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Meri Dharmik Yatra (मेरी धार्मिक यात्रा)
Meri Dharmik Yatra (मेरी धार्मिक यात्रा)
Meri Dharmik Yatra (मेरी धार्मिक यात्रा)
Ebook496 pages4 hours

Meri Dharmik Yatra (मेरी धार्मिक यात्रा)

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अधर्म हजार हो सकते हैं, धर्म हजार नहीं हो सकते। अधर्म बीमारी है, धर्म स्वास्थ्य है। इसलिए धर्म तो एक ही हो सकता है, और जिस दिन मनुष्य-जाति पर सिर्फ धर्म का सास्वत सनातन होगा , उस दिन ही हम धर्म के नाम पर हो रही नासमझियों से मुक्त हो सकेंगे।
अब इस नये आदमी को, इस इक्कीसवीं सदी के आदमी को नई नीति चाहिए। उस नीति के नये आधार चाहिए। यह नई नीति ज्ञान पर खड़ी होगी, भय पर नहीं। यह नई नीति इस बात पर खड़ी होगी कि आज के आदमी को समझ में आना चाहिए कि नैतिक होना उसके लिए आनंदपूर्ण है, नैतिक होना उसके लिए स्वास्थ्यपूर्ण है।
नैतिक होना उसके निजी हित में है। यह किसी भविष्य के भय के लिए नहीं है। यह कल मृत्यु के बाद किसी स्वर्ग के लिए नहीं, आज इसी पृथ्वी पर नैतिक होने का रस। और जो अनैतिक है वह अपने हाथ से अपने पैर काट रहा है। जो अनैतिक है वह भविष्य में नरक जाएगा ऐसा नहीं है, जो अनैतिक है वह आज अपने लिए नरक पैदा कर रहा है।
एक आदमी जब पूरे तीव्र क्रोध में होता है तो जितना जहर उसके खून में फैलता है, इसका सौ गुना जहर एक आदमी की हत्या के लिए काफी है। यह हमें ज्ञान का हिस्सा बनाना पड़ेगा। अब भविष्य की नैतिकता ज्ञान का हिस्सा होगी। हमें प्रेम को ज्ञान को अपना हिस्सा बनाना पड़ेगा।
मंजिल के बिना अगर कोई रास्ता हो तो अर्थहीन ही होगा, असंगत ही होगा। क्योंकि जो रास्ता किसी मंजिल पर न पहुंचाता हो, उसको रास्ता कहना ही बहुत कठिन है। एक दिन रास्ते को मंजिल भी स्वीकार करनी पड़ती है। और कोई साधन साध्य के बिना अर्थपूर्ण नहीं हो पाता है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 15, 2022
ISBN9789355993557
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    Meri Dharmik Yatra (मेरी धार्मिक यात्रा) - Ravindra Bhai Patel

    मेरी धार्मिक यात्रा

    रविंद्र भाई पटेल

    eISBN: 978-93-5599-355-7

    © लेखकाधीन

    प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.

    X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II

    नई दिल्ली- 110020

    फोन : 011-40712200

    ई-मेल : ebooks@dpb.in

    वेबसाइट : www.diamondbook.in

    संस्करण : 2022

    Meri Dharmik Yatra

    By - Ravindra Bhai Patel

    अलौकिक दिव्य ब्रह्मांड का प्रथम और आखरी सत्य ‘अन्त’ है। यहां पर जो भी है जैसा भी है मानव द्वारा निर्मित या प्रकृति द्वारा निर्मित सब का एक ना एक दिन अंत निश्चित है। स्वयं को चिरंजीवी सोच कर अपने आप को गुमराह करने से बेहतर है कुछ बेहतर करें। आदर्श महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लें और इस भारत माता के चरणों को सुशोभित करें।

    हम सभी एक निश्चित समय के लिए मानव शरीर को धारण करके इस खूबसूरत धरा पर आए हैं। उसी निश्चित समय में अपने कर्मों को करके सिधार जाना है।

    इस अलौकिक दिव्य ब्रह्मांड में जन्में सभी मानवों को अपना-अपना किरदार निभाना है और जिसका जैसा कर्म व व्यवहार होगा उसको संसार उसी रूप में पहचानेगा।

    -पुस्तक से

    प्रस्तावना

    हम सभी भूमिजा हैं, कभी-कभी यह सुनकर बहुत दुःख होता है और हृदय में एक पीड़ा उभरती है, जब कोई कहता है यह तेरा देश है, वह मेरा देश है, यह हमारी भाषा है, वह हमारी भाषा है, इस पर मेरा अधिकार है, उस पर तुम्हारा अधिकार है, यह हमारा क्षेत्र है, वह तुम्हारा क्षेत्र है।

    पृथ्वी माता की ममता के आगे यह आरोप कहीं टिक पाते हैं, यह माता क्या हमारी और तुम्हारी नहीं हो सकती या हमारी माता क्या यह भाषा और क्षेत्रवाद, राष्ट्रवाद माता के आंचल में फीके नहीं पड़ते? क्या मैं और तुम इस धरा के आंचल में नन्हें-नन्हें पैरों से चलकर बड़े नहीं हुए हैं।

    ममतामई माता की गोद में हम सभी ने एक सुनहरा बचपन जिया है एक दायित्वों व कर्मों से भरी जवानी को जिया है स्वर्णिम ज्ञान युक्त बुढ़ापा भी इसी मां की गोद में जिया है, अंत में इसी माता के आलोकिक आँचल में सो जाना है।

    तो क्या यह मां हमारे लिए प्राणों-सी प्रिय नहीं हो सकती, तो क्या इस मां के लिए मर मिटने के लिए लेस भर संकोच करना इस मां के लिए संपूर्ण न्याय हो सकता है?

    पृथ्वी को कई हिस्सों में बांट कर देखने से इस मां को क्या उचित न्याय मिल सकता है? नहीं! ऐसा कोई सत्य नहीं है। सत्य तो यह है कि ये हमारी माता है, हम माने या ना माने, ये सदैव रहेगी। उचित ये है इस सत्य को मानकर खुशहाल जीने का मार्ग क्यों नहीं हो सकता?

    -रविंद्र भाई पटेल

    मेरी धार्मिक यात्रा

    धर्म, जिसे लोग समुचित जानकारी के अभाव में अपनी-अपनी परिभाषाएं देकर समझने-समझाने का प्रयास-दुष्प्रयास करते हैं, वास्तव में अत्यंत व्यापक और विशाल अर्थ को अपने आप में समेटे हुए है। धर्म ही इस चराचर जगत एवं सम्पूर्ण जीवों के जीवन का मूल है। धर्म के बिना न इस सृष्टि की कल्पना की जा सकती है और न ही मानव जीवन की। धर्म के बिना ये विश्व श्रीहीन हो जायेगा। जिसमें न किसी प्राण शक्ति का वास होगा न किन्हीं पुण्य विचारों का। धर्म के बारे में लोगों ने कई तरह की भ्रांतियाँ पाल रखी हैं और दूसरों को भी उसी हिसाब से दिग्भ्रमित करने में लगे रहते हैं। अतः धर्म को सही प्रकार से समझना सर्वप्रथम अति आवश्यक है। और कहीं न कहीं यही बात विज्ञान के बारे में भी कही जा सकती है।

    विज्ञान सत्य की खोज है, धर्म-सत्य का अनुभव है, जब-जब विज्ञान ने असहज और अक्षम महसूस किया है तब-तब विज्ञान सदैव धर्म रूपी नौका पर विचरण करके समुद्र रूपी बाधा को पार कर अपनी उच्चतम शिखर पर सुशोभित हुआ है विज्ञान चाहे पृथ्वी के किसी भी भू-भाग में उत्पन्न हो सनातन सत्य की अभिव्यक्ति। विज्ञान प्राणी का प्राथमिक चरण है। और विज्ञान चाहे तो बहुत देर तक बिना धर्म के फल-फूल सकता है। क्योंकि सत्य की खोज ही उसका अंतिम उद्देश्य है, वह अपने मार्ग को परिपूर्ण करता है, परन्तु उसका परिणाम मानव के जीवन को पथ भ्रमित करता है। संवेदनहीनता; मानव ही मानव को नोच खाता है फिर भी कभी-कभी बिना धर्म के विज्ञान जिया है। और जिया ही नहीं फला-फूला है। इतना ही नहीं विज्ञान धर्म को अस्वीकार करके भी जिया है। कोई रास्ता चाहे तो बिना मंजिल के भी हो सकता है। लेकिन उसका परिणाम क्या होगा? बिना मंजिल का रास्ता कब कहां पूर्ण हुआ है।

    परन्तु समय के कालखंड में विज्ञान जैसे-जैसे विकसित होगा- मनुष्य सिर्फ सत्य को जानना ही नहीं चाहेगा, बल्कि वो सत्य होना भी चाहेगा। और उस सत्य के साथ जिना भी चाहेगा। इसलिए बहुत देर तक विज्ञान भी धर्म के बिना नहीं रह सकता है। और उसके साथ न रहने से समाज में व्यवस्था, सहनशीलता, मानवता नष्ट होने की संभावना आये दिन प्रकट होती चली जाती है।

    विगत सदी के बड़े से बड़े वैज्ञानिक- चाहे अल्बर्ट आइंस्टीन हों या ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, चाहे जगदीश चंद्र बसु हों, या कोई और क्यों न हो वे सारे लोग जीवन के प्रारम्भ या अपने अंतिम क्षणों में धर्म की बात करते हुए पाए गए थे। यह मानव जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण संभावनाएं हैं।

    आने वाली सदी में विज्ञान रोज-रोज धार्मिक होता चला जाएगा। क्योंकि कोई रास्ता मंजिल के बिना पूरा नहीं हो सकता है, लेकिन बिना रास्ते से भी पूरी नहीं हो सकती ।

    परन्तु मंजिल के बिना अगर कोई रास्ता हो तो अर्थहीन ही होगा, असंगत ही होगा। क्योंकि जो रास्ता किसी मंजिल पर न पहुंचाता हो, उसको रास्ता कहना ही बहुत कठिन है। एक दिन रास्ते को मंजिल भी स्वीकार करनी पड़ती है। और कोई साधन साध्य के बिना अर्थपूर्ण नहीं हो पाता है।

    इसलिए पश्चिम में जहां विज्ञान का गहरा प्रभाव है, रोज-रोज अर्थहीनता, भावहीनता का भी विस्तार होता चला गया है। समाज का एक न होना, परिवार मतलब ‘हम दो’ में कभी-कभी एक ही व्यक्ति परिवार में रह जाता है।

    विज्ञान को धर्म स्वीकार करना पड़ेगा। उसे हर स्थिति में स्वीकार करना पड़ेगा।

    धर्म का अर्थ है; सत्य के साथ एक होने की आकांक्षा, सत्य का अनुभव। आदमी इतने से तृप्त नहीं हो सकता कि सत्य क्या है? उसकी तृप्ति तो पूरी तभी होती है जब वह सत्य के साथ एक हो जाए।

    केवल हम ही नहीं जानना चाहेंगे कि प्रेम क्या है; हम प्रेम होना भी चाहेंगे। हम यह जानना ही नहीं चाहेंगे कि धन क्या है; हम धनी होना भी चाहेंगे।

    हम यही न जानना चाहेंगे कि सत्य क्या है; हम सत्य होना भी चाहेंगे। क्योंकि जानना सदा होने के लिए एक चरण है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसलिए दूसरा चरण, मनुष्य की खोज का धर्म है।

    धर्म चाहे तो बहुत दिनों तक बिना विज्ञान को स्वीकार करके जी सकता है। परन्तु जैसा मैंने कहा कि विज्ञान चाहे तो बिना धर्म के कुछ दिन जी सकता है। धर्म चाहे तो कुछ दिनों तक बिना विज्ञान के जी सकता है।

    लेकिन जब धर्म की बहुत गहरी अनुभूति होगी, तो जो हमने जाना है वह प्रकट भी होना चाहेगा। सिर्फ जो हम हो गए हैं, उतना ही काफी नहीं है।

    जो हम हो गए हैं वह अभिव्यक्त भी होना चाहेगा। हम न केवल जानना चाहेंगे कि प्रकाश कैसे जन्मता है, हम प्रकाश होना भी चाहेंगे। लेकिन हम प्रकाश होने से चुप नहीं होंगे; हम प्रकाश की किरणों को दूर-दूर तक फैलाना भी चाहेंगे। उसे महसूस भी करना चाहेंगे।

    जिस दिन धर्म की अनुभूति इतनी प्रगाढ़ होती है कि वह अपनी उच्चतम शिखर पर पहुँच जाए, जिस दिन धर्म की अनुभूति इतनी गहरी होती है कि हमसे बाहर बहने लगे, चारों तरफ फैलने लगे, उस दिन विज्ञान का जन्म होता है। धर्म चाहे तो कुछ देर तक विज्ञान से बच सकता है, लेकिन बहुत ज्यादा देर तक नहीं बचा जा सकता। अनुभूति जब गहरी होगी, तो बंटना चाहेगी। जब बादल बहुत सघन हो जाएंगे, तो बरसना चाहेंगे। और जब नदी में वेग आएगा, तो वह सागर की तरफ दौड़ना चाहेगी। जब प्रेम हमारे हृदय में भर जाएगा, तो वह चारों तरफ बरसना चाहेगा और जब बीज पूर्ण विकसित होगा, तो फूट कर अंकुर बनना ही चाहेगा।

    सत्य की अनुभूति पर ही बात नहीं रुक जाती; सत्य की अभिव्यक्ति भी अनिवार्य है। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जितना सत्य अनुभव करने से मिलता है, उससे हजार गुना सत्य अभिव्यक्त करने से वापस लौट आता है। क्योंकि जो हम देते हैं, वह हमें वापस हजार गुना होकर मिलने लगता है। जिस में हम दूसरों को साझीदार बनाते हैं, जिस में हम दूसरों को बंटवारे में मित्र बनाते हैं, वह चीज हम पर लौटने लगती है। सत्य की अनुभूति अंततः सत्य की अभिव्यक्ति बनती है।

    विज्ञान पहला चरण है मनुष्य की यात्रा का, धर्म दूसरा चरण एवं अंतिम चरण है। लेकिन यह बड़ी कठिन बात है, जैसा मैं कह रहा हूं इतिहास में ऐसा हुआ कि धर्म पहले आया, और विज्ञान सबसे बाद में आया। इसलिए कुछ और बातें भी आपको बताना चाहूंगा। जो धर्म विज्ञान पहले आ जाएगा, वह अवैज्ञानिक होगा। जो धर्म मनुष्य के पास विज्ञान के पहले आ जाएगा, वह अंधविश्वास के निकट होगा, वैज्ञानिक नहीं हो सकता। धर्म और विज्ञान दोनों एक साथ चलते हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मानव जीवन में दोनों की उपस्थिति अनिवार्य है। इसलिए जो धर्म विज्ञान पहले पृथ्वी पर आ गया, वे जिन्होंने धर्म का अनुभव किया, वे बहुत थोड़े से लोग हैं -उसमें राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, जीसस, दस-पांच लोगों के जीवन में तो वह गहरे अर्थों में था, वे महान लोग थे जिन्होंने धर्म को सही रूप में धारण किया और मानव जीवन का मार्गदर्शन किया।

    लेकिन हम सबके जीवन में वह अंधविश्वास से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता था। विज्ञान के विकास के साथ धर्म का साथ चलना अनिवार्य है, वही वैज्ञानिक हो सकता है। यही वजह है कि दुनिया में होना तो चाहिए था एक धर्म, सनातन अर्थात शाश्वत लेकिन हो गए अनेक। बीमारियां अनेक हो सकती हैं, स्वास्थ्य अनेक नहीं होते। मैं बीमार पडूंगा, तो अपने ढंग से; आप बीमार पड़ेंगे, तो अपने ढंग से। बीमारियों के हजारों नाम हैं- कोई टी.बी. से बीमार पड़ता है, कोई कैंसर से बीमार पड़ता है। लेकिन जब आप स्वस्थ हो जाते हैं तो स्वास्थ्य का कोई भी नाम नहीं है। तब आप यह नहीं कह सकते कि मैं किस ढंग से स्वस्थ हो गया हूं। आप सिर्फ स्वस्थ हो जाते हैं।

    अधर्म हजार हो सकते हैं, धर्म हजार नहीं हो सकते। अधर्म बीमारी है, धर्म स्वास्थ्य है। इसलिए धर्म तो एक ही हो सकता है, लेकिन एक नहीं हो सका। क्योंकि विज्ञान के पहले जो भी आएगा वह अंधविश्वास होगा,वह विज्ञान नहीं बन पाता है। जिस दिन मनुष्य-जाति पर सिर्फ धर्म का शाश्वत सनातन होगा, उस दिन ही हम धर्म के नाम पर हो रही नासमझियों से मुक्त हो सकेंगे, उसके पहले नहीं हो पाएंगे।

    आश्चर्य की बात है कि साधारण धार्मिक आदमी हिंदू-मुसलमान होता है, सो ठीक है। परन्तु संन्यासी भी हिंदू, मुसलमान, ईसाई और जैन होता है? कम से कम संन्यासी तो सिर्फ सनातनी शाश्वत धार्मिक हों? वह भी इस संसार में संभव नहीं हो पाया है। आश्चर्यजनक है यह बात, असल में समाज के रोग संन्यासी को भी पकड़ लेते हैं। समाज की सीमाएं और विशेषण संन्यासी को भी घेर लेते हैं। समाज की गुलामियां और समाज के बंधन संन्यासी को भी जकड़ लेते हैं।

    सनातन अर्थात शाश्वत कुछ थोड़े से व्यक्तियों के जीवन में उसकी अनुभूति गहरी थी। लेकिन व्यक्तियों के जीवन में वह तब तक नहीं पहुंच सकता था जब तक कि विज्ञान ठीक भूमि को साफ न कर दे। अब विज्ञान ने भूमि ठीक से साफ कर दी है। अब धर्म अवैज्ञानिक ढंग से नहीं स्वीकृत होगा, इसीलिए समाज में बड़ी कठिनाई पैदा हो रही है।

    जो लोग शाश्वत को छोड़कर अंध विश्वासों को पकड़े हुए हैं, वे सोचते हैं कि सारी दुनिया अधार्मिक होती जा रही है।

    संसार में बड़ी भ्रांतियां हैं। सारी दुनिया अधार्मिक नहीं हो रही, सारी दुनिया अंधविश्वासों से मुक्त होने की कोशिश कर रही है और सनातन को अवधारण करने की संभावनाएं प्रकट हो रही हैं। आज बड़ी अजीब हालत है। जिसको हम कहें कि जो मंदिर नहीं जाता, हमारे पुराने शास्त्र को नहीं मानता, हमारे पुराने सिद्धांत को नहीं मानता, बहुत संभावना उल्टी हो गई है। संभावना यह हो गई है कि उस आदमी की जिंदगी में धर्म थोड़ा ज्यादा हो सकता है बजाय उनके जो मंदिर जाते हैं, पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं।

    सच तो यह है कि इस सदी के समस्त बुद्धिमान, विचारशील लोग धर्म के कारागृहों में खड़े होने को राजी नहीं रह गए हैं। उसका कारण यह नहीं है कि लोग अधार्मिक हो गए हैं, उसका कारण कुल इतना-सा है कि अब धर्म वैज्ञानिक होने की चेष्टा कर रहा है। और अवैज्ञानिक धाराएं उसे छोड़नी पड़ेंगी। उन्हें वह छोड़ रहा है। तो आज उल्टी बात हुई है।

    अगर हम राम के समय या बुद्ध के समय में लौटें या कृष्ण के समय में लौटें, तो उस समय का श्रेष्ठतम बुद्धिमान आदमी धार्मिक था। आज अगर हम धर्म की तरफ देखें, तो आज का सबसे कम विकसित आदमी धार्मिक मालूम पड़ता है। सबसे कम शिक्षित, सबसे कम बुद्धिशाली, सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ आदमी आज धार्मिक मालूम पड़ता है। कृष्ण के जमाने में सबसे ज्यादा विकसित, सबसे ज्यादा बुद्धिमान आदमी धार्मिक मालूम पड़ता है। यह हैरानी की बात है। यह हमारे आपके विचारयुक्त बात है।

    आज जो आदमी ठीक से शिक्षित है, जो आदमी ठीक से सोच-विचार करता है, वह आदमी अचानक अधार्मिक क्यों हो जाता है? यह सोचने जैसी बात है। हम कहेंगे, यह शिक्षा गलत है। हम कहेंगे कि ये व्यक्ति शिक्षा के नसे में चूर है परंतु यह तर्क गलत है जो आज लोगों को दिए जा रहे हैं, इसलिए लोग अधार्मिक हो रहे हैं।

    नहीं, ऐसा नहीं है। बात उल्टी हो गई है। बात ऐसी हो गई है कि धर्म अब वैज्ञानिक सुचिंतित होने की चेष्टा कर रहा है। जब सुचिंतित होने की चेष्टा धर्म करेगा, तो निश्चित ही विचारशील लोग बंधी हुई धाराओं के बाहर हो जाएंगे। धर्म अब वैज्ञानिक हो सकता है, क्योंकि विज्ञान अब विकसित हुआ है। जैसे आज से सौ साल पहले का वैज्ञानिक ईश्वर को इनकार कर रहा था, लेकिन आज का वैज्ञानिक उतनी हिम्मत से ईश्वर को इनकार नहीं कर सकता है।

    आइंस्टीन ने मरने से पहले कहा कि जब मैंने विज्ञान की खोज शुरू की थी, तो मैं सोचता था कि आज नहीं कल, सब जान लिया जाएगा। और आइंस्टीन शायद मनुष्य-जाति में पैदा हुए उन थोड़े से लोगों में से एक हैं, जिसने सर्वाधिक विज्ञान को जाना है। मरने के दो या तीन दिन पहले आइंस्टीन ने अपने एक मित्र को कहा कि जो भी मैंने जाना है, आज मैं कह सकता हूं कि उससे सिर्फ मुझे मेरे अज्ञान का पता चलता है और कुछ भी पता नहीं चलता। और जो जानने को शेष रह गया है, वह इतना ज्यादा है कि जो हमने जान लिया है, उसकी तुलना भी नहीं की जा सकती। मरने से पहले आइंस्टीन ने कहा कि मैं एक रहस्यवादी की तरह मर रहा हूं, एक वैज्ञानिक की तरह नहीं। और यह संसार रोज-रोज ज्यादा रहस्यपूर्ण होता चला जाएगा। जितनी मैंने खोज की है, उतना ही मैंने पाया है कि खोज करने को और भी ज्यादा आयाम खुल गए हैं, और ज्यादा संभावनाएं उपलब्ध थीं।

    जितने दरवाजे मैंने खोले, पाया कि और बड़े दरवाजों पर पहुंच गया हूं। जितने रास्ते मैंने पकड़े, पाया कि और बड़े राजपथों पर मुझे पहुंचा दिया गया है। जितनी कुंजियां मैंने पाई, उनसे जो ताले मैंने खोले, पाया कि और बड़े ताले आगे लटके हुए हैं।

    जब मैंने सोचना शुरू किया था, तो मैं समझता था कि जगत एक वस्तु है। लेकिन अब मैं कह सकता हूं कि जगत वस्तु की तरह मालूम नहीं पड़ता, बल्कि एक विचार की तरह मालूम पड़ता है। यहां विचारों का भंडार पड़ा है। अगर जगत एक विचार है, तो विज्ञान ने छलांग लगा ली धर्म में। और जगत अगर एक अनंत रहस्य है, तो हमने परमात्मा शब्द का उपयोग किया हो या न किया हो; हम परमात्मा के द्वार पर खड़े हो गए हैं। और अगर जगत हमारे ज्ञान से नहीं सुलझता, सिर्फ जानने से नहीं सुलझता, तो बहुत देर नहीं है जब हम यह बात कह पाएंगे कि जानने से नहीं सुलझेगा; होने से सुलझेगा।

    जीवन में इतना काफी नहीं है कि हम दूर खड़े होकर देखें, बल्कि यह जरूरी हो गया है कि हम एक हो जाएं, तन्मय हो जाएं, डूब जाएं और जानें। शायद जानने का अब एक ही रास्ता है, वह मनुष्य का होना है। विज्ञान अब धर्म के लिए रास्ता खोज रहा है और मैं मानता हूं कि विज्ञान तो तब आएगा, जब बड़े व्यापक पैमाने पर धर्म आ जाए।

    धर्मरूपी प्रेम में डूबी मीरा के भजन हों, तो मीरा के भजन साधारण भजन नहीं हैं। मीरा के भजन एक धर्म की अनुभूति से प्रकट होते हैं मीरा ने अगर भगवान से कुछ पाया है, संसार में बांट तो वो दिया है। आमतौर से लोग समझते हैं कि मीरा ने भजन कर-करके भगवान को पा लिया। नहीं, मैं इसका समर्थक नहीं हूँ।

    मीरा ने पहले भगवान को पाकर भजन गाना शुरू किया था। क्योंकि भजन को गाकर कोई भगवान को कैसे पा सकता है? इतना सस्ता भगवान नहीं हो सकता कि आप भजन गाएंगे और भगवान को पा लेंगे? नहीं, भजन गाना मीरा का भगवान को पाने का रास्ता नहीं है, भगवान को पाने की, जो तृप्ति है उसकी अभिव्यक्ति है, साधना है वह गा कर प्रवाहित कर रही हैं उसके आनंद में ओत-प्रोत होकर नाच रही हैं।

    चैतन्य नाच रहे हैं। वह नृत्य कोई भगवान को पाने के लिए नहीं है, यह तो सभी नाचने वाले भगवान को पा लेंगे। और, चैतन्य से अच्छे नाचने वाले जमीन पर हैं। और, मीरा से अच्छे गाने वाले लोग जमीन पर हैं। लेकिन चैतन्य के नाच की बात और है। चैतन्य की यह थिरक, भगवान को पाने के लिए नहीं, भगवान को पा लेने की थिरक है। यह भगवान समा गया भीतर। अब यह चैतन्य नहीं नाच रहे हैं। अब यह भगवान ही नाच रहा है।

    अब यह प्याली भर गई है और ऊपर से बह रही है। और अब यह बहती हुई प्याली से जो प्रेम पैदा होगा वह बात अलग है। वह शाश्वत में समा जाएगा, सनातन को समझ पाएगा, कृष्ण की बांसुरी से पहले और बाद में कृष्ण से अच्छे बांसुरी बजाने वाले हुए हैं, हो सकते हैं। शायद प्रतियोगिता में कृष्ण बांसुरी बजाने में जीतेंगे कि नहीं जीतेंगे, यह पक्का नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिर कृष्ण की बांसुरी का कोई मुकाबला नहीं है। बांसुरी के तल पर कृष्ण को जीतने वाले लोग हो सकते हैं, लेकिन कृष्ण के तल पर कोई मुकाबला नहीं है। क्योंकि जहां से यह बांसुरी के स्वर आ रहे हैं, वहां अब कृष्ण नहीं हैं, वहां परमात्मा ही हैं। यह बांसुरी कोई खबर दे रही है, यह बांसुरी भीतर जो बजी है, उसे बाहर फैला रही है। भीतर जो अनुगूंज पैदा हुई है उसे बाहर पहुंचा रही है।

    धार्मिक व्यक्ति में बुढ़ापे की भी कीमत होती है। बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है। किसने कहा कि बुढ़ापे में सौंदर्य नहीं है। बचपन का अपना सौंदर्य है, जवानी का अपना सौंदर्य है, बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है। और धार्मिक आदमी के लिए जन्म ही सुंदर नहीं है। मृत्यु का भी अपना सौंदर्य है। मानव जीवन का प्रत्येक आयाम सौंदर्य से ओत-प्रोत होता है।

    जब सुबह सूरज उगता है, तब ही सुंदर नहीं होता; जब सांझ डूबता है, तब भी सुंदर होता है। और अगर कोई आदमी सच में, ढंग से बूढ़ा हो जाए बहुत कम लोग हो पाते हैं, क्योंकि जवानी इतने जोर से पकड़ लेती है कि आदमी ठीक से बूढ़ा नहीं हो पाता।

    अगर कोई आदमी ठीक से बूढ़ा हो जाए, तो बूढ़े के बराबर सुंदर, जवान कभी भी नहीं हुआ है। क्योंकि जवानी में उत्तेजना है, जवानी में तूफान हैं, आंधियां हैं। बुढ़ापे का सौंदर्य बड़ा शांत सौंदर्य है। बुढ़ापे का सौंदर्य संध्या का सौंदर्य है। बूढ़ापे में व्यक्ति शांति की अनंत यात्रा को प्राप्त करता है।

    सुबह की जिंदगी तो तनाव की है। दिन भर का उपद्रव शुरू हो रहा है। सांझ में सब उपद्रव शांत हो गया और रात का विश्राम निकट आ रहा है। सांझ के सूरज का मुकाबला क्या है?

    पक्षी लौटने लगे हैं घर को, वृक्ष मौन और निद्रा में जाने लगे हैं, सूरज डूबने लगा है, अंधेरा पृथ्वी को घेर लेगा। सब चुप हो जाएगा। सब परमात्मा में एक अर्थों में लीन हो जाएगा। बुढ़ापा भी संध्या भी।

    लेकिन जब हम जवानी का चित्र बनाते हैं और बुढ़ापे का चित्र बनाते हैं और कहते हैं, सावधान! बुढ़ापा आ रहा है, तो दो बातें पक्की हैं। जवानी हमारे लिए कीमती है और बुढ़ापे के हम भी दुश्मन हैं।

    तो यह आध्यात्मिक चित्र नहीं हो सकता। यह सिर्फ दिखावटी है। यह सिर्फ शीर्षासन करती हुई वासना है। वासना ग्रस्त आदमी इसमें से यह मतलब नहीं निकालेगा, जो वासना के दुश्मन ने निकाला है। वासनाग्रस्त इस चित्र को देख कर एकदम दौड़ पड़ेगा, वह कहेगा, बुढ़ापा निकट आ रहा है।

    दिन जल्दी डूबने वाला है, जो भी करना है कर लो। तो वह कहेगा, अब जल्दी पीओ, जल्दी खाओ, जल्दी नाचो, क्योंकि बुढ़ापा करीब आ रहा है। इन दोनों का तर्क एक जैसा है, इस तर्क में फर्क नहीं है। इन दोनों का तर्क यही है कि बुढ़ापा आ रहा है। मौत आ रही है। अर्थात जीवन का अंत आ रहा है।

    नहीं, इसको मैं आध्यात्मिक चित्र नहीं कहूंगा। आध्यात्मिक ओत-प्रोत चित्र जमीन पर बहुत कम पैदा हो रहे हैं या तो वासना ग्रस्त मानव है, या वासना विरोधी है। और जो वासना के विरोध में है, वह भी वासना ग्रस्त है।

    जो दुश्मन है वासना का, वह भी वासना ग्रस्त है। जो कह रहा है कि सुख क्षणभंगुर है, इसलिए छोड़ो। वह वास्तव में सुख छोड़ने को नहीं कह रहा है,

    वह यह कह रहा है कि क्षण भंगुर है, इसलिए छोड़ो। लेकिन अगर शाश्वत हो तो?

    तो फिर छोड़ना नहीं है। इसलिए जमीन पर स्त्री को छोड़ो और स्वर्ग में अप्सरा को भोगो। यह धार्मिक आदमी है! जमीन पर शराब छोड़ो और स्वर्ग में शराब के नदियाँ बह रही हैं, उसमें नहाओ। जमीन पर स्त्रियों से बचो और स्वर्ग की अप्सराएं सोलह साल से ज्यादा उम्र की होती ही नहीं, उनकी तैयारी करो।

    यह आदमी धार्मिक है! यह आदमी कह रहा है, जमीन पर कामनाएं छोड़ो और स्वर्ग में कल्पवृक्ष लगे हैं उनके नीचे बैठो और कामनाएं करो और पूरी हो जाएं। बड़े मजे की बात है, कामनाएं इसलिए छोड़ो कि कल्पवृक्ष मिल जाए। तो यह कामना छोड़ने वाले की वृत्ति नहीं है, यह तो मुझे लगता है कि भोगी से भी ज्यादा भोगी मालूम पड़ता है।

    भोगी तो बेचारा क्षणभंगुर से राजी है। बड़ा त्यागी है। यह आदमी कह रहा है कि हम क्षणभंगुर को छोड़ते हैं, क्योंकि हम शाश्वत को चाहते हैं। हम रमणी को छोड़ते हैं क्योंकि हम तो मोक्षरमणी को चाहते हैं।

    हम जमीन की स्त्रियों को छोड़ेंगे, क्योंकि वह बूढ़ी हो जाती हैं। हम तो स्वर्ग की अप्सराएं चाहते हैं जो कभी वृद्ध नहीं होती। हम सुख छोड़ते हैं क्योंकि यह आते हैं और चले जाते हैं। हम ऐसे सुख चाहते हैं, जो आएं और कभी न जाएं।

    यह आदमी आध्यात्मिक है या सुखवादी है? इसलिए मुकाबला ही नहीं है, सुखवाद का। इस सुखवादी ने स्वर्ग बनाए हैं। यह धार्मिक नहीं है। यह प्रलोभन दे रहा है। यह कह रहा है, यहां की स्त्रियां छोड़ो तो और अच्छी स्त्रियां इंतजार कर रही हैं। यहां का धन छोड़ो, तो अपार धन, अनंत धन इंतजार कर रहा है। यहां का शरीर छोड़ो, तो फिर और सुंदर देह मिल जाएगी। देवों की देह। नहीं, यह धार्मिक चिंतन नहीं है। यह वासना शीर्षासन करती हुई खड़ी हो गई है। इसलिए जो आदमी समझना चाहता हो, वह थोड़ा ठीक से देख ले कि इस तरह के सारे के सारे चिंतन के पीछे हमारी अतृप्त कामना ही मांग कर रही है। वासना युक्त कामना की मांग कर रहा है। यह ठीक नहीं है। इससे कोई अध्यात्म पैदा नहीं होगा। आध्यात्मिक जीवन तो आध्यात्मिक चित्त से पैदा होता है। और आध्यात्मिक चित्त परमात्मा में खो जाने का नाम है।

    इसलिए मैं मानता हूं कि अभी वास्तविक आध्यात्मिकता का पृथ्वी पर जन्म सबसे कम हुआ है। विज्ञान थोड़ा वास्तविक हुआ है, धर्म और भी कम वास्तविक हुआ है, जीवन तो बहुत ही मुश्किल है वास्तविक होना। अभी वे महापुरुष कम पैदा हुए हैं। जिनकी वास्तविक झलक मिलती है उपनिषद में, कभी झलक मिलती है गीता में, झलक मिलती है बाइबिल के किसी वचन में, कभी झलक मिलती है कबीर की किसी पंक्ति में, अभी वे महान मूर्तियां पैदा नहीं हुई। लेकिन वह झलक है, अभी पृथ्वी उनसे भर नहीं गई।

    जीवन का चरमत्कर्ष अभी आना बाकी है फिर जरूरी नहीं है कि आप मूर्ति ही बनाएं। फिर जरूरी नहीं है कि आप चित्र ही रंगें, फिर जरूरी नहीं है कि आप बांसुरी ही बजाएं। कुछ भी जरूरी नहीं है। फिर आपका पूरा जीवन ही सृजनात्मक होगा। शाश्वत में लीन होंगे तो आप चलेंगे तो भी उसमें काव्य की झलक दिखाई देगी।

    जब कृष्ण बाँसुरी वादन करते थे उसमें आस्था और शाश्वत की गागा का बहाव होता था, जब बुद्ध चलते थे पृथ्वी पर, तो उनके कदमों की आहट में भी काव्य होता था; और जब जीसस सूली पर लटके हुए लोगों की तरफ देखते थे, तो उनकी आंखों से करुणा से भरे सागर की धारा बहती थी। आस्था का केंद्र आत्मा तभी हो सकती है जब मनुष्य लेने को उत्सुक न हो, कुछ बदलने को उत्सुक न हो, आस्था से कुछ बदलाव शुरू हो जाए, एक मानव दूसरे मानव को

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