मेरा बाल-विज्ञान लोकप्रियकरण
By आइवर यूशिएल
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About this ebook
बच्चों के बीच अपनी ज्ञानवर्धक एवं रोचक पुस्तकों के लिए प्रसिद्ध आइवर यूशिएल के इस संकलन में इनके लेखन की मुख्य धारा से इतर, बाल-विज्ञान लोकप्रियकरण से संबंधित कुछ ऐसे लेख संग्रहीत हैं जिसमें लेखक ने अपने जीवन और इस क्षेत्र के विभिन्न पहलुओं को लेकर समय-समय अपने अनुभव और विचार साझा किए हैं l
बच्चों के बीच वैज्ञानिक चेतना जगाने के उद्देश्य से प्रस्तुत की गई एवं लोकप्रियता के आधार पर बिक्री के नए आयाम स्थापित करने वाली '101 साइंस गेम्स', '101 मैजिक ट्रिक्स' व '101 साइंस एक्सपेरिमेंट्स' जैसी पुस्तकों के लेखक आइवर यूशिएल ने केवल और केवल बच्चों के बीच पिछले 40 वर्षों से ज्ञान-विज्ञान को चीनी चढ़ी दवाई की तरह जिसतरह पहुंचाया, वह अपने आप में एक सराहनीय व अनुकरणीय उदाहरण है l
विज्ञान व गणित जैसे शुष्क व उबाऊ लगने वाले कठिन विषयों को खेल-खेल में इस नई पीढ़ी के सामने प्रस्तुत कर इन विषयों के साथ दोस्ती का भाव पैदा कर देंना लेखक की अपनी विशेषता रही है जिसकी वजह से ही देश-विदेश के लाखों बाल-पाठकों का प्यार बटोरने में लेखक सफल हो पाया है l
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मेरा बाल-विज्ञान लोकप्रियकरण - आइवर यूशिएल
मेरा
बाल-विज्ञान लोकप्रियकरण
––––––––
आइवर यूशिएल
––––––––
ज्ञाशिम
gyashim@gmail.com
सर्वाधिकार : लेखक
आवरण : रवि लायटू
संस्करण : प्रथम, 2020
समर्पण
बाल-विज्ञान लोकप्रियकरण
के क्षेत्र में
आधिकारिक भूमिका निभा रहे
उन समस्त गांधारी-पुत्रों को
जिन्होंने देश के लाखों बच्चों की
आशाओं और आकांक्षाओं को
नज़र अंदाज़ कर, अपनी नई पीढ़ी को
पूरी तरह उपेक्षित
कर दिया।
मेरा बाल-विज्ञान लोकप्रियकरण
बच्चों में विज्ञान के प्रति रुचि जागृत कर उनके अंदर वैज्ञानिक चेतना जगाने और उनमें ज्ञान-विज्ञान का विकास करने के अपने प्रयास में पिछले चालीस वर्षों से रत रहने के बावजूद मैं आज तक एक ऐसी अदृश्य शक्ति को पूरी तरह नकार नहीं पाया हूं जिसे आमजन नियति, प्रारब्ध, भाग्य या ‘डेस्टिनी’ कहता है। बहुत चाहते हुए भी मेरे लिए यह गुत्थी हमेशा ही अनसुलझी रह गयी है कि क्यों एक इंसान पूरे प्रयास के बाद भी अपने पसंदीदा क्षेत्र में प्रवेश करने तक से वंचित रह जाता है जबकि कई बार किसी ऐसे क्षेत्र में उसे अनपेक्षित सफलता मिल जाती है जिसके प्रति रुचि की बात तो दूर, उसने कभी सोचा भी नहीं होता है।
एक व्यक्ति किसी एक विशेष दिशा में प्रयास करे और उसे उसमें सफलता हासिल हो जाए तो यह जीवन का एक सीधा सरल समीकरण माना जा सकता है। व्यक्ति प्रयास करने के बावजूद असफल रह जाए तो यह भी उसी समीकरण की दूसरी परिणति के तौर पर स्वीकारने योग्य है, पर वह प्रयास करे एक दिशा में और उसे सफलता मिले उसके ठीक विपरीत किसी दूसरी दिशा में तो इसे एक गहन अध्ययन का विषय माना जाना चाहिए। प्राय: यह भी देखा गया है कि प्रयासरत व्यक्ति अपने क्षेत्र में पूरी तरह सक्षम होने के बावजूद सफलता से कोसों दूर रह जाता है जबकि वही लक्ष्य कभी-कभी ऐसे व्यक्ति के गोद में स्वयं आ गिरता है जिसका इसके लिए कोई विशेष रुझान तक नहीं होता।
यों तो अपने अनुभवों के अम्बार में से देने के लिए बहुत से उदाहरण हैं पर उन्हें प्रस्तुत करने की आवश्यकता ही क्या, जब यहां मेरा अपना जीवन ही ऐसे हादसों का ज्वलंत प्रमाण है जो मेरे द्वारा किये गए प्रयासों से कभी परिचालित ही नहीं हुए। मेरा मानना है कि प्रकृति ने मानव को अभिव्यक्ति के लिए तरह-तरह के माध्यम दिये हैं और इसके साथ ही दिया है प्रतिभा का एक ऐसा गुण जिसके सहारे वह अपने अंदर छिपी भावनाओं को समाज के सामने कुशलता के साथ प्रस्तुत कर सकता है। लेखन, चित्रकला, संगीत आदि अभिव्यक्ति के ऐसे ही सशक्त माध्यम हैं। लेखन के बारे में तो यहां तक कहा गया है कि कलम का धनी समाज की दशा ही नहीं, दिशा भी बदल देता है क्योंकि जो काम तलवार और तोप नहीं कर पाती, वह काम क़लम बहुत आसानी से कर सकती है, बशर्ते उसे चलाने वाला अपने फ़न में माहिर हो।
मुझे बचपन से इस बात का शौक़ था कि मेरी एक अलग पहचान हो। पर पहचान के लिए कोई विशेष गुण या किसी प्रतिभा का भी तो होना ज़रूरी है और ऐसा कुछ ख़ास तो था ही नहीं मेरे पास। हां, चित्रकला में रुचि ज़रूर थी पर इस क्षेत्र में कुछ कर पाता इसके लिए उन दिनों अवसर ही नहीं हुआ करते थे। पिता इंजीनियर थे अतः शिक्षा भारतीय पारिवारिक परम्परागत नीति के अनुसार उसी क्षेत्र में लेनी पड़ी। स्वाबलम्बी हो जाने के बाद अपनी इच्छा पूर्ति लिए दिल्ली जा पहुंचा और वहां कलाकार बनने के लिए संघर्ष के सागर में छलांग लगा दी।
मैं नहीं जानता, मेरा यह विश्वास कहां तक सच है कि जीवन में बहुत-कुछ आप स्वयं करते हैं और काफ़ी कुछ नियति करा लेती है, पर हर व्यक्ति के अनुभव अपने आसपास के परिवेश में जो घटता है, उसी पर तो आधारित होते हैं और शायद वही ज़्यादा प्रामाणिक भी होते हैं बनिस्बत उनके जिसे उसने पढ़कर या सुनकर एकत्रित किया होता है।
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। एक समय ऐसा आया जब नियति के एक थपेड़े ने ही मेरी मंज़िल का न सिर्फ़ रास्ता मोड़ दिया बल्कि मंज़िल ही बदल दी और इस तरह ज़िन्दगी की गाड़ी ने कब पटरी बदल ली और कैसे, कुछ पता ही नहीं चला। जैसा मैं कह चुका हूँ, बचपन से पेंटिंग-डिज़ाइनिंग में रुचि थी अतः बम्बई के जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में दाखिला पाने का स्वप्न लिए इंटरमीडिएट पास किया। मेरे पिता इंजीनियर सिर्फ़ शिक्षा या ओहदे से नहीं थे बल्कि वे विज्ञान व तकनीकी क्षेत्र के प्रति अपनी अभिरुचि से सिक्त ऐसी मानसिकता को साथ लिये हुए थे जिससे मिले प्रोत्साहन स्वरूप गर्मी की छुट्टियों में खिलौनों से खेलने की हमारी उम्र का काफ़ी सारा भाग पेंचकस-प्लास आदि टूल्स के साथ बिजली के पुराने मीटरों को खोलने और उन्हें दुबारा जोड़ने जैसी कई दूसरी बचकानी, पर कौशलपूर्ण कोशिशों में बीतता। दुर्भाग्य यह रहा कि मैं जब इन्टर पास करके अपनी ख्वाहिश पूरी करने की स्थिति में पहुंचा, तब तक वे सेवानिवृत्त हो चुके थे।
उन दिनों इंजीनियरों की आर्थिक स्थिति आज की तुलना में बहुत भिन्न होती थी। बैंक बैलेंस बनाने और बढ़ाने के लिए आय का ऊपरी स्रोत खोज लेने वाले अपवादस्वरूप ही मिलते थे। बैंकों से लोगों का रिश्ता वैसे भी आज की तरह बहुत क़रीब का नहीं होता था। न रक़म जोड़ने के हिसाब से और न ही क़र्ज़ लेने के लिहाज़ से, जबकि उस समय के एक औसत परिवार का माहौल कहीं अधिक सुख, शान्ति, संतोष और संतुष्टि से परिपूर्ण हुआ करता था।
हमारे यहां भी पौष्टिक सुस्वादु भोजन, साधारण तौर से कहीं अच्छे व स्तरीय रहन-सहन और हम चार बहन-भाइयों की शिक्षा पर ही पिता की सारी तनख्वाह खर्च हो जाती। फिर ऐसे में जब यह आमदनी भी बंद हो जाए तो परिवार के एक सदस्य को इस प्रकार का प्रशिक्षण दिलाने के लिए बैठे-बिठाए घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर भेजने का भला औचित्य भी क्या हो सकता था, जिसका महत्व सिर्फ़ मेरे पिता के लिए ही नहीं, बल्कि उस वक्त के पूरे समाज में ही कुछ विशेष था भी नहीं। मैं मानता हूं कि मेरे पिता की दिली इच्छा थी, मुझे अपनी तरह का एक इंजीनियर बनाने की पर साथ ही मुझे यह स्वीकारने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं कि मेरे डिज़ाइनर बनने की राह में उन्होंने अपनी इच्छा का कभी रोड़े की तरह उपयोग नहीं किया। व्यावहारिक स्तर पर बड़ा ही संतुलित-सा वातावरण था हमारे घर का, जहां हमें पूरी स्वतन्त्रता तो मिली पर स्वछंदता की इजाज़त कभी नहीं दी गयी। जहां हमारे ऊपर अनुशासन हमेशा रहा पर कटु शासन का अहसास तक हमें कभी नहीं होने दिया गया और जहां हर सदस्य की अपनी निजी सोच के कारण मतभेद तो उभरते रहते पर इनके परिणामस्वरूप उपजनेवाले मनभेद की अनुभूति हमें कभी नहीं हुई।
पारिवारिक परिस्थितियों के तहत मुझे अपनी इच्छा मारनी पड़ी परन्तु मेरे पिता मुझे इंजीनियर बना देख पाते इससे पहले ही उनका निधन हो गया। जीवन में पहली बार अपने किसी प्रियजन को मौत का साक्षात्कार करते इतने क़रीब से देखा था जिसका गहरा सदमा लगा था पर साथ ही इसका एक लाभ भी हुआ मुझे। अब तक पढ़ाई के मामले में जो ढिलाई और लापरवाही मैं बरत रहा था, वह एकाएक कैसे ख़त्म हो गई, मुझे नहीं मालूम। अपने ऊपर जिम्मेदारियां आ पड़ने का बोझ मुझे सच्चे मायने में तभी से होना शुरू हुआ और नतीजा यह हुआ कि उसके बाद से दिन-ब-दिन पढ़ाई के प्रति मेरी रुचि बढ़ती गयी। वास्तव में गणित और विज्ञान जैसे शुष्क और नीरस लगने वाले विषयों में मेरा लगाव इन्हीं दिनों शुरू हुआ था जो कुछ ही समय में बेहद गहरी दोस्ती में तब्दील हो गया। मैं अपनी शिक्षा के शुरुआती दिनों के बारे में सोचकर आज भी आश्चर्य करता हूँ कि इतने अच्छे और उपयोगी दोस्तों के बारे में मैंने तब तक कितनी ग़लत राय क़ायम की हुई थी।
शिक्षा समाप्त होने पर मुझे दो-तीन जगह जो भी नौकरियां मिलीं, उन्हें करने की मैंने पूरे मनोयोग से कोशिश की पर उन अनुपयुक्त नौकरियों के ढर्रे में ढल सकूं या तो ऐसी मेरी फ़ितरत नहीं थी या यह भी हो सकता है कि वहां की परिस्थितियां ही शायद मुझे मेरी कोशिशों में नाक़ाम करने के लिये ज़िम्मेदार रही हों। फिर पिता रहे नहीं थे, सिर्फ़ माँ थीं और वह भी ऐसी जो स्वयं बेहद संवेदनशील और रचनात्मक प्रवृत्ति की विदुषी महिला थीं। तूलिका और लेखनी से मेरी दोस्ती मुझे विरासत में उन्हीं से मिली थी और लम्बे समय तक मिले उनके साथ ने ही इसे संवारा व तराशा भी। नौकरी छोड़-छाड़ कर दिल्ली जैसे अपरिचित महानगर में मेरा डिज़ाइनर के तौर पर छलांग लगा देना यदि संभव हो सका तो यह सिर्फ़ मेरी माँ की हौसला अफ़ज़ाई के कारण।
बस, यहीं से ज़िन्दगी में मोड़ आ गया। उस समय डिज़ाइनिंग में तो नहीं, पर कला के क्षेत्र में ‘बातिक’ अभिव्यक्ति का माध्यम बना और फिर शुरू हुआ संघर्ष का एक लम्बा दौर। दस वर्ष तक कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए ‘बातिक’ कला में मुझे न सिर्फ़ एक मुक़ाम हासिल हुआ बल्कि बड़ी तादात में अपनी पेंटिंग्स विदेशों में भेजकर मैं अपने अंदर एक ऐसा आत्मविश्वास संजो पाया जिसने आगे चलकर लेखन के क्षेत्र में भी मुझे अपना आत्मसम्मान बनाए रखने में बहुत मदद की। ‘बातिक’ के माध्यम से न केवल मेरी रोटी की समस्या हल हुई बल्कि इसने मुझे एक कलाकार के रूप में सम्मान भी दिलाया। त्रिवेणी कला संगम की पहली एकल प्रदर्शिनी से लेकर डी.एस.आई.डी.सी. (देहली स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन) के मार्फ़त न्यूयॉर्क वर्ल्ड ट्रेड फ़ेयर में भारत का प्रतिनिधित्व करते मेरे इन चित्रों के माध्यम से समय आगे कुछ और इतिहास रच पाता इससे पहले ही ज़िन्दगी ने फिर से एक नया मोड़ ले लिया।
मेरे जीवन का एकमात्र सहारा मेरी माँ कैंसर का शिकार बन गयी। नियति के इस थपेड़े ने मेरी मंज़िल का न सिर्फ़ रास्ता मोड़ दिया बल्कि मंज़िल ही बदल दी। इसी बीच संयोगवश इलस्ट्रेशन बनाने के एसाइनमेंट हेतु किसी परिचित द्वारा कलाकार के तौर पर एक प्रकाशक के यहां मुझे क्या भेजा गया कि उस प्रकाशक के प्रस्ताव और उस समय के हालात, इन दोनों के दबाव में बच्चों के लिए पुस्तक लिखने को मुझे बेमन तैयार होना पड़ा। बाल-लेखन के इस कार्य को उस समय मैंने बहुत साधारण स्तर का आंकते हुए इसे वास्तव में बच्चों के खेल जैसा ही कुछ समझा। परन्तु पहली पुस्तक के शुरुआती दौर में ही अपने आसपास के बच्चों के साथ संवाद स्थापित करने पर मुझे अपनी ग़लतफ़हमी का अंदाज़ा हो गया और मैं जल्दी ही समझ गया कि यह काम उतना ही अधिक कठिन है जितना आसान मैं इसे समझ बैठा था।
इस विशेष क्षेत्र में लेखन के लिए सहज-सरल भाषा के साथ तथ्यों की प्रामाणिकता का पूरा ध्यान तो रखना ही होता है, साथ ही लिखते समय उस आयु वर्ग में आपकी वापसी, सफलता की गारण्टी मानी जा सकती है जिस पाठक वर्ग के लिए आप यह सामग्री तैयार कर रहे होते हैं।
डेढ़ साल लम्बी चली माँ की बीमारी की ज़द्दोजहद में जब मैं उलझा हुआ था, तभी मुझे दिल्ली के इस प्रकाशक का बच्चों के लिए पुस्तकें लिखने का प्रस्ताव मिला था और इसे मजबूरी में मुझे सिर्फ़ इसलिए स्वीकारना पड़ा क्योंकि माँ की तीमारदारी के लिए उनके बिस्तरे के पास बैठकर ‘इस’ कार्य को करना तो संभव था पर ‘बातिक’ जैसा काम नामुमकिन था जिसमें नियमितता और क्रमबद्धता बहुत ज़रूरी थी। स्पष्ट कहूं तो बच्चों के लिए लेखन का यह प्रस्ताव यद्यपि मुझे बहुत ही अरुचिकर और एक तरह से स्तरहीन लगा, पर उस समय भला मैं यह कहां जानता था कि आगे चलकर यही कार्य मेरी ज़िन्दगी जीने का एक मात्र मकसद बन जाएगा। शायद इसे ही नियति कहते हैं जिसने उस समय ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं जहां आगे बढ़ने के लिए मेरे पास सिर्फ़ एक ही रास्ता बचा था और वह भी उस दिशा में जाता था जहां से मेरी मंज़िल का दूर-दूर तक कोई सरोकार ही नहीं था।
कैंसर ने मेरी माँ की ज़िन्दगी आखिरकार छीन ली और इसके साथ ही छिन गए मेरे सपने, मेरे इरादे, मेरे उद्देश्य और मेरी तमन्नाएँ – यानी सब कुछ ही। अंदर गहराई तक मैं एक ऐसा ख़ालीपन महसूस करने लगा जहां जीने का कोई मकसद ही नहीं रह जाता और इसी ऊहापोह की स्थिति में डूबते-उतराते मैंने उसी वर्ष सन 1981 में ही किसी तरह अपनी पहली पुस्तक पूरी तो कर दी पर सच यह है कि लेखन में तब तक भी मेरा मन रम नहीं पाया था। इस पहली पुस्तक का विषय माँ ने सुझाया था, अतः इसे उनकी स्मृति को ही समर्पित किया गया। पर फिर जब दूसरी पुस्तक की बात आई तो विषय की समस्या उठनी स्वाभाविक थी। मैं किसी विशेष क्षेत्र का न तो विशेषज्ञ था, न ही मेरी रुचि का अपना कोई विशेष विषय था और वैसे भी मैं बच्चों के लिए ऐसा कुछ उपयोगी साहित्य तैयार करना चाहता था जो उनके लिए रुचिकर भी हो और लाभप्रद भी। सोचते-सोचते मुझे अपनी ज़िन्दगी का वह दौर याद आ गया जब पिता की मृत्यु के कारण उपजी असुरक्षा की भावना से पढ़ाई के प्रति गंभीर हो जाने का मेरे अंदर पहली बार अहसास जागा था। कैसा भयानक दौर था वह, जहां एक ओर पिता का साया उठ जाने का विषाद था, वहीं दूसरी ओर विज्ञान और गणित जैसे बेहद डरावने लगने वाले विषयों के साथ मुझे स्वयं प्रयास करते हुए आगे बढ़कर उनसे दोस्ती भरा हाथ मिलाना था। पर इसके बाद जो हुआ उसी के कारण आगे चलकर बच्चों के लिए लिखने के इस अनपेक्षित अवसर के मिल जाने पर विषय का चुनाव करते समय मुझे एक