Sahitya Manishiyon ki Adbhut Dastanen (साहित्य मनीषियों की अद्भुत दास्तानें)
By Prakash Manu
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Sahitya Manishiyon ki Adbhut Dastanen (साहित्य मनीषियों की अद्भुत दास्तानें) - Prakash Manu
1
देवेंद्र सत्यार्थी :
एक भव्य लोकयात्री
सत्यार्थी जी पर कुछ लिखने का जतन बहुत दिनों से कर रहा हूँ, पर पता नहीं क्यों, शब्द साथ नहीं देते। बार-बार लगता है कि क्या मैं सचमुच लिख पाऊँगा उस शख्स के बारे में, जो दिल्ली में मुझे किसी फरिश्ते की तरह मिला था। और मेरा सारा जीवन ही बदल गया।
उनसे मिलकर मुझे लगा था, जैसे मेरी आत्मा निर्मल और उजली हो गई है, और काम करने की अनंत राहें मेरे आगे खुल गई हैं। लिखना क्या होता है, यह मैंने पहलेपहल उनके पास बैठकर जाना था।
उन्होंने अपने खास, बहुत खास अंदाज में मुझे बताया कि लिखना केवल लिखना ही नहीं, लिखना अपने आपको माँजना है, जिससे अपने भीतर और बाहर उजाला होता है।
यह एक नई ही सोच, नई दुनिया थी, जिससे मैं अब तक अपरिचित था।
सच कहूँ तो सत्यार्थी जी ने मुझे भीतर से और बाहर से इस कदर बदला था कि सारी दुनिया मेरे लिए नई-नई हो गई। खुद को और चीजों को देखने का सारा नजरिया ही बदल गया। साहित्य और कलाओं की भी एक अलग दृष्टि उनसे मिली, जिससे मेरे भीतर अब तक बने सोच के दायरे छोटे लगने लगे।
लगा, जीवन तो एक महाकाय समंदर है, जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। ऐसे ही साहित्य हो, संगीत या अन्य कलाएँ, सबसे पहले तो ये हृदय की आवाज हैं, फिर कुछ और। अपना हृदय खोलकर हम उनके निकट जाते हैं, तो हमारे भीतर से वेगभरे झरने फूट पड़ते हैं। साहित्य और कला की हर तरह की रूढ़ परिभाषाएँ तब बेमानी हो जाती हैं।
किसी पुराने उस्ताद की तरह सत्यार्थी जी बता रहे होते थे, तो मैं अवाक् सा उन्हें सुनता था।
उन्हें लोकगीतों का दरवेश कहा जाता था, जिसने अपनी पूरी जिंदगी लोकगीतों के संग्रह में लगा दी थी। पूरे देश के गाँव-गाँव, गली-कूचे, खेत और पगडंडियों की न जाने कितनी बार परिक्रमा। लोकगीतों का अनहद नाद उनके भीतर गूँजता था। वही उन्हें यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ ले जाता था। न भाषा इसमें कोई दीवार बनती थी और न प्रांतों की सरहदें। इसलिए कि वह एक ऐसा शख्स था, जो पूरे देश की आत्मा से एकाकार हो चुका था।
इसीलिए लोकगीत भी उसके लिए केवल लोकगीत नहीं, बल्कि धरती की आवाजें थीं, जिनमें जनता के सुख - दुख, अंतर्मन की पीड़ा, आनंद और उल्लास फूट पड़ता था। सत्यार्थी जी लोकगीतों में खेत की फसलों का हुमचता संगीत सुनते थे, और मुक्त हवाओं के साथ खिलखिलाती जिंदगी का सुर-ताल भी।
अकसर उनकी जेब में चार पैसे भी न होते, और वे पूरे भारत की परिक्रमा करने निकल पड़ते। कहाँ जाएँगे, कहाँ नहीं, कुछ तय न था। कहाँ ठहरेंगे, क्या खाएँगे-पिएँगे, किस-किस से मिलेंगे, कुछ पता नहीं। बस, पैर जिधर ले जाएँ, उधर चल पड़ते। हवाओं के वेग की तरह वे भी जैसे बहते चले जाते। भिन्न भाषा, भिन्न संस्कृति, भिन्न लोग।… पर मन में सच्ची लगन थी, इसलिए जहाँ भी सत्यार्थी जी जाते, वहाँ लोग मिल जाते थे। ऐसे भले और सहृदय लोग, जो लोकगीतों का अपना खजाना तो इस फकीर को सौंपते ही, साथ ही उन लीकगीतों के अर्थ और गहनतम आशयों को जानने में भी मदद करते।
इतना ही नहीं सत्यार्थी जी बार-बार लोकगीतों को सुनकर उनकी लय को दिल में बसा लेते। फिर जब वे ‘हंस’, ‘विशाल भारत’, ‘माडर्न रिव्यू’ या ‘प्रीतलड़ी’ सरीखी पत्रिकाओं में उन पर लेख लिखते तो लगता, उनके शब्द - शब्द में सचमुच धरती का संगीत फूट रहा है। यही कारण है कि लोकगीतों पर लिखे गए सत्यार्थी जी के लेखों ने गुरुदेव टैगोर, महामना मालवीय, महात्मा गाँधी, राजगोपालाचार्य, के. एम. मुंशी और डब्ल्यू. जी. आर्चर सरीखे व्यक्तित्वों को भी प्रभावित किया था। और गाँधी जी ने तो सत्यार्थी जी के इस काम को आजादी की लड़ाई का ही एक जरूरी हिस्सा माना था।…
पर इन्हें लिखने वाले देवेंद्र सत्यार्थी तब भी बच्चों जैसे सरल थे, और अंत तक बच्चों जैसे सरल और निश्छल ही रहे।
सत्यार्थी जी मेरे गुरु थे। अपना कथागुरु मैं उन्हें कहता हूँ, पर सच तो यह है कि उन्होंने मुझे सिर से पैर तक समूचा गढ़ा था। मैं आज जो कुछ भी हूँ, उन्हीं के कारण हूँ।
जिन दिनों सत्यार्थी जी से मिलना हुआ, मैं दिल्ली में नया नया ही आया था और कुछ डरा-डरा सा रहता था। दिल्ली मुझे रास नहीं आ रही थी।… मैं सीधा-सादा कसबाई आदमी। चेहरे पर चेहरे चढ़ाने की कला मुझे आती नहीं थी। भीतर कुछ और बाहर कुछ ऐसा न मैं हो सकता था, और न होना ही चाहता था। पर यहाँ आकर शुरू-शुरू में ही जिस तरह के चिकने- चुपड़े और दोरंगी चाल चलने वाले लोग मिले, उन्होंने मुझे लगभग स्तब्ध और भौचक्का सा कर दिया था।
सो दिल्ली मुझे बेगाना सा शहर लगता था। अंदर कोई कहता था, ‘यहाँ से भाग चलो, प्रकाश मनु। यह शहर तुम्हारे लायक नहीं है या शायद तुम ही इसके लायक नहीं हो…!’
मुझे लगता था, भला कोई सीधा-सादा आदमी दिल्ली में कैसे रह सकता है? पर सत्यार्थी जी से मिला तो लगा, ‘अरे, ये तो मुझसे भी सीधे हैं। बिल्कुल बच्चों की तरह।…अगर ये दिल्ली में रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं?’
सच पूछिए तो पहली बार सत्यार्थी जी ने मुझे जीना सिखाया। उन्होंने एक मीठी फटकार लगाते हुए कहा, तुम अपने आनंद में आनंदित क्यों नहीं रहते हो?…खुश रहा करो मनु।…तुमने कोई अपराध थोड़े ही किया है। खुलकर हँसना सीखो, खुलकर जियो।… हमें यह जीवन आनंद से जीने के लिए मिला है। अगर तुम यह सीख लो, तुम्हें कोई मुश्किल नहीं आएगी।
और सचमुच सत्यार्थी जी के नजदीक आते ही, मेरे आगे रास्ते खुलते चले गए थे। मुझे जीने का तरीका आ गया था।
इसी तरह सत्यार्थी जी ने ही पहली बार मुझे साहित्य और कला का गुर बताया था।
एक दफा कहानी की बात चल रही थी, तो उन्होंने मुसकराते हुए कहा, मनु, अगर तुम देखो, तो तुम्हारे चारों ओर कहानियाँ ही कहानियाँ बिखरी हुई हैं। तुम्हारे आसपास की हर चीज, यहाँ तक कि सड़क पर पड़े पत्थर के एक छोटे से अनगढ़ टुकड़े की भी एक कहानी है। तुम उसके नजदीक जाओ तो लगेगा, वह अपनी कहानी सुना रहा है।…तुम्हारे आसपास जितने भी लोग हैं, सबकी कोई न कोई नायाब कहानी है। बस, उन्हें सहानुभूति से देखने, समझने और पहचानने की जरूरत है…!
इसी तरह एक दिन मैं अपनी एक मार्मिक आत्मकथात्मक कहानी ‘यात्रा’ उन्हें सुना रहा था। कहानी सुनकर वे बोले, मनु, तुमने सचमुच अच्छी कहानी लिखी है, जिसमें तुम्हारा दिल बोलता है।…कहानी तो कुछ ऐसी ही चीज है, जो दिल से दिल में उतर जाए।…
फिर कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, याद रखो मनु, जब तुम कोई कहानी लिखते हो तो कहानी भी तुम्हें लिखती है। इसलिए कोई अच्छी कहानी लिखकर तुम वही नहीं रह जाते, जो लिखने से पहले थे। … बल्कि कहानी तुम्हें बदलती भी है। वह तुम्हें भीतर ही भीतर एक अच्छे संवेदनशील आदमी में बदल देती है…!
यह ऐसी बात थी कि मैं देर तक उन्हें देखता रह गया था। आज भी मैं सोचता हूँ तो लगता है, कितनी बड़ी बात उन्होंने कही थी, जिसके पूरे मानी आज खुल रहे हैं।
ऐसे ही एक दिन एक मूर्तिकार की कहानी वे सुना रहे थे। सुनाते-सुनाते एकाएक बोले, देखो मनु, हर पत्थर में मूर्ति तो पहले से ही मौजूद होती है। बस, उसके फालतू हिस्सों को काटने छाँटने और तराशने की जरूरत है…और हर कलाकार यही करता है…!
मुझे लगता है, शायद इससे कोई बड़ी बात मूर्तिकला के लिए कही नहीं जा सकती।
सत्यार्थी जी बातें करते-करते बहुत सहजता और आहिस्ता से ऐसी बहुत बातें कह जाते थे, जिन पर मैं बाद में विचार करता, तो मेरी पहले से बनी-बनाई सोच टूटकर बिखर जाती, और मुझे नए सिरे से चीजों पर सोचना पड़ता।
असल में सत्यार्थी जी सोच की तंगदिली बर्दाश्त नहीं करते थे। उन्हें हर चीज पर खुले और उदार ढंग से सोचना पसंद था, और यही चीज उन्हें एक बड़ा इनसान और बड़ा साहित्यकार बनाती थी।
सत्यार्थी जी को गुजरे कोई बीस बरस हो गए, पर आज भी उनकी यादें पग-पग पर मुझे इस कदर घेर लेती हैं कि वे आज नहीं हैं, यह सोच पाना मेरे लिए कठिन हो जाता है।
उनके खूबसूरत दाढ़ीदार चेहरे पर बिछलती खुली और उन्मुक्त हँसी, उनकी असाधारण किस्सागोई और उस्तादाना बातें याद आती हैं तो लगता है कि ऐसा इनसान तो कभी जा ही नहीं सकता। और उन जैसा प्यार तो शायद कोई और कर ही नहीं सकता। एक बच्चा भी अगर उसके पास पहुँच जाए तो उसके साथ वे घंटों बड़े प्यार से बतिया सकते थे।
यादें…यादें और यादें। बेशुमार यादों का एक काफिला।…और यादों का यह अधीर काफिला उस खानाबदोश की तलाश में है जो कभी था, मगर अब नहीं है।
सत्यार्थी जी आज होते तो गुजरी 28 मई को एक सौ बारह बरस के हो जाते। वे अब नहीं हैं, पर कहाँ नहीं हैं? उनके अजब-गजब किस्से और ठहाके हर रोज सुनाई देते हैं। वे वहाँ-वहाँ हैं, जहाँ जिंदगी और जिंदगी का धड़कता हुआ इतिहास है।
मेरे लिए इस खानाबदोश की कहानी इसलिए हर रोज फिर-फिर शुरू होती है। फिर-फिर नए रूप में शुरू होती है और एक अंतहीन कथा में ढलती जाती है। लगता है, मेरे जिंदा रहते तो शायद यह पूरी होगी नहीं। इसलिए कि इसी कथाघाट पर तो वह कहानियों वाला फरिश्ता रहता था। गजब का किस्सागो। इस कदर कहानियों, कहानियों और कहानियों से पाट दिया था उसने पूरा कथाघाट, कि इस पर फिर किसी और के आने की गुंजाइश ही नहीं बची।
तो चलिए, इस अद्भुत कथाघाट से ही शुरू करें उस दरवेश की कहानी।
असल में हुआ यह कि मैं एक कहानी के सिलसिले में गया था सत्यार्थी जी के पास। ‘नंदन’ के उपहार विशेषांक के लिए एक कहानी सत्यार्थी जी की मिल जाए, तो क्या कहना! तब के नंदन - संपादक जयप्रकाश भारती जी का कहना था। मगर सवाल तो सत्यार्थी जी को पा जाने का था। सत्यार्थी जी कहाँ मिलेंगे?
क्या यह शख्स दिल्ली में ही मिल जाएगा? मैं चकित। आँखों से खदबदाता अविश्वास! पलकें तेजी से झपझपाने लगीं। यह भला कोई ऐसा शख्स है कि चाहने पर मिल जाए और आप चाहें तो उससे बात भी कर लें। नहीं-नहीं, सत्यार्थी तो आधी रात में महकने वाले बेला की तरह किसी लोककथा का कभी पकड़ में न आने वाला अनबूझा नायक है, जिंदगी जिसने लोकगीतों का पीछा करते, भटकते बिता दी।
पाँच लाख लोकगीत…! कल्पना करें तो आँखें फटती हैं। इस अकेले आदमी ने एक साथ कितनी ही जिंदगियाँ जी लीं। कितनी मशहूर, कितनी गुमनाम! देश के हर हिस्से, हर कोने की धूल, पानी और पगडंडियों का स्वाद जिसके पैर, जुबान और आँखें जानती हैं। और मैं, यानी मुझ जैसा मामूली आदमी उनसे बात कर लेगा? कहाँ ढूँढूँ उन्हें? कोई पता - ठिकाना?
भाई, कोई पता - ठिकाना थोड़े ही होता है फकीर का। रमता जोगी है। अभी यहाँ तो अभी वहाँ। चेहरे पर लहलहाता भव्य जंगल।…यानी खूब भरी-पूरी सफेद दाढ़ी। कुछ-कुछ गदराई हुई। पुराने ऋषियों जैसी। पर उसमें से बुजुर्गियत कम, बच्चों का सा भोलापन ही अधिक टपकता है!
उस अलमस्त फकीर का यही परिचय मुझे बताया गया था।
और हाँ, बगल में झोला। झोले में पांडुलिपियाँ, पुस्तकें, पत्रिकाएँ, जमाने भर के मीठे - तीते दुर्लभ अनुभव।
एक से एक होड़ लेतीं कहानियाँ।…
आप पर मेहरबान हो गए तो झट झोले में से निकालकर कहानी पकड़ा देंगे। या फिर कहेंगे, बैठ जाओ यहीं, लो लिखो! और कहानी तैयार!
नंदन-संपादक भारती जी ने बताया तो मेरी आँखें झपक - झपक।
हैं, ऐसा…!
अचरज पर अचरज।
क्या मैं दुनिया के एक अनोखे आदमी से मिलने जा रहा हूँ, जैसा कोई और है नहीं। होता भी नहीं।
मेरा धैर्य अब सभी रस्सियाँ तुड़ाकर भागमभाग पर उतारू था। कलेजा फुदक-फुदक! यों मुझे लगा कि इस व्यक्ति का इससे सही परिचय और हो ही क्या सकता है? लेकिन इस तरह कैसे ढूँढ़ पाऊँगा उसे? दिल्ली के किस-किस गली-कूचे में पीछा करूँ इस खुद्दार कला - पुरुष का? तबीयत करती थी, अभी पा जाऊँ और बातों का पिटारा खोल दूँ।
कितनी ही बातें करनी थीं मुझे, जो कभी किसी से कीं ही नहीं, जिंदगी के बारे में, साहित्य के बारे में, आदमी के बारे में। मेरी तमाम उधेड़-बुन बुरी तरह किसी ‘एक’ की प्रतीक्षा में थी, जो और कुछ भी हो, मगर ‘दुनियादार’ न हो। मगर दिल्ली में मिले थे अभी तक चतुर, सयाने लोग ही। और साहित्य की दुनिया भी कोई अपवाद नहीं थी।
फिर एक और भद्र व्यक्ति ने मदद की। उसने सुझाया, मनु जी, आप कॉफी हाउस क्यों नहीं चले जाते? मेरा मतलब है, मोहनसिंह पैलेस! वहाँ मस्ती से ठहाके लगाता, झकाझक सफेद दाढ़ीदार व्यक्तित्व नजर आए, बगल में कोई बेडौल - सी भारी-भरकम पांडुलिपि दबाए, तो बेखटके उसके पास चले जाइए।…वे यकीनन सत्यार्थी जी ही होंगे।
सच कहूँ, मेरे मन के किसी कोने में जरा-सा हौल भी था। पूछ लिया डरते-डरते, बात तो ठीक से करते हैं न! मेरा मतलब है, कुछ तेज-मगज या बिगड़ैल…?
वह हँसा। खुलकर हँसा। हँसता रहा कुछ देर, फिर कहा, चिंता न करो, स्वागत होगा। वे छोड़ेंगे नहीं आपको।
और फिर हँसी। बड़ी भेद-भरी, रहस्यमय हँसी।
बहरहाल शाम को मेरे पैर मोहनसिंह पैलेस की ओर मुड़ गए। मगर झकाझक सफेद दाढ़ी वाला, ठहाके लगाता वह बूढ़ा कहीं नजर नहीं आया। दो- - एक दिन जाया करने के बाद लगा, नहीं भाई, कुछ गड़बड़ है। अब और यहाँ नहीं, कहीं और ढूँढ़ना होगा।
लेकिन कहाँ?
दिल्ली आए तीन साल हो गए थे। फिर भी मैं दिल्ली से बेगाना था। डरा - डरा सा। मुझे हमेशा यह एक ऐसा शहर लगा, जहाँ माचिस की डिब्बियों पर डिब्बियों की तरह बेढंगी, ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें हैं, दफ्तर, दुकानें, मकान, चमचमाते बोर्ड, खूबसूरत नेमप्लेटें, मगर घर कोई नहीं।
जहाँ चेहरे ही चेहरे हैं, चेहरों का पूरा एक हुजूम। कंकरीटी बीहड़ जंगल और उसमें गूँजता शोर भरा सन्नाटा।…मगर आदमी कोई नहीं, जो आपका पहचाना हुआ है। दुख-सुख में जिसे आप छू सकें। ऐसे में सत्यार्थी से मिलने का सपना या कमसकम उसकी बात ही छिड़ जाना, एक अजीब तरह का सुकून था मेरे लिए।
जिससे भी बात करता, वह कोई न कोई लतीफा या कुछ मजेदार जानकारी और जोड़ देता इस घुमंतू लेखक के बारे में। शुरू-शुरू में अटपटा लगा, मगर फिर मुझे मजा आने लगा। सोचता, कैसा होगा वह व्यक्ति, जो जीते-जी सैकड़ों किंवदंतियों के घेरे में आ गया!
कोई उन्हें महान साहित्यकार टॉलस्टाय सरीखा बताता, कोई टैगोर जैसा।
किसी ने कहा, दिल्ली में कोई फरिश्ता हो, तो सोचो, वह कैसा होगा।…बस, वैसे ही हैं सत्यार्थी जी!
किसी और ने कहा, नहीं, फरिश्ता नहीं, दरवेश। सच्ची - मुच्ची दरवेश!
फिर आखिर पता चला कि यह अनोखा शख्स नई रोहतक रोड पर लिबर्टी के सामने रहता है। मकान नंबर वगैरह तो बताने वाले को भी पता नहीं था।
आप स्वयं मिलने जाएँगे न! वहाँ आसपास पूछ लीजिएगा। बताइएगा, मशहूर साहित्यकार हैं, अकसर दाढ़ी और खूब लंबे, बादामी कोट में नजर आते हैं। कोई भी बता देगा।
कोई भी…?
फिर से आँखें झपक - झपक।
फिर से एक जंतर-मंतर मेरे आगे खुल गया। मैं उसमें प्रवेश के लिए रास्ता टोह रहा था। लेकिन बताने वाला तो बताकर जा चुका था।
और पहली बार में तो नहीं, पर दूसरे चक्कर में सचमुच सत्यार्थी जी मिले। और लगा, कि सच्ची - मुच्ची ये तो टॉलस्टाय जैसे भी हैं, टैगोर जैसे भी।… एक फरिश्ता भी, दरवेश भी।
पहली बार महानगर के कंकरीटी जंगल के बीच निश्छलता से ठहाके लगाता एक अलमस्त आदमी मिला। एक घर जैसा घर, और एक ऐसा साहित्यकार, जो अपने कृतित्व से भी चार अंगुल ऊँचा था। और इतना निरभिमानी, कि आप यकीन नहीं कर पाते, जो आप देख रहे हैं, वह सच ही है!
बातें, कितनी ही बातें मैं करना चाहता था। और सत्यार्थी जी को बातों की रो में बहते जिन्होंने देखा है, वही जान सकते हैं कि यह शख्स कैसे एक जादू-सा जगा देता है दिल में। सचमुच, एक आवाज की - सी आवाज है उसकी!
मिलते ही पहली बात जो मुझे लगी, वह यह कि इस आदमी की दाढ़ी में जादू है या फिर इसकी बातों में। बाद में मशहूर अभिनेता बलराज साहनी को पढ़ रहा था, तो मेरी बात पर खुद-ब-खुद ठप्पा लग गया। अपनी नवोढ़ा पत्नी दमयंती का सत्यार्थी जी से परिचय कराते हुए उन्होंने कहा था, दम्मो, इस आदमी की दाढ़ी में जादू है!
बातों के बीच सामने की पूरी दीवार में बनी अलमारी पर ध्यान गया। उस विशाल अलमारी में किताबें ही किताबें। बेतरतीब ढंग से रखी बेहिसाब किताबें। सत्यार्थी जी ने खुद कहीं इनकी तुलना नन्हीं-नन्हीं चिड़ियों की चहचहाहट से की है, जो रोज सुबह - सुबह जगा देती हैं, ‘जागो मोहन प्यारे!’
कमरे में सत्यार्थी जी के कितने ही भव्य चित्र हैं। एक चित्र में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ बैठे हैं। गुरुदेव सफेद दाढ़ी में, कृशकाय। सत्यार्थी जी की दाढ़ी तब खूब काली काली चमकदार रही होगी। मगर व्यक्तित्व वैसा ही घना - घना। जरा विनय से गुरुदेव के आगे झुका माथा।…
चित्र में भी गुरुदेव की आँखों से छलकता स्नेह और दूर से ही छू लेने वाली आत्मीयता छिपती नहीं।
कमरे में सत्यार्थी जी के कुछ नए-पुराने चित्र और पोर्ट्रेट भी हैं।… पता नहीं, किन-किन कलाकारों ने सत्यार्थी जी के ये खूबसूरत पोर्ट्रेट बनाए, कि लगता है, कमरे में एक नहीं, कितने ही सत्यार्थी उपस्थित हैं। और हर चित्र, हर पोर्ट्रेट की एक अलग कहानी।
यों सत्यार्थी जी की उम्र के हर मोड़ पर कितनी ही ठिठकी, ठहरी हुई कहानियाँ हैं, बाहर आने को बेचैन। और हर बात के पीछे किस्सा। किस्से में कोई असाधारण घटना, कोई छिपा हुआ गहरा संदर्भ। ‘लाहौर के दिनों की बात है…,’ या ‘जब मैं पेशावर गया…,’ ‘अमृतसर में एक व्यक्ति मिला…,’ ‘अजीब इत्तिफाक है…,’ जैसा कोई भी वाक्य या वाक्यांश धीरे से सत्यार्थी जी के होंठों पर आएगा, और उसके पीछे-पीछे एक पूरी घटना बाहर आने के लिए जोर मार रही होगी।
लगता है, एक पूरा का पूरा ‘महाकाव्य’ जिया है इस आदमी ने। देश के हर क्षेत्र के जाने-माने स्वनामधन्य लोग इसके प्रमुख पात्र हैं, इतिहास इसका कथानक है और पृष्ठ- पृष्ठ में जीवन की आवेगपूर्ण घटनाएँ और उथल-पुथल समाई है। बेछोर, विस्तृत कैनवास पर जहाँ-तहाँ बिखरे छोटे, मामूली पात्रों की भी कम अहमियत नहीं। कभी-कभी उनकी चमक बड़े-बड़े नामी-गिरामी साहित्यकारों और राजनेताओं को भी पीछे छोड़ देती है।
यों यह बात भी कोई कम काबिलेगौर नहीं कि पिछली अर्धशताब्दी का शायद ही कोई बड़ा साहित्यकार, कलाकार, समाजसेवी या राजनेता हो, जिसका सत्यार्थी जी से आमना-सामना न हुआ हो और छूटते ही सत्यार्थी जी जिसके बारे में कुछ किस्से, कुछ घटनाएँ बयान करने की हालत में न हों।
सत्यार्थी जी ने जमाने को देखा है और घुसकर देखा है, इसका सबूत यह कि उनके पास लिखी, अनलिखी, अधलिखी बेशुमार कहानियाँ हैं। नहीं, शायद मैंने गलत कहा। उनके आरपार बेशुमार कहानियाँ बनी हुई हैं और वे खुद इन कहानियों का हिस्सा बन गए हैं। उनकी हर यात्रा कहानी से कहानी तक की यात्रा होती है और शायद इससे भी बड़ा सच है कि वे कहानियों में ही साँस लेते हैं। कहानियों में कहानियाँ इस कदर गुत्थमगुत्था कि कब एक कहानी खत्म हुई और दूसरी शुरू हो गई, कुछ पता ही नहीं चलता।
तो इस तरह सत्यार्थी जी की बातें थीं और बातों में साहित्य, कला, लोकयान। घुमक्कड़ी के किस्से, गाँधी, गुरुदेव, लाहौर का सफरनामा और…और मैं!
सत्यार्थी जी ने बातों-बातों में जब मुझे काफी ऊँचा उछाल दिया और वहाँ मुझे कोई झटका - सा लगा, तो अचानक दफ्तर याद आ गया।
आखिर मैं सत्यार्थी जी से कहानी लेने आया था। जल्दी से ‘विषय’ पर लौट हुए मैंने अपनी समस्या बताई, बच्चों के लिए सीधी-सादी भाषा में लिखी हुई कहानी हमें चाहिए, जैसे दादी-नानी की कहानियाँ हुआ करती थीं। हमारी पत्रिका उसी परंपरा को अब भी जीवित रखे हुए है। हाँ, रूप बदल गया है, सुनाने के बजाय छपी हुई कहानी…!
आप बेफिक्र रहिए। रचना भी आखिर रोटी सेंकने की तरह है न! रोटी न ज्यादा सिंकी होनी चाहिए, न कम सिंकी। यानी न एक आँच कम, एक आँच ज्यादा। वैसे ही रचना भी पकती है। आपके लिए कोई अच्छी-सी कहानी ढूँढूँगा, और सही आँच, न कम, न ज्यादा!
चश्मे के पीछे आँखों में चमकती हँसी। मुझे लगा, एक हलका - सा व्यंग्य भी है कि कल का छोकरा मुझे बताने चला है, कहानी कैसे लिखी जाती है!
एक बात यह भी समझ में आई कि साहित्य और कला की बड़ी से बड़ी बातों को कोई चाहे तो कितनी मामूली भाषा में कह सकता है, ‘रचना भी आखिर रोटी सेंकने की तरह है न!…यानी न एक आँच कम, न एक आँच ज्यादा…!’ पर उसके लिए आपके पास एक उस्ताद की सी आँख होनी चाहिए।
सत्यार्थी जी के पास वह आँख थी। इसीलिए बड़ी से बड़ी बातों को खेल-खेल में कह देना उन्हें आता था।
मैं उठने को हुआ। तभी उन्होंने एक भारी-भरकम पांडुलिपि मेरी ओर बढ़ा दी, आप जब इतनी दूर से आए हैं, तो जरा इसे पढ़ते जाइए। नजर का धागा पिरो दीजिए!
अब ठीक-ठीक तो नहीं कह सकता कि वह कौन - सी कहानी थी। पर इतना याद है कि वह कहानी से काफी हटकर एक कहानी थी, जिसमें गुलहिमा थी और मिस फोकलोर, मोहनजोदड़ो की खुदाई से निकली नर्तकी, फादर टाइम, महाश्वेतम् और न जाने क्या- क्या! अनुभवों का पूरा पिटारा। मिथकीय रहस्यों का कुहर - जाल और जीवन की कटु, बेहद कटु और त्रासदायक सच्चाइयाँ!…
साहित्य और कला की सोच का जो एक आड़ा - तिरछा फ्रेम मेरे मन में था, उसकी धज्जियाँ उड़ने की नौबत आ गई। मैं जैसे मन ही मन बुदबुदाया, ‘उफ, कितना सरल लगता है यह आदमी, मगर बीहड़ जंगल है, जंगल! बड़ा मुश्किल है इस आदमी की थाह पाना।…लेकिन आप चाहें तो भी छोड़ नहीं सकते। यह आपके बस की बात नहीं।
बस, यही सत्यार्थी जी से मेरी पहली मुलाकात थी।
लौटते समय मुझे उनका रेखाचित्र ‘चंबा उदास है’ याद आ रहा था, जिसकी संवेदना, जबरदस्त ‘पैशन’ आप पर छा जाता है। साथ बहा ले जाता है और आप देर तक उस प्रभाव से उबर नहीं पाते। या फिर ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के ताजा अंक में छपा लेख ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ जिसमें ढोल और संगीत के जरिए भारत के ग्राम्य जीवन की मस्ती का खूब लचकता चित्र उकेरा गया था। यह लेख भी उनकी किसी पुरानी पुस्तक से लिया गया था।
रह-रहकर एक ही सवाल तंग कर रहा था, सत्यार्थी जी अब वैसा क्यों नहीं लिखते? क्यों छोड़ दिया उन्होंने वह रास्ता? अब की उनकी रचनाएँ चमत्कृत करती हैं, टुकड़ों-टुकड़ों में अच्छी लगती हैं, मगर वैसा समग्र प्रभाव कहाँ है उनमें, जो शुरू की सीधी-सादी रचनाओं में है, जिनमें जीवन का रस है, ओज और मस्ती है तो जीवन की गुत्थियाँ और अंतर्विरोध भी। शोषण और गरीबी के खिलाफ बंद मुट्ठी की तरह तना हुआ गुस्सा और आक्रोश! जीवन वहाँ अपने सहज ओज के साथ बहा आता है। सत्यार्थी जी कहाँ बिचल गए? क्यों?
दौड़कर बस पकड़ी। बस में हलकी गुलाबी साड़ी पहने, कटे हुए बालों वाली एक फैशनेबल युवती की गोद में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ का बीच वाला पेज खुला पड़ा है। उसमें छपा लेख, ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’। ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के स्वाधीनता विशेषांक की कवर स्टोरी। नीचे लेखक का नाम छपा है- देवेंद्र सत्यार्थी।
युवती की आँखें उस लेख पर टँकी हैं और मैं सोच रहा हूँ, कितना फर्क है रंगीन पेजों पर छपे, इस सजे-धजे लेख और इसके सादा, मटमैली जिंदगी जीते लेखक में। यह युवती इस बात को नहीं जानती। कभी जान भी नहीं पाएगी। ठीक वैसे ही जैसे हिंदी साहित्य में ऊँचे आसनों पर विराजमान कुछ महाप्रभुओं की प्रभुता से दूर, अपनी लीक पर अकेला चलने वला धुनी साहित्यकार कब, कैसे हाशिए पर फेंक दिया जाता है, इसे न कोई आलोचक या इतिहास-लेखक जान पाएगा और न उसमें यह देख पाने की आब ही बची है।
फिर दूसरी-तीसरी, चौथी बार गया मैं सत्यार्थी जी के यहाँ, और हर दफा हुआ यह कि कहानी तो पीछे रह जाती और खुल पड़ता सत्यार्थी जी के जीवन - महाकाव्य का कोई नया, अनजाना अध्याय। पर उसमें कशिश ऐसी थी कि मैं बहता चला जाता।
मुझे विवेकानंद की याद आती। एकदम बच्चों जैसे सीधे - सरल रामकृष्ण परमहंस के समीप आकर उन्हें भी शायद कुछ ऐसी ही अनुभूति होती होगी। रामकृष्ण परमहंस ने एक दिन बातों-बातों में अँगूठे से उनके माथे को छू दिया, तो उन्हें पूरी दुनिया घूमती हुई नजर आई। जैसे देह में रहते भी वे विदेह हो गए हों, और एकाएक ध्यान के उच्च शिखरों पर पहुँच गए हों।
सत्यार्थी जी ने तो मुझे इस तरह छुआ न था। पर उनकी बातें, उनकी निश्छल हँसी, और किस्सों में से निकल - निकलकर आते किस्से मुझे इस कदर साथ बहा ले जाते कि मैं भूल ही जाता था कि मैं उनके पास आया किसलिए हूँ।
एक दिन मैंने जिद की, देखिए, इस सप्ताह कहानी मुझे चाहिए। आपकी वजह से फॉर्म रुका पड़ा है। पत्रिका लेट हो रही है।…बताइए, कब देंगे कहानी?
सुनते ही सत्यार्थी जी की माथे की रेखाएँ एक-दूसरे से उलझ गईं। फिर उनमें एक बेमालूम-सा संगीत बज उठा, भई मनु, एक वक्त में मैं एक ही बला झेल पाता हूँ। दो-दो बलाएँ होंगी तो जाने क्या हालत हो, तुम खुद ही सोचकर देखो!
फिर पांडुलिपि मेरे पास सरका दी, मैं इसे निबटाकर फौरन शुरू कर डालता हूँ। आप जरा इस पर एक नजर डालिए।
देखा, बात पहले से कुछ साफ थी, मगर कुछ उलझी - उलझी। रचना ज्यादा सँवारने के चक्कर में कहीं कुछ बिगड़ी थी। लेकिन पहले वाला रूप खोज पाना अब असंभव था। वह चेपियों के नीचे दफन हो चुका था।
यहाँ यह बताना बहुत जरूरी है कि सत्यार्थी जी लिखते थे तो पास में हर वक्त लेई जरूर रहती थी। उनके यहाँ कागज और किताबों पर ही नहीं, फर्निचर पर भी लेई की मोटी मोटी परतें जमी नजर आ सकती थीं!
मैंने अपनी प्रतिक्रिया बता दी। चेपियों से होने वाले नुकसान से भी आगाह किया। लगे हाथ सुझाव भी दे दिया, देखिए सत्यार्थी जी, चेपियों के चक्कर में इस उम्र में भी कितनी मेहनत करनी पड़ती है आपको। तो आप ऐसा क्यों नहीं करते कि सभी पेज अलग-अलग रखिए। जिस पेज पर ज्यादा काट-छाँट हो, वह पेज बदल दीजिए। पूरी पांडुलिपि नहीं बिगड़ेगी। यह आसान पड़ेगा…मैं खुद इसी तरह लिखता हूँ!
सत्यार्थी जी एक क्षण चुप। फिर मुसकराए, यह तो ऐसे ही है मनु, जैसे एक प्रेमिका दूसरी से कहे कि बहना, प्रेम ऐसे नहीं, ऐसे किया जाता है। भई, हर किसी का प्रेम करने का ढंग अलग होता है!
और फिर हँसे। हँसते हैं तो हँसते ही चले जाते हैं।
हँसी मेरी भी छूटती है, मगर कुछ इस कदर शर्मिंदा हुआ मैं, जैसा आदमी जिंदगी में कभी-कभार ही होता है।
याद आया, गंगाप्रसाद विमल ने सत्यार्थी जी को ‘दाढ़ीवाला शिशु’ कहा था। मगर यह दाढ़ीवाला शिशु जब अपनी पर आता है तो इस कदर चंचल और शैतान हो जाता है कि बड़े-बड़े महारथियों के पसीने छूट जाएँ!
इसके बाद भी कई और चक्कर लगे। … और फिर एक दिन उन्होंने सच ही ‘नंदन’ के लिए लिखना शुरू किया। पूरा एक इतवार मैं उनके साथ रहा। साथ में मेरी बेटी ऋचा और पत्नी सुनीता भी थी। बेटी को मजेदार खेल पा गया। सत्यार्थी जी के सोफे पर उछल-उछलकर अपना मनोरंजन करने लगी। पत्नी लोकमाता से चर्चा में लीन। और मैं सत्यार्थी जी की सेवा में!
काटते, लिखते, काटते हुए सत्यार्थी जी कहानी के तार जोड़ते गए। कहीं - कुछ तार उलझे, तो मेरी भी राय माँगी गई। फिर मेरे सामने चेपियाँ भी चिपकाईं। यों पहली बार किसी प्रेमिका को सचमुच अपनी आँखों से प्यार करते देखा! उस समय की उनकी मुखाकृति, उस पर बारीक-सी हलचल और खास तरह की भंगिमा अभी तक भुला नहीं पाया हूँ।
आखिर पांडुलिपि मेरे हाथ में आई, तो वह एक दुर्लभ, दर्शनीय वस्तु थी। कहानी वाकई अच्छी बनी थी। किस्सागोई से भरपूर और चरित्र भी ऐसे आँके - बाँके कि जो खाली सत्यार्थी जी की कलम से ही पैदा हो सकते थे। इस अलमस्त कहानी का शीर्षक था, ‘सदारंग - अदारंग’।
कहानी दो संगीतकार भाइयों की थी। इनमें बड़ा भाई सदारंग राजा का चाटुकार, मगर छोटा अदारंग मनमौजी और अक्खड़। इसीलिए एक दिन राजा ने गुस्से में अदारंग को दरबार से निकलवा दिया।… पर फिर अदारंग के लिए राजा की बेचैनी इस कदर बढ़ी कि वह बेहाल … अंत में अदारंग मिला तो, मगर ऐसी जबर्दस्त नाटकीयता के साथ, कि कहानी पढ़ें तो आप वाह-वाह किए बिना न रहेंगे।
सचमुच कोई उस्ताद कहानीकार ही रच सकता था ऐसे पात्र, और ऐसी बँधी हुई कथा कि पढ़ते हुए आप साँस लेना भूल जाएँ।
अगले दिन मैं इस नायाब कृति को दफ्तर लेकर आया। हाथ से लिखकर कहानी प्रेस भेज दी! और वह पांडुलिपि कई दिनों तक सबके आकर्षण का केंद्र बनी रही।
यों कहानी पूरी हो गई…
लेकिन नहीं, कहानी तो अब शुरू हुई थी। हुआ यह कि कहीं भी जा रहा होऊँ, कदम मुड़ जाते सत्यार्थी जी के घर की ओर। सच कहूँ, उनका जादू चल गया था मुझ पर। जब भी अकेला होता, मैं उनके बारे में सोच रहा होता। वे मेरे लिए एक ऐसे ‘महानायक’ थे, जैसा होना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना था। बहुत व्यस्त होता तो भी सप्ताह में एक बार तो पहुँच ही जाता। और जाते ही सत्यार्थी जी की मुक्त हँसी का स्पर्श, आ गए मनु! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। देखना, बात कुछ बनी भी है या…? दरअसल, मैं सोच रहा था, एक ऐसा पात्र पेश करूँ, जो आज के जबरदस्त अंतर्विरोधों का प्रतीक हो। कोशिश तो की है, अब देखो तुम!
एक दिन उन्होंने पांडुलिपि के पहले सफे पर मेरा नाम लिखा। पता पूछकर लिखा और कहा, आऊँगा किसी दिन।
और फिर सचमुच एक दिन आ पहुँचे। जाने कहाँ, कैसे खोजते खोजते। खूब याद है, संकोच और आनंद का मिला-जुला भाव उपजा था उन्हें देखकर। मेरा बहुत छोटा, कोठरीनुमा कमरा उन जैसे लहीम - शहीम भव्य व्यक्तित्व को समेट नहीं पा रहा था। पर सत्यार्थी जी की वही मुक्त हँसी, जैसे कह रही हो, ‘अरे भई, घर तो घर ही होता है। घर छोटा - बड़ा नहीं होता, अपने आप जगह बनाकर बैठ जाएँगे।’
फिर जो बतकही, ठहाके और किस्सेबाजी शुरू हुई, तो वक्त जैसे पंख लगाकर उड़ गया। चाय, चुहल और रचनाओं पर बात करते-करते कब शाम हो गई, पता ही नहीं चला।
और फिर एक ऐसा सिलसिला चल निकला, जिस पर न उनका कोई बस था, न मेरा। आज मिलकर गए हैं और कल या परसों सुबह - सुबह फिर हाजिर। दरवाजे पर ठक-ठक-ठक। मैं अवाक्, सत्यार्थी जी, आप…?
माफ करना भई, तुमसे मिले बगैर रहा ही नहीं गया। एक बेहतरीन आइडिया सूझा है!…
लेखन के प्रति उनकी गजब की दीवानगी मुझे चकित करती। ऐसी दुनिया में, जिसमें छल - छद्म की कुर्सियों पर ऐंठे हुए लोग ही अधिक नजर आते हैं, वहाँ अपनी राह खुद ईजाद करने वाले ऐसे एक निरभिमान साधक का होना खुद में किसी जादू से कम नहीं था।
ऐसे ही एक बार बातों-बातों में सत्यार्थी जी ने बताया कि वे उन्नीस बरस की अवस्था में कॉलेज की पढ़ाई अधबीच छोड़कर घुमक्कड़ी के लिए निकल पड़े थे। उन्होंने अपनी उम्र का एक बड़ा भाग गाँव-गाँव, शहर-शहर भटककर लोकगीत एकत्र करने में लगाया। गाँवों की धूलभरी पगडंडियों पर भटकते हुए, धरती के भीतर से फूटे किस्म-किस्म के रंगों और भाव - भूमियों के लोकगीतों को देखा, महसूस किया और उसके पीछे छिपे दर्द, करुणा, प्रेम और इनसानी जज्बात से भीतर तक भीगे। तभी उन्होंने जाना कि धरती की कोख से जनमी फसलों की तरह ही लोकगीत भी जन्म लेते हैं और उन्हें उनकी जमीन और लोगों के दुख-दर्द और हालात से जोड़कर ही देखा जा सकता है।
मेरे मन में उनकी इस अनोखी लोकयात्रा को जानने की बेहद उत्सुकता थी। रास्ते में उन्हें किस तरह की परेशानियाँ आती थीं? कैसे अनुभव होते थे? मैंने जानना चाहा।
इस पर लोकसाधक सत्यार्थी जी से जो सुनने को मिला, वह मेरे लिए कम अचरज भरा न था। सत्यार्थी जी ने बताया कि पूरे देश के गाँव-गाँव में वे घूमे। यहाँ तक कि बेहद कष्ट उठाकर वे उन सुदूर इलाकों में भी गए, जहाँ जाना बहुत मुश्किल था। उनके पास कोई साधन न था, यहाँ तक कि खाने-पीने और कहीं आने-जाने के लिए पैसे तक नहीं। लेकिन लोकगीतों की खोज की दीवानगी थी, जो उनके पैरों को थमने नहीं देती थी।…जहाँ भी कोई अच्छा लोकगीत सुनने को मिलता, वे बैठकर कॉपी में उसे लिखने लग जाते थे। फिर भाषा की कठिनाई आई, तो पूछ-पूछकर उसका अर्थ भी लिख लेते। कॉपियाँ भरती गईं, पर अच्छे लोकगीतों के संग्रह की उनकी प्यास कम होने के बजाय और बढ़ी।
लोकगीतों के लिए सत्यार्थी जी का अनुराग बेअंत था। वे बताते हैं कि जैसे चारों तरफ बेतरतीब पसरी धरती की पगडंडियों, नदियों, पहाड़ों, झरनों और कंदराओं का कोई अंत नहीं है, ऐसे ही लोकगीत भी अनंत हैं। और उन्हें तलाशने की मेरी चाह भी थमना नहीं जानती थी। इसलिए कोई बीस बरस तक लोकयात्री के रूप में मेरे पैर बिन थके चलते रहे, चलते रहे। कहीं कुछ खाने को मिला तो खा लिया, नहीं तो भूखे ही सो गए। बस तड़प यह थी कि कोई भी अच्छा लोकगीत मिला तो वह कॉपी में दर्ज होने से न रह जाए।…
इस बीच विवाह हुआ, तो पत्नी भी साथ चल पड़ीं। राह में बेटी हुई तो वह भी नन्हीं लोकयात्री बन गई। और असीम लोकयात्राओं की डगर पर इस असीम यात्री के पैर बढ़ते ही गए।
बातें…बातें और बातें! सत्यार्थी जी से उनकी घुमक्कड़ी को लेकर चर्चा हुई, तो बातों का कोई अंत ही नहीं था। यायावर की दीवानावार घुमक्कड़ी की अजीबोगरीब दास्तानें रह-रहकर सामने आ रही थीं। एक से जुड़ी दूसरी घटना, दूसरी से तीसरी। अंतहीन कहानियाँ मिलकर एक घने बियावान जंगल का आभास देने लगतीं।
फिर उस दाढ़ी वाले जंगल की बात चल पड़ी, जो सत्यार्थी जी के चेहरे पर उग आया और उनकी एक अलग पहचान बना। इस जंगल में सत्यार्थी जी की घुमक्कड़ी की न जाने कितनी कहानियाँ छिपी हैं। कुछ के बारे में तो उन्होंने खुद लिखा भी है।
इस बारे में पूछने पर सत्यार्थी जी ने हँसते हुए बताया था, "हाँ, आप ठीक कह रहे हैं! इस जंगल में एक नहीं, कई कहानियाँ हैं, कई किस्से हैं। बस, समझिए कि यह जंगल हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गया और उससे कोई निजात नहीं। मैं मुक्त होना चाहूँ, तो भी नहीं हो सकता। हालाँकि इसका मतलब यह नहीं कि मुझे इस जंगल से प्यार नहीं है। हाँ, तो पहले यह सुन लीजिए कि इस जंगल की जरूरत मुझे क्यों पड़ी? तो इसका कारण यह है कि जब मैं लोकगीत इकट्ठे करने जाता था, तो मेरे सामने कई तरह की मुश्किलें आती थीं। ज्यादातर लोकगीत स्त्रियों को ही याद होते हैं, जैसे पर्वों और विवाह आदि के गीत। सच मानिए, उन्हीं के कारण ये अभी तक जीवित भी रहे। खुद स्त्रियों के जीवन का बहुत-सा दुख-दर्द और दबी हुई इच्छाएँ इनमें समाई हुई हैं। इसीलिए इन लोकगीतों में इतनी मिठास, इतना दर्द है और ये मन पर इतनी गहरी चोट करते हैं!…
खैर, पर लोग यह पसंद नहीं करते थे कि उनकी स्त्री से कोई गैर-आदमी मिले और पूछ-पूछकर लोकगीत लिखता फिरे। तो मैंने साधु-संन्यासी वाला बाना धारण किया। दाढ़ी बढ़ा ली। बहुत समय तक लोग मुझे ब्रह्मचारी ही समझते रहे, जबकि विवाह हो तो चुका था। हाँ, पत्नी शुरू में घर पर ही रहीं, मैं अकेला ही घूमा करता था।
और तो और, शांतिनिकेतन में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी उन्हें इसी रूप में जानते थे और ‘ब्रह्मचारी जी’ कहकर संबोधित करते थे। एक बार जब सत्यार्थी जी ने उन्हें बताया कि वे विवाहित हैं, तो आचार्य द्विवेदी बड़े जोर का ठहाका लगाकर हँसे!
यों इस दाढ़ी को लेकर और भी तमाम किस्से और लतीफे हैं। हाँ, इतना बता देना प्रासंगिक होगा कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सत्यार्थी जी की दाढ़ी की प्रशंसा में बाकायदा संस्कृत में कई श्लोक रचकर उन्हें भेजे। सत्यार्थी जी की पुस्तक ‘बाजत आवे ढोल’ में द्विवेदी का वह पत्र और उनके द्वारा रचे दाढ़ी - वंदना के श्लोक देखने को मिल सकते हैं।
सत्यार्थी जी के इस अंतहीन सफर की तमाम - तमाम कहानियों में एक निजकथा भी है, जो पारिवारिक कथाघाट पर आकर खत्म होती है। इसमें कविता का उल्लेख जरूरी है। सत्यार्थी जी की बेटी कविता सफर में पैदा हुई, फिर वह लोकमाता के साथ-साथ उनकी हमराही हो गई। बाद में एक नन्हीं बेटी को जन्म देकर वह असमय गुजरी। यायावर की जीवन - कथा का एक करुण अध्याय…!
खुद में एक ‘इतिहास’ बन चुकी सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं के साथ कविता की कितनी ही स्मृतियाँ जुड़ी हैं। मैंने इस बारे में जानना चाहा, पर कविता का नाम आते ही सत्यार्थी जी का स्वर कुछ गीला-गीला - सा हो गया। गंभीर होकर बोले, तीनों बेटियों में कविता का ही साहित्य की ओर रुझान सबसे ज्यादा था। गुरुदेव ठाकुर ने उसे आशीर्वाद दिया था। और मुझसे यह कहकर परिहास किया था कि तुम हो कविता के पिता! तुम्हें कविता लिखने की क्या दरकार? जबकि मुझे तो कवि होने का सबूत देने के लिए ही बार - बार कविता लिखनी पड़ती है!
कहते हुए सत्यार्थी जी के चेहरे पर मंद हँसी और करुणा एक साथ नजर आती है।
फिर कई और प्रसंग जुड़ते चले जाते हैं। और सभी में असमय गुजर गई बेटी की अलग-अलग ममतालु छवियाँ। एक से एक प्रीतिकर।
ऐसे ही कविता से जुड़ा सन् 1938 का एक और प्रसंग सत्यार्थी जी ने सुनाया था। बात रायपुर की है। सत्यार्थी जी को पता चला कि गाँधी जी रेलगाड़ी से यात्रा करते हुए रायपुर से होकर गुजरेंगे। सत्यार्थी जी उन दिनों रायपुर में ही ठहरे हुए थे। तो वे कविता और पत्नी को साथ लेकर रायपुर रेलवे स्टेशन पर गए। वहाँ गाँधी जी का स्वागत करने के लिए आए हुए लोगों की बड़ी भारी भीड़ थी। एक कोने में सत्यार्थी जी भी कविता और लोकमाता के साथ खड़े हो गए। छह बरस की नन्ही बेटी कविता के हाथ मैं कुछ फल थे, जो उसने गाँधी जी को देने के लिए पकड़े हुए थे।
जब गाड़ी आकर रुकी, तो लोग दर्शन के लिए भागे। कविता ने भी किसी तरह आगे बढ़कर गाँधी जी को फल भेंट किए। गाँधी जी ने गोदी में लेकर उसे खूब प्यार किया। फिर बोले, देखो, बच्चों की चीज मैं मुफ्त में नहीं लेता।
और उन्होंने दोनों हाथों में जितनी फूल मालाएँ आ सकती थीं, लेकर कविता को भेंट कर दीं।
इस पर नन्हीं कविता के आनंद का ठिकाना नहीं था। वह उन्हें लेकर उछलती फिर रही थी और जो भी फूल माँगता, उसे वह फूल भेंट कर देती। बस, एक फूल बचाकर अपनी किताब में रख लिया। कुछ अरसे बाद लंका - यात्रा के समय भी वही फूल उसकी किताब में था, जिसे वह अड़ोस-पड़ोस वालों को दिखाकर चकित कर देती थी।
इसी तरह सत्यार्थी जी ने एक बार बहुत विस्तार से अपनी लंका - यात्रा के बारे में बताया था। इस यात्रा में उन्हें सिंहली लोकगीतों को नजदीक से सुनने, एकत्र करने के साथ - साथ एकदम भिन्न परिवेश से जुड़े लोगों को जानने का भी अवसर मिला। लोकमाता और कविता के साथ होने से यात्रा का आनंद और बढ़ गया, हालाँकि कुछ आर्थिक मुश्किलें और मुसीबतें भी बढ़ीं।
लंका-यात्रा के यादगार अनुभवों के बारे में पूछने पर सत्यार्थी जी ने बताया, आपको मालूम है कि मैं घुमक्कड़ी करता फिरता था। बहुत दिनों से लंका - यात्रा की इच्छा थी मन में। तब एक दक्षिण भारतीय सज्जन थे। जब उन्हें पता चला कि मैं लंका - यात्रा के लिए इच्छुक हूँ तो उन्होंने कहा कि आपके वहाँ जाने का किराया और रहने का खर्च मेरी ओर से रहेगा। आप चाहे जितने दिन रहना चाहें, रहें।
उन्होंने पेशगी एक तरफ का किराया और रहने-खाने के लिए पैसे सत्यार्थी जी के पास भिजवा दिए और कहा, जब लौटने का मन हो, पत्र लिख दें। पत्र मिलते ही मैं लौटने का किराया भी भिजवा दूँगा।
यों पत्नी और कविता के साथ सत्यार्थी जी सन् 1940 में लंका - यात्रा पर गए थे और जुलाई से दिसंबर तक कोई पाँच महीने वहाँ रहे। कविता तब छोटी ही थी, कोई आठ साल की रही होगी। खुद सत्यार्थी जी तब बत्तीस साल के युवा थे। ‘लंका देश है कोलंबो’ संस्मरण उन्हीं दिनों लिखा गया था।…
सत्यार्थी जी की लंका - यात्रा से जुड़ी कई और भी दिलचस्प यादें हैं। लंका-यात्रा से पहले वे कुछ समय के लिए चेन्नई में रुके थे। उन्हें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की ओर से उसी खास बाँस की कुटिया में ठहराया गया, जिसमें हमेशा गाँधी जी आकर ठहरते थे।
उन्हीं दिनों तमिल के एक पत्र के संपादक उनके पास पाँच हजार रुपए लेकर आए। बोले, आपके लोक साहित्य संबंधी लेख हमारे यहाँ अनूदित होकर तमिल में छपते हैं। यह उसका पारिश्रमिक है।
सत्यार्थी जी ने कहा, मेरी लंका - यात्रा के खर्च का इंतजाम तो हो गया। मैं यह राशि लेकर क्या करूँगा? देना ही तो इसे आप अनुवादक को दे दीजिए। उसके अनुवाद की मैंने खासी प्रशंसा सुनी है।
और वे पाँच हजार रुपए आखिरकार अनुवादक को दिए गए।
यायावर की यायावरी तबीयत और फक्कड़पने का यह प्रसंग सचमुच हैरान कर देने वाला है। और आश्चर्य, ऐसा उन्होंने उस दौर में किया, जब उनके पास सचमुच खाने-पीने के भी पैसे न थे।
ऐसे ही सत्यार्थी जी ने एक दिन महामना मालवीय जी का प्रसंग सुनाया तो मैं अवाक् रह गया।
अपनी इन बीहड़ लोकयात्राओं में ही अचानक सत्यार्थी जी की भेंट महामना मदनमोहन मालवीय जी से हुई थी। इससे पहले मालवीय जी ने उनके लोकगीत-संग्रह के अनोखे काम की खूब मन से प्रशंसा करते हुए पत्र लिखा था। सत्यार्थी जी की पुस्तक ‘नीलयक्षिणी’ में वह एक दस्तावेज के रूप में सुरक्षित है।
सत्यार्थी जी लोकगीत इकट्ठे करने की धुन में देहरादून पहुँचे, तो उन्हें पता चला कि महामना मालवीय भी देहरादून में ही ठहरे हुए हैं। सुनते ही सत्यार्थी जी महामना से मिलने पहुँच गए। महामना मालवीय बहुत प्रेम से उनसे मिले। सत्यार्थी जी के जीवन की एक यादगार घटना थी। इसलिए कि मालवीय जी की करुणा का एक अनूठा रूप उन्होंने देखा।
मालवीय जी सत्यार्थी जी का धूल से सना बाना और धूल धूसरित पैर देखकर बहुत व्यथित थे। लेकिन लोकगीतों की तलाश में दर-दर भटकते सत्यार्थी जी के पास भला ढंग के कपड़े कहाँ से आते? वे न कभी बनियान पहनते थे और न उनके पैरों में कभी मोजे होते थे। उनके कपड़े ही नहीं, पैर भी उनकी धूलभरी यात्राओं की गवाही दे रहे थे। मालवीय जी ने जब उनके पैर देखे तो दुखी होकर बोले, अरे, यह क्या?
फिर बोले, मेरे बेटे के पैर भी ऐसे ही हैं!
इसके बाद उन्होंने जुराबें मँगवाईं और अपने हाथों से उन्हें जुराबें पहनाने लगे। सत्यार्थी जी भौचक! बोले, आप क्या करते हैं! कहाँ आप जैसा महापुरुष और कहाँ मैं! आप अपने हाथ से जुराबें पहना रहे हैं। मैं इस लायक कहाँ हूँ?
तब मालवीय जी ने अपने बेटे से कहा और उसने अपने हाथ से सत्यार्थी जी को जुराबें पहनाई।
तो आप समझ सकते हैं, सचमुच कैसा महामना था वह आदमी। कितना विशाल दिल था उनका…!
सत्यार्थी जी भावाकुल होकर बता रहे थे, उन दिनों फटेहाली में भी इन्हीं चीजों से ताकत मिलती थी। बड़ी से बड़ी मुश्किलें आती थीं राह में, पर लोग भी मिलते थे, जो जान छिड़कते थे। क्या किसी बड़े से आदमी को वह आदर मिल सकता है, जो मुझ जैसे नाचीज को मिला?
कहते हुए सत्यार्थी जी का स्वर भीग सा गया। और मैं एकदम अवाक्। ऐसे कितने स्वर्णिम लम्हे छिपे हैं इस दाढ़ी वाले लोक यायावर की यादों की पिटारी में?
मेरा घर से भागना एक तरह से, स्कूल से भागकर जीवन की पाठशाला में सीधे-सीधे दाखिला लेना था!
एक बार सत्यार्थी जी ने कहा था, पर उनकी बातों का अर्थ अब खुल रहा था।
फिर एक दिन की बात, अपनी लंबी और बीहड़ लोकयात्राओं का जिक्र करते हुए, सत्यार्थी जी बहुत भावुक हो गए। लगा कि उन अनवरत लोकयात्राओं में बीच-बीच में मिलते गए लोगों के चेहरे उनकी स्मृतियों में तैर रहे हैं।
उन्होंने जैसे भावनाओं के आवेग में बहते हुए बताया कि इन यात्राओं में बहुत-से लोग मदद करने वाले मिल जाते और राहें आसान हो जातीं। ये लोग न सिर्फ अपने घर ठहरने और भोजन का प्रबंध करते, बल्कि आगे की यात्रा के लिए रेलगाड़ी का टिकट खरीदकर भी दे देते थे। ऐसे ही सहृदय लोगों के कारण भाषा की समस्या भी आड़े न आती और कोई सुंदर भावों वाला गीत मिलता, तो वे लोगों से पूछ-पूछकर उसका अर्थ लिख लेते। फिर रास्ते में कोई स्कूल या कॉलेज मिलता तो वहाँ जाकर लोकगीतों पर व्याख्यान देते। वहाँ से कुछ आर्थिक सहायता मिलती तो फिर आगे की राह पकड़ लेते।
बातों-बातों में सत्यार्थी जी ने कई दशकों पीछे के इतिहास में पहुँचा दिया था, जब पंजाब का चेहरा आज से बहुत अलग था। तब जीवन में सादगी और भावनात्मक लगाव कहीं गहरा था। रिश्तों और इनसानी जज्बात का मोल लोग समझते थे।
सत्यार्थी जी के साथ बातों की रौ मैं बहते - बहते मैंने पूछा, अच्छा सत्यार्थी जी, इतना तो सर्वविदित है कि बचपन में आपको घुमक्कड़ी का बहुत शौक था और आप पढ़ाई छोड़कर भाग निकले थे। पर एक बात बताएँ! इसके पीछे लोकगीत इकट्ठे करने की धुन थी या कोई और ही चक्कर था? आज सोचें तो क्या लगता है?
सुनकर सत्यार्थी जी एक क्षण के लिए भीतर कहीं खो गए, फिर अचानक किसी झरने का - सा स्वर फूट पड़ा। और उनकी लोकयात्राओं की गंध शब्दों में घुलने लगती है। बोले, "घूमने का शौक तो था ही और इस मामले में राहुल सांकृत्यायन की तरह मेरी गति भी बड़ी रपटीली थी। दूर-दराज के स्थान, नदियाँ, पहाड़, लोग मुझे बुलाते थे।