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राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल
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Ebook925 pages8 hours

राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल

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अखंड भारत के निर्माता, लौहपुरुष, सरदार वल्लभभाई पटेल जी के संपूर्ण जीवन, कृतित्व एवं व्यक्तित्व से प्रमाणिक तथ्यों के साथ सुपरिचित करवाने वाली अद्वितीय रचना।

Languageहिन्दी
Release dateJun 30, 2023
ISBN9789389100914
राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल

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    राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल - Satyendra Patel ‘Prakhar’

    समर्पण

    सरदार पटेल शोध संस्थान-फतेहपुर की प्रेरणा से रचित यह पुस्तक रचना अखण्ड भारत के निर्माता, लौहपुरुष, भारतरत्न, सरदार वल्लभभाई पटेल जी एवं उनके विचारों में चलकर सशक्त राष्ट्र के निर्माण में अपनी महती भूमिका निभाने वाले राष्ट्रप्रेमियों को सादर समर्पित है।

    आभार

    किसी भी पुस्तक रचना को अपना पूर्ण आकार प्राप्त करने से पहले तमाम प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। जिसके लिए अनेकों व्यक्तियो की भागीदारी के साथ -साथ उसे विषय वस्तु, मार्गदर्शन, परिशीलन, आवरण, टंकण, प्रकाशन आदि के विभिन्न चरणों से भी गुजरना होता है। सरदार पटेल साहब के जीवन, कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर आधारित यह पुस्तक रचना भी इस बात से अलग नहीं है। अस्तु मैं निम्न के प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहूंगा:-

    इस पुस्तक रचना के प्रारम्भ से पूर्ण होने तक प्रेम पूर्ण सहयोग के लिए परिवार के सदस्य के रुप बचपन से जुड़े बौद्धिक साथी एवं सरदार पटेल शोध संस्थान के सचिव श्री चंद्रभान यादव जी एवं उनकी त्यागमूर्ति सहभागिनी श्रीमती कमलेश कुमारी जी का हार्दिक आभार चूंकि आप लोगों के अनन्य सहयोग के बिना इस पुस्तक रचना का प्रकाशन सम्भव नहीं था। निश्चित तौर पर यह आपके माता-पिता, मेरे नानाजी-नानीजी श्री रामराज यादव जी वा श्रीमती सूरजकली जी से बचपन में मिले हुए प्रेम, निष्ठा और सादगी छोटे नानाजी श्री रामआसरे यादव जी से मिले अन्याय के विरुद्ध लड़ने, समता, त्याग और स्पष्टवादिता के संस्कारों का ही पुष्पित, पल्लवित और परिष्कृत स्वरुप है। उन्हीं संस्कारों की ही परिणित है कि एचडीबी बैंक शाखा में उच्च पदस्थ रहते हुए कार्य के अत्यधिक बोझ के साथ-साथ आप सरदार पटेल शोध संस्थान के सचिव पद की जिम्मेदारियों और संस्थान के उद्देश्यों के प्रति सजगता के साथ आप अपने दायित्वों का बाखूबी निर्वाहन कर पा रहे हैं।

    पुस्तक रचना के टंकण में हुई शब्द त्रुटियों से हर संभव पुस्तक रचना को दोष मुक्त बनाने और रचना का आद्योपांत परिशीलन करने हेतु सरदार पटेल शोध संस्थान की निदेशक विदुषी जीवनसाथी श्रीमती सुमन पटेल जी का हृदय से आभार।

    लेखन के दौरान एकान्त और शांतिपूर्ण वातावरण बनाने में अपना हर संभव योगदान देते हुए खान -पान जैसी छोटी-बड़ी आवश्यकताओं का ध्यान रखने के लिए प्यारी बेटी स्तुति पटेल एवं थकावट के क्षणों में अपने बाल अभिनय से प्रसन्नता सर्जित करने के लिए बेटे साहित्य पटेल को हार्दिक आभार।

    पुस्तक में वर्णित विषय वस्तु के अध्ययन और सूचनाओं के संग्रहण में अध्ययन दल के सदस्य रुप में निष्ठापूर्वक सतत सहयोग प्रदान करने के लिए प्रतापगढ़ से बौद्धिक चिंतक एवं विचारक अग्रज स्वरुप श्री रामअचल पटेल व उनके ऊर्जावान अनुज श्री प्रमोदभाई पटेल जौनपुर से अनुज तुल्य बौद्धिक साथी देवानंद पटेल 'वास्तविक' जी उन्नाव से अग्रज स्वरुप श्री अनिल पटेल अनुज तुल्य सरदारवादी साथी श्री शिवशंकर पटेल फतेहपुर से हमारा सतत उत्साहवर्धन करने वाले हमारे प्रिय मित्र डाक्टर त्रिशूल सिंह जी, अनुज तुल्य डाक्टर जगदीश्वर पटेल जी, मुकेशभाई पटेल जी, हर्षित पटेल' अन्नू', वा पटेल सेवा संस्थान फतेहपुर के महामंत्री पुनीत वीर विक्रम जी इसी क्रम में अहमदाबाद से उद्योग जगत से जुड़े प्रिय मित्र श्यामभाई पटेल जी और जनपद बांदा से सरदार पटेल साहब के राजनैतिक जीवन को शोध का विषय बनाने एवं शोध पत्र प्रस्तुत करने वाले बौद्धिक साथी डाक्टर कुलदीपभाई पटेल जी सहित पूर्ण समर्पण के लिए अनुज बृजेन्द्र पटेल, कविता पटेल वा भतीजे सार्थक पटेल का हार्दिक आभार।

    पुस्तक रचना के आवरण पृष्ठ की परिकल्पना को आकार देने हेतु (राष्ट्रशिल्पी सरदार) नाटक के निर्देशक श्री शिवेंद्र पटेल जी एवम आपके निर्देशन में सरदार पटेल साहब के पात्ररुप में अपने उत्कृष्ट अभिनय का प्रदर्शन करने वाले श्री योगेश शुक्ल जी को सम्बंधित परिकल्पना के लिए स्वयं के चित्र उपलब्ध करवाने हेतु हार्दिक आभार।

    आवरण पृष्ठ को अपनी चित्रकला से मूर्तरुप प्रदान करने के लिए लिम्का बुक रिकार्ड, इंडिया बुक रिकार्ड और गिनीज़ बुक रिकार्ड में अपनी क्षमताओं से नाम दर्ज़ कर चुके प्रख्यात चित्रकार, हमारे प्रिय अनुज स्वरूप साथी, पटेल शैलेन्द्र उत्तम जी का हृदय से आभार।

    आत्मनिरीक्षण, आत्मज्ञान के प्रति अधिक विश्वास, उत्साह तथा प्रतिबद्धता पूर्वक परिवर्तित करने के लिए प्रिय पाठकों, आलोचकों, समालोचकों का उनकी मैत्री और सहजता के प्रति भी हार्दिक आभारी हूं।

    भविष्य में भी आप सभी के अनवरत सहयोग की अपेक्षाओं के साथ मैं आप सबका पुनः हृदय से आभार सहित धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।

    आपका ही

    - सत्येन्द्र पटेल'प्रखर'

    अपनी बात

    कहने को तो 15अगस्त 1947 को मध्यरात्रि बारह बजे लगभग 190 वर्षों की ब्रिटिश हुकूमत से देश स्वतंत्र हो गया था। लेकिन अगर सही मायने में देखा जाय तो यह स्वतंत्रता हमें विगत 750 वर्षों की गुलामी से भी मिली थी। क्योंकि इतिहास गवाह है कि इस दौरान विभिन्न राजवंशों के अलग-अलग शासकों द्वारा भारतीयों की लोकतंत्रात्मक भावनाओं एवं अस्मिताओं का गला घोंटकर इन पर क्रूर शासन किया गया था।

    सरदार पटेल साहब को जानने का सफ़र अक्तूबर 1999 से पटेल टाइम्समासिक पत्रिका के साथ शुरू हुआ था। फिर जैसे-जैसे यह सफ़र आगे बढ़ता रह वैसे-वैसे ज्ञानार्जन के साथ- साथ सरदार साहब को जानने और समझने की जिज्ञासा भी बढ़ती चली गई। यह जिज्ञासा आज भी बदस्तूर जारी है। 22 वर्षों से लगातर शैक्षिक भ्रमणों से सरदार पटेल साहब से सरोकार रखने वाले स्थलों नाडियाड, करमसद, रास बोरसद, गोधरा, अहमदाबाद, बारडोली, अकोटी, दिल्ली, यरवदा, अहमदनगर और मुम्बई के उन सभी सम्बंधित स्थलों पर अलग-अलग साथियों तथा अन्य विद्वत समूहों के साथ दर्जनों बार पहुंचना हुआ।

    यहां पर अनेकों स्थानों पर बने संग्रहालयों को क़रीब से देखने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ। इन यात्राओं में खासकर सरदार पटेल साहब के बचपन, युवावस्था, और प्रौढ़ावस्था से जुड़े अति विशिष्ट महानुभावों में श्री दिनिशाभाई पटेल, श्री प्रभाकर खमार एवम श्रीमती निरंजनाबेन कलार्थी जी से भी उनके निज निवास में मुलाकात करने और उनसे विचार-विमर्श करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। आप लोगों के अनभूले संस्मरणों के सहारे सरदार पटेल साहब के जीवन कृतित्व एवं व्यक्तित्व से गहराई से सुपरिचित होने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ।

    इन यात्राओं, वार्ताओं की श्रृंखलाओं का ही परिणाम रहा कि अब तक सरदार पटेल साहब के जीवन, कृतित्व और व्यक्तित्व पर आधारित पांच पुस्तकों (१-सरदार पटेल चरित मानस २-सरदार पटेल कथा सागर ३-सरदार पटेल प्रश्न माला ४-सरदार पटेल पद चिन्ह ५-सरदार पटेल कथा सागर) का विभिन्न विधाओं में लेखन और प्रकाशन कर सका और साथ ही इनके लेखन के निमित्त होने का गौरव प्राप्त कर सका।

    अभी तक के हो चुके अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि, जिस प्रकार करूणा के सागर महात्मा बुद्ध की एकमात्र राह से हम भारत को पुनः विश्वगुरू बना सकते हैं, ठीक उसी प्रकार सरदार पटेल साहब के विचारों में चलकर हम अपने राष्ट्र भारत को विश्वशक्ति भी बना सकते है। अस्तु मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि, अबतक देश की एकता और अखंडता के लिए सरदार पटेल साहब प्रासंगिक रहें हैं और आगे भी रहेंगे। प्रारंभिक विचारों की पुनरावृति करते हुए मैं पुनः उसी ज़िम्मेदारी से आज भी यह कह सकता हूं कि, जिस प्रकार से सागर को गागर में नहीं भरा जा सकता है, ठीक उसी प्रकार सरदार साहब के जीवन, कृतित्व और व्यक्तित्व का निःशेष वर्णन कर पाना किसी के लिए भी अत्यंत दुरूह कार्य रहेगा।

    यह सत्य है कि सरदार पटेल साहब गांधी जी के ह्रदय के अति सन्निकट थे और वह एक दूसरे को व्यक्तिगत तौर पर बहुत प्यार एवं सम्मान करते थे। अपने हास्य-विनोद के अलावा सरदार साहब सदैव इस बात का ध्यान रख पाते थे कि कहीं उनके किसी कार्य या व्यवहार से गांधी जी के ह्रदय को चोंट ना पहुंचने पाए। किसी पुस्तक में सरदार पटेल साहब को गांधी जी का पट्ट शिष्य तक कहा गया है तो किसी पुस्तक में इन लोगों के संबंधों को कृष्ण और अर्जुन की भांति दर्शाया गया है। कुछ लोगों के द्वारा तो गांधी जी के अंधभक्त के रुप में भी सरदार साहब को देखने और दिखाने की कुचेष्टा की गई है।

    श्री जुगतराम दवे अपने एक लेख में इनके परस्पर संबंधों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि, ऊपरी तौर पर दीखने वाला सरदार का अंधानुयायी स्वरुप उनकी सुजनता का लक्षण था। अन्यथा सरदार स्वयं इतने पारदर्शी दृष्टि वाले व्यवहार कुशल मनुष्य थे कि वह अपनी बुद्धि को कहीं गिरवी रख ही नहीं सकते थे।

    गांधी जी और सरदार पटेल साहब के बीच संबंधों का मेरा भी अपना एक दृष्टिकोण है, जैसा कि मैने चित्रों में देखा और महसूस किया है। ऐसे दो प्रमुख तथ्यों का उल्लेख करते हुए मैं विज्ञ पाठकों और कलमकारों से उनके ध्यानाकर्षण की गुज़ारिश करना चाहूंगा।

    पहला :- यह कि जब तत्कालीन समय में आज़ादी की जंग कांग्रेस के द्वारा गांधी जी के नेतृत्व में लड़ी जा रही थी तो एक टोपी बड़े ही प्रचलन में आई थी, जिसे आज भी आमलोग गांधी टोपी के नाम से जानते और पहचानते हैं। तत्कालीन समय में कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं सहित साधारण से साधारण कार्यकर्ताओं के सिरों में यह टोपी प्रायः सहज भाव से धारण करते हुए देखी जाया करती थी। किंतु गांधी जी के अति सन्निकट रहने वाले सरदार पटेल साहब ने कभी भी अपने सिर पर यह टोपी धारण नहीं की। निश्चित तौर पर यह अपवाद तामाम नेताओं के साथ- साथ गांधी जी के द्वारा भी देखा और महसूस किया गया रहा होगा। ऐसे में निश्चित है कि कुछ आक्षेप वाली चर्चाएं भी हुई रही होंगी, इन चर्चाओं और आक्षेपों पर सरदार साहब की भी अपनी कोई निर्णयात्मक प्रतिक्रिया रही होगी अन्यथा आजीवन गांधी टोपी को ना धारण करने वाले सरदार पटेल साहब के जीवन में आज़ादी बाद ऐसे कई अवसर आए थे जब देश के अनेको प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के द्वारा सरदार पटेल साहब को विधि के डाक्टर अर्थात डॉक्टर ऑफ लॉजकी मानद उपाधि से अलंकृत किया गया था। उपलब्ध तस्वीरों का जब हम अवलोकन करते हैं तो यह पाते हैं कि इन अलंकरण समारोहों में सरदार पटेल साहब ने हर बार गाउन तो पहना किंतु गाउन के साथ धारण की जाने वाली टोपी से दूरी बनाए रखी। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आख़िर इसके पीछे की असली वजह क्या थी? जबकि इसके पूर्व में सरदार साहब ने अपने विद्यार्थी जीवन, डिस्ट्रिक्ट प्लीडर के रुप में उसके बाद बैरिस्टर बनने, अहमदाबाद में वकालत के समय और अहमदाबाद नगरपालिका में सदस्य और अध्यक्ष रहते हुए अलग-अलग टोपियां और फेल्ट हैट पहने हुए उपलब्ध तस्वीरों में सहजता से दिखाई पड़ते हैं।

    दूसरा :- जैसा कि विज्ञ पाठक गण पुस्तक में आगे पढ़ेंगे कि किस प्रकार सरदार पटेल साहब गांधी जी के सन्निकट आए? और वर्ष 1917 से देश की आज़ादी के लिए गांधी जी के साथ हो लिए। वर्ष 1928 में जब सरदार पटेल साहब ने सर्वप्रथम कृषक वेशभूषा धारण करते हुए बारडोली सत्याग्रह को एकल वक्ता के रुप संचालित किया था तो उस समय सरदार साहब के हाथ में एक लाठी भी दिखाई पड़ती है जो उन्हें पूर्णतया एक साधारण भारतीय किसान होने का आभास कराता है। सच भी यही था कि सरदार साहब एक साधारण किसान के ही धर जन्में थे और जैसा कि विज्ञ पाठक आगे पढ़ेंगे भी। सरदार साहब का यह साधारण रुप वहां के जनसमुदाय द्वारा बहुत पसन्द किया गया था, खासकर उनके हाथ की लाठी ने खूब सुर्खियां बटोरी थी। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि अभी तक गांधी जी के द्वारा कृषकों का लाठी नामक यह प्रतीक धारण नहीं किया गया था। जबकि उम्र के आधार पर देखा जाय तो गांधी जी सरदार पटेल साहब से बड़े थे। 9 अगस्त 1928 को बारडोली विजय दिवस के बाद जब आप तस्वीरों का अवलोकन करेंगे तो आप देखेंगे कि यह लाठी अचानक सरदार पटेल साहब के हाथों से निकल कर गांधी जी के हाथों में चली गई। इसके बाद फिर सरदार पटेल साहब अपने जीवनान्त तक कभी भी अपने हाथ में लाठी या कोई छड़ी नहीं थामी है, जबकि उन्होंने अपनी पचहत्तर वर्ष की आयु में अति गंभीर बीमारी और शारीरिक शिथिलता के दौर को जिया था। आख़िर इन सबके पीछे क्या वजह, त्याग, सहमति या वायदे रहे होगें? इन अनुछुए पहलुओं पर अभी तक इतिहासकार और कलमकार मौन हैं।

    जब-जब देश को बाहरी हमलों से जूझना पड़ता है, तब- तब सरदार पटेल साहब पर चर्चा उठ खड़ी होती है। यह इस बात का स्पष्ट प्रतीक है कि, सरदार पटेल साहब और उनकी नीतियों की हमारे द्वारा अनवरत रूप से उपेक्षा की गई है, जिसके लिए विभिन्न राजनीतिज्ञों एवं उनकी सरकारों के साथ-साथ इतिहासकार और कलमकार भी दोषी हैं। कहने के लिए तो सरदार पटेल साहब पर विभिन्न भाषाओं और विधाओं पर अब तक शताधिक रचनाओं का प्रकाशन किया जा चुका है, इनमें बामुश्किल से दर्जन भर रचनाएं ही ऐसी होंगी जो सरदार पटेल साहब से जुडे किसी घटनाक्रम, जीवन, कृतित्व या व्यक्तित्व से जुड़े कुछ हिस्सों का आंशिक और प्रमाणिकता से बोध करवा पाने में सक्षम हैं। अभी तक ऐसी कृति जो सरदार पटेल साहब के जीवन, कृतित्व और व्यक्तित्व का व्यवस्थित बोध कराती हो या फिर उक्त में किसी एक विषय का संपूर्णता से बोध कराती हो मुझ तक अदृश्य और अप्राप्त है।

    यह विडंबना ही है कि आज तक सरदार पटेल साहब और उनकी दूरदर्शी नीतियों को ठीक ढंग से नहीं समझा जा सका। और उनके विरोधियों के द्वारा उनकी छवि को धूमिल करने के निरंतर आभियान चलाए जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर अपने-अपने राजनैतिक लाभ के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किए जाने के भरसक प्रयत्न किए जा रहे हैं। यह सभी कुचक्र राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए ख़तरनाक है।

    कुछ वर्षों पूर्व देश के साथ कई प्रांतों में सरदार वल्लभभाई पटेल साहब को बेचारा बताकर वोट मांगे जा चुके हैं। क्या सच में सरदार पटेल की हालत वैसी थी जैसा इन लोगों के द्वारा प्रचारित किया गया है? क्या कांग्रेस, धर्मनिरपेक्षता, संसदीय लोकतंत्र, तिरंगा झंडा और संविधान के शासन का विरोध करने वाले लोग सरदार पटेल साहब को अपना नेता बताना चाहते हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि वामपंथी इतिहासकारों का एक वर्ग सरदार पटेल साहब को कांग्रेस में मौजूद दक्षिणपंथी नेता बता रहा था?

    आज सुभाषचंद्र बोस द्वारा राष्ट्रपिता की उपाधि हासिल करने वाले महात्मा गांधी के राष्ट्रपिता होने पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं, तो वहीं सरदार पटेल साहब को हिंदुत्व की राजनीति का नायक बताया जा रहा है। एक सोंची समझी राजनीति के चलते भारतीय मुसलमान को आतंकी गतिविधियों को ही संचालित करने वाली कौम के रुप में दिखाकर हिंदुओं और सिखों को डराया जा रहा है। मैं पूंछना चाहता हूं कि आज़ाद भारत के प्रथम आतंकी हमले अर्थात गांधी हत्या में शामिल लोग कौन थे? वह लोग किस धर्म और जाति से सम्बंधित थे? सर्वविदित इस घटना पर गुमराह करके भी पर्दा नहीं डाला जा सकता है।

    एक तरफ़ गोडसे का मंदिर बनाकर गांधी हत्या को वध करार देने की कोशिश की जायेगी और दूसरी तरफ़ हिन्दुत्व की राजनीत के लिए सरदार पटेल साहब को अपना कहते हुए घूमेंगे, यह सर्वथा गलत और भ्रामक है। क्योंकि गांधी हत्या के बाद सर्वप्रथम आरएसएस में प्रतिबंध लगाने वाले भी सरदार पटेल ही थे। क्या इन संगठनों और दलों के पास स्वतंत्रता आंदोलनों में प्रतिभागिता करने की कोई भी विरासत है? क्योंकि इतिहास में कहे जाने वाले तथाकथित वीरों के तो माफीनामे निकल पड़ते हैं। क्या ऐसा नहीं लगता है कि आज़ादी की लड़ाई में शामिल ना हो पाने की शर्म से बचने के लिए ही सरदार पटेल साहब को अपनाने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है? जबकि सरदार पटेल साहब ने वर्ष 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में स्पष्ट तौर पर कहा था कि, कांग्रेस और सरकार इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि भारत एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष राज्य हो।

    सरदार पटेल साहब ने फरवरी, 1949 में सार्वजनिक तौर पर अपने उद्बोधन में कहा था कि, हिंदू राज’ बनाने की सोच पागलपन है। सरदार पटेल साहब वर्ष 1950 में अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए बोले थे कि, हमारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। ... यहां हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है, और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है। ... यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और अपने देश के लायक नहीं हैं।

    गांधी जी की निर्मम हत्या जैसा जघन्य अपराध हो जाने के वावजूद भी 29 जून, 1949 को नेहरू जी ने सरदार पटेल जी को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि, मौजूदा परिस्थितियों में ऐसे प्रतिबंध और गिरफ्तारियां जितनी कम हों उतना ही अच्छा है। पत्र का संज्ञान लेते हुए सरदार पटेल साहब ने आरएसएस को कुछ शर्त स्वीकार करने के लिए कहा था जो निम्न प्रकार से थीं कि...

    (1) आरएसएस अपना एक लिखित और प्रकाशित संविधान स्वीकार करेगा।

    (2) आरएसएस अपने को सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित रखेगा।

    (3) आरएसएस राजनीति में कोई दखलंदाजी नहीं करेगा।

    (4) आरएसएस भारतीय धवज तिरंगे और संविधान के प्रति अपनी आस्था प्रकट करेगा।

    (5) आरएसएस अपने को जनवादी आधारों पर संगठित करेगा।

    (6) आरएसएस हिंसा और गोपनीयता का पूर्णतया परित्याग करेगा। आदि जब आरएसएस द्वारा सरदार पटेल साहब की उक्त शर्तों को स्वीकार कर लिया गया था तब जाकर जुलाई, 1949 में इस संगठन पर लगे प्रतिबंध को हटाया गया था।

    इस समय भारतीय समाज में कई भीषण और गहरी दरारें पड़ चुकी हैं, इनमें से कुछ का अस्तित्व पहले से भी था, अब इन्हीं दरारों को और गहरा एवं चौड़ा करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं। हिंसा, हत्या, बलात्कार, बुलडोजिंग, लिंचिग, एनकाउंटर और बिना वजह या बिना दंड के बरसों जेल की सज़ा कराई जा रही है। कुछ हिंसाये तो ऐसी शामिल हो गई हैं जिनको भले क़ानूनी मान्यता ना हो, लेकिन उन सबको व्यापक रुप से सामाजिक मान्यताएं मिल रही है, जो भविष्य के लिए भी चिंताजनक है।

    नई सक्षम टेक्नोलॉजी के विविध प्रकार के उपयोग से अब झूठ, घृणा, भेदभाव, अत्याचार, अन्याय को इतना व्यापक तरीके से प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा हैं कि अब वे लगभग सच्चाई में तब्दील होते जा रहे हैं। कभी सत्तारूढ़ हो जाने पर तो कभी तथाकथित राजनीति के नाम पर सरेआम नीचता, अभद्रता, गाली-गलौज, ख़रीद-फरोख़्त, छिद्रान्वेषण वाली वृत्तियां अब अपने उफान पर है। अब राजनीति में सभी मूलभूत मुद्दे यथा :शिक्षा, कृषि, स्वास्थ्य, सुरक्षा, रोजगार, बिजली, पानी और सड़क आदि वह सभी विषय जो जनहित में आवश्यक हैं सब के सब गुमनाम सी शक्ल लिए, मुंह बाए किनारे पर खड़े अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।

    कभी आपस में होने वाला सभ्य सिविल संवाद अब असंभव सा होता जा रहा है। वर्तमान राजनीति का स्तर यहां तक पहुंच गया है कि असहमति, प्रश्नांकन, विरोध-प्रतिरोध, वाद-विवाद आदि को अब लगभग द्रोह क़रार दिया जाने लगा है। जहां एक ओर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पूरी निर्लज्जता के साथ दुरुपयोग किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ़ परंपराओं, इतिहास की दुर्व्याख्याएं, विस्मृति फैलाने, जातीय स्मृति अपदस्थ करने का एक सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है, जिसके अंतर्गत बहुलता को बहुसंख्यकता से अपदस्थ करने की योजना, असहमति-प्रश्नांकन-संवाद को अपराध और द्रोह बनाकर दंडित करने की योजना, हिंदुत्व का प्रभुत्व और अन्य धर्मों को दोयम दर्ज़ा देने की नीयति पर आधारित अभियान सम्मिलित किए जा रहे हैं। निजी गरिमा का दैनिक हनन, स्वतंत्रता-समता-न्याय में हर दिन हो रही कटौती यह ज़ाहिर करने लगी है कि इन दो विचारधाराओं के बीच में अभी लम्बा संघर्ष चलने वाला है। संभव है कि अब इसका असर हर बार होने वाले चुनावों में बदस्तूर देखने को मिल सके।

    चाहे पाठ्यपुस्तकों में से ऐतिहासिक तथ्यों को हटाना हो रहा हो या फिर किसी के ज्ञान का अपमान करते हुए उसका उपहास करना, जब यही एकमात्र ध्येय बनता जा रहा हो तो ऐसे में फिर से एक बार सरदार पटेल साहब की विचारधारा हमारा मार्गदर्शन कर सकती है। क्योंकि उक्त परिस्थितियों से यह स्पष्ट है कि हम एक भयग्रस्त समाज होते जा रहे हैं।

    बिना निर्भयता के हम राष्ट्र निर्माण, एकता और अखंडता का बचाव नहीं कर सकते हैं। अब समय आ गया है कि हम सब निर्भय होकर अहिंसात्मक और संगठनात्मक प्रतिरोध करें।

    हम सबको हिंसा, हत्या, बलात्कार, घृणा, झूठ की राजनीति और सामाजिक दुर्व्यवहार का भौतिक, बौद्धिक और सर्जनात्मक रुप से अहसयोग करना चाहिए।

    झूंठ और घृणा को फैलाने में लिप्त सत्ता, धर्म और मीडिया -बाज़ार के अनैतिक गठबंधन के खिलाफ़ इस यक़ीन के साथ कि सच का साथ कभी अकारथ नहीं जा सकता हमें सविनय अवज्ञा का सहारा लेना होगा। इन सबके खिलाफ़ हमें लामबंद होकर सत्याग्रह करना चाहिए। हमें ऐसे सभी सार्वजनिक प्रयत्नों, अभियानों, क़ानूनी षड्यंत्रों आदि से न सिर्फ़ अपने को पृथक रहना चाहिए बल्कि उन सबका निजी और संगठित रुप से यथा संभव अहिंसात्मक विरोध करना चाहिए जो तत्व राष्ट्रीय एकता को खंडित करते हों।

    एक ओर हम कोटिक ईश्वरीय स्वरूपों और उनके समय - समय पर होने वाले अनन्य अनवरत अवतारों को मान्यताएं प्रदान करते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ एक की तुलना में किसी दूसरे की काबिलियत को शून्य करार देकर सिरे से ख़ारिज कर देते हैं। यह सर्वथा अनुचित और अतार्किक है, या फिर यूं कहें कि यह दोहरा भ्रामक मापदंड नहीं है तो फिर क्या है?

    सरदार पटेल साहब के व्यक्तिगत जीवन में निराशा का कोई स्थान नहीं था। उनके सचिव रहे बी पी मेनन लिखते हैं कि, जब निराशा और उदासी के बादल अधिक घिरे होते थे, तो उस समय में सरदार की कर्मकुशलता और उनका कर्तव्य विशेष रुप से खिल उठता था। प्रस्तुत पुस्तक रचना में ऐसे तमाम मामलों में विज्ञ पाठकों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है जो आज भी विवादग्रस्त हैं। तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद जी ने मई 1959 में लिखा था कि, सरदार पटेल की नेतृत्व शक्ति तथा सुदृढ़ प्रशासन के कारण ही भारत की चर्चा हो रही है। आगे उन्होंने कहा था कि, अभी तक हम इस महान व्यक्ति की उपेक्षा करते रहे हैं। इसी क्रम में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पद के लिए हुए चुनाव के पच्चीस वर्ष बाद चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जी ने लिखा था कि, निःसंदेह बेहतर होता, यदि नेहरू को विदेश मंत्री तथा सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता, यदि पटेल कुछ दिन और जीवित रहते तो अवश्य प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचते, जिसके लिए वह योग्य पात्र थे, तब भारत में कश्मीर, तिब्बत, चीन और अन्य विवादों की कोई समस्या नहीं रहती।

    प्रतिष्ठित इतिहासकार बिपन चंद्र जी ने निष्कर्ष दिया है कि, इस संदर्भ और अतीत को देखते हुए कहा जा सकता है कि प्रशंसकों और आलोचकों दोनों के ही द्वारा सरदार पटेल साहब को गलत समझा गया और आम- जनमानस के बीच गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जहां दक्षिणपंथियों ने उनका इस्तेमाल नेहरू के दृष्टिकोणों और नीतियों पर आक्रमण करने लिए किया है, वहीं वामपंथियों ने उन्हें एकदम खलनायक की तरह चरम दक्षिणपंथी के सांचे में दिखाया है, हालांकि यहां पर ये दोनों गलत हैं।

    कांग्रेस के संगठन में सरदार पटेल साहब का जबरदस्त प्रभाव था। किंतु उन्होंने संकट भरे वातावरण में एक बार ही वर्ष 1931 में कांग्रेस के कांटो भरे ताज को पहनते हुए करांचीं अधिवेशन की अध्यक्षता की थी, क्योंकि उन्हें पता था कि इस वक्त कांग्रेस के विरोध में जनमानस होता जा रहा है। सरदार साहब को पता था कि संकट की इस कठिन घड़ी में उनके सिवाय आमजनमानस को कांग्रेस के पक्ष में लाने की क्षमता अन्य किसी और में नहीं है।

    कांग्रेस के सर्वशक्तिमान नेता होने के नाते प्रधान मन्त्री बन जाना उनके लिए कठिन बात नहीं थी, किंतु निजी जीवन से जुड़े मामले में उनकी तनिक भी आसक्ति नहीं रही थी। ऐसी परिस्थिति में वह गांधी जी की इच्छा को सहजता से मान गए उन्होंने न केवल दूसरे नंबर में रहना स्वीकार कर लिया था अपितु अपनी एक नंबर वाली कुर्सी भी नेहरू को दान कर दिए थे। यह सरदार साहब का बड़प्पन ही था कि बिना कोई मन में मलाल लाए हर संकट के समय नेहरू के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनकी मदद करते रहे। दिल्ली में हुए नेहरू- लियाकत समझौते को इसके ज्वलंत उदाहरण के रुप में देखा जा सकता है। इसके इतर जब बात राष्ट्रहित या उसकी एकता और अखंडता की होती थी तो वह अपने निर्णयों में ना तो किसी का हस्तक्षेप बर्दास्त करते थे ना ही किसी की नाराज़गी की तनिक भी परवाह किया करते थे। ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिलेंगे जब तमाम कद्दावर नेताओं को सरदार साहब की सख्ती झेलनी पड़ जाया करती थी।

    नगरपालिका अहमदाबाद से सम्बंधित एक दूसरी विशेषता भी यहां पर उल्लेखनीय है। जब सरदार पटेल साहब के पालिका अध्यक्ष रहते हुए भी कर्मचारीमंडल ने इन्हें अपनी यूनियन का अध्यक्ष बनाया था। इस पद पर सरदार साहब वर्ष 1942 तक बने रहे जो तत्कालीन समय के भारत का अद्वितीय उदाहरण था। इसी प्रकार कारावास के दौरान जब वर्ष 1932 में सरदार साहब ने अपनी माताजी और वर्ष 1933 में अपने प्रिय अग्रज विट्ठलभाई को खोया था तब विठ्ठलभाई साहब जो स्वराज की रट लगाते हुए वियना में अपने प्राण त्यागे और अपना अंतिम संस्कार वल्लभभाई के हाथों कराए जाने की इच्छा प्रकट की थी, इस अंतिम इच्छा की इस सूचना को जरिए तार नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जी के द्वारा गांधी जी को अवगत कराया गया था और जब ब्रिटिश सरकार ने वल्लभभाई जी पर शर्त रखी थी तो ऐसी परिस्थिति में भी वल्लभभाई जी ने उनकी कोई भी शर्त अर्थात पेरोल को लेने से इंकार कर दिया था उसके बाद विठ्ठलभाई जी की अंत्येष्टि क्रिया सरदार साहब के पुत्र दाह्याभाई के हाथों संपन्न कराई गई थी।

    अन्त में यही कहना चाहूंगा कि, किसी भी देश का आधार उसकी एकता और अखंडता में निहित होता है।

    जैसा कि आप सभी विद्वतजन जानते हैं कि, सरदार पटेल साहब भारत देश की एकता के सूत्राधार थे। ऐसे में सरदार पटेल साहब अपने अमिट त्याग, समर्पण, कार्यदक्षता दृढ़ता वा अपनी दूरदर्शिता और अहिंसक एकीकरण एवं राष्ट्र नव निमार्ण के लिए सदैव याद किए जाते रहेंगे।

    मुझे आशा है कि यह पुस्तक रचना सरदार पटेल साहब के जीवन, कृतित्व और व्यक्तित्व से जुड़े तमाम अनुछुए पहलुओं सहित उनके जीवनपथ का व्यवस्थित बोध करवाते हुए जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद की भावनाओं से ऊपर उठाकर राष्ट्रवाद की उत्कृष्ट भावना का संचार कर पाने में सफल हो सकेगी।

    आमजनमानस के बीच समता, बंधुता, एकता स्थापित करते हुए उन सबको विज्ञान, और संविधान के प्रति आस्थावान बनाने के आशय से लिखी गई यह पुस्तक रचना राष्ट्र निर्माता सरदार पटेलआप सभी विज्ञ पाठकों, युवा मित्रों, आलोचकों, समालोचकों के मजबूत हाथों को सौंप रहा हूं। यदि यह आप में से किसी एक के भी अंदर राष्ट्रीय एकता के भावों का संचार करते हुए विचारों को परिष्कृत कर पाने में सफल हो सकेगी तो मैं लेखन के अपने इस प्रयास के लिए सहयोगियों के साथ खुद को धन्य समझूंगा।

    धन्यवाद

    जय हिंद -जय भारत -जय सरदार

    भवदीय

    सत्येन्द्र पटेल'प्रखर'

    30 अप्रैल 2023

    साहित्य भवन,

    फतेहपुर

    अध्याय 1

    पिताश्री झवेरभाई पटेल

    गुजरात प्रदेश के चरोत्तर या चारुत्तर क्षेत्र के खेड़ा जनपद में पड़ने वाला गांव, करमसद, (वर्तमन कस्बा) आंणद तालुके (तहसील) का हिस्सा है।

    इसी करमसद ग्राम में सन 1829 इसवी के आस पास श्री झबेर भाई जी का जन्म एक लेवा पाटीदार खेडूत (कृषक) परिवार में हुआ था। जिनके पास महज़ दस एकड़ कृषि योग्य भूमि थी। झवेरभाई जी अपने पिता, श्री गुलाब भाई पटेल जी के इकलौती सन्तान थे। यह संयोग ही था कि पिता गुलाबभाई पटेल जी भी, अपने पिता सुखीभाई पटेल जी की इकलौती सन्तान थे। श्री झवेर भाई बचपन से ही धीर, वीर, गंभीर व धार्मिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति थे, अंग्रेजी शासन व उनकी दासता के खिलाफ़ थे।

    श्री झवेरभाई पटेल जी, जब लगभग बीस बर्ष के नवयुवक थे, तो आपका प्रथम विवाह खेड़ा जिले के सुणांव ग्राम में हुआ। कुछ वर्षों के बाद एक बीमारी के चलते प्रथम पत्नी निःसंतान गुज़र जाने से, उत्पन्न दुःख और एकान्त ने उनके अन्दर राष्ट्र भक्ति का पुनः संचार कर दिया।

    एक रात्रि में आपने चुपके से अपना घर द्वार छोड़ दिया और झांसी चले गए। झांसी पंहुचकर आप रानी लक्ष्मीबाई जी की सेना में, एक फ़ौजी के रुप में भर्ती हो गए और लगभग तीन वर्षों तक यहीं रहे।

    अंग्रेजो के ख़िलाफ़ सन अट्ठारह सौ सत्तावन में हुई क्रांति में आपने रानी लक्ष्मी बाई की ओर से लड़ी गई लड़ाई में प्रतिभाग किए। इस भीषण युद्ध में अंग्रेजों की सुसज्जित सेना और कुटिलता ने इस क्रांति को विफल कर दिया। जिसमें रानी लक्ष्मीबाई जी को वीरगति की प्राप्त हो गयी। इस भीषण संग्राम में झवेरभाई जी बच गए। नेतृत्व खत्म हो जाने पर श्री झवेरभाई जी को अपने घर लौटने की सुधि आई। झांसी से वापस लौटते वक्त रास्ते में, मालवा क्षेत्र से गुजरते हुए झवेरभाई जी ने इन्दौर की सीमा में प्रवेश किया। जहां पर इंदौर के राजा मल्हार राव होल्कर के सैनिकों ने इन्हें, दुश्मन का गुप्तचर मानकर बंदी बना लिया और कारावास में डाल दिया।

    घटना दिलचस्प है कि जहाँ श्री झवेर भाई जी शतरंज के अच्छे खिलाड़ी थे, वहीं इन्दौर के राजा होल्कर भी शतरंज के बहुत शौक़ीन थे। यह बात जब मल्हार राव होल्कर को पता चली तो उन्होंने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया और उस प्रतियोगिता में झवेर भाई को बंदी दर्शक के रूप में उपस्थित रहने का फरमान सुनाया।

    शतरंज का खेल शुरू हुआ, फिर खेल में एक ऐसा मौक़ा आया कि महाराज अपने प्रतिद्वंद्वी से हारने की स्थिति में पहुंच गए, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह कौन से मोहरे की चाल चलें कि, हारने से बच जाएं? तभी मौक़े की नज़ाकत को भांपते हुए झवेर भाई ने महाराज से निवेदन किया कि, यदि आप मुझे आज्ञा दें, तो वह बचने वाली चाल बता सकते हैं! महाराज के आधार पर वह खेल में फँस चुके थे, अतः उन्होंने आज्ञा दे दी। फ़िर झवेर जी ने चाल बताई और महाराज हारने से बच गए।

    इस घटना से प्रसन्न होकर महाराज ने उन्हें बंधन मुक्त करने का आदेश दे दिया, और कहा कि, वह यदि यहाँ रहना चाहें तो उनके जीविकोपार्जन के लिए ज़मीन और अन्य सुविधाएं राज परिवार की तरफ़ से मुहैया कराई जाएंगी वह यहाँ आराम से रह सकते हैं। किन्तु झवेर भाई जी ने महाराज का धन्यवाद करते हुए अपने घर, करमसद लौटने की आज्ञा माँगी। इस प्रकार वह अपनी बुद्धि व विवेक से वहाँ से मुक्ति पाकर वापस अपने परिवार के बीच करमसद लौटने में सफल हो गए।

    घर लौट कर झवेर भाई जी ने पुनः अपनी पैतृक खेतीबारी के कार्य देखने लगे। किसानी के कार्य से जो समय बचता तो झवेर भाई जी गांव में ही घर के पास बने स्वामी नारायण सम्प्रदाय के मन्दिर में जाकर प्रार्थना और सत्संग किया करते थे। धीरे-धीरे यह उनकी अपनी प्रमुख दिनचर्या बन गई। झांसी से वापस हुए लगभग पांच वर्षों के बाद आपके माता-पिता व रिश्तेदारों के दबाव के चलते, आपका दूसरा विवाह नाडियाद के एक सम्पन परिवार में श्री जीजाभाई देसाई की बेटी कुमारी लाड़बाई के साथ (जो कि श्री झबेर भाई की उम्र से लगभग अट्ठारह वर्ष छोटी थीं) करा दिया गया। आगे चलकर श्रीमती लाड़बाई जी ने अपनी कोख़ से छह संतानों को जन्म दिया, जिसमें से पांच पुत्र क्रमशः सोमा भाई, नरसी भाई, विट्ठल भाई, वल्लभ भाई व काशी भाई और एकमात्र पुत्री डहीबा बाई थे।

    इन्हीं छह संतानों में दो नर शार्दूल श्री विट्ठल भाई पटेल (27-09-1873) व श्री वल्लभ भाई पटेल (31-10-1875) जी थे, जिन्होंने आगे चलकर भारत ही नहीं अपितु विश्व के इतिहास में महान विभूति के रुप में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में अंकित करवाया।

    झवेर भाई जी व उनकी धर्मपरायण पत्नी लाड़बाई जी, अपने बच्चों के साथ मिलकर खेतीबारी का काम किया करते थे, यही उनके जीविकोपार्जन का एक मात्र साधन भी था। लाड़बाई के कंधों पर घर का पूरा भार रहता था, छह बच्चों का पालन-पोषण, चूल्हा-चौका और खेतों का काम और थोड़ा बहुत यदि समय मिल जाय तो पूजा उपासना, यही उनकी नित्य की दिनचर्या थी।

    श्री झवेर भाई जी अपना बचा हुआ पूरा समय सम्प्रदाय के मंदिर में गुजारते थे। जब वह पैतालीस वर्ष के हुए तो वे घर के सभी कार्यों से विरत हो गए। उन्होंने एक मात्र स्वामी नारायण मंदिर की सेवा का संकल्प ले लिया, तत्पश्चात वह केवल दिन में एक बार ही भोजन के लिए घर आया करते थे।

    श्री झवेर भाई जी की भाव, भक्ति का एक बड़ा उदाहरण ऐसे समझा जा सकता है! स्वामी नारायण सम्प्रदाय का एक मंदिर करमसद से लगभग बीस मील की दूरी पर जो बड़ताल पर बना हुआ था, श्री झवेर भाई प्रत्येक एकादसी को पैदल ही पूजा अर्चना के लिए वहां जाया करते थे। बड़ताल में बना यह मंदिर वर्तमान में भी अपनी भव्यता और दिव्यता के दर्शन करवा पाने में सक्षम है।

    श्री झवेर भाई की का देहावसान पचासी (85) वर्ष की आयु में मार्च उन्नीस सौ चौदह (मार्च 1914) को मंदिर परिसर करमसद में हुआ था। जिसके पश्चात् गांव करमसद में बने शमशान घाट में उनकी अंत्येष्टि क्रिया सबसे ज्येष्ठ पुत्र सोमाभाई के हाथों संपादित की गई थी। इसी प्रकार उनकी धर्मपरायण पत्नी लाड़बाई जो कि उनसे लगभग अट्ठारह वर्ष की छोटी थीं, इनका भी देहावसान पच्चासी (85) वर्ष की आयु में सन उन्नीस सौ बत्तीस (1932) को करमसद में हुआ था, और माता जी की अंत्येष्टि भी करमसद के शमशान भूमि पर सोमाभाईं के हाथों से संपन्न हुई थी।

    अध्याय 2

    स्वामी नारायण सम्प्रदाय

    श्री झवेरभाई पटेल जी का पूरा परिवार स्वामी नारायण सम्पदाय में ही आजीवन आस्था रखने वाला रहा था। स्वामी नारायण सम्प्रदाय, सनातन (हिन्दू) समाज में कार्यरत सम्प्रदाय का ही सुधारवादी रूप है, इस सम्प्रदाय के संस्थापक श्री स्वामी नारायण महाराज थे, जिन्हें पहले सहजानन्द के नाम से जाना जाता था। स्वामी जी को सहजानन्द नाम इन्हें इनके गुरु श्री रामानन्द स्वामी द्वारा सन्यास की दीक्षा लेते हुए दिया गया था।

    अयोध्या (फ़ैजाबाद, उत्तर प्रदेश) के निकट छपैया गाँव में तीन अप्रैल सन सत्रह सौ इक्यासी (3-4-1781) को जन्म लेकर एक बालक बारह वर्ष की आयु में घर छोड़ कर साधु संतों की संगत में हो लिया था। जो हिमालय के अरण्यों में महीनों कठोरतम तपस्या और विषमतम साधनारत रहने लगा। इस बालक ने वैराग्य लेकर बाद में सौराष्ट्र में उद्धावतार, श्री रामानंद स्वामी के सानिध्य में रहकर विधिवत सन्यास की दीक्षा ली।

    गुरु श्री रामानंद जी ने इनको सहजानन्द का नाम दिया, और फिर इन्होंने अपनी योग -साधना तथा आध्यात्मिक बल से अपने असंख्य अनुयायी बनाये और बाद में यही सहजानन्द जी, श्री स्वामी नारायण महाराज के नाम से लोक प्रसिद्द हुए।

    श्री रामानन्द स्वामी जी ने अपनी बृद्धावस्था में, योग्य शिष्य सहजानन्द को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, तदुपरांत इनके द्वारा सन अट्ठारह सौ उनत्तीस (1829) में स्वामी नारायण सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ। आज भी स्वामी नारायण सम्प्रदाय की शिष्य परम्परा देश -विदेश में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है, जिसमें कणवी पाटीदारों की संख्या सर्वाधिक है।

    स्वामी नारायण सम्प्रदाय के द्वार सभी जातियों, वर्गों के लिए हमेशा खुले हुए रहते हैं, स्वयं श्री स्वामी नारायण महाराज जी ने शिष्यत्व के लिए सभी जाति धर्म के लोंगो को न केवल स्वीकार किया, अपितु उनका हृदय खोलकर स्वागत भी किया। उन्होंने लोंगो को अंधविश्वास, अन्याय एवम अनेकों प्रकार के पाखंडो से मुक्त, सादा, शुद्ध और नैतिक जीवन बिताने का उपदेश दिया।

    लगभग डेढ़ शताब्दी पूर्व जब सारा देश धार्मिक अंध विश्वासों, ऊंच-नींच की जातीय भावनाओं व भयंकर रूढ़ वादी विचारधाराओं से ग्रस्त था, तब उस निराशा पूर्ण वातावरण में श्री स्वामी नारायण महाराज ने विशेष कर पिछड़े वर्गों, वंचित एवं दलित जातियों को समाज में ऊपर उठाया और उनमें, अन्य अनुयायियों में व्यवहार-शुद्धि और अन्तरशुद्धि का आदर्श स्थापित किया।

    सरदार पटेल साहब व उनका परिवार तो बचपन से इस सम्प्रदाय पर अटूट आस्था रखता था। स्वयं महात्मा गांधी ने भी अपने जीवनकाल में पूज्य सहजानन्द स्वामी के इन सिद्धांतों को स्वीकार किया। गाँधी नगर गुजरात में स्थित 'अक्षरधाम ' मंदिर इस सम्प्रदाय के बारे में सम्पूर्ण जानकारी कराने के लिए देश में श्री स्वामी नारायण सम्प्रदाय का सर्वोत्तम संस्थान है।

    कुछ वर्षों पूर्व लंदन में इस सम्प्रदाय के भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। लंदन का यह मन्दिर अब विश्व के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों में एक होने की प्रसिद्ध प्राप्त कर चुका है। विश्व जगत के साथ - साथ भारत मे भी बने अक्षरधाम मंदिरों की संख्या काफ़ी है, जो देखने योग्य हैं। यह बात भी सत्य है कि प्रारंभ से ही इस सम्प्रदाय के लगातार उन्नयन में पाटीदार सामाज का सर्वाधिक योगदान रहा है।

    इस सम्प्रदाय के संस्थापक भगवान स्वामीनारायण के पांचवे आध्यात्मिक उत्तराधिकारी, विश्व वन्दनीय प्रमुख स्वामी महाराज इस सम्प्रदाय का संचालन करने वाले भारत के विरल सन्त थे। जिनका जन्म गुजरात के खेड़ा तालुके के एक कृषक पाटीदार परिवार में ही हुआ था। अंध विश्वास में जकड़े पाटीदारों व उनके समाज को अनेक समाज सुधारकों के साथ- साथ प्रमुख श्रेय इस स्वामी नारायण सम्प्रदाय को ही जाता है कि, आज़ादी के पूर्व ही यह समाज अपने अंदर में व्याप्त कुरीतियों यथा :-बाल विवाह, मृत्यु-भोज, दहेज प्रथा तथा दुराचरण की अनेकों प्रवृत्तियों से अपने आप को मुक्त करा पाने में सफल हो चुका था। इस कुरमी /पटेल समाज के लोग दृढ़ निश्चयी, कर्मठ, परिश्रमी, परोपकारी, ईमानदार स्वाभिमानी और खरे स्वभाव के होते हैं। यह गुण आज भी कमोवेश पूरे भारत में और विश्व के अनेकों भागों में बसे कुर्मी बंधुओ में आसानी से देखा जा सकता है।

    अध्याय 3

    जन्म, बचपन, शिक्षा एवं विवाह

    श्री वल्लभ भाई पटेल जी का जन्म (विद्यालय नाडियाड हाईस्कूल में वर्णित अभिलेखानुसार) इकत्तीस अक्टूबर सन अट्ठारह सौ पचहत्तर (31-10-1875) को उनके नाना जी के घर (तत्कालीन रीति अनुसार) नडियाद में हुआ था।

    आप अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। आपके पिता का नाम श्री झवेरभाई पटेल व माता जी का नाम श्रीमती लाड़बाई था। आप लोग पांच भाई व एक बहन मिलाकर अपने माता-पिता से छह संतानें थी। आपसे बड़े तीन अग्रज क्रमशः सोमा भाई, नरसी भाई, विट्ठल भाई व एक अनुज काशी भाई पटेल एवं सबसे छोटी बहन डहीबा थीं। आपके पिता श्री झवेर भाई जी दस एकड़ कृषि भूमि के साधारण किसान थे, जो पैतृक गांव करमसद में खेतीबारी का कार्य देखते थे।

    गुजरात प्रदेश का यह करमसद गांव, खेड़ा जनपद के आनन्द तालुके से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। वर्तमान में इस गांव ने एक छोटे कस्बे का स्वरूप ले रखा है। आपकी माता श्रीमती लाड़बाई एक धर्मपरायण, सौम्य स्वभाव, व्यवस्थित व अनुशासित जीवन शैली अपनाने वाली कुशल सुगृहणी थी, जो आमतौर पर अपने बच्चों को रामायण व महाभारत एवम वीर शिवाजी और उनकी माता जीजाबाई से जुड़ी प्रेरक कहानियां सुनाया करती थीं। इन्ही कहानियों के द्वारा माताजी ने वल्लभ भाई पटेल जी सहित अपने सभी बच्चों के मन, मस्तिष्क पर अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए प्रेरित किया करती थीं।

    आपके पिता श्री झवेर भाई पटेल जी अपने अच्छे चरित्र, मेहनती स्वभाव, और सच्चाई के लिए सभी किसानों के बीच प्रसिद्ध थे। आप एक धार्मिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति थे, जिनका स्वामी नारायण सम्प्रदाय में अटूट विश्वास था। पिता झवेर जी दृढ़ विश्वास व इच्छाशक्ति वाले महान क्रांतिकारी थे। जैसा कि पूर्व में वर्णित किया जा चुका है कि, आप 1857 क्रांति में एक फ़ौजी के रूप में झांसी की रानी की फ़ौज में शामिल होकर, अंग्रेजो के विरुद्ध भीषण संग्राम में प्रतिभाग कर चुके थे। श्री वल्लभ भाई पटेल जी को क्रांति और संघर्ष की भावना अपने पिता से ही विरासत में मिली थी।

    तत्कालीन समय करमसद में गुजराती भाषा की तीन दर्जों वाली एक मात्र शाला थी, श्री वल्लभभाई पटेल जी के मन में बचपन से ही अंग्रेजी पढ़ने, और शान -शौकत भरा जीवन जीने के प्रति उत्कृष्ट अभिलाषा थी। आपने गांव की प्राथमिक शाला में कुछ दर्जों की प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की। उसके पश्चात (चूंकि गांव में अंग्रेजी की कोई शाला नहीं थी) अंग्रेजी पढ़ने के उद्देश्य से पेटलाद के अंग्रेजी विद्यालय में प्रवेश करा लिया।

    पेटलाद करमसद से छह-सात मील बड़ौदा स्टेट्स में स्थित था। प्रारम्भ में वल्लभ भाई जी को गांव के कुछ लड़कों के साथ ऊषाकाल में ही करमसद से पेटलाद के लिये पैदल ही चल देना पड़ता था। पेटलाद का पैदल रास्ता खेतों के बीच से पगडंडियों से होकर जाता था। पैदल आने जाने में काफ़ी वक्त व्यर्थ में गुजरता देख, वल्लभभाई जी ने कुछ दिनों के पश्चात अन्य कुछ विद्यार्थियों के साथ पेटलाद में एक किराये का कमरा लेकर पढ़ाई करने लगे, जहां भोजन भी मिलजुल कर पकाते थे।

    वल्लभ भाई पटेल जी को बचपन से ही पढ़ने में गहरी रुचि थी। सौभाग्य की बात यह थी कि उनके स्वयं के माता पिता को भी अपने बच्चों को पढ़ाने का पूरा शौक था। जबकि जिस साधारण कृषक परिवार में वल्लभ भाई का जन्म हुआ था, वहाँ पर खेतीबारी के अलावा आय का कोई श्रोत नहीं था। ऊपर से इस परिवार पर छह बच्चों के साथ माता- पिता अर्थात एक बड़े परिवार के भरण-पोषण का बोझ था। इन सबके बावजूद भी उनके माता-पिता अपना पेट काट कर भी बच्चों को अधिकाधिक पढ़ाने की चाहत रखते थे।

    इस बारे में श्री वल्लभभाई जी ने स्वयं एक बार बताया था कि, मेरे पिताजी को हमें पढ़ाने का बड़ा शौक़ था, प्रतिदिन प्रातः वह हमें अपने साथ खेतों पर ले जाते थे, आते-जाते हमसे पहाड़े बुलवाते और ज़रूरी होता तो उसे रटवाते, हम पांचो भाइयों ने खेतीबारी का हरेक कार्य किया है।

    दो वर्ष पेटलाद में पढ़ाई करने के पश्चात आगे की पढ़ाई के लिए श्री वल्लभ भाई पटेल जी अपने ननिहाल नडियाद चले गए। उस समय उनके मामा जी श्री डूंगरभाई देसाई नडियाद म्यूनिसिपलटी में भवन निर्माण विभाग पर ओवरसियर जैसे महत्वपूर्ण पद पर तैनात थे। फिर भी वल्लभ जी ने मामा जी के घर रहकर पढ़ाई करने के बजाय अन्य विद्यार्थियों के साथ किराए पर कमरा लेकर पढ़ाई करने का निर्णय लिया। वल्लभ भाई जी ने नडियाद हाई स्कूल में अपना दाखिला ले लिया, और अध्यनरत हो गए। श्री वल्लभ भाई जी अन्य विषयों में तो ठीक थे किन्तु गणित में थोड़ा कमज़ोर थे, जिसके चलते वह प्रथम प्रयास में हाई स्कूल परीक्षा में सफ़ल ना हो सके, किन्तु अगले वर्ष (1897) में उन्होंने गणित विषय पर ज्यादा ज़ोर देकर पढ़ाई की, और अच्छे अंकों से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। अब तक वल्लभ जी की उम्र बाइस (22) वर्ष की हो चुकी थी। बाइस वर्ष की उम्र में हाईस्कूल करना इस बात की ओर इंगित करता है कि, श्री वल्लभ भाई पटेल जी की शिक्षा ग्रामीण आंचल की वजह से अन्य की अपेक्षा थोड़ी देर से प्रारम्भ हो पाई थी। उस ज़माने में हाई स्कूल परीक्षा पास कर लेना भी समाज मे बड़ी उपलब्धि माना जाता था। हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के पूर्व, वल्लभ भाई पटेल जी जब अट्ठारह (18) वर्ष के थे तभी उनका विवाह तत्कालीन प्रथानुसार गांव (करमसद) से लगभग चार किलोमीटर (4km) की दूरी में स्थिति, गाना नामक ग्राम के श्री पूंजा भाई पटेल की तेरह (13) वर्षीय इकलौती पुत्री कु० झबेरबा बाई के साथ हो चुका था। (उस समय विवाह के बाद लड़की कुछ वर्षों तक पहले पिता के घर में ही रहती थी फिर वह ससुराल आती थी) वल्लभ भाई मैट्रिक करने के बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। किन्तु स्वयं के विवाहित हो जाने और घर की आर्थिक स्थित ठीक न होने के कारण परिवार के सदस्य चाहते थे कि वह कोई नौकरी करें।

    इस बारे में स्वयं वल्लभ भाई जी ने सन 1932-33 में यरवदा जेल प्रवास में महादेव देसाई को हंसी-हंसी में बताया था कि, "मेरे मामा श्री डूंगर भाई जी जो उस समय नाडियाड नगर पालिका में ओवरसियर पद पर कार्यरत थे,

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