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हमारे सपनों के भारत का निर्माण
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Ebook1,047 pages8 hours

हमारे सपनों के भारत का निर्माण

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एक प्रतिबद्ध और जानकारीपूर्ण अनुसंधानकर्ता द्वारा लिखित यह पुस्तक देश में फैली समस्याओं के लिये उत्तरदायी कारणों का विश्लेषण करती है जो कई कमियों कुशासन, भ्रष्टाचार, औद्योगिक विफलता, डगमगाती अर्थव्यवस्था, इत्यादि का परिणाम है। कई विषयों, जैसे भारत के संसाधन, राजनीतिक प्रशासन, आर्थिक विकास, विभिन्न स्तरों पर विकास कार्यक्रम और वैश्वीकरण के प्रभाव का गहन अध्ययन करके, यह अतीत में जानबूझकर या लापरवाही से की गई गलतियों और स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों को पूरा करने की सोच, अपनाई गई नीतियों, योजनाओं के क्रियान्वन और कार्यक्रमों व आंकलनों का निरीक्षण करती है।
गहन अध्ययन करके एकत्र किए गए असंख्य तथ्यों और आंकड़ों की प्रस्तुतिकरण करने वाला यह कार्य दर्शाता है कि भारत, ग्रामीण विकास, जनसंख्या नियन्त्रण, शिक्षा सुधारों, जल प्रबन्धन, आपदा प्रबन्धन, बिजली उत्पादन, पर्यटन, पर्यावरण मुद्दों, पुलिस, रक्षा सेवाओं व न्याय व्यवस्था के सुधारो में कैसे और क्यों पिछड़ा हुआ है। इसमें दूरदर्शितापूर्ण व विचारपूर्ण सुझाव भी दिए गए हैं कि ऐसी स्थितियों से कैसे निपटा जाये। इसमें उत्तर-पूर्वी राज्यों व काश्मीर मुद्दे जैसी महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान देने की कोशिश भी की गई है।
यहां चर्चित विषय की प्रकृति और विभिन्न समस्याओं के बारे में लेखक की अद्वितीय सोच और मूल विचारों को देखते हुए, यह पुस्तक बड़ी संख्या में उन पाठकों को रूचिकर लगेगी जो भारत को प्रगति के पथ पर अग्रसर देखना चाहते हैं। उन्हें ऐसा अनुभव होगा मानों लेखक उनके ही बारे में बात कर रहा है और उनके कल्याण के लिए चिंतित है। इस किताब को लिखने का धाराप्रवाह तरीका इसे और अधिक दिलचस्प बना देता है।

LanguageEnglish
Release dateSep 24, 2020
ISBN9789390266753
हमारे सपनों के भारत का निर्माण
Author

के.सी. अग्रवाल

यह पुस्तक भारत को आर्थिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक रूप से मजबूत करने के तरीके खोजने और आने वाले दशकों में इसे सर्वाधिक शक्तिशाली और अग्रणी देशों में से एक बनाने के लिये किया जाने वाला एक महत्वाकांक्षी प्रयास है। एक प्रतिबद्ध और जानकारीपूर्ण अनुसंधानकर्ता द्वारा लिखित यह पुस्तक देश में फैली समस्याओं के लिये उत्तरदायी कारणों का विश्लेषण करती है जो कई कमियों कुशासन, भ्रष्टाचार, औद्योगिक विफलता, डगमगाती अर्थव्यवस्था, इत्यादि का परिणाम है। कई विषयों, जैसे भारत के संसाधन, राजनीतिक प्रशासन, आर्थिक विकास, विभिन्न स्तरों पर विकास कार्यक्रम और वैश्वीकरण के प्रभाव का गहन अध्ययन करके, यह अतीत में जानबूझकर या लापरवाही से की गई गलतियों और स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों को पूरा करने की सोच, अपनाई गई नीतियों, योजनाओं के क्रियान्वन और कार्यक्रमों व आंकलनों का निरीक्षण करती है।गहन अध्ययन करके एकत्र किए गए असंख्य तथ्यों और आंकड़ों की प्रस्तुतिकरण करने वाला यह कार्य दर्शाता है कि भारत, ग्रामीण विकास, जनसंख्या नियन्त्रण, शिक्षा सुधारों, जल प्रबन्धन, आपदा प्रबन्धन, बिजली उत्पादन, पर्यटन, पर्यावरण मुद्दों, पुलिस, रक्षा सेवाओं व न्याय व्यवस्था के सुधारो में कैसे और क्यों पिछड़ा हुआ है। इसमें दूरदर्शितापूर्ण व विचारपूर्ण सुझाव भी दिए गए हैं कि ऐसी स्थितियों से कैसे निपटा जाये। इसमें उत्तर-पूर्वी राज्यों व काश्मीर मुद्दे जैसी महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान देने की कोशिश भी की गई है।यहां चर्चित विषय की प्रकृति और विभिन्न समस्याओं के बारे में लेखक की अद्वितीय सोच और मूल विचारों को देखते हुए, यह पुस्तक बड़ी संख्या में उन पाठकों को रूचिकर लगेगी जो भारत को प्रगति के पथ पर अग्रसर देखना चाहते हैं। उन्हें ऐसा अनुभव होगा मानों लेखक उनके ही बारे में बात कर रहा है और उनके कल्याण के लिए चिंतित है। इस किताब को लिखने का धाराप्रवाह तरीका इसे और अधिक दिलचस्प बना देता है।

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    हमारे सपनों के भारत का निर्माण - के.सी. अग्रवाल

    कुछ शब्द


    यह पुस्तक भारत के लोगों को जगाने और उनके देश को निकटता से दिखाने का एक प्रयास है। यह पुस्तक देश की विभिन्न समस्यओं की अत्यधिक बेचैनी तथा जनता के अनन्त दु:खों व कष्टों के कारणों के बारे में जानकारी देती है।

    लोगों के कष्टों के कारणों की पहचान और उनके संभावित समाधानों के लिये, हमारी असफलताओं के कारणों की जांच करना आवश्यक था। यदि कारणों की पहचान हो जाती है तो रोग को ठीक करना आसान हो जाता है। मैंने अपनी मौजूदा पुस्तक में ये ही सब करने का प्रयत्न किया है।

    अपने विश्लेषण में जहां तक संभव हो सका है मैंने स्पष्ट और निष्पक्ष होने की कोशिश की है, क्योंकि मेरी नीयत किसी को ठेस पहुंचाने या अपमान करने की नहीं बल्कि विवेकशील समाधान ढूंढने की है। विश्लेषण बताता है कि हम अभी भी केवल 25-30 वर्षों में अपने देश का पुनर्निर्माण कर उसे विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली और समृद्ध देशों में से एक बना सकते हैं केवल शब्दों से नहीं बल्कि अपने कर्म और क्षमता से। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये मैंने क्रूसेड-इंडिया नामक संगठन की स्थापना भी की है, जिसकी जानकारी पुस्तक के अंत में दी गई है।

    चूंकि कुछ मामलों के विभिन्न पहलुओं पर, विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न कोणों से चर्चा की गई है, इसलिये ऐसा हो सकता है कि वांछित निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये कुछ बातों को दोहरा दिया गया हो।

    लेखक

    आभार


    लेखक अपने उन अनेक मित्रों और सहयोगियों का आभार और धन्यवाद व्यक्त करता है, जिन्होनें इस पुस्तक की समीक्षा करके इसके बारे में अपने अमूल्य सुझाव और राय दी है, जिससे यह पुस्तक वर्तमान रूप में आ सकी।

    लेखक

    शब्द संक्षेप


    हमारा लक्ष्य

    अध्याय 1

    अपने देशवासियों से


    1.1 परिचय

    क्या आप जानते हैं कि आज़ादी के 56 वर्षों के बाद भी हमारे देश की 86.5 प्रतिशत जनसंख्या वह है जो गरीबी रेखा पर या इससे नीचे अपना जीवन बिता रही है और 68 प्रतिशत वे हैं जो घोर गरीबी और लाचारी का जीवन जीने को मजबूर हैं और जानवरों से भी बदतर जीवन व्यतीत कर रहे हैं? इनमें से कई घास, पौधों की जड़ों और गुठलियों पर जीवन बिता रहे हैं या आत्महत्याएं करने को मजबूर हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज हमारी कुल आबादी के 23 प्रतिशत लोग अपंग हैं और 10 प्रतिशत निराश्रित। जबकि इस अवधि में हमारे शासकों ने अपने आपको सर्वाधिक प्रभुत्वशाली, समृद्ध और शक्तिशाली वर्ग के रूप में स्थापित कर लिया है लेकिन पूरे राष्ट्र को फटेहाली, दु:खों और लाचारी की तरफ धकेल दिया है। क्या हमने इस तरह की आजा़दी की कामना की थी कि केवल कुछ लोग ही आनंद और चैन से रहें और बाकी सब दु:ख भोगें?

    पिछले 56 वर्षों से हमारा शासन-तंत्र न केवल बुरी तरह से असफल हुआ है, बल्कि इसने गहरे भ्रष्ट तंत्र की स्थापना भी की है। इसने हमारी आशाओं को धूमिल किया है तथा हमारी आकांक्षाओं को तहस-नहस कर दिया है। हमने विभिन्न वर्गों के कई लोगों से इस विषय पर चर्चा की है और उनमें से सभी का यह दृढ़ विश्वास है कि इस तंत्र को बदल देना चाहिये, चाहे ऐसा करना कितना ही मुश्किल क्यों न हो।

    नोबल पुरस्कार विजेता डॉ॰ हरगोबिन्द खुराना को अपने स्वयं के देश में किसी तरह के अवसर नहीं मिले। अपने देश में उन्हें प्रशंसा तब मिली जब उन्हें अमेरिका में काम करने का अवसर मिला जहां उन्हें एक ऐसा वातावरण मिला जिसमें उन्होंने बहुमूल्य काम किये एवं अपने क्षेत्र में श्रेष्ठता प्राप्त की और अपने देश का नाम रोशन किया। जब हम विदेश जाते हैं तो हमें बहुत से अवसर मिलते हैं, अपनी प्रतिभा दिखाने के मौके मिलते हैं और बेहतर काम करने की आज़ादी मिलती है। कितने दुख की बात है कि हम अपने देश में अपने लोगों के लिये जो काम नहीं करते; दूसरे देश के लोग हमारे लिये करते हैं, यहां तक कि वे अपने देशवासियों के साथ-साथ हमारे लोगों को भी प्रतिस्पर्धा में श्रेष्ठता प्राप्त करने देने में संकोच नहीं करते और उनकी प्रतिभा को मानने में भी नहीं झिझकते। जरा सोचिए हमारे और उनके दृष्टिकोण में कितना बड़ा फर्क है!

    व्यक्तिगत रूप से हम दूसरे देशों में सफल हो जाते हैं

    लेकिन अपने स्वयं के देश में असफल रह जाते हैं।

    इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि आदमी का व्यवहार, उसके सोचने का तरीका एवम् उसकी बुद्धिजीविता मुख्य रूप से उस तंत्र और माहौल पर निर्भर करती है जिसमें वह रहता, सोचता और काम करता है। क्योंकि किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति, क्रिया-कलाप, व्यवहार, कार्य और विचार उसके लिए बने तंत्र से प्रभावित होते हैं, इसलिये किसी भी तंत्र की आलोचना का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष की निन्दा नहीं है।

    1.2 हमारा प्रजातंत्र

    हमने अपने देश को एक सच्चा प्रजातंत्र दिया है जिसमें अनभिज्ञ लोग अनभिज्ञ लोगों को चुनते हैं और देश को अनभिज्ञता से चलाते हैं। इन बहुसंख्यक अज्ञानी लोगों के समक्ष, शिक्षित वर्ग बौना हो गया है और लम्बे समय से इसे हाशिये पर रखा जा रहा है। हमारी राजनीति उतनी ही अज्ञानी और गैर-पेशेवर नौकरशाही से समर्थित है। इसका परिणाम यह हुआ है कि देश विनाश के कगार पर खड़ा है और जनता की स्थिति दयनीय है, जो कि हमारे स्वयं के बनाये गये निर्दय तंत्र का ही परिणाम है। हमारे नेता और नौकरशाह प्राय: हमारे लोकतंत्र की प्रशंसा करते नहीं थकते जो 56 वर्षों से उनके साथ कदम-से-कदम मिलाकर चल रहा है। लेकिन यह केवल उन्हीं लोगों के लिये ही प्रशंसनीय है क्योंकि इससे वे अपनी लालसाओं के अनुसार पूरे राष्ट्र को पथभ्रष्ट करने में और यहां के लोगों को घोर गरीबी और विपन्नता की ओर धकेलने में सफल हुए हैं। हमारी गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ापन हमारे लोकतंत्र की सफलता नहीं हो सकती। संविधान द्वारा स्थापित हमारा तंत्र आज भी बिखरा-बिखरा सा लगता है। इस समय इससे बाहर निकलने का एकमात्र समाधान है - एक विवेकपूर्ण नेतृत्व के माध्यम से इस पूरे तंत्र को पूर्णतया पेशेवर तंत्र में बदलना, जैसाकि इस पुस्तक के अंत में बताया गया है।

    1.3 हमारा संदेश

    हमारे विशाल संसाधनों की उपलब्धता और वंशानुगत असीमित क्षमता को देखते हुए जैसाकि लेखक ने शोध किया है और इस पुस्तक में बताया गया है, हमारा एकमात्र उद्देश्य है इन सबका सर्वोत्तम उपयोग करना और अपने राष्ट्र को विश्व के महाशक्तिशाली एवम् सर्वाधिक समृद्ध राष्ट्रों में से एक बनाना।

    जब हम अमीर विश्व की शानदार इमारतों, बाजारों, सड़कों और मनोरंजन केद्रों को या वहां के चुस्त-दुरुस्त और संतुष्ट लोगों, स्कूली बच्चों, को आनंद मनाते और मस्ती करते देखते हैं तो हमें भी लगता है कि हमारे देश के लोग भी इस तरह की सुख-सुविधा से परिपूर्ण हों और एक खुशनुमा और सुखमय जीवन जिएं। हम आपको आश्वस्त करते हैं कि एक दिन हम भी उनकी तरह हो जायेंगे। लेकिन इस मंजिल तक पहुंचने के लिये हमें बहुत कड़ी मेहनत करनी होगी। आगामी पृष्ठों में हमने अपनी रणनीति के उन हिस्सों का खुलासा किया है जिससे आप इसे आसानी से समझ सकें। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों द्वारा ये बातें बेहतर ढंग से समझाई जायेंगी। तब ये हमारी आदर्श योजनायें बन जाएंगी। किसी भी देश के पुनर्निर्माण के लिये इतना गहन शोधकार्य या इस तरह के ब्लूप्रिंट्स (योजनायें) बनाने का काम बहुत दुर्लभ है। इन योजनाओं का अनुसरण करते हुए, हम अपने देश की वर्तमान बुराइयों का हमेशा के लिये उन्मूलन कर पायेंगे तथा गांवों, ग्रामीण गरीबों, असुविधाओं से त्रस्त पिछड़े लोगों और विकलांग व निराश्रित लोगों का उद्धार कर पायेंगे और इस प्रकार हम अपने देश को विश्व के सर्वाधिक समृद्ध देशों में स्थान दिला पायेंगे। इन सबकी शुरुआत हम निम्नलिखित तरीके से करेंगे -

    सबसे पहले हम प्रत्येक बेरोजगार को एक वर्ष के अन्दर शत-प्रतिशत रोजगार देंगे, और ऐसा किसी अनुदान या दान के अंतर्गत नहीं बल्कि वास्तविक विकास कार्य करके किया जाएगा (खंड 12.4 देखें)।

    हमारे कार्य शुरु करने के अगले 5-7 वर्षों में हम,

    अपने पास उपलब्ध अपनी प्रतिभा, विशेषज्ञता, मौजूद महान् जनशक्ति का अधिकतम उपयोग करेंगे।

    अपनी अगली पीढ़ियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने प्राकृतिक, गैर-पारम्परिक स्र्रोतों का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करेंगे ताकि हम अपने हिस्से की प्राकृतिक सम्पदा का ही प्रयोग करें।

    प्राथमिक क्षेत्र (कृषि) का 7-10 गुणा विस्तार करेंगे (खंड 11.2)।

    द्वितीय क्षेत्र (उद्योग) का 3 से 4 गुणा (खंड 21.2) विस्तार करेंगे।

    सेवा क्षेत्र (विशेष रूप से विदेशी पर्यटक) का 100 गुणा (उद्देश्य 1000 गुणा है) (अध्याय 19) और

    काले धन को अर्थव्यवस्था में फिर से वापिस लाएंगे (खंड 9.6)।

    इस सबसे हमारी वर्तमान जी॰डी॰पी॰ (सकल घरेलू उत्पाद) कम-से-कम 6-8 गुणा बढ़ेगी (सारणी 12.2) और साथ ही व्यक्तिगत आय भी बढ़ेगी। प्रत्येक व्यक्ति पर्याप्त समृद्ध बनेगा और 5-7 वर्षों में बेहतर जीवन की शुरुआत करेगा।

    हम पर्यावरण तंत्र में सुधार करेंगे और वातावरण को स्वच्छ बनायेंगे (खंड 18.7)।

    सूखे और बाढ़ पर हमेशा के लिये रोक लगायेंगे (अध्याय 15)।

    अशिक्षा, अज्ञानता और पिछड़ेपन जैसी बुराइयों को जड़ से समाप्त करेंगे (अध्याय 12 व 14)।

    बुजुर्गों, विकलांगों और निराश्रितों का पुनर्वास करेंगे तथा विकलांगता और निराश्रिता का हमेशा के लिये उन्मूलन करेंगे।

    जनसंख्या नियंत्रण को लागू करेंगे और इसे 60 करोड़ के स्तर पर लायेंगे (अध्याय 13)।

    प्रत्येक को आज़ादी से रहने का और काम करने का मौका देंगे जिससे वे अपनी मर्जी से अपना विकास कर सकेंगे।

    प्रत्येक व्यक्ति से राष्ट्र कार्य करवायेंगे और उन्हें अपने देशवासियों, परिवार और अभिभावकों का पहले से अधिक ध्यान रखने के लिये प्रेरित करेंगे।

    और इसके बाद (5-7 वर्षों बाद) हम अपने राष्ट्र का निर्माण सिटी सेन्टरों (अध्याय 12) के माध्यम से करेंगे जो अगले 7-10 वर्षों में गांवों, ग्रामीणों का जीवन बुनियादी रूप से बदल देंगे, अपंगों और निराश्रितों का पुनर्वास करेंगे और इस प्रकार पूरे राष्ट्र का उद्धार होगा और एक सपना साकार होगा।

    हमारे शहर पहले से ही अनियमित और अत्यधिक निर्माण की समस्या से ग्रस्त हैं। इस विषय में मौजूदा हालातों में तो कुछ अधिक नहीं किया जा सकता लेकिन जैसे-जैसे प्रवासी ग्रामीण, विस्थापित, उद्योग और व्यावसायिक केंद्र सिटी सेन्टरों में जाते जाएंगे उनकी रहन-सहन की स्थितियों में सुधार होता जाएगा। इसके बाद जितना संभव हो सकेगा हम इन नगरों का भी आधुनिकीकरण करेंगे।

    हमारे दोषपूर्ण शासन-तंत्र ने हमारे व्यक्तित्व को ठेस पहुंचाई है और हमें निरीह तथा स्वार्थी बना दिया है। लेकिन हम अपनी पुरानी आदतें छोड़ देंगे और अपनी विकास- गति तेज़ करेंगे। हम एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करेंगे जो मानवतावादी चरित्र का होगा और जाति, वर्ग, धर्म, भाषा या समुदाय के आधार पर नहीं बंटा होगा तथा देश में रह रहे अंतिम नागरिक तक का पूर्ण रूप से ध्यान रखेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि संगठन में ही शक्ति होती है और संगठित रहकर ही हम चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। अलगाववादी भावनायें हमें कमज़ोर और असुरक्षित करती हैं। मिलजुलकर रहने में ही महानता है अलगावपन में नहीं। सभी धर्म हमें यही सिखाते हैं। यदि हम अपनी पुरानी सोच से ऊपर उठने में सक्षम नहीं हुए तो गरीबी और जीवन की लाचारियों के अभिशाप से छुटकारा केवल एक दूर का सपना बनकर रह जाएगा।

    हम एक ऐसे तंत्र का निर्माण करेंगे जो अत्यधिक विकासशील होने के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान रखने तथा आतंकवाद, फिरौती हिंसावाद, घृणा या दुर्भावना, आत्महत्या और यहां तक कि दुर्घटना-संबंधी किसी भी घटना के प्रति संवेदनशील और जिम्मेवार होगा। नये तंत्र के लिए इन सबके शिकार प्रत्येक व्यक्ति चिंता और विचार का कारण होंगे। सरकार इनका उत्तरदायित्व वहन करेगी और जहां तक संभव होगा ऐसी समस्याओं से निपटने के सभी प्रयास करेगी।

    आप पूछ सकते हैं कि उपरोक्त बदलाव में कितना समय लगेगा। जो चीज़ एक हजार वर्षों में नष्ट की जा चुकी है उसे किसी जादू की छड़ी से ठीक नहीं किया जा सकता। हमें निरंतर प्रयास और कड़ी मेहनत से काम करना होगा। पूरे राष्ट्र के परिवर्तन के लिये और इसे संसार के सर्वाधिक शक्तिशाली एवम् सर्वाधिक समृद्ध देशों में से एक बनने में 25-30 वर्ष लग सकते हैं लेकिन 5-7 वर्षों में ही हम एक अच्छी और सम्मानजनक जिंदगी की शुरुआत कर सकते हैं जैसाकि ऊपर बताया जा चुका है। यह दिवास्वप्न नहीं है। यह सब इस पुस्तक में दिये गये सिद्धान्तों और विचारों के अनुसार ही प्राप्त किया जायेगा। सभी योजनायें बनाई जा चुकी हैं और ये सभी इसी तरह लागू भी की जायेंगी। ये घोषणायें केवल शब्द नहीं हैं; इनका कुछ अर्थ है और इनके पीछे गहरा शोध और विश्लेषण किया गया है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति देश के निर्माण का एक हिस्सा बनेगा और इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये अपनी ताकत के अनुसार पूरा प्रयत्न करेगा।

    अपने संयुक्त प्रयत्नों से हम लहरों का मुख मोड़ सकते हैं और देश की विघटित स्थितियों पर अंकुश लगा सकते हैं। आइये पिंजरे में बंद शेरों की तरह कमजोर बनकर और अपने निकम्मे तंत्र के गलत इशारों का पालन करने के बजाय अपनी कमर कस लें। अब हमारे पास वह मौका है जब हम इस पिंजरे को तोड़कर स्वयं द्वारा बनाई गई इस चारदीवारी से अपने आपको आज़ाद करा सकते हैं। इसलिये हम अपने सभी देशवासियों से यह अपील करते हैं कि इन विचारों को गंभीर सोच में बदलें। आइये हम अपने जीवन की मौजूदा उदास सच्चाइयों से मुंह न मोड़ें। यदि हमने जल्दी ही इन परिस्थितियों के खिलाफ कार्यवाही न की तो हालात और अधिक बिगड़ जायेंगे और आने वाला समय और भी दयनीय और असहनीय हो जायेगा।

    टिप्पणी

    बहुत से एन॰जी॰ओ॰ (गैर-सरकारी संगठन) और स्वयंसेवक हैं जो वर्तमान शासन-तंत्र में कुछ सुधार करने के लिये मजबूती से काम कर रहे हैं, लेकिन केवल बाहरी बदलाव ही काफी नहीं है। हम आज जो बन गये हैं आइये उसके मूल कारणों पर चोट करें। हमें वर्तमान तंत्र में किसी तरह का सुधार या दिखावटी उपचार नहीं करना है क्योंकि पूरे तंत्र में पूर्ण बदलाव के अलावा और कोई चारा नहीं है। इसलिये हम देश के उद्धार में लगे हुए सभी गैर-सरकारी संगठनों एवम् स्वयंसेवकों से गंभीरता से निवेदन करते हैं कि वे क्रूसेड-इंडिया (Crusade-India) अभियान में शामिल हों और हमारे हाथों को मजबूत करें ताकि एक साथ मिलकर हम अपने देश और देशवासियों का उद्धार कर सकें।

    यह पुस्तक हमारे देश की धीमी प्रगति और यहां के निवासियों की दयनीय अवस्था के कारणों का विश्लेषण करने की एक कोशिश है क्योंकि किसी भी देश को समृद्ध बनाने के लिये आवश्यक सभी संसाधन हमारे पास मौजूद थे और अब भी हैं लेकिन हम उनका इस्तेमाल नहीं कर सके। हमने विभिन्न कोणों से उन बुराइयों का विश्लेषण करने की कोशिश की है जिन्होंने हमें घेरा हुआ है और इन बुराइयों को नष्ट करने के तरीके भी बताये हैं। यदि हम इस संदेश को सुन सकें तो कोई कारण नहीं है कि हम वे न बन सकें जिसकी कल्पना हमने की है।

    हमने अपना विश्लेषण क्रमश: चार भागों में किया है -

    - हम क्या हैं?

    - हम ऐसे क्यों हैं?

    - क्या किया जा सकता है?

    - ऐसा कैसे किया जा सकता है?

    जम्मू-कश्मीर व उत्तर-पूर्वी राज्यों की समस्याओं पर भी इसमें चर्चा की गई है तथा उनके संभावित समाधान भी दिये गये हैं। हमने परमाणु विस्फोटों और विश्व के बदलते परिदृश्य में उनकी प्रासंगिकता, उपयोगिता एवम् प्रतिभाव के साथ.साथ सी॰टी॰बी॰टी॰, ड्ब्ल्यू॰टी॰ओ॰ (विश्व व्यापार संगठन), खुले बाजार की स्थितियों और उनके हमारे उद्योगों, व्यापार व अर्थव्यवस्था पर प्रभाव के बारे में भी प्रकाश डाला है।

    वर्तमान समस्याओं को निपटाने और उनके सामान्य व तर्कपूर्ण हलों से किसी को भी यह आश्चर्य हो सकता है कि इतनी साधारण समस्याओं को पिछले 56 वर्षों में क्यों नहीं सुलझाया जा सका। ठीक है जो कुछ हम खो चुके हैं, उसे वापिस नहीं लाया जा सकता लेकिन जो कुछ हमारे पास शेष है उसे बचाने के लिये हमारे पास बुद्धिमत्ता और दृढ़ निश्चय होना चाहिये जैसाकि इस पुस्तक में विश्लेषित है। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अभी भी अपने राष्ट्र में परिवर्तन लाकर इसे विश्व के सर्वाधिक समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा कर सकते हैं। आइऐ हम अपने स्वप्न को वास्तविकता में बदलें।

    इस विश्लेषण से हममें वह चिंगारी सुलगनी चाहिये जो वर्षों पहले अपना असर खो चुकी है ताकि हम अपने होने और अपने अस्तित्व का कारण जान सकें। क्या हम अपनी जिन्दगी के हर क्षण के साथ अपने अस्तित्व को पिघलने दें और अपनी आंखों के सामने ही असहाय बनकर देखते रहें या चुनौतियों का सामना करने के लिये उठ खड़े हों और अपने जीवन के इन अत्यंत कष्टकारी दु:खों का नाश करें। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने जो तंत्र अपनी आज़ादी के बाद बनाया वह अदूरदर्शी और दुष्विचारणीय सोच का रहा, जो समय के साथ और भी विनाशकारी प्रमाणित हुआ और जिसने पूरे राष्ट्र को इस अफरा-तफरी और घोर गरीबी की तरफ धकेल दिया है।

    हमारा अतीत तो बीत चुका है लेकिन आइये शपथ लें कि हम अपने वर्तमान को अपने हाथों से नहीं फिसलने देंगे और कम-से-कम अपने कल को बेहतर बनायेंगे। यदि हमारा निश्चय अटल है और हममें सभी बाधाओं को पार करने की इच्छा-शक्ति है तो कुछ भी असंभव नहीं है। नेपोलियन ने कहा था, ‘‘अटल निश्चय के सामने सभी परेशानियां हार मान लेती हैं।’’ यह पुस्तक भविष्य की उड़ान की तरफ एक कदम है। आइये हम सब अपने सपनों को सच करने के लिये समर्पित हों और प्रयत्न करें। हममें अतुलनीय गुप्त बल है। आइये हम अपनी लंबी अनभिज्ञता से जागकर अपने आपको उस गौरवशाली भविष्य की तरफ ले जायें जहां क्षितिज के पार हम सभी के लिये सुखमय जीवन की नई सुबह तथा सभी के लिये आशा व समृद्धि की किरणें दिखाई दे रही हैं। याद रखें, हमारे पास इस पृथ्वी पर सबसे बड़ी जन-शक्ति है और हमें यही बात साबित करनी है, संख्या से नहीं बल्कि उपलब्धियों से। उठो, इस मातृभूमि के प्यारे शेरों, जागो, इस अवसर का लाभ उठाओ और अपने सपनों के भविष्य के निर्माण में लग जाओ। ऐसा मौका शायद फिर कभी न आये।

    इस पुस्तक को अंत तक पढ़ें और निश्चित् रूप से आप भी हमारी तरह इस बात से सहमत हो जायेंगे कि हम यह कर सकते हैं। इससे इस काम के प्रति आपके समर्पण के लिये नया जोश, नई शक्ति एवं ऊर्जा का संचार होगा। यह कार्य एक तरीके का विश्लेषण है जो यह बताता है कि अधिकांश चीजें जर्जर स्थिति में क्यों आ जाती हैं या लड़खड़ाकर ही क्यों चलती हैं। एक बार जब हम कारणों को जान लेंगे तो इसके प्रभावों का समाधान निकालना आसान होगा। हालांकि हमने सभी बातें संक्षेप में कहने की कोशिश की है लेकिन निष्कर्ष इतने साफ और स्पष्ट हैं कि अगली कार्यवाही का निर्णय आसानी से लिया जा सकता है। हमें विश्वास है कि हमारे इस प्रयास से आप अपने देश को और बेहतर ढंग से तथा पहले से काफी अधिक जान पायेंगे।

    ■ इस देश के लोगों ने 350 वर्षों के लम्बे समय तक (ईस्ट इंडिया कम्पनी लगभग 1601 ईस्वी में यहां आई थी) अपनी आज़ादी के लिये संघर्ष किया है। हमने इस संघर्ष में विजय प्राप्त की लेकिन हमारी अज्ञानता और अशिक्षा ने हमें एक कुंए से निकालकर दूसरे कुंए में धकेल दिया है। हम उस समय भी कायर व दु:खी थे और आज भी कायर व दु:खी हैं। जीने की परिस्थितियों के संदर्भ में हमारी अधिकांश जनता के लिये उस समय की गुलामी और आज की स्वतंत्रता के बीच कोई विशेष अंतर नहीं है। इसलिये हमें स्वयं को वर्तमान तंत्र के बंधनों और निष्ठा से आज़ाद कराना चाहिये जो अपने स्वयं के लोगों के पसीने और कष्टों पर फल-फूल रहा है। गरीबी, अशिक्षा, अज्ञानता और पिछड़ेपन से छुटकारा पाने की सच्ची लड़ाई अब शुरु हो जानी चाहिये।

    हममें से अधिकांश अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं और महज जीने के लिये कड़ा परिश्रम करते हैं। हालांकि इस तरह से तो गली का कोई जानवर भी अपना जीवन जी लेता है। आइये हम जानवरों की तरह न रहें। ईश्वर ने हमें इंसान बनाया है, हमें एक इंसान की तरह अपना जीवन जीना चाहिए (असहाय बच्चों व किशोरों को कुत्तों, सुअरों और आवारा पशुओं के साथ कूड़े के ढेरों पर एक साथ खाते हुए देखने के सन्दर्भ में)। उन लोगों के बारे में सोचिये जो गरीबी और अभावों की भयावह मजबूरियों के चलते आत्महत्यायें करने को मजबूर हैं। जिन लोगों ने हमारे गांवों, कस्बों और शहरों के उन हिस्सों को देखा है जहां गरीब लोग रहते हैं और उन 23 प्रतिशत अपंग और 10 प्रतिशत निराश्रितों को वे उनके दु:ख व पीड़ा के बारे में ज्यादा महसूस कर सकते हैं।

    आइये इस बार ऐसे लोगों को जड़ से उखाड़ने के लिये वीरतापूर्वक संघर्ष करें जिन्हें हमारा अपना होना चाहिये था और हमारी उन्नति और खुशहाली का ध्यान रखना चाहिये था लेकिन वे अपने ही लोगों के दुश्मन बन गए हैं और जिन्होंने अपनी ही जनता को उनके दु:खों व अभावों के बीच जीने के लिये बेसहारा छोड़ दिया है। आइये हम अपनी बेशकीमती आज़ादी का सम्मान रखने में सफल हों। प्रिय देशवासियों, हम सब मेहनती और अपने काम के प्रति गंभीर हैं लेकिन अभी तक हम अपने सपनों के देश का निर्माण करने में असफल रहे हैं। अब ऐसा करने का यह एक अच्छा मौका है। आइये इसे अपने हाथों से न जाने दें। स्वयं के लिये जीने में कोई महानता नहीं है। दूसरों के लिये जीने में ही महानता और गौरव है और यही हमारे जीवन का ध्येय होना चाहिए। कल जब लोग इस संघर्ष के लिये हमारे त्याग के बारे में बात करेंगे तो स्वर्ग में बैठकर हमारा सर गर्व से ऊंचा हो जायेगा और हमारा दिल इस सम्मान से गद्गद् हो उठेगा। इसलिये, आइये अपने आपको इस कार्य के लिये तन.मन से समर्पित कर दें। याद रखें, कोई भी व्यक्ति अपनी ज़िंदगी में केवल एक बार ही जीता है। अपने लिये जीने से कहीं अच्छा है कि हम अपने देशवासियों के लिये काम करके जिएं। इसी में जिन्दगी का असली आनंद भी है।

    आइये एक साथ संगठित होकर उठ खड़े हों। आप जल्दी ही हमारी संगठित कोशिशों का परिणाम देखेंगे। हम अपने चेहरों पर वही मुस्कान और खुशी लाने के लिये प्रतिबद्ध हैं जो हमेशा हमसे बचकर भागती रही है। आज हममें से अधिकांश लोग कल की चिंताओं और अनिश्चितताओं के साथ रात को सोने के लिये जाते हैं और जब सुबह उठते हैं तो उनके साथ नये दिन की मुश्किलें होती हैं। यदि ज़िंदगी इन अनिश्चितताओं से ही भरी हुई है तो यह कैसी ज़िंदगी है, जिसमें हमें रुककर देखने तक का समय नहीं है।- (ड्ब्लयू॰एच॰ डेविस)। और इस तरह हम अपनी अमूल्य ज़िंदगियों को मुर्झाते हुए अपनी आंखों के सामने ही असहाय बनकर तिल-तिल मरते हुए और नष्ट होते हुए देखते रह जाते हैं। आइये इन लाचार सी ज़िंदगियों को थोड़ा-सा खुशनुमा बनाने के लिये एक साथ मिलकर काम करें और अपने चारों ओर फैले दु:ख के अन्धेरों में आशा और खुशी की कुछ रोशनी लायें। आइये अपने बुझे हुए आत्मविश्वास और अपनी मुर्झाई भावनाओं में एक नये जीवन का संचार करें और यहां बताए गए निर्धारित लक्ष्यों की तरफ कदम बढ़ायें।

    1.4 कुछ भी असंभव नहीं है

    देखिए! सामने भविष्य का प्रकाश है - लम्बे समय से मृत हमारी आत्माओं का पुनर्जन्म। आनंद व प्रसन्नता से भरा ऐसा सुखमय दिन जो पहले कभी दिखाई नहीं दिया, और नये जोश की शुरुआत से भरा हमारे छितराये हुए सपनों के पुनर्निर्माण का युग। इतिहास को इस बार सुनहरे अक्षरों में पुनर्लिखित किया जायेगा कि इस देश के लोगों ने लम्बे समय से चली आ रही गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन, लाचारी और जीवन की कभी समाप्त न होने वाली समस्याओं के विरुद्ध एक और साहसपूर्ण युद्ध लड़ा और विजयी हुए। यह सोच केवल लिखित सोच नहीं है। मैं यह पुस्तक छात्रों के अध्ययन या परीक्षा की तैयारी के लिये नहीं लिख रहा हूं। इसका उद्देश्य लम्बे समय से चले आ रहे कष्टों, दु:खों और सन्तापों से वास्तव में छुटकारा पाना है।

    कुछ लोगों को यह असंभव, काल्पनिक और हासिल न की जाने वाली बात लग सकती है। शायद आपकी पहली प्रतिक्रिया यही हो कि ऐसा नहीं किया जा सकता! ऐसे सभी विचार जो क्रांतिकारी प्रकृति के होते हैं उनके लिये अमूमन यही प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है। लेकिन जो कुछ भी मैंने कहा है वह तर्कसंगत है और हम एक साथ मिलकर ऐसा कर सकते हैं। आप जब इस पुस्तक को पढ़ेंगे तो आपको भी यह महसूस होने लगेगा। इसलिये इसे अपने सपनों के भारत के निर्माण के लिये लोगों की एक इच्छा मानें। मुझे इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि हम अपनी समस्यायें पूरी तरह सुलझा सकते हैं और विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली और समृद्ध देशों में से एक बन सकते हैं।

    आमीन!

    अध्याय 2

    अपने बारे में


    लखनऊ स्थित बलरामपुर नामक रियासत के कुछ आवासीय मकान मुख्यत: उत्तर प्रदेश सरकार के बाबुओं को किराये पर दिए गये थे। मैं हर सुबह अपने एक कमरे के क्वार्टर के बरामदे में एक छोटी-सी चटाई पर बैठकर अपनी माँ द्वारा दिया गया पढ़ाई-लिखाई का काम करता था और गली से जा रहे स्कूली बच्चों को देखा करता था। हमारे घर के नजदीक ही डी॰ए॰वी॰ कालेज था जिसे हमारे घर के सामने से गुजर रही गली सड़क के दोनों ओर बनी कालोनियों से जोड़ा करती थी। अब तो काफी कुछ बदल गया है। परन्तु कुछ मकान अब भी बचे हैं जो उस वक्त की बरबस याद दिला देते हैं।

    मेरे पिताजी उत्तर प्रदेश सरकार में छोटे से पद पर कार्यरत थे। हमारे एकमात्र कमरे वाले क्वार्टर के पीछे, जिसमें हमारा सात व्यक्तियों का परिवार रहता था, एक बहुत बड़ा खुला हुआ मैदान था जहां हमेशा कूड़े का ढे़र पड़ा रहता था। इस परिसर के आस-पास सफाई कर्मचारियों, रिक्शे वालों, जूते पालिश करने वालों, जमादारों, घरेलू नौकरों, रेहड़ी चलाने वालों और ऐसे ही अन्य कार्य करने वालों के सैकड़ों परिवार रहते थे। मैं उनकी गतिविधियों को बड़े ध्यान से देखा करता था और इन परिवारों के बच्चों के साथ खेला भी करता था। इस तरह मैंने बचपन में ही घोर गरीबी को बड़े ही करीब से महसूस किया है। उस समय भी मेरे दिमाग में एक प्रश्न कौंधा करता था, ‘‘क्या हमारा देश बहुत गरीब नहीं है?’’ उस समय भी मुझे ऐसा लगता था कि कुछ-ना-कुछ गड़बड़ है, जो कुछ भी घट रहा है वह ठीक नहीं है और हम उससे अच्छी स्थिति में हो सकते हैं। आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो अहसास होता है कि यह बात कितनी सच्ची थी।

    मैं उनमें से एक हूं जो अपने बचपन में कभी स्कूल नहीं जा पाये। मेरी स्कूली शिक्षा छठी कक्षा से शुरु हुई। मैं अपनी माँ का आभारी हूं (जिन्होंने स्वयं स्कूल स्तर पर ही पढ़ाई छोड़ दी थी) जिन्होंने मुझे घर पर ही पढ़ाया। मेरी माँ ने न केवल मुझे सभ्य व शिष्ट बनाया, बल्कि हालात को समझने; दूसरों की भावनाओं का आदर करने व दूसरों के प्रति दरियादिल होना भी सिखाया। यह उनके पढ़ाने का ही परिणाम था कि मुझे एक प्राथमिक स्कूल में छठी कक्षा में प्रवेश मिल गया। अपने पूरे स्कूली जीवन में मैं एक साधारण छात्र रहा। लेकिन एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना अभिशाप की जगह वरदान सिद्ध हुई और इस घटना ने मेरा जीवन ही बदल दिया। हुआ यूं कि एक दूसरे छात्र को नकल कराने के आरोप में, जिसे मैंने जांच आयोग के सामने स्वीकार कर लिया था, उत्तर प्रदेश शिक्षा आयोग ने मुझे दो वर्ष के लिए बारहवीं कक्षा की परीक्षा के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। मैं, क्योंकि उम्र में बहुत छोटा था इसलिए कोई नुकसान नहीं हुआ बल्कि बाद में ये दो साल मेरे लिये वरदान साबित हुए। मेरा स्कूल जाना जारी रहा और तीन वर्ष तक लगातार मैं वही विषय पढ़ता रहा। इस वजह से मुझे अपनी किताबें कंठस्थ हो गई। तीन वर्ष बाद मैं अपने विषयों में इतना पारंगत हो गया कि बोर्ड की परीक्षा में मेरा नाम श्रेष्ठता सूची (मैरिट लिस्ट) में था। मैरिट में स्थान होने की वजह से मुझे बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय, वाराणसी स्थित इंजीनियरिंग कालेज में सीधे द्वितीय वर्ष में प्रवेश मिल गया।

    हम किस स्थिति में हैं और ऐसी स्थिति क्यों है? - मेरे बचपन में ही इस विश्लेषण की जड़ें निहित हैं और फिर मुझे सरकारी व अर्द्ध-सरकारी संस्थानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने का व्यक्तिगत अनुभव है। मैंने दूसरों को काम करते हुए देखा है और बाद में 24 वर्षों तक अपने कारखाने चलाये हैं जिसमें 400 से अधिक व्यक्ति काम करते थे। इन सबने मुझे गहरा तजुर्बा और यह विश्लेषण करने की क्षमता दी है कि हमारी सभी समस्याओं का क्या समाधान हो सकता है।

    मैंने अपने कैरियर की शुरुआत उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड (यू॰पी॰एस॰ई॰बी॰) में सहायक इंजीनियर के पद से की और उस पद पर रहते हुए विद्युत क्षेत्र का पतन होते हुए देखा (देखिए खंड 8.6)। आज सरकारी क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले अधिकतर बिजलीघर बीमार हैं; कर्जों के बोझ में डूबे हुए हैं; बेहद न्यूनतम उत्पादन (प्लांट लोड फैक्टर) पर चल रहे हैं और निराशा व पीड़ा की तस्वीर पेश करते हैं। हम गांव-गांव में बिजली पहुंचाना चाहते हैं तथा विशाल औद्योगिक आधार खड़ा करना चाहते हैं जबकि दूसरी तरफ शहरों तक में लोग घरों में यह इन्तजार करते रहते हैं कि कब बिजली आये और थोड़े समय तक बनी रहे।

    मैंने एक वर्ष के अंदर ही बिजली विभाग की नौकरी छोड़ दी और राजकीय पोलिटेक्नीक, लखनऊ (उ॰प्र॰ सरकारी तकनीकी संस्थान) में प्राध्यापक के पद पर कार्य करना शुरु कर दिया जहां पर मुझे शिक्षा-तंत्र में तेजी से होने वाले गम्भीर पतन और अपमान का व्यक्तिगत अनुभव हुआ। यह नौकरी भी मैंने दो वर्ष के अंदर छोड़ दी। जब मैंने पोलिटेक्नीक की नौकरी छोड़ी तो मैं शिक्षा-तंत्र से इतना हताश व निराश था कि मैंने 35 पन्नों का टाईप किया हुआ नोट बनाकर तकनीकी शिक्षा के निदेशक, शिक्षा-मंत्री और मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश सरकार को भेजा। मुझे यह नहीं मालूम कि मेरे नोट का क्या हश्र हुआ क्योंकि एक तो उसी समय मैं लखनऊ छोड़कर दिल्ली आ गया और दूसरे मैंने कभी उस नोट के सम्बन्ध में कोई पत्राचार नहीं किया। यह सन् 1968-69 की बात है। उसके बाद मैंने संयुक्त क्षेत्र में स्थापित एन॰जी॰ई॰एफ॰ नामक कम्पनी में काम किया। जो कि मैसूर सरकार व ए॰ई॰जी॰, पश्चिमी जर्मनी का संयुक्त उपक्रम थी और श्रेष्ठ उत्पाद (मोटर, ट्रांसफॉर्मर, जेनरेटर व स्विचगियर) बनाती थी। मुझे उनके उत्पाद बेचने का अनुभव हमेशा याद रहेगा। उस समय सभी तकनीकी निदेशक और उत्पाद प्रबंधक (प्रोडक्शन मैनेजर्स) जर्मन थे परन्तु हर साल दो साल में कोई नया चेयरमैन आ जाता था जो कि नौकरशाह होता था। आज भी उस समय की भांति हमारी सरकार का इन संस्थानों को इस तरह चलाने का चलन बदस्तूर जारी है। इस तरीके से वे सुनिश्चित करते हैं कि कोई भी नौकरशाह इस तरह के संस्थानों में लाभप्रद ढंग से काम न करके और उनको बरबाद करके भी अपनी जिम्मेदारी से बच जाये। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि वक्त के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकतर उपक्रम धीरे-धीरे बीमार होते गये तथा इनके उत्पाद की कीमतें लगातार बढ़ती गईं, साथ-साथ भ्रष्टाचार, लापरवाही, गैर-जवाबदेही और जड़ता जैसी कई समस्यायें भी बढती गईं। इंजीनियर्स और प्रबंधक भी इसका हिस्सा बन गए और सरकार के काम करने का यह तरीका आम होता चला गया। इस कार्य-शैली ने सारे सरकारी अमले को जकड़ लिया। जिन सरकारी इकाईयों से यह अपेक्षा थी कि वे देश के औद्योगिक और आर्थिक विकास को सम्बल प्रदान करेंगी उन्हें जल्दी ही स्वयं के खर्चों और घाटों को पूरा करने के लिए आर्थिक सहायता की जरुरत पड़ने लगी। अन्य सरकारी इकाईयों की तरह एन॰जी॰ई॰एफ॰ भी आर्थिक घाटे में आ गई और अब बिकने को तैयार है।

    एन॰जी॰ई॰एफ॰ छोड़ने के बाद, मैंने अपना उद्योग स्थापित किया। विपरीत हालातों और अनिश्चितताओं से भरे माहौल में मैंने इसे 24 वर्षों तक चलाया। आज वह सब एक दु:स्वप्न जैसा लगता है। कारखाने को चालू रखने के लिए मुझे घंटों काम करना पड़ता था। आर्थिक साधन कम होने की वजह से मुझे अपने बैंकर्स से जद्दो-ज़हद करनी पड़ती थी और वो मुझे हमेशा ही परेशान करते थे और दु:ख देते थे। हर रोज़ बैंक जाना इस तरह से दिनचर्या का हिस्सा बन गया था मानों मैं पैरोल पर छूटा अपराधी हूं जिसे कि रोज पुलिस थाने में हाज़री लगाने जाना पड़ता है। इसके अलावा मुझे दर्जनों इंस्पेक्टर्स का सामना करना पड़ता था जोकि भूखे भेड़ियों की तरह निरंतर मुझ पर घात लगाये रहते थे, इस सबके साथ लगातार चलती अस्थिरता; श्रमिकों का गुस्सा व गाली-गलौच तथा विपरीत बाजारु परिस्थितियां भी थीं। इतना निराशाजनक माहौल था कि इसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता (अध्याय 10 भी देखें)। इस तरह मैने शिक्षा-तंत्र को बिगड़ते, बिजली-तंत्र को बरबाद होते, सार्वजनिक उपक्रमों का विनाश होते और औद्योगिक क्षेत्र को पूरी तरह नष्ट होते बहुत नज़दीक से देखा है।

    इसलिए मैं सिर्फ एक लेखक ही नहीं बल्कि शासन-तंत्र का शिकार भी हूं जैसे आप बहुत से भी हैं। जो कुछ भी मैंने लिखा है और विश्लेषित किया है वह सिर्फ मेरा ही अनुभव नहीं है बल्कि हममें से अधिकतर ने वर्षों से उस तंत्र के हाथों सहा भी है जो बर्बर, निकम्मा, संवेदनहीन और स्पंदनहीन हो चुका है और जिसने धीरे-धीरे बेइन्तिहा शक्तियां हासिल कर ली हैं। इस तंत्र ने अपने ही देश के नागरिकों को कुछ इस तरह रौंद दिया है जिस तरह हम लोग अपने पैरों तले कीड़ों-मकौड़ों को कुचल देते हैं। हमारे देश व देशवासियों की समस्याओं के इस अध्ययन और शोध ने ही मुझे यह सुझाया है कि हम किस तरह अतीत के इस झंझावात से निकलकर अपने सपनों के राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। अत: कृपया मुझे अपना भरपूर सहयोग दीजिए और आइए एक साथ चलकर एक ऐसे कल का निर्माण करें जिसमें सभी के जीवन में सुख-समृद्धि और खुशियों की महक हो।

    भाग I

    हम क्या हैं?

    अध्याय 3

    हमारी कायरता


    3.1 हमारा इतिहास

    हमारा देश सदा से सोने की चिड़िया के रूप में जाना जाता रहा है। हमारे पास प्रचुर मात्रा में सोना और बेशकीमती पत्थर जैसे हीरे, मोती, रूबी व अन्य जवाहरात थे। लेकिन हमारी आज़ादी के समय तक वे सब लूट* लिये गये। यह सब और हमारी समृद्ध कला व संस्कृति हममें साहस, दृढ़ता और उस योग्यता का संचार कर सकती थी जिससे हम उन्हें हमलावरों और लुटेरों के आक्रमण से बचा सकते थे। लेकिन यह हमारे देश का एक कमजोर व दु:खदायी अतीत रहा है। प्रारंभिक हमलावर (अंग्रेज़ों के अलावा) आये, मार-काट की और एक क्षेत्र-विशेष को लूटकर चले गये। हालांकि उनकी लूटें बहुत बड़ी थीं लेकिन उनके हमले एक क्षेत्र तक सीमित रहे। अंग्रेज़ों ने भी यही किया लेकिन वे देश भर में फैल गये और इसलिये उन्होंने धीरे-धीरे व बार-बार हमें सबसे अधिक लूटा — और लगभग 200 वर्षों तक लूटा। इसलिये उनकी लूट इन सबसे अधिक रही। लेकिन आज भी हमारे देश के पास वह सब कुछ है जिससे हम अपने को फिर से खुशहाल बना सकते हैं। हमारे पास समृद्ध कला व संस्कृति, प्राकृतिक व प्राथमिक संसाधन, अथाह जन-शक्ति और बहुत ही अनुकूल भौगोलिक स्थिति की बेशुमार दौलत मौजूद है जिसके विषय में आगे चर्चा की गई है। किन्तु आज़ादी हासिल करने के बाद की अवधि में देश को हमारे अपने ही संरक्षकों और रखवालों ने बजाय संवारने और खुशहाल बनाने के केवल ठगा और लूटा है। पिछले 56 वर्शों से वह हमें ठगे ही जा रहे हैं।

    यह जांच करना काफी रोचक होगा कि हम केवल अंग्रेज़ों के खिलाफ ही इतने विद्रोही क्यों रहे जो शिक्षित, अधिक संगठित, संसाधनपूर्ण और रचनात्मक थे और उस समय वे विश्व के अधिकांश हिस्सों में शासन कर रहे थे एवं अपनी प्रगतिशील सोच के कारण पिछले शासकों से जिन्होंने हम पर उससे पहले 800 वर्षों तक शासन किया था बेहतर प्रमाणित हुए थे (खंड 8.3 देखें)। क्यों भारतीयों ने अंग्रेज़ों को पसंद नहीं किया और स्वतंत्रता के लिये संघर्ष किया इसका एक मुख्य कारण उनकी चमड़ी और भाषा हो सकती है। तब तक के सभी हमलावर, जिन्होंने हम पर शासन किया वे हमसे मिलती-जुलती चमड़ी और भाषा के कारण हमारे साथ आसानी से घुलमिल गये थे। अफगानिस्तान, मंगोलिया, तुर्की या ईरान से आये लोगों को स्वाभाविक रूप से हमने स्वीकार कर लिया। लेकिन अंग्रेज़ी भाषा समझना लोहे के चने चबाने जैसा था। इसे बोलने का अंदाज़ दूसरे शासकों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी, उर्दू या फ़ारसी से बिल्कुल अलग था। इक्कीसवीं सदी में भी हम भारतीयों के लिये अंग्रेज़ी सीखना आसान नहीं है जबकि वैश्वीकरण (WTO) के कारण इसे सीखना आवश्यक हो गया है। इसके अलावा उनका प्रबल व्यक्तित्व और जीने का रईसी तरीका भारतीयों को बिल्कुल रास नहीं आया होगा जो सीधा-सादा जीवन जीने के आदी थे।

    इसलिये अंग्रेज़ अन्य लोगों से ज्यादा विदेशी दिखते थे। ऐसे शासक जिनका व्यक्तित्व इतना ऊंचा हो कि लोग अपने आपको अत्यधिक तुच्छ अनुभव करने लगें, ऐसी भाषा जो ज्यादा विदेशी हो और ऊपर से रईसी ठाट-बाट वाला जीवन हो तो हमारे लोगों द्वारा इसका प्रतिरोध स्वाभाविक ही था। हमने उनको इसलिये नहीं अपनाया क्योंकि वे हम जैसे नहीं थे। ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध हमारे प्रतिरोध का एक और पहलू यह भी हो सकता है कि वे हम पर राज करने वाले अन्य शासकों की तरह यहां कभी नहीं बसे और केवल अपने सुदूर देश से ही शासन चलाते रहे। अगर वे भी ईरान, मंगोलिया, तुर्की या अफगानिस्तान से होते या वे भी भारत में बस गये होते तो संभव है कि हमने उन्हें भी स्वीकार कर लिया होता और अब तक हम उनके शासन में जी रहे होते जैसाकि पहले 800 वर्षों में हुआ था।

    3.2 हमारी कायरता

    लम्बे समय से मैं अपनी जनता में गहरी जड़ें जमा चुकी कायरता का कोई ठोस कारण ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं क्योंकि यही वह वजह होगी जिसके कारण वे जीवन के सभी दु:खों व कष्टों को ईश्वर की इच्छा मानकर बड़ी स्वाभाविकता से सहन कर लेते हैं और कभी भी विद्रोह नहीं करते। हमारी जनता, जो अधिकांशत: अशिक्षित और भीरु है, के व्यवहार व मनोवृत्ति से मैंने निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले हैं -

    प्राचीन और मध्यकालीन युग में शासकों के बीच लगातार युद्ध चलते रहे। अपने पड़ोसी राजाओं से बातचीत न होने के कारण एक संदेह का माहौल सा बना रहा। उनके मन में शायद असुरक्षा की भावना हमेशा बनी रही और युद्ध करने की एक मनोवृत्ति सी बन गई। ये आपसी संघर्ष देश के लिये अंतत: अत्यंत घातक सिद्ध हुए और न सिर्फ हम स्वयं भी निर्बल व कमज़ोर होते गये बल्कि बाहरी विश्व के सामने हमारी पोल भी खुली।

    हमें कई शताब्दियों से दबाया जाता रहा है। खासतौर से दसवीं शताब्दी के बाद तो हमारा देश लगातार आक्रमणों, लूट और मारकाट का शिकार होता रहा और हम पर हमलावरों ने

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