसे अपने विवाह से जो अपेक्षाएँ हैं वही उसके साथी को भी हो सकती हैं। शायद कहीं-न-कहीं पारम्परिक विवाह जो उसने अपने आस-पास होते देखे हैं, उसके दिमाग में घर कर चुके हैं।
अगर देखा जाय वही दो व्यक्ति अपने दोस्तों, मित्रों से कई-कई साल दोस्ती निभा लेते हैं। पर वही दो आपस में कुछ महीने भी रह नहीं पाते। जिस रिश्ते में जबरदस्ती या स्वार्थ आ जाय वह रिश्ता देर तक नहीं निभता। हर तरह के रिश्ते में, हम रोज़ तालमेल बिठा कर चलते हैं। सामने वाले की सुविधा का पूरा ख्याल रखते हैं। साथ ही स्वयं को भी असुविधा में नहीं डालते। अगर देखा जाय तो सारी बात तालमेल बिठाने की है। पर यह कैसे और कहाँ-कहाँ किया जाये? यहाँ बात समझौते की नहीं, त्याग की नहीं, बल्कि तालमेल की हो रही है। क्या दोनों को एक-दूसरे से जो अपेक्षाएँ हैं उन्हें पूरा किया जा सकता है?
जिन लोगों ने विवाह को/प्रेम विवाह को/लिव इन सम्बन्धों को लम्बे समय तक निभाया है उन सबके विचारों में एक विवाह की सफलता के लिये उन्हीं गुणों की ज़रूरत है जिनकी अन्य किसी रिश्ते को निभाने के लिये। यही गुण हैं जिनके कारण वे आज भी प्यार पा रहे हैं और आज भी ज़िन्दगी का लुत्फ़ उठा रहे हैं।
माता-पिता द्वारा तयशुदा विवाह
समाज ने विवाह प्रथा बनायी और इस पवित्र प्रथा ने समाज को संगठित करने और उसे विकासशील बनाने में अपना पूर्ण योगदान दिया। इससे आपसी रिश्तों की और सहयोग की भावना को बल मिला। प्राचीनकाल में विभिन्न समुदायों और प्रादेशिक लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न रस्में और रिवाज़ बना लिये थे और उस प्रदेश के लोग उन्हीं रस्मों-रिवाजों के अनुसार विवाह करने लगे थे। कहीं दहेज़ की ऐसी प्रथा न थी जैसी आज है। अगर कहा जाये कि आजकल की प्रथाएँ शास्त्रों के अनुसार हो रही हैं या ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार हो रही हैं तो यह गलत होगा। विवाह उस वक्त भी दो आत्माओं का, दो परिवारों का मेल था और आज भी विवाह से दो आत्माओं का और दो परिवारों का मिलन होता है। दो एकाकी युवा सुख-दुख में साथ रहने का और एक-दूसरे को सहारा देने का सोचते हैं और इसी बात पर उत्सव-सा मनाया जाता है। क्योंकि उम्र में बड़े व्यक्ति की सोच भी अधिक श्रेष्ठ होती है सो दो युवाओं को मिलाने का या अपने बच्चों के लिये उपयुक्त वर/वधू चुनने का फ़ैसला वह करते हैं। बस यहीं से माता-पिता द्वारा तय शादियों की शुरुआत हुई। परन्तु जैसे-जैसे व्यक्ति की ज़रूरतें बढ़ीं, शिक्षा का विकास हुआ और समाज में कुरीतियों का आगमन हुआ वैसे-वैसे विवाह में भी कुरीतियाँ आने लगीं। जब तक व्यक्ति मन व चरित्र से कुरीतियाँ नहीं निकालता तब तक हमारे समाज से ये कुरीतियाँ दूर नहीं हो सकतीं।
ऐसा नहीं कि तयशुदा विवाह में लड़के-लड़की की सहमति नहीं होती, बल्कि आमतौर पर लड़के व लड़की की सहमति से ही ऐसी शादियाँ होती हैं। इस प्रकार के विवाह के अपने कई प्रकार के लाभ होते हैं।
१. क्योंकि दोनों ने ही पहले भी ऐसे विवाह अपने परिवार में होते देखे होते हैं तो दोनों के लिये तयशुदा विवाह को सहमति देना कठिन बात नहीं होती।
२. तयशुदा विवाह में पहले ऐसी सोच आती है कि मुझे पति का साथ निभाना है और हर हाल में उसके साथ रहना है। बाद में प्रेम व भावनाओं का पनपना होता है। इसलिए तलाक की बात तो दूर-दूर तक सोची नहीं जाती।
३. विवाह दो व्यक्तियों में नहीं बल्कि दो परिवारों में होता है। नव दम्पत्ति को दोनों परिवारों से हर तरह की मदद मिलती है। शुरू-शुरू में एक-दूसरे के साथ तालमेल बिठाने में भी परिवार वाले सहायता करते हैं।
४. माता-पिता अपने बच्चों के लिये सही और उत्तम साथी ही चुनना चाहते हैं और चुनते हैं।
इसलिये देखा जाए तो तयशुदा विवाह में सभी कुछ गलत नहीं होता।
केस - १
खन्ना परिवार और मल्होत्रा परिवार एक-दूसरे को बरसों से जानते थे। एक ही शहर में रहते थे और उत्सवों पर मिलते रहते थे। खन्ना परिवार की बेटी तन्वी को मिसेज़ मल्होत्रा बरसों से देखती आयी थीं और उन्हें वह पसन्द भी थी। जब भी तन्वी अपनी कक्षा में प्रथम आती तो मिसेज़ मल्होत्रा की ओर से उसे उपहार ज़रूर मिलता। मिसेज़ मल्होत्रा की अपनी कोई बेटी न थी। जब उन्होंने मिसेज़ खन्ना से अपने बेटे के लिये तन्वी का हाथ माँगा तो मिसेज़ खन्ना को बहुत खुशी हुई। पर तन्वी अभी और आगे पढ़ना चाहती थी। वह एमबीए करना चाहती थी। पर मिसेज़ मल्होत्रा ने कहा कि उनके कोई बेटी नहीं है और वह अपने सभी अरमान अपनी होने वाली बहू से ही पूरे करने चाहेंगी। अगर वह चाहे तो उसे आगे पढ़ायेंगी भी। तन्वी की मम्मी ने भी उसे समझाया कि अच्छा रिश्ता है, और जान-पहचान वाले लोग हैं। तन्वी को विवाह से मना नहीं करना चाहिये। रही एमबीए करने की बात वह तो मिसेज़ मल्होत्रा ने मान ही लिया है कि वह आगे पढ़ सकती है। तन्वी खन्ना और सुकेश मल्होत्रा का विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ। बड़े चाव से मिसेज़ मल्होत्रा तन्वी को अपनी बहू बना कर लायीं।
शादी के बाद जब तन्वी ने आगे पढ़ने की इच्छा जताई तो मिसेज़ मल्होत्रा मान तो गईं पर साथ ही उन्होंने कहा कि उसके पढ़ने का खर्चा उसके माता-पिता को करना होगा। एमबीए की एडमिशन, आने-जाने के लिये कार, किताबें और बाकी खर्चा सब तन्वी के माता-पिता को उठाना होगा। खटास तो यहीं से शुरू हो गई। सुकेश को इस बात का अन्दाज़ ही नहीं था कि उसकी मम्मी और तन्वी में ऐसी कोई बात हुई है। उसने कहा कि मैंने अपनी पत्नी को आगे पढ़ाने के लिये विवाह नहीं किया। अब पति आगे की पढ़ाई के लिये मान नहीं रहा, और सास खर्च नहीं उठाना चाहती। तन्वी ने मम्मी-पापा से बात की तो उन्होंने भी उसका साथ नहीं दिया और कहा कि वह आगे पड़ने की बात सोचना बन्द कर दे। अब उसकी शादी हो गई है, वह अपने पति की ओर ध्यान दे और ससुराल वालों की बात माने। तन्वी ने बहुत सोच कर अपना मन बदला और आगे एमबीए का विचार त्याग दिया। विवाह में तन्वी ने समझदारी दिखाई और अपनी सास व पति से अच्छे सम्बन्ध कायम रखे। परन्तु उसकी सास को तन्वी की जो बातें विवाह से पहले बहुत पसन्द थी अब उन्हें वही बुरी लगने लगीं। तन्वी मन से खुश नहीं है और वह जीवन भर अपनी सास से खुश न रह पायेगी।
तन्वी की ही तरह बहुत-सी लड़कियों के साथ विवाह के बाद इस तरह की बातें होती हैं। क्योंकि विवाह माता-पिता द्वारा तय किया गया होता है अत: वह अपने बच्चों से तालमेल बिठाने का सुझाव देते हैं। पर अक्सर लड़का व लड़की को कई बातों में मन मारना पड़ता है जिस पर उन्हें जीवन भर मलाल रहता है।
भारत में मध्यम वर्गीय परिवारों में अनेकों ऐसे युवा हैं जिन्हें माता पिता की मर्जी के आगे झुकना पड़ता है। उन्हें लगता है कि जैसे बच्चे २१-२२ साल के हुए या उनकी शिक्षा पूरी हुई कि उन्हें विवाह कर ही लेना चाहिये। और अगर जान-पहचान का रिश्ता है तब तो लड़का व लड़की दोनों पर विवाह करने के लिये दबाव बढ़ जाता है। आजकल के बच्चे ऐसा जीवन साथी चाहते हैं जो उनकी भावनाएँ समझे, उनके लिये अच्छा साथी, मित्र साबित हो और जहाँ वह एक-दूसरे का आदर करें और एक-दूसरे के विचार समझें। शिक्षा के प्रसार के कारण छोटे शहरों के लड़के/लड़कियाँ भी उच्च शिक्षा के लिये बड़े शहरों और यहाँ तक कि विदेशों में जाने लगे हैं। वहाँ का माहौल देख और अपने विवाहित साथियों की पत्नियाँ या फिर अपने साथ काम कर