Dhhai Centimeter Emotionally
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लोअर मिडिल-क्लास' हमारे समाज की पुरानी व्यवस्था एवं उसके रीति-रिवाज व मर्यादा का निर्वाह करने में हमेशा से सफल रहा है परन्तु अब उसका 'युवा-वर्ग' आज के परिवर्तनों में तेजी से बदलाव की ओर झुका है। इन दिनों 'निजी-संबंधों' को लेकर हमारा 'कानून' भी अपेक्षाकृत काफी उदार हुआ है और ये 'लिबर्टी' युवाओं को परोक्ष-रूप से आकर्षित तो करती ही है। युवा अब हताश है,..क्योंकि करना तो वह भी बहुत कुछ चाहता है लेकिन एक 'लोअर-मेंटालिटी' उसके 'घर की परिस्थिति' व 'संस्कारों' का वास्ता देकर उसको अपने कदम पीछे खींच लेने को बाध्य करती है;.. नतीजा- कुंठा और मानसिक-अशांति! युवाओं की 'इमोशनल-थ्रस्ट' को नकारना घातक है, भावनाएं 'हर्ट' होती हैं तो 'युवा' टूटता है, हादसे होते हैं। यौवन की पहली 'मांग' है- 'इमोशनल-जस्टिस'! जिंदगी की 'इमोशनल-वेव' को 'किलोमीटरों' में नहीं;..उसे तो 'सेंटीमीटर' जैसे छोटे-छोटे 'सेगमेंट' में ही 'एचीव' किया जा सकता है।
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जीवन प्रकाश, जन्म 6 अगस्त 1947, मतलब कि 'ओनली नाइन डेज बिफोर' ! तभी से 'इमोशनली' देश के साथ कंधे से कंधा सटाए भविष्य की ओर एक-एक कदम आगे बढ़ता,आजादी के 76 पार करके अमृत-काल की सुखद अनुभूतियों में भीतर ही भीतर उत्साहित और रोमांचित ! शिक्षा में बी.एससी.,..और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा। लगभग 36 वर्ष तक बिजली व्यवस्था में खपे रहकर अंत में उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन में सहायक अभियंता के पद से सेवानिवृत्ति। लिखने का शौक तो बचपन से ही! पहली कहानी 'निर्भीक' 1972 में दिल्ली प्रेस की पत्रिका 'मुक्ता' से प्रकाशित। फिर आकाशवाणी लखनऊ द्वारा आयोजित 'नाटक एवं लघुकथा लेखन प्रतियोगिता' में भेजी कहानी 1975 में पुरस्कृत,.बाद के दशक में तो आकाशवाणी लखनऊ से ही तमाम विनोद-वार्ताओं व रोचक-हास्य प्रसंगों के प्रसारण का एक सिलसिला-सा,.. सौभाग्यवश! तभी व्यंग्य-विधा में झुकाव बढ़ा तो फिर 'स्वतंत्र भारत' और 'दैनिक जागरण' जैसे तत्कालीन प्रचलित समाचार-पत्रों से शुरुआत कर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में 'हास्य-व्यंग्य' लेखन-प्रकाशन का एक लम्बा दौर चला। नन्हे बच्चों में भी रुचि रही तो बच्चों के लिए भी प्रेरक हास्य कथाएं तमाम बाल पत्र-पत्रिकाओं यथा 'लोटपोट' ,'चंपक' आदि में यदा-कदा प्रकाशित! पहला उपन्यास 'सदर चौखट' हिन्द-युग्म द्वारा प्रकाशित,.. उपन्यास लेखन का यह दूसरा प्रयास ! स्थाई निवास-लखनऊ [उ.प्र.], पत्नी 'मधु 'के निधन के बाद आजकल पुत्र 'विवेक' के पास ही बेंगलुरु [कर्नाटक] में ,.. जहां पुत्रवधू 'अंकिता', पौत्री 'ईशा' व पौत्र 'अश्विन' भी साथ में!
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Dhhai Centimeter Emotionally - Jeewan Prakash
1. अगली-पिछली
अम्मा तो हर वक्त अपने ही ख्यालों में डूबी रहती है। पलक झपकते ही चाय में उबाल आ जाता है। उफान की खलबलाहट में अम्मा धीरे से कहती है- इतने दिनों बाद क्यों आता है रे? मैं तो परेशान हो जाती हूं।
मैं उसकी परेशानी समझता हूं। चाहता तो हूं कि उसकी चिंताओं को अपने कंधे पर उठा लूं, पर अम्मा की चिंताओं की कोई सीमा हो, तब ना! उसको तो बचपन से ही हमेशा परेशान देखता आ रहा हूं, वो तो चिंताओं का ढेर है। दस -ग्यारह का ही था जब बाबूजी चल बसे। अम्मा जब विधवा हो गई तो हर तरह से परेशान हो गई, वो तो गनीमत थी कि सिर छिपाने का इंतजाम बाबूजी अपने जीवनकाल में ही कर गए थे हम दोनों के लिए। इंदिरानगर का यही हमारा छोटा सा घर है जहां हम मां- बेटे तभी से हर तरह के झंझावातों से बचे, दुबके से रहते रहे सहमें-सहमें से! अम्मा को ‘फैमिली-पेंशन’ मिलने लगी, सो दाल-रोटी की दिक्कत कभी नहीं आई, लेकिन जिंदगी की दूसरी तमाम जरूरतो के लिए तो हम बराबर संघर्ष ही करते रहे। बड़ा होने पर इंटर में पढ़ते हुए भी हम ट्यूशन करके अपना थोड़ा-बहुत खर्च निकालते रहे, मगर ‘बी.एस.सी’. करने के बाद आगे कुछ पढ़ने का ना तो सही जुगाड़ लगा और ना ही जूझने की हिम्मत बची। घर के माली हालात भी ठीक नहीं रहे, ग्रेजुएशन के बाद नौकरी के लिए हम इधर-उधर की तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में जी-जान से जूझते रहे और आज भी लगे ही हुए हैं पूरी ताकत से। ताकत और तकदीर दो अलग-अलग चीजें हैं, कामयाबी तो नसीब से ही मिल पाती है। हमें भी नसीब का इंतजार है।
कठिन समय में बाबूजी के पुराने मित्र गुप्ता जी ही सहारा देते हैं। गुप्ता जी लंबे-समय से ‘बरेली’ में ही ठेकेदारी करते रहे हैं, ‘लखनऊ’ आते हैं तो कभी-कभी हमारे घर आकर हमारा हालचाल ले लेते हैं। एक बार उन्होंने हमसे कहा कि उनके ‘स्टोर मुंशी’ के चले जाने से अब इस वक्त उन्हें एक पढ़े-लिखे भरोसेमंद नौजवान की जरूरत है जो उनके स्टोर का मोटा हिसाब-किताब रख सके कि कब, क्या और कितना ‘मेटेरियल’ स्टोर में आया और फिर उनकी किस ‘साइट’ पर कितना कुछ निर्गत हो गया। गुप्ता जी ठहरे बड़े ठेकेदार, वह तो एक साथ कई-कई ‘प्रोजेक्ट’ पर काम चलाएं रहते हैं, ... सरकारी भवनों में विद्युतीकरण के अतिरिक्त प्राइवेट योजनाओं और नई आवासीय सोसाइटीज के लिए बिजली की ‘एल.टी’.लाइनों और ‘स्विचगियर्स’ का काम, सड़क की प्रकाश व्यवस्था, आवासों का ‘इलेक्ट्रिफिकेशन’ और ‘वाटर पंपिंग’ व्यवस्था जैसे तमाम काम। उन्होंने बताया कि इतने बड़े धंधे में तो हर वक्त अपने स्टोर में ‘मेटेरियल’ के लेनदेन और उसकी उपलब्धता का हिसाब ‘चौचक’ रखना होता है, वरना काम ही ना चले। सामान् निकासी के वक्त पैनी-नजर भी रखनी पड़ती है जिसके लिए एक चुस्त-दुरुस्त और विश्वासपात्र ‘मुंशी’ की जरूरत होती है। उन्होंने ही मुझसे कहा कि मैं इस काम के लिए बिल्कुल ‘फिट’ लड़का हूं।
गुप्ता जी की आदत है कि वह कम बोलते हैं लेकिन ‘टु दि पॉइंट’ बोलते हैं। उन्होंने साफ-साफ कहा- ‘तुम चाहो तो इस काम पर लग सकते हो। ज्यादा नहीं, सुबह के चार घंटों का ही विशेष काम रहता है जब हमारे अपने ‘साइट-सुपरवाइजर’ अपनी-अपनी ‘साइट’ के लिए सामान लेने स्टोर में आते हैं। हर रोज सामान की निकासी तो होती भी नहीं, तुम्हारे पास अपने पढ़ने-लिखने के लिए पर्याप्त समय रहेगा। अपने ‘कंपटीशन’ की तैयारी करते रह सकते हो और उसके लिए अपने हिसाब से खुद भी बहुत कुछ ‘मैनेज’ कर सकते हो। स्टोर के साथ ही दो कमरों की मुफ्त आवासीय व्यवस्था भी है तुम्हारे और तुम्हारे ‘हेल्पर्स’ के लिए। एक लेबर तो बराबर तुम्हारे साथ रहेगा ही, - खाना बनाने और ऊपरी कामों के लिए। तुम्हें रहने और खाने-पीने की किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं होनी है। ’
बदहाली के दौर में ऐसी बातें बहुत अच्छी और संतोषजनक लगती हैं। गुप्ता जी भी साफ-साफ कह देते हैं कि - ‘पगार जरूर ज़्यादा नहीं है, पर इस कठिन दौर में तुम्हारे काम चलाने को पर्याप्त है। तुम्हें अपने और अपनी पढ़ाई के लिए घर से कुछ भी लेना नहीं होगा, इतना तो तय है। तुम तो हमारे बेटे जैसे ही हो तो किसी भी’ इमरजेंसी’ या बीमारी-हारी की स्थिति में हम तो हैं ही मदद के लिए तुम्हारे साथ। बात बस इतनी है कि तुम्हें ‘लखनऊ’ के बजाय अब ‘बरेली’ में रहना है, वहीं रहकर अपने ‘कंपटीशन’ की तैयारी करो। यह कोई नौकरी नहीं है, यह तो बस एक जुगाड़ बना है तब तक का, .. जब तक कि तुम कहीं सही नौकरी में नहीं लग जाते।’ हम भी गुप्ता जी के चरण स्पर्श करके तत्काल अपनी स्वीकृति दे देते हैं कि ‘आपकी इतनी कृपा ही बहुत है हमारे लिए’।
आभा तेरी फोटो देखकर कह रही थी कि मुझे तो नितिन बहुत पसंद है।
अम्मा तुरंत अपने मूल-विषय पर आ जाती है और मुझे भी उसी दिशा में कुछ सोचने को बाध्य कर देती है।
मैं अम्मा की गुत्थी में उलझ जाता हूं कि आभा आंटी मुझे पसंद क्यों करती है? मैं धीरे से पूछ ही लेता हूं- ऐसा क्यों कहा उन्होंने?
अम्मा अपने अभ्यस्त हाथों से चाय लौटते, मधुर कल्पनाओं में तैरती डूबती कहती है- निशा के वास्ते कह रही होगी। लड़की की शादी की चिंता किस मां को नहीं होती!
मैं धीरे-धीरे चाय ‘सिप’ करने लगता हूँ । बहुत गर्म है; कभी-कभी चाय की उष्मा जीभ पर इस तरह ‘हावी’ हो जाती है कि उसके असल स्वाद का तो पता ही नहीं चल पाता। पूछ ही लेता हूं- क्या कर रही है निशा आजकल
?
करेगी क्या!
अम्मा बोलती है- " ‘एम्.ए’.तो थी ही संस्कृत में, बाद में ‘बी.एड’.भी कर लिया। अब तो किसी अच्छे बड़े स्कूल में टीचर है। उस बेचारी के ऊपर अभी से घर चलाने की जिम्मेदारी आ गई है, सब ऊपर वाले का विधान है। हमारे घर जैसा ही ‘केस’ है, उसके भी पिता जीवित नहीं है। आभा को जो थोड़ी बहुत ‘फैमिली पेंशन’ मिलती है उसमें दो बेटियों का बोझ उठाना तो वाकई में मुश्किल है, लेकिन उठा लिया निशा ने नौकरी करके। अब तो छोटी बहन को भी ‘बी.एड’. करा रही है ताकि वह भी अपने पैरों पर खड़ी हो सके। ईश्वर ने आभा को दो बेटियां तो दीं लेकिन बेटा एक भी नहीं दिया। निशा तो आभा से कहती है कि ‘मैं ही तुम्हारा बेटा हूं मां । ’
अम्मा तो एक ही सांस में बहुत कुछ बोल जाने की आदी है। बहुत देर तक बताती रहती है कि निशा को क्या कुछ नहीं करना पड़ता; जिस लड़की का बाप- चाचा और भाई-भौजाई कोई नहीं होता, उसके लिए तो जिंदगी में तरह-तरह का संकट होता है। अम्मा ठीक ही कहती है, यह बात तो मैं भी समझता हूं। ‘सेम-केस’ है मेरा भी, ना बाप रहे ना चाचा। भाई-बहन कोई ईश्वर ने दिया ही नहीं। अकेली औलाद हूं, बस एक अम्मा ही है जो अपने इकलौते चिराग को हर अलाय-बलाय से बचा कर रखे हुए है। अभी भी ईश्वर से भरोसा नहीं टूटा है उसका; आस है तो सब कुछ है। वह तो सुंदर भविष्य के मीठे स्वप्न देखती रहती है। देखने- सोचने और उम्मीद लगाए रखने में भला क्या जाता है उसका!
नाक-नक्श कोई खास नहीं है और रंग भी थोड़ा दबा हुआ है
अम्मा चालू रहती है - पहले तो मुझे अच्छी नहीं लगती थी, पर अब देखते देखते अच्छी लगने लगी है। काफी समझदार, जिम्मेदार और सलीकेदार हैं, ऐसी गुणवान आजकल मिलती कहां है!
बोलते बोलते अम्मा अब उबले हुए आलू की खाल छीलने लगती है और मैं उसी में उलझ जाता हूं कि जो कभी अच्छी नहीं लगती थी वह देखते देखते फिर अच्छी क्यों लगने लगती है? ये कैसा नजरिया है बार-बार लगातार देखते रहने का। मैं चाय की आखरी ‘सिप’ के साथ ही पूछ लेता हूं- क्या वह आपसे बराबर मिलती रहती है?
तो अम्मा सपाट सा जवाब दे देती है- हां भई! वो मां-बेटी तो हर दूसरे-चौथे यहां आती ही रहती हैं। अच्छा वो बेचारी और जाएं भी कहां; ..हम दोनों के परिवार भी तो एक से ही हैं, किस्मत के मारे और ईश्वर के सहारे।
अम्मा गूढ़भाव से मुस्कुराती हुई कहती है - अभी परसों ही यहां आई थी। मैं चाय बनाने को उठने लगी तो आभा ने हाथ पकड़कर मुझे बैठा लिया कि आप क्यों जाती हो दीदी। इतनी बड़ी लड़की तो यहां बैठी है, यह बना लाएगी।
अम्मा आनंद-लहरी में तैरती है- अब तो उसे हर चीज का पता ठिकाना मालूम हो चुका है कि कौन सी चीज कहां रखी मिलेगी।
अपने कमरे में आ जाता हूं। यहां का नक्शा कुछ बदला सा लगता है। किताबों की अलमारी जो दरवाजे के पास रहती थी, अब खिड़की की साइड में लगा दी गई है। अलमारी के ऊपर रखा मेरा फोटो-फ्रेम अब सामने की दीवार पर टंगा हुआ है। अलमारी में सामने ही एक छोटा सा ड्राइंग-पेपर मिलता है जिस पर चटखीले रंगों की आड़ी तिरछी सी रेखाएं खिचीं देखता हूं, विभिन्न रंगों में एक दूसरे पर चढ़ी-लिपटी सी। मैं ऊंचे स्वर में पूछता हूं- अम्मा यहां कौन आया था? यह मॉडर्न ड्राइंग किसकी है?
अम्मा के मस्तिष्क में लकीरे कौंध जाती हैं। वह रसोई में बैठी बैठी जवाब देती है- निशा आई थी। उसी की होगी, शायद ले जाना भूल गई है।
मैं ड्राइंग को यथास्थान रख देता हूं। अंतरतम में एक बबूला सा उठने लगता है- निरा भावात्मक। लोग कैसी-कैसी फालतू की कल्पनाएं कर लेते हैं। यूं ही कुछ सोचते-विचारते मैं रसोई की ओर चल देता हूं। अम्मा शायद जानती है कि मैं अब पुनः रसोई में आने वाला हूं, तभी तो सिर झुकाए बोलती जाती है- निशा भी तेरे बारे में पूछा करती है। कहती है ‘उन्हें’ तो यहीं सर्विस करनी चाहिए, साथ रहने की बात ही और है, एक बेफिक्री तो रहे दिमाग में।
ठिठक पड़ता हूं। बबूला धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा है- मुस्कुराती है तो बहुत अच्छी लगती है, अजीब सा भोलापन है उसके चेहरे पर।
कमाल है, अम्मा अभी तक अपने मकड़जाल में उलझी पड़ी है। मैं फिर से कमरे की तरफ चल देता हूं, जब तक अम्मा के सामने रहूंगा तब तक उसके संस्मरण एक-एक करके सुनने ही होंगे। वह तो यह भी नहीं जानती है कि पतली सी झिल्ली का बबूला अगर यूं ही बढ़ता गया तो कभी भी फूट सकता है। इसमें अम्मा की भी क्या गलती; बबूले तो बनते और फूटते ही रहते हैं, कहीं पर चिपक कर तो ठहर नहीं जाते!
लेट जाता हूं पर नींद नहीं आती। मन के किसी कोने में हल्की सी चिपचिपाहट का अनुभव करता हूं, कुछ फूटे हुए बबूलों की भाप अभी भी मनपटल को पसीजे हुए है। सीलन और पसीजन के साथ ही बीते दौर के तमाम संस्मरण सामने आ जाते हैं। तब ना तो आभा आंटी यहां रहा करती थीं, और ना ही हम उन्हें जानते थे। बात तो उससे भी पहले की है।
सातवीं कक्षा से बारहवीं तक के वो छः साल इस समय भी मेरे जेहन में चिपके हुए हैं, जब हमारे सामनेवाली लाइन में रहा करते थे निहाल अंकल;..जिनके साथ थीं सुमनआंटी और उनकी एकमात्र बेटी ‘कंची’ [कंचन]। बचपन का वह दौर भी बहुत निराला था। ऊंची- ऊंची सी कमीज नेकर पहनकर दिनभर इधर-उधर घूमना-भागना। ना तो समय की चिंता, ना किसी लज्जा का आभास। कंची भी ऊंची-सी स्कर्ट पहने साथ में फुदकती रहती थी, दिन भर उछल-कूद और धमाचौकड़ी। याद है वह शाम का समय और हल्की सी बूंदाबांदी, .. बौछार तेज हुई तो हम दोनों सिर छुपाने को ऊपर की ‘ममटी’ में। भीगे मौसम की वह बचकाना बातें- ‘तुम्हें पता नितिन!.. हम सब मनु जी की ही संताने हैं, हम सबको उन्होंने ही पैदा किया है। ’ और फिर मेरा वह सहज प्रश्न- ‘चल हट! इतनी बड़ी दुनिया को कोई एक आदमी भला कैसे पैदा कर सकता है?’ बालपन का तर्क भी अजीब ही होता है, उसने कहा था- ‘क्यों नहीं कर सकता! उन्होंने दस-पंद्रह किए होंगे, फिर उन सब ने भी दस-पंद्रह, फिर उन्होंने भी..’ और तभी मैंने बीच में ही बात काट दी थी कि ‘हां-हां समझ गए! अपने आप को बहुत तेज समझती है पागल। हर कोई दस -पंद्रह करता तब भी इतनी बड़ी दुनिया न बन पाती, एक-एक ने कम से कम पचास-साठ तो पैदा किए ही होंगे। ’ वह मेरे तर्क से बिदक गई, -’पागल तो तुम हो, कहीं एक औरत पचास साठ पैदा कर सकती है भला ?’ फिर हम भी ‘कन्फुजिया’ गए - ‘तो फिर कितने कर सकती है बताओ?’ इतना पूछते ही उसने ‘सरेंडर’ कर दिया था- ‘धत, मैं क्या जानू!’ बारह साल के चेहरे पर कभी को लाज आ जाए तो देखने में कुछ अच्छा और नया लगता है, जिसे भुला पाना संभव ही नहीं है।
फूटे हुए बबूलों की हल्की गुनगुनी भाप जैसे मेरी पेशानी पर चिपक जाती है। अगले पांच साल बीतते-बीतते तो कंची सियानी हो चुकी थी, - बात की गहराई में घुसकर मर्म तलाशने वाली गोताखोर लड़की। कंचन जैसी चमक- दमक और गोरा भरा-पूरा जिस्म। नाक-नक्श तो खैर आम लड़कियों के से, .. लेकिन मेरे दिल को तो बेहद खास से। कहने को इतनी बड़ी जिंदगी में बचपन के पांच -छः साल भला क्या मायने रखते हैं, लेकिन नहीं ‘सर’! वो तो बहुत मायने रखते हैं जिंदगी में। बचपन की बुनियाद पर ही तो यौवन की इमारत टिकती है। हमारी तो बुनियाद में ही कंची का ‘क्रश’ था; .. सीमेंट में महीन मौरंग की तरह।
कंची के पिता यानी कि ‘निहाल’ अंकल तब सचिवालय में एक छोटे से अफसर हुआ करते थे। रह तो रहे थे यहीं इंदिरानगर में किराए के मकान में, लेकिन उन्होंने ‘लोन’ लेकर एक खासा बड़ा ‘प्लॉट’ खरीद रखा था निरालानगर जैसी पॉश-कॉलोनी में, एकदम मेनरोड पर ही। कहते थे कि कुछ पैसा हाथ में आ जाएगा तब अपने आधे-प्लॉट पर अच्छा सा घर बनाऊंगा और आधा- प्लॉट खाली छोड़ दूंगा सुखद भविष्य की योजनाओं के लिए। रिटायर होने से पहले अगर कोई बिजनेस ‘सेटिल’ करी तो तब इस आधे -प्लॉट का सदुपयोग होगा। अरे कुछ ना करूं तो भी तब तक इस आधे- प्लॉट की कीमत इतनी बढ़ चुकी होगी कि तब इस आधे को ही बेच लेने पर समूचे-प्लॉट की कीमत निकल आएगी; और ‘लोन’ उतार देने के बाद तो यह समझो कि जो घर बनवा लिया वह भी ‘फ्री’ का पड़ा। क्या आईडिया था, सूखी वर्तमान नौकरी में रहते हुए वह सुखद भविष्य का प्लान बनाए हुए थे ताकि ईश्वर ने जो एक बेटी उनकी झोली में डाल दी है उसका ‘फ्यूचर’ भी ‘चौचक’ रहे। कंची तो शुरू से ही पढ़ाई में बहुत तेज थी और अपने उज्जवल भविष्य के लिए बेहद सजग और जुझारू थी। अंकल भी अपनी भावी योजनाओं के लिए सतर्कता पूर्वक सही समय पर सही कदम उठाने के लिए कटिबद्ध थे;. नतीजा यह कि हमारे देखते-देखते चार-पांच वर्षों में ही उन्होंने निरालानगर वाले आधे-प्लॉट पर अपना नया घर बना ही लिया, - अच्छा खासा बड़ा और खूबसूरत। हमने और कंची ने इंटर पास कर लिया था। कंची ‘बायो’ से थी, कॉलेज में ‘बीएससी’ पार्ट ‘वन’ में ‘एडमिशन’ लेने के साथ ही उसने इंदिरानगर छोड़ दिया था, वे लोग निरालानगर में अपने खुद के घर में शिफ्ट हो गए थे। उसके बाद से तो अब कोई सात साल का लंबा अरसा बीत चुका, हमारी तो फिर कभी मुलाकात ही नहीं हुई कंची से। यह भी नहीं पता कि वह कहां है और क्या कर रही है।
अपनी कहूं तो ‘बीएससी’ करने के बाद एक-डेढ़ साल तो लखनऊ में रहकर ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता रहा। नौकरी की चाहत में एक दो जगह परीक्षाएं दीं पर नतीजा तो ठन-ठन गोपाल ही रहा। मेरे पास तो कोई और विकल्प भी नहीं, सो बराबर कोशिश ही करता रहा हूं कि कोई मौका मिल जाए। जब बाबूजी के मित्र गुप्ता जी हम पर मेहरबान हुए, मैं उनके साथ जुड़ने के बावजूद अपने भविष्य की राह तलाशता अपनी तैयारी करता रहा। गुप्ता जी के साथ अब तो ‘बरेली’ में भी मुझे कोई दो वर्ष तो बीत ही गए हैं । स्टोर का काम बहुत घटिया है लेकिन वही बात है कि बेरोजगारी में कोई काम बुरा नहीं होता।
मैं लेटे-लेटे करवट बदल लेता हूं। किशोरावस्था की स्मृतियां बहुत सौंधी होती हैं। जिंदगी की अंधी-दौड़ में कंची शुरू से ही मुझसे आगे दौड़ती रही। धनी मां-बाप की इकलौती बेटी दिमागी तौर पर बहुत मजबूत; और फिर उसका रास्ता भी एकदम साफ, चिकना और चमकदार! मेरी उसकी परिस्थितियां तो बिल्कुल ही अलग ठहरीं। मेरी पीठ पर तो सिर्फ मेरी विधवा मां की खुरदरी हथेली रही, जबकि उसकी पीठ पर उसके जुझारू-समर्थ बाप का गुदगुदा हाथ रहा। मैं सब देखता, समझता और जानता रहा कि कच्ची मिट्टी के घरोंदे तो हल्की हवा के झोंके और मामूली बूंदाबांदी में ही ढेर हो जाते हैं। एक पक्का टिकाऊ घर बनाने के लिए तो ना जाने कितना सीमेंट, मौरंग और बालू का जुगाड़ करना पड़ता है जो हम जैसे बिन-बाप वालों के लिए कोई सहज कार्य नहीं।
सच कहें तो इंटर पास करने तक हम काफी समझदार हो चुके थे। कुछ तो सोहबत का भी असर था। कंची तो हमसे कहीं ज्यादा समझदार रही। ‘लाइफ इज नॉट ए जोक’, - कंची ने कहा था- ‘पढ़ाई में अच्छा ‘करियर’, नौकरी में सम्मानजनक ‘पोस्ट’, शानदार ‘सेलरी’, .. उसके बाद शादी में भी अपने स्तर का ‘लाइफ पार्टनर’, .. सभी कुछ जरूरी होता है वरना जिंदगी बोझ बन जाती है। ’
..और ‘व्हाट अबाउट’ मामूली ‘करियर’, छोटी सी काम चलाउ नौकरी, और कोई ऐसा ‘लाइफ-पार्टनर’ जो मन को ‘सो-सो’ लगे ?..पूछने पर जवाब में उसने तुनक कर कहा ऑल फुलिश!
उसने समझाया कि ‘मन’ तो निकम्मा शब्द है। असली शब्द है दिल या ‘हार्ट’ जो कुछ भी नहीं बोलता। वह तो एक ‘पंपिंग स्टेशन’ है ना कि ‘थिंकिंग स्टेशन’! सोचने और फैसला लेने का काम तो दिमाग का है, मन का नहीं!
वैसे तो मैं भी समझता हूं कि जिंदगी कोई मजाक नहीं है, पर यह तो नसीब की ही मार है जो हमारी जिंदगी अनचाही पटरियों पर फिसलती जा रही है। नौकरी तो अभी तक नहीं मिल पाई, शायद इसी वजह से मेरा आत्मविश्वास भी कमजोर होता जा रहा है। कभी कभी निराश हो जाता हूं कि इतनी बड़ी जिंदगी कैसे कट पाएगी भला!
कब तक ऐसे ही पड़ा रहेगा? जा कहीं घूम फिर आ थोड़ी देर!
अम्मा जबरन उठा देती है। जवान लड़का सुस्त सा पड़ा रहे तो हर मां को उलझन होती है। हर मां अपने बच्चे को चुस्त-दुरुस्त देखना चाहती है। मुझे उठते-उठते भी निहाल अंकल का वो ‘डायलॉग’ याद आ जाता है- ‘कंचन ‘लेजी’ नहीं है, बहुत ही ‘स्मार्ट’ और ‘डिसिप्लिन्ड’ है। ‘जीनियस’ भी है और ‘एम्बीशस’ भी! देखना अपनी लाइफ में वह बहुत ऊंचे मकाम तक जाएगी। ‘
मैं उठते ही मुंह पर पानी के छींटे मारता हूं, फिर ऊपर की बालकनी पर ही ‘रेलिंग’ पकड़ कर खड़ा हो जाता हूं। नीचे गली में आने-जाने वालों के चेहरे भी धुंधले-धुंधले से दीख रहे हैं, दिन ढलने के बाद जब अंधेरा फैलता है तो गलियों में कुछ ज्यादा ही पसरता है। अम्मा ने कमरों में लाइट ‘ऑन’ कर दी है। मैं कपड़े बदल लेता हूं, आज तो वास्तव में कुछ देर हो गई है। शाम होते ही तैयार हो जाने की आदत आज तक जिंदा है। बचपन में हम तमाम बच्चे तैयार होकर शाम को तिकोने पार्क में इकट्ठा हो लेते थे, वहीं घूमते, दौड़ते, धूम-धड़ाका करते।