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प्रांजल -2: hindi literature (हिंदी साहित्य), #2
प्रांजल -2: hindi literature (हिंदी साहित्य), #2
प्रांजल -2: hindi literature (हिंदी साहित्य), #2
Ebook123 pages58 minutes

प्रांजल -2: hindi literature (हिंदी साहित्य), #2

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About this ebook

हिंदी साहित्यिक पत्रिका . इसमें समकालीन हिंदी साहित्य की कवितायें कहानियाँ और आलोचनात्मक आलेख है . इसके अतिरिक्त इसमें कला और संस्कृति से सम्बंधित आलेख भी है. 

Languageहिन्दी
PublisherAarsh kumar
Release dateNov 6, 2020
ISBN9781393825036
प्रांजल -2: hindi literature (हिंदी साहित्य), #2

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    प्रांजल -2 - Madhu singh

    Copyright © 2020 editor & authors pranjal

    All rights reserved.

    दो शब्द

    प्रांजल का यह दूसरा अंक आपकी नजर. यह तकनीक और अंतरजाल पर फैले आभासी संसार में जगह बनाने की कोशिश है. कविता-कोश, गद्य-कोश, प्रतिलिपि इत्यादि ई-संस्थानों द्वारा इस दिशा में प्रयास किया जा रहा है, जो सराहनीय है .परंतु हिंदी साहित्य इतना विपुल और व्यापक है कि उसकी तुलना में यह प्रयास नगण्य लगता है.

    न जाने क्यों हिंदी साहित्य के परंपरागत लेखकों ने तकनीक से दूरी बना रखी है? आज पहली और दूसरी दुनिया के देश साहित्य, कला और संस्कृति कि अधिक से अधिक सूचना वैश्विक नेटवर्क पर देकर इसका लाभ उठा रहे हैं. यदि किसी स्थापित समकालीन हिन्दी साहित्य के लेखक के बारे में हम कोई सूचना ढूंढना चाहते हैं तो वैश्विक अंतरजाल पर बहुत कम या मामूली सूचनाएं मिलती है, जबकि उनका कद साहित्य में काफी बड़ा होता है.

    एक ओर हिंदी साहित्य के समकालीन स्थापित साहित्यकारों ने तकनीक से दूरी बनाकर रखी है, वहीं नई पीढ़ी के रचनाकार जो अपने प्रकाशन के लिए केवल वैश्विक नेटवर्क तकनीक का सहारा ले रहे हैं परिणामतः दोनों के बीच संवादहीनता की स्थिति बन गई है, जो ठीक नहीं. एक नवोदित कथाकार ने मुझे बताया कि उन्होंने अपनी कहानी प्रकाशनार्थ हिंदी साहित्य के स्थापित चार मासिक पत्रिकाओं के संपादक को भेजी थी. डेढ़ वर्ष बीत जाने के बाद भी न तो उसके स्वीकृति की कोई सूचना मिली न ही अस्वीकृति की जबकि वे  लगातार पत्रिका के संपर्क में थे तब निराश होकर उन्होंने अपनी कहानी वैश्विक नेटवर्क के माध्यम से प्रकाशित की, कहानी को पाठकों द्वारा काफी सराहा गया  .                        मधु सिंह

    पांच अक्टूबर 2020

    E-mail:pranjalhindi@gmail.com   

    विषय-सूची

    बेनाम गिलानी की गजले

    1.बारिशे लू

    जिस से अब मेरा आशिकाना है

    उसका अंदाज दिलबराना है

    मेरी चुनरी है दाग़दार बहुत

    और साजन के पास जाना है

    मिट चुके हैं तमाम छाप तिलक

    नैन में सुरमा क्या लगाना है

    मै अभागन भी हूं सुहागन सी

    कितनी हैरत में ये ज़माना है

    दो पहर की है धूप गर्म बहुत

    बारिशे लू में भी नहाना है

    मेरे साजन को है तलाश मेरी

    रैन उन बांहों में बिताना है

    मेरे साजन के तन की ख़ुशबू से

    महका महका हुआ ज़माना है

    झुक रही हैं न जानें क्यूं पलकें

    राज़ है राज़ क्या बताना है

    मेरे तन पर जो सुर्ख़ जोड़े हैं

    बेल बूटे यहां सजाना है

    2.आग उगलते रहिए

    ख्वाब में आए खिलौने से बहलते रहिए

    ये भी क्या है के हर इक वक्त़ मचलते रहिए

    आप के तआक्क़ुब में एक ज़माना है . अभी

    राह मंज़िल से क़बल ख़ूब बदलते रहिए

    गुलपसंद लोग हैं ईस गुल्शने हस्ति में मियां

    अब दहाने से नहीं आग उगलते रहिए

    थम गए आप तो थम जाएगा सारा आलम

    पांव में छाले अगर हों भी तो चलते रहिए

    ईस ज़माने में सहारा नहीं देता कोई

    गिर गए हैं तो बख़ुद आप सम्भलते रहिए

    बा ख़बर रहना है हालाते जहाँ से लाज़िम

    गाहे गाहे ज़रा कूचे में निकलते

    आप की दीद से खिल उठेंगे गुल के चेहरे

    बाग़ेख़ाना में सरे शाम टहलते रहिए

    ––––––––

    3.हमको भी कुछ फ़िक्रे आलम दीजिए

    कौन कहता है के मरहम दीजिए

    ज़ख़्म ही महबूब कुछ कम दीजिए

    रू ब रू हो गुफ़्तगू दुश्वार गर

    चश्म[1] से पैगा़म पैहम[2] दीजिए

    रह्म कीजिएगा रकी़बों पर मेरे

    जिस क़दर हो मुझको ही ग़म दीजिए

    रौश्नी मिलनी है मिल ही जाएगी

    ख़्वाह शम्मा[3] जितनी मद्धम दीजिए

    ख़ैरोशर[4] दोनों ही हैं ईन्सान में

    कुछ ख़ुशी भी ग़म के बाहम दीजिए

    आह कस्रत में है शर का एहतमाल

    जज़्बए उल्फ़त भी कम कम दीजिए

    हो मेरी तक़्दीर जैसी भी बुरी

    गेसूए गिती न बरहम दीजिए

    मै जो उल्झूं तो अफ़ाक़ा हो ज़रा

    उनकी ज़ुल्फ़ों को ज़रा ख़म दीजिए

    हमको कब प्यारा रहा अपना मफ़ाद[5]

    हमको भी कुछ फ़िक्रे आलम दीजिए

    नातवां ईस्लाम कितना हो गया

    फिर ईसे फ़ारूक़े आज़म दीजिए

    ––––––––

    4. दास्तां दर दास्तां

    चंद लम्हें ही तो हासिल हैं हसीं संसार में

    हम गवांएं इनको क्यूं कर अब किसी तकरार में

    जिनकी ईंटों में नमक लगते सदी गुज़री कई

    दास्तां दर दास्तां लिखी है उस दीवार में

    अपना भी है हाल वैसा बज़्मे हस्ती में जनाब

    कश्तियां खाती हैं ग़ोते जिस तरह मंझधार में

    ईस लिए मुझ से तग़ाफ़ुल वो बरतते हैं अभी

    उनका दिल लगने लगा है आजकल अग़यार[6] में

    उनको क्या मालूम है जो मालोज़र ‌पर मुफ़्तख़र

    एक अन्देखी है ताक़त जज़्बए ईसार में

    आम ईन्सानों में और शायर में हो कुछ ईम्तियाज़

    हाजते ईस्लाह है बेनाम को किरदार में

    मैं ने तो दुनिया नई अब तक तलाशी ही नहीं

    जाने क्या क्या ढ़ूंढ़ते हैं वो मेरे अश्आर में

    अब तो मैं तख़्लीक़ के क़ाबिल नहीं हूं दोस्तो

    नाम मेरा आ ही जाता है मगर अख्बार

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