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2024 की रणभूमि
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Ebook255 pages2 hours

2024 की रणभूमि

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यह पुस्तक 2024 के लोकसभा चुनावों पर है. इस पुस्तक के माध्यम से, हम यूपीए अवधि से मोदी अवधि तक की अवधि का अध्ययन करेंगे और भविष्य की राजनीतिक स्थिति को समझने की कोशिश करेंगे और इस देश में यूपीए से इस देश में क्या बड़े बदलाव हुए हैं इसके अलावा मोदी सरकार, जो 2024 के चुनावों में हावी होगी. मैं उन मुद्दों को गंभीरता से समझने की कोशिश करूंगा. 2024 का

Languageहिन्दी
Release dateApr 20, 2024
ISBN9789362615428
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    2024 की रणभूमि - शशि कांत कुमार

    लोकतंत्र वर्ष

    भारत में लोकतांत्र का महापर्व आने वाला है,यानी 2024 का लोकसभा चुनाव जो कि काफी निकट है। वैसे आप 2024 को डेमोक्रेसी ईयर भी कह सकते हैं क्योंकि इस वर्ष दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में चुनाव है और दुनिया के सबसे प्राचीनतम लोकतंत्र अमेरिका में भी 2024 मे राष्ट्रपति का चुनाव है। वैसे अमेरिका को दुनिया का सबसे प्राचीनतम लोकतंत्र कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसे कई तथ्य है जिस से ये सिद्ध होता है कि अमेरिका से पहले दुनिया में लोकतंत्र था। जैसे कि हमारे बिहार के वैशाली गणराज्य में दुनिया में सबसे पहले लोकतंत्र होने प्रमाण मिल चुका है , वैसे हमारा संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था लेकिन भारत में प्राचीनकाल से ही कई गणराज्य के व्यवस्था थी परंतु आज दुनिया में जहां भी आपको गणराज्य व्यवस्था दिख रहा वो प्राचीन भारत के ही देन हैं। वैशाली गणराज्य के जो एतिहासिक साक्ष्य उसे मानें तो लगभग छठी ईसा के पुर्व से भारत में लोकतंत्र अर्थात डेमोक्रेसी था,बिहार के वैशाली में दुनिया के पहला गणतंत्र या गणराज्य क़ायम हुआ था। आज जो लोकतांत्रिक देशों में आप देख रहे हैं अपर हाउस और लोअर हाउस की प्रणाली है। जहां जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि जनता के हित में निर्णय लेते हैं। ये प्रणाली भी वैशाली गणराज्य में था। वहां पर उस समय छोटी-छोटी समितियां थी, जो गणराज्य के अंतर्गत आने वाली जनता के लिए नियमों और नीतियों को तय करती थी । आज जिस प्रकार से आपको अमेरिका के चुनाव दौरान प्रेसिडेंशियल डिबेट्स देखने को मिलता है ठीक उसी प्रकार से आज से 2500 साल पहले वैशाली गणराज्य में अपने नए गणनायक को चुनने के लिए होती थीं। कुछ इतिहासकार यहां तक कहते हैं कि जब अमेरिका में लोकतंत्र का ताना-बाना बुना जा रहा था। उस समय वहां के नीति निर्माताओं के दिमाग में वैशाली के गणतंत्र का मॉड्यूल चल रहा था। जब हम प्राचीन भारत के इतिहास में जाएंगे तो आपको ऐसे कई गणराज्य मिल जाएंगे जहां पर अमेरिका से भी पहले दुनिया में लोकतंत्र के साक्ष्य मिल जाएगा। यूं कहिए कि दुनिया का सबसे प्राचीनतम लोकतंत्र अमेरिका नहीं बल्कि बिहार के वैशाली गणराज्य था।भारत में ये साक्ष्य इस बात की गवाही देती है कि जो इतिहासकार ये मानते थे कि दुनिया में लोकतंत्र की जड़ें पूरी तरह से प्राचीन एथेंस, ग्रीस से है वो बिल्कुल वास्तविकता से उलट हैं।यद्यपि यह सत्य है की इतिहास लोकतंत्र की उत्पत्ति ग्रीस में बताता है, खासकर पश्चिमी इतिहासकार लेकिन भारत के दावे को भी नजरंदाज नहीं कर सकते हैं, ऐसे कई ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात कि पुष्टि करती है कि विश्व में सबसे पहले लोकतंत्र भारत में था। भारत में प्राचीनकाल से लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के संकेत मिलते हैं। ऋग्वेद, जिसे विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है, निष्पक्ष संसाधन वितरण, सौहार्दपूर्ण प्रवचन और संघर्ष समाधान जैसे लोकतांत्रिक आदर्शों मुल्यो की और इशारा करता है। साथ ही इसमें सभा, समिति और विदथ जैसी लोकतान्त्रिक परम्पराओं का भी जिक्र ये बताता है कि भारत में लोकतंत्र प्राचीनकाल से ही था। शायद लोकतंत्र पर ये डिबेट कभी समाप्त नहीं हो पाएगा।

    15 वीं लोकसभा चुनाव के पहले का माहौल

    15 वी लोकसभा चुनाव से पहले का जो माहौल उसमें सत्ता के विरूद्ध कोई लहर नहीं चल रहा था उल्टा मनमोहन सिंह के कामों पर चर्चा चल रहा था उस दौरान भी कांग्रेस पर ये आरोप लग रहा था कि तुष्टिकरण नीति का लेकिन इस बात से जनता कोई समस्या नहीं हो रहा है। मनमोहन सिंह के नीतियों कारण ही भारत चीन के बाद दुसरी सबसे तेजी से बढ़ने वाला इकोनॉमी बन गया इसका बड़ा कारण ये था कि मनमोहन सिंह एक बड़े अर्थशास्त्री थे जब 1991 में नया आर्थिक नीति देश के पुर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव सरकार सरकार दौरान बनी थी तो उस दौरान मनमोहन सिंह देश के वित्तमंत्री थे उसी आर्थिक सुधार कारण ही आज देश के स्थिति इतना बेहतर है। मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल जो नीतियां और जो विकास कार्य हुए उसी कारण से पुरे चुनाव में बीजेपी बैकफुट पर रहीं इसके अलावा चुनाव के ठीक पहले संपूर्ण देश में किसानों का कर्ज माफ़ी उस चुनाव का बड़ा मुद्दा बन गया और जिसका लाभ भी कांग्रेस को मिला। मुंबई हमले 2009 में चुनावी मुद्दा नहीं बना इसका बड़ा कारण ये था कि हो रहे बम धमाके पर युपीए सरकार से मजबूती से सवाल पुछने वाला नेता विपक्ष के पास नहीं था ,देश के सुरक्षा में मोर्चे पर युपीए सरकार इस ग़लत नीति को उजागर करने वाला कोई नेता विपक्ष के पास नहीं था इसी कारण मुंबई हमला उस दौरान चुनावी मुद्दा नहीं बन सका यूं कहिए कि जिस मुंबई में ये आतंकवादी हमला वहां भी ये विषय चुनावी मुद्दा नहीं बना। 26/11 आतंकवादी हमलें पर युपीए सरकार ने कोई सख्त कदम ना उठाना जनता में उतना चर्चा ना बना ये बतातीं है कि उस समय का विपक्ष कितना कमजोर था। आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस मुंबई ने 26/11 आतंक दंश झेला उसी मुंबई में BBC के उस समय के रिपोर्ट अनुसार ये था कि मुंबई के लिए सुरक्षा बड़ा मुद्दा नहीं था बल्कि बिजली पानी और रोटी कपड़ा था उस दौर में भी मुंबई देश का आर्थिक राजधानी कहां जाता तो कल्पना कर सकते हैं कि जब मुंबई के लिए मुद्दा रोटी कपड़ा और मकान रहा तो देश के बाकी क्षेत्रों का हालात कैसा होगा। 2009 में देश में जब 15 वीं लोकसभा चुनाव हो रहा था, उस समय देश में युपीए के सरकार चल रही थी। जो कि सफलतापूर्वक अपने पांच वर्ष पुर्ण कर लिया। युपीए के पहले कार्यकाल में देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सामने कई चुनौती आई,परंतु वो उन चुनौती के सामने वो हार नहीं माने और बल्कि लड़े और विजेता बनके उभरें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बारे में एक शब्द कहा जाता था कि वो बोलते कम है लेकिन काम अधिक करते हैं। मनमोहन सिंह ने एक बार बोलें थे कि हजारों जवाबों से बेहतर मेरी ख़ामोशी शायद मनमोहन सिंह के इस शब्द में भी एक दर्द छिपा हुआ वो दर्द था कि मनमोहन सिंह के राज में दुसरे कार्यकाल दौरान मिडिया ने जिस प्रकार से एकतरफा केवल सरकार पर आरोप लगा रहीं थीं यूं कहिए कि मनमोहन सिंह के दुसरे कार्यकाल में मिडिया एकतरफा हो गयी वहीं दुसरा कारण ये भी था कि मनमोहन सिंह जब भी कोई अच्छा कार्य करते थे उसका श्रेय उनके पार्टी लोग गांधी परिवार को दे देते लेकिन वहीं युपीए सरकार दौरान भ्रष्टाचार का मामला आता था उसके लिए जिम्मेदार मनमोहन सिंह हो जातें थे। शायद इसी बात से आहत होकर मनमोहन सिंह ने कहां था कि हजारों जवाबों से बेहतर है मेरी ख़ामोशी। उस समय मनमोहन सिंह ने ये भी कहें थे कि आज भले मिडिया हमारे नकारात्मक चीजें को दिखाएं लेकिन इतिहास जब भी उनके सरकार का अध्ययन करेगा तो उन्होंने सही कहेगा आज वहीं समय जब मनमोहन सिंह के कार्यकाल अध्ययन करेंगे यहां पर हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि हम मनमोहन सिंह के पुरे कार्यकाल अध्ययन नहीं करने जा रहे हैं। उस दौर में मिडिया जिस प्रकार से मनमोहन सिंह सरकार पर केवल आरोप लगा रहीं है चाहे वो सत्य हो फिर असत्य हो। इससे किसी भी चैनल कोई फर्क नहीं पड़ रहा है उस दौर के मिडिया कवरेज देखें तो किस प्रकार से मिडिया ने मनमोहन सिंह सरकार से अन्यायपूर्ण व्यवहार किया लेकिन हम यहां ये भी कहना चाहतें हैं कि उस दौर की पत्रकारिता की यहीं खुबसूरती थी कि उस दौर के पत्रकार सत्ता से डरते या घबराते नहीं बल्कि कि सरकार के कमियां उजागर करती थी तो उस दौर में पत्रकार सवाल को पुछने से घबराते नहीं थे वो एक ऐसा दौर जब इस देश के मिडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं। अन्ना आंदोलन के कवरेज जब टीवी पर 24 घंटे हो रहीं तब इस देश के मिडिया ने वास्तव पत्रकारिता का धर्म का पालन किया लेकिन उसी दौर कई ऐसे पत्रकार भी थे जो सत्ता के क़रीब थें और कैबिनेट मंत्री तक तय करते थे उस दौर में भी मिडिया पुरी तरह से आजाद नहीं कह सकते थे क्योंकि जब 2011-2012 में अन्ना आंदोलन हो रहा था तब विश्व प्रेस स्वतंत्रता में भारत का रैंकिंग 131 था वहीं जब मनमोहन सरकार अंतिम साल में पहुंची यानी 2013 में विश्व प्रेस स्वतंत्रता भारत का रैंकिंग में 141 पर पहुंच गया। उस दौर में CAG रिपोर्ट पर सरकार से सवाल पुछने से घबराती नहीं थी बल्कि देश के प्रधानमंत्री को इन कड़े सवालों का जवाब देते हैं। सामना भी करना पड़ता था लेकिन ये अलग बात है कि आज भी कई पत्रकार बताते हैं कि मनमोहन सिंह के काल में पीएम के प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहले से ही सवाल तय किए जाते थें और चुनिंदा पत्रकारों को ही सवाल पूछने की इजाजत था। लेकिन उस दौर में जब अन्ना आंदोलन , बाबा रामदेव केकालाधन आंदोलन या किसी भी सत्ता के विरूद्ध हो रहें आंदोलन में मिडिया ने सत्ता पक्ष स्थान जनता के समर्थन में आई। अगर आज हम अन्ना आंदोलन को एक क्रांति कह रहे हैं उसमें मिडिया का महत्वपूर्ण भुमिका था क्योंकि मिडिया कारण जनता तक अन्ना हजारे अरविंद केजरीवाल ,बाबा रामदेव और उस आंदोलन जुड़े बातें जनता के बीच पहुंचा उस दौर ऐसे पत्रकारो को कहीं-कहीं सलाम करनी चाहिए जो सत्ता से डरें नहीं बल्कि अपने दायित्व का ईमानदारी से पालन किया।‌ लेकिन हम यहां ये भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि आज दौर में जो लोग ये कहते हैं कि मिडिया गोदी मिडिया बन गया यानी टीवी बस सरकार द्वारा तय किए गये एजेंडे पर डिबेट होता है वो बिल्कुल उचित नहीं हैं।‌ विपक्षी दल ये आरोप लगा रहें हैं कि मिडिया ने सत्ता केएजेंडे पर काम रहीं तो क्या जब वो सत्ता में थें तब मिडिया उनके एजेंडे पर काम कर रहीं थीं शायद इसका जवाब वहीं लोग देंगे जो इस वक्त मिडिया को गोदी मिडिया कह रहे हैं। ऐसे पत्रकार जो मुख्य मिडिया को छोड़कर डिजिटल पत्रकारिता तरफ़ आ चुकें है जो ये दावे करते हैं कि वो सत्ता से सवाल पुछते जो कि काफी अच्छे बातें लेकिन उन पत्रकारों में पत्रकारिता में एक खास विचारधारा के एजेंडा नज़र आता है।

    मनमोहन सरकार के उपलब्धियां

    लेकिन हम एक बार फिर से युपीए काल के अध्याय पर आते हैं।मनमोहन सिंह के कार्यकाल में देश को कई उपलब्धियां भी हासिल हुआ था। जिसमें प्रमुख रूप से

    भारत-अमेरिका परमाणु समझौता

    भारत-अमेरिका परमाणु समझौता को मनमोहन सिंह के सरकार के उपलब्धि तौर पर भी याद रख सकते हैं या फिर मनमोहन सिंह के सरकार के चुनौती तौर पर भी याद रख सकते हैं। मनमोहन सिंह ने इस समझौता के लिए अपनी सरकार को भी दांव पर लगा दिया था। इसी समझोता कारण ही लेफ्ट ने मनमोहन सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। लेकिन उसके बावजूद भी मनमोहन सिंह ने पिछे नहीं हटे। मनमोहन सिंह के पिछे नहीं हटने का एक बड़ा कारण ये भी था कि पुर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने भाजपा तरफ़ से उनको अपना समर्थन दे दिए जिसके बाद ये लगभग तय हो गया था कि मनमोहन सरकार नहीं गिरने वाला है। एक किस्सा फिल्म द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर की जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार और मुख्य प्रवक्ता (पीएमओ) संजय बारू जी के लिखें पुस्तक आधार पर हैं,मैंने तो अब-तक वो पुस्तक नहीं पढ़ पाया हूं लेकिन उसी पुस्तक के आधार पर बने फिल्म के एक डायलॉग मुझे याद आया जिसमें संजय बारू कहा था कि मनमोहन सिंह के ख़ुद पार्टी भारत-अमेरिका परमाणु समझौता में विरूद्ध खड़े थी जबकि जो भाजपा विपक्ष में थी वो इस समझौते के समर्थन आ‌ गई जब मनमोहन सिंह ने अटल जी से पूछा, क्या किया जाए।उन्होंने मुस्कुराकर अपना जवाब दिया। उनकी मुस्कान में उनका समर्थन छिपा था। जहां डील कारण कांग्रेस कई खेमें बंट गई लेकिन वहीं मनमोहन सिंह अपने बात डटे रहे और जिसके बाद उन्होंने ने इस समझौते को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के साथ संयुक्त बयान में धोषणा की। आपको बता दें भारत-अमेरिका परमाणु समझौता को नागरिक परमाणु समझौता भी कहा जाता है। 1 अक्टूबर 2008 को अमेरिकी सीनेट ने असैन्य परमाणु समझौते को मंजूरी दे दी थी। अर्थात लोकसभा चुनाव से कुछ समय पहले ही भारत-अमेरिका के बीच परमाणु समझौता होता है।‌ जो कि चुनावी मुद्दा तो बनेगा ही। इसके अलावा मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल और भी कई कामयाबी भारत ने हासिल किया। लेकिन इस परमाणु समझौता में एक और व्यक्ति का महत्वपूर्ण योगदान था वो व्यक्ति थे तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जब युपीए सरकार पर ख़तरे में आ गई और लेफ्ट ने अपना समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम सिंह और अमर सिंह ये जानने के लिए एपीजे अब्दुल कलाम के पास पहुंचे कि इस डील से देशहित में या फिर नहीं? तब डाक्टर एपीजे अब्दुल ने इस प्रश्न के उत्तर देते हुए कहते हैं कि ये डील देशहित में है और उसके बाद युपीए के सरकार बच गई। ये किस्सा काफ़ी लंबा हो जाता इसलिए संक्षिप्त में समाप्त करने का प्रयास किया

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