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Vismriti Ke Beech (विस्मृति के बीच)
Vismriti Ke Beech (विस्मृति के बीच)
Vismriti Ke Beech (विस्मृति के बीच)
Ebook158 pages39 minutes

Vismriti Ke Beech (विस्मृति के बीच)

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इला कुमार भारत की कवि, उपन्यासकार, अनुवादक, उपनिषदवेत्ता एवं विचारक हैं। इनकी रचनाओं के मध्य मुख्य रूप से छह कविता-संग्रह, एक उपन्यास और एक कहानी-संग्रह है।
इन्होंने प्रसिद्ध जर्मन कवि रेनय मारिया रिल्के और चीनी दार्शनिक लाओत्सु की कविताओं का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया है।
इनकी कोशिश रही है उपनिषद-ज्ञान और हिंदुत्व की ग्राह्यता को सुगम बनाने की, तो इसी क्रम में इन्होंने उपनिषद एवं हिन्दू-हिंदुत्व की पुस्तकें लिखी हैं।
इन्होंने छांदोग्य उपनिषद की कहानियों का हिंदी में पुनःलेखन किया है और उपनिषदों पर चार पुस्तकें लिखी हैं।
इला कुमार की कविताएं कई भाषाओं में अनुवादित हुई हैं- यथा बंगाली, पंजाबी, उड़िया, अंग्रेजी, जापानी वगैरह में। इनका प्रसिद्ध काव्य संग्रह "जिद मछली की" अंग्रेजी में (2011) अनुवादित हुआ है। इनकी रचनाएं भारत एवं विदेश की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateDec 7, 2021
ISBN9789354867620
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    Vismriti Ke Beech (विस्मृति के बीच) - Ila Kumar

    हे सूर्य!

    सूरज, तुम वहाँ हमारी अपनी धरती के आकाश से

    यहाँ

    कैसे चले आए...

    हम तो आए वायुयान के सहारे

    तुम स्वचलित

    भ्रमणशील-अभ्रमणशील भी

    क्या तुम ही हो आत्म

    ब्रह्म भी?

    नियंता ब्रह्मांड के

    सूर्य,

    तुम तो वही हो

    जो वहाँ हिमालय-गंगा के निकट थे

    यहाँ आल्प्स-हडसन के करीब हो

    किरणें भी वही, रश्मियों की जगमगाहट भी वही

    उदय और अवसान-काल में आकाश पर छाई

    ललाई भी वही

    तुम-अपरिवर्तित! शाश्वत! पूर्ण!

    हे सूर्य!

    सूरज की छाती पर खिंची दीवार

    सूरज की छाती पर खिंची हुई दीवार को

    हवा स्तब्ध हो निहारती है

    आकाश ने आगे बढ़कर अपने अंगोछे से

    कालिख पोंछ दी

    नहीं थकने वाले पैर दूसरों की सम्पत्ति बन गए हैं

    उनके स्वप्न

    तुम्हारे स्वप्नों के भीतर कभी नहीं पैठेंगे

    आपस में मिली हुई धारियों के रंग अलग हैं

    गुच्छियों में लिपटी गुच्छियाँ

    अंदर की हर रेख को एक सी चमक में समेटती हुईं

    अन्याय और रोष

    जो दूसरों के हैं.

    मैं सूर्य पी रही हूँ

    थर्मस का पेंदा जगमगा उठा है

    किरणों की

    दीप्ति से

    पानी के अंदर घुलता हुआ

    सुनहला सैलाब

    मैं सूर्य पी रही हूँ.

    अपार आदर

    सच्चाईयों की अनसुनी आहटें

    और

    कई पदचाप ऐसे हैं

    जो आधी रात के बाद सुनाई देते हैं

    नींद कहीं दूर चली जाया करती है

    बंद पलकों के नीचे की जाग

    घन्टों तक ठहरी हुई

    और अब सुबह को उगते हुए देखने में

    भी

    पुरानी उत्साहित हड़बड़ी कहाँ रही

    लेकिन हाँ!

    सुबह तो सुबह है

    नीलिम आकाश के इस छोर से उस छोर तक

    फैलता हुआ उजाला

    और डालियों के बीच

    अचानक सूर्य का दमकता मुखड़ा

    अनगिनत जगमग बिन्दु-कण

    मन में एक बार फिर

    अनन्त के पुत्र के प्रति अपार आदर जागता है.

    सत्यों की अस्थिगंध

    उस दिन पृथ्वी के बड़े शहर की सड़कों पर जमघट

    आकार

    ले रहा था

    शायद भारत के ही किसी बड़े शहर की सड़कों पर

    गोलाकार रस्तों से होकर

    जुलूस गुजरने वाला था

    महीनों से जुलूस की तैयारी में लोग व्यस्त रहे

    देश भर में मीटिंगों का सिलसिला

    जारी

    गोल टेबल के चारों ओर बैठे बुद्धिजीवियों की घंटों, हफ्तों,

    महीनों तक विचारमग्नता

    वे

    किसी खास निराकरण की तलाश में थे

    निरूत्तरता के बीच छिपे उत्तर की तलाश में लगे रहे

    लेखक

    कवि, पत्रकार

    पैसा उगाहने वाली जाति

    व्यापारियों की शिरकत उन मीटिंगों में नहीं रही

    शहर के केन्द्र में स्थित बहुत बड़ा था गोल चौक

    गोल चौक से ही हुई

    जुलूस की शुरूआत

    घंटाघर ने जैसी ही टनका मारा सुबह आठ की लकीर पर

    लोग चल पड़े

    जुलूस निकल पड़ा

    वातावरण में नीम पत्तों की कड़वी गंध

    जुलूस के संग चली

    सड़क के दोनों ओर प्रकाशकों दर्शकों की कतार

    कौतूहल भरी

    पृथ्वी को घेरे वायुमंडल की फिजां

    हैरत से तर-ब-तर

    दर्शकीय कतारों के बीच से गुजरते लेखकों कवियों का रेला

    चल पड़ा

    सुबह-सुबह जुलूस अपने भयावह सत्यों की

    अस्थिगंध साथ

    लिए चला

    आगे-आगे बाएं हाथ की हथेली उठाए

    पंच संकेतक

    खुली हथेली में ऊपर से नीचे तक लाल चीरा

    लगा हुआ था

    तिर्यक के निम्नतम बिंदु से निकलती बूंदें

    टक् ! लाल !

    प्रश्नों की धार उन बूंदों के साथ निकली

    उन बूंदों को निर्मित करनी थी

    कई सीधी लकीरें

    साफ-सुथरी सड़क की चिकनी छाती पर

    उस चिकनाहट पर प्रश्न

    रपटते हुए आगे बढ़े

    जुलूस में बढ़ती कतारों में सबों के बाएं हाथ पर

    वही लाल चीरा

    तिर्यक् की शक्ल में

    दाएं हाथ में अपने

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