Garud Puran (गरुड़ पुराण)
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Book preview
Garud Puran (गरुड़ पुराण) - Hira Ballabh Joshi
गरुड पुराण
(भूमिका, संस्कृत एवं हिन्दी)
हीरा बल्लभ जोशी
eISBN: 978-93-5599-716-6
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2022
Garud Puran
By - Hira Ballabh Joshi
विनम्र निवेदन
सुधी पाठकों से निवेदन है कि वे ग्रन्थ को पढ़ें और अपने पुरोहितों व मित्रों को भेंट करें जिससे कि समस्त जन इस दुर्लभ ज्ञान का लाभ उठा सकें। शुभ अवसरों पर इस ग्रन्थ को बाँटने के लिए प्रकाशक से संपर्क करें। उन्हें यह ग्रन्थ लागत मूल्य पर दिया जाएगा।
विषय सूची
भूमिका
पहला अध्याय
पिण्डदान आदि से शरीरोत्पत्ति, पापियों को यममार्ग पर मिलने वाली यातनाएं तथा इस लोक और परलोक में होने वाली दुर्गति आदि का वर्णन।
दूसरा अध्याय
यमलोक की यातनाएं, यममार्ग में पड़ने वाली सोलह पुरियों में क्रमशः गमन, वैतरणी नदी का स्वरूप तथा प्रेत के निमित्त किए जाने वाले पिण्डदान आदि का वर्णन।
तीसरा अध्याय
यम यातना का वर्णन, चित्रगुप्त द्वारा श्रवणों से पूछ कर धर्मराज को बताना तथा धर्मराज द्वारा यातना शरीर को कर्मानुसार फल देना।
चौथा अध्याय
पापी मनुष्य किन पाप कर्मों से वैतरणी नदी में गिरता है, वह किन चार द्वारों से धर्मराज पुरी में प्रवेश करता है, सत्पुरुषों की सेवा, सत्संग एवं शुभाशुभ कर्मों के फलादि रहस्यों का वर्णन।
पांचवां अध्याय
कर्मानुसार अनेक योनियों में उत्पत्ति व रोगों की प्राप्ति का वर्णन।
छठा अध्याय
गर्भ धारण, गर्भ में जीव की संरचना, गर्भकाल में क्रमशः जीवांगों का विकास, गर्भ की पीड़ा, मनुष्य के दुष्कर्मों का फल।
सातवां अध्याय
नाना प्रकार के नरकों से बचने के उपाय, सद्गति हेतु संतान का महत्त्व, ‘बभ्रुवाहन’ नामक घोर वन में भटकते प्रेत की राजा द्वारा अन्त्येष्टि तथा प्रेतत्व से उसकी मुक्ति की कथा।
आठवां अध्याय
दान, पुण्य, धर्म, कर्म तथा सुकृति जनों द्वारा अन्तिम समय के सत्कर्म, संतान द्वारा पितरों के निमित्त करने योग्य कर्म एवं उनके विधान का वर्णन।
नौवां अध्याय
आतुर क्या करे और उसके निमित्त किए जाने वाले कृत्य।
दसवां अध्याय
मरणोपरान्त का कृत्य, दाह संस्कार विधि, अस्थि विसर्जन, प्रवास में गये हुए व्यक्ति का मरण तथा उसकी अस्थियां न मिलने पर दाहादि क्रिया का विधान, पंचकों में दाह, पिण्डदान व उसका फल आदि।
ग्यारहवां अध्याय
दशगात्र कर्म और उसका विधान।
बारहवां अध्याय
एकादश कर्म, दान, वृषोत्सर्ग, उत्तम षोडशी आदि का वर्णन।
तेरहवां अध्याय
अशौचाल, अशौच में निषिद्ध कर्म, सपिण्डीश्राद्ध, गयाश्राद्ध एवं दान का महत्त्व ।
चौदहवां अध्याय
यमलोक का स्वरूप, यम-सभा, चित्रगुप्त व अन्यान्य के भवन, धर्मराज नगर, धर्मराज की सभा, पुण्यात्माओं का धर्मसभा में स्वागत आदि का वर्णन।
पंद्रहवां अध्याय
धर्मात्माओं की उत्पत्ति, अजपा नाम की उपासना और श्रीगुरु के ध्यान आदि का वर्णन।
सोलहवां अध्याय
माया, तृष्णा, प्रज्ञा एवं मोक्षमार्ग का विशद वर्णन।
श्रुतिफल
गरुड पुराण के सुनने तथा सुनाने का महत्त्व तथा उसके सुपरिणाम।
शोकसभा प्रवचन का प्रारूप
भूमिका
ॐ श्रीकृष्णाय नमः
अजमजरमनन्तं ज्ञानरूपं महान्तं शिवममलमनादिं भूतदेहादिहीनम् ।
सकलकरणहीनं सर्वभूतस्थितं तं हरिममलममायं सर्वगं वन्दे एकम्॥
-महागरुडपुराण-1/1
(जो जन्म और जरा से रहित है, अनन्त है, ज्ञानस्वरूप है, महान है, निर्मल है, कल्याणस्वरूप है, अनादि तथा पंचभौतिक देहरहित, इन्द्रियरहित, सर्वभूतव्यापी और मायारहित है, उस मंगलकारी तथा सर्वव्यापी, अद्वय श्री हरि की मैं वन्दना करता हूं)।
सनातन वैदिक दर्शन से जन-जन को आलोकित करने हेतु ऋषियों ने पुराण, स्मृति एवं इतिहास ग्रंथों की रचना की। सभी ग्रंथों का संदेश यही है कि समस्त जन सत्मार्ग पर चलें, सत्कर्म करें जिससे कि इस लोक व परलोक दोनों में उनका कल्याण हो सके। ज्ञातव्य है कि गरुड पुराण इस संदेश को सर्वाधिक प्रभावी ढंग से व्यक्त करता है। गरुड पुराण धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के लक्ष्य प्राप्ति हेतु उद्धेलित करता है तथा दुष्कर्मों से जनित भयानक दर्गति पर प्रकाश डालता है।
गरुड पुराण का दर्शन : गरुड पुराण का दर्शन बताता है : 1. व्यक्ति का जीवन उसके अपने पूर्व कर्मों से निर्धारित होता है। 2. किये गये शुभ व अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना होगा। 3. यह जीवन जन्म मरण व पुनर्जन्म के चक्र में भ्रमण कर रहा है और लक्ष्य है परमात्मा में विलीन अर्थात मोक्ष प्राप्ति। 4. स्वर्ग व नरक अस्थाई है। 5. शरीर और आत्मा भिन्न हैं। शरीर नाशवान है और आत्मा अजर-अमर है। यह आत्मा ईश्वर का अंश है और अंश अपने अंशी में मिलने हेतु व्याकुल है। 6. चौरासी लाख योनियां हैं जिसमें जीव विचरण करता है। 7. इन सभी योनियों में मानव योनि श्रेष्ठ है क्योंकि केवल इसी योनि में सत्कर्म, ज्ञान व भक्ति संभव है। 8. मानव जन्म पाना सत्कर्मों से ही संभव है। यह जन्म दुर्लभ है। 9. सनातन धर्म के मार्ग पर चलना सतमार्ग है। गरुण पुराण में आया है स्वयं का कल्याण और जगत हित ही जीवन का लक्ष्य है। मन सन्मार्ग में लगे तो कल्याण होगा। माया इस मन को भटका देती और व्यक्ति में आसुरी भाव उत्पन्न करती है, जिससे वह अधर्म व पाप कर्म करता है और उसकी दुर्गति होती है। 10. पूर्वजों का अर्पण व तर्पण करना कल्याणकारी है। 11. दान, दया, पूजा, कर्मकांड, इन्द्रिय निग्रह आदि सभी सत्य आचरण की ओर ले जाते हैं। 12. मनुष्य को चाहिए कि वह अपने स्वयं के पास आए अर्थात अपनी आत्मा के पास आए। आत्मनिष्ठ रहें। इसी को आध्यात्म व उपासना कहा है। 13. मनुष्य षट्-ऋपुओं एवं पंच-विकारों से दूर रहे। इंद्रिय निग्रह करे तथा शुभ संकल्पयुक्त मन विकसित करे। 14. मनुष्य को स्वयं अपना उद्धार करना है, उसे स्वयं अपने शरीर व कर्मों पर ध्यान देना चाहिए। 15. पापियों को भय भगवान का नहीं अपने दुष्कर्मों का रहे। व्यक्ति धर्मभीरु बने। 16. गुरु, ग्रंथ, संत का सानिध्य तथा ईश्वर की शरणागति सतमार्ग पाने के शास्त्रोक्त मार्ग हैं। 17. पूजा-पाठ, भगवान के नाम का स्मरण, ज्ञान, ध्यान, कर्मकांड आदि आत्म शोधन के मार्ग हैं। 18. अपने सभी संसारिक कर्मों को भी ईश्वर को अर्पण करें। 19. मनुष्य दुष्कर्म न करे। दुष्कर्मों का पाप भुगतना पड़ेगा जो भयावह है और नरकगामी दुर्गति देगा। 20. सतमार्ग, धर्म मार्ग, सतकर्म, सत् विचार सनातन धर्म पुण्य देने वाले और मोक्षदायी है। पुराण में स्वर्ग-मोक्ष प्राप्ति व नरक से बचने के उपाय बताये हैं। 21. पापियों को यमराज और पुण्यात्माओं को धर्मराज न्याय देगा और उसकी दृष्टि से हम कुछ भी छिपा नहीं सकते। पापियों की इसलोक व परलोक में दुर्गति होती है। भगवान श्री विष्णु रक्षक एवं पाप नाशक हैं। पुण्यात्मायें मोक्ष पाती हैं या स्वर्ग आदि में जाती हैं जहां धर्मराज उनका आदर करते हैं। 22. शरीर और उसमें निहित आत्मा भिन्न है। शरीर की मृत्यु देहान्तरण करती है पर आत्मा अजर-अमर है। 23. मावन जीवन अत्यन्त अनमोल है। यह महापुण्यों के फलस्वरूप ही प्राप्त हो पाता है और श्रेष्ठतम योनि है। मोक्ष व स्वर्ग मानव योनि पाए बिना असंभव है। केवल मानव योनि में ही कर्म करना संभव है। अन्य सभी योनियां भोग योनियां हैं। 24. जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु होने पर पुनर्जन्म भी अपरिहार्य है। 25. सुख व दुःख दाता अन्य कोई नहीं मनुष्य स्वयं इसका कारण है। 26. तृष्णा से व्याप्त मनुष्य नरक जाता है। जो मनुष्य तृष्णा से मुक्त है वही स्वर्ग जा पाता है। 27. किसी मृतक की अन्तेष्ठि उसे प्रेतत्व से मुक्ति दिलाती है तथा संतति को पुण्य प्रदान करती है। पिण्डदान व श्राद्ध से प्रेत पितरों व देवों में मिलते हैं और तब वे संतति का कल्याण करते हैं। प्रेतत्व से मुक्ति न मिलना मृतक एवं संतति दोनों के लिए कष्टदायक है। 28. संतान द्वारा पितरों के निमित्त किये जाने वाले कर्म बहुत महत्वपूर्ण हैं। 29. विवेकी मनुष्य जीने की कला सीखे और मृत्यु तथा सतगति का मार्ग प्रशस्त करें। बंधन में डालने वाले कर्मों से बचें। 30. दान, दया तथा इंद्रिय नियंत्रण भू-लोक में सत्मार्ग का समूच्य है। 31. श्री विष्ण की शरणागति मृत्यु के भय का नाश करती है। आतुर व्यक्ति विरक्ति व संन्यासी भाव अपना ले। 32. मृतक का दाह संस्कार व पिण्डदान बहुत आवश्यक है। अग्नि अत्यन्त कल्याणकारी है। 33. अपना धर्म व कर्म कदापि न त्यागे। सनातन धर्म श्रेष्ठ है। तीर्थ व मंदिरों को गौरवान्वित करें तथा धर्माचरण करें। 34. मनुष्य माया की तृष्णा से बचे। सांसारिक लिप्तता अधोगामी है। मनुष्य परम धर्म को जाने। 35. जीवन बहुत छोटा है अतः इसे व्यर्थ में न गवाएं। 36. शास्त्रों में आये परम ज्ञान को ग्रहण करें। उनके अलंकार, व्याकरण और कतिपय स्थूल संदर्भो से भ्रमित न होवें। परम तत्व तुम्हारी आत्मा में है। 37. गरुड पुराण को सुनने-सुनाने का अषीम फल मिलता है। 38. अपने शरीर को निरोगी बनायें, इसी में कल्याण है। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो और कौन करेगा।
गरुड पुराण की संरचना : महर्षि वेदव्यास ने अठारह पुराणों का संकलन किया। इनमें से तीन पुराण–श्रीमद भागवत, विष्णु पुराण व गरुड पुराण को कलिकाल में महत्त्वपूर्ण माना गया है। इन तीनों पुराणों में भी गरुड पुराण का महत्त्व अधिक है (तत्रैव-1.46)। सभी पुराणों में धर्मपालन तथा परमेश्वर की शरण में जाने का उपदेश है। गरुड पुराण सात्त्विक वर्ग के पुराणों की श्रेणी में आता है। इसके दो खण्ड हैं-पूर्वखण्ड तथा उत्तरखण्ड (प्रेतकल्प)। ‘प्रेतकल्प’ गरुड पुराण का वह अंश है जिसमें अन्त्येष्टि, श्राद्ध, पिण्डदान, सपिण्डीकरण, दशगात्र (दस अंगों का निर्माण), कर्मफल, स्वर्ग-नरक, मोक्ष, दान-पुण्य, पुनर्जन्म तथा पापों के प्रायश्चित आदि का वर्णन है। सामान्यजन इसी प्रेतकल्प को ‘गरुड पुराण’ तथा सम्पूर्ण ग्रन्थ (जिसमें योग, भूगोल, रत्न, औषधि आदि का भी वर्णन है) को ‘महा गरुड पुराण’ के नाम से जानते हैं। यही ‘प्रेतकल्प’ इस पुराण की लोकप्रियता तथा इस की अद्वित्तीयता का प्रमुख कारण भी है। वर्तमान संस्करण लोक-प्रचलित ‘गरुड पुराण सारोद्धार’ नामक सोलह अध्यायी संस्करण पर आधारित है, जो ‘प्रेतकल्प’ का सार भी है।
प्रेतकल्प नामक खंड में भगवान विष्णु अपने वाहन गरुड (जो पक्षियों का राजा है, पराक्रमी है, अनश्वर है और आत्मा की भांति एक स्वतन्त्र रहस्यमयी पक्षी है) को धर्म-कर्म, तीर्थ, पुरुषार्थ, जन्म-मृत्य, पुनर्जन्म, मानव जीवन का महत्त्व, दान-पुण्य आदि पर उपदेश दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त मृत्यु के पश्चात मनुष्य का क्या होता है, वह कहां जाता है, यमलोक तथा वैतरणी नदी का स्वरूप इत्यादि प्रश्नों का उत्तर भी इसी खण्ड में वर्णित है। उल्लेखनीय है कि गरुड द्वारा पूछे गए नाना प्रकार के प्रश्नों जैसे-नरकों के प्रकार, कर्मों के फल, पापी मनुष्यों की दुर्गति व विभिन्न योनियों में जन्म-मरण आदि पर भगवान विष्णु द्वारा जो उत्तर दिये गए, वे वेदव्यास जी के माध्यम से महर्षि सूत तक पहुंचे। सूतजी ने इसी वार्तालाप का वर्णन इस खण्ड में किया है।
गरुड पुराण के सोलह अध्यायों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है, जैसे पहले से छठे अध्याय तक पिण्डदान, शरीरोत्पत्ति, यमलोक, पुनर्जन्म तथा नरकों का वर्णन; सातवें से चौदहवें अध्याय तक सत्कर्म, दान-पुण्य, धर्मराज की भव्य सभा, मृतक की सद्गति व परलोक सम्बन्धी क्रिया-कर्मों का विधि-विधान तथा पन्द्रहवें और सोलहवें अध्याय में माया, तृष्णा, मोक्ष सम्बन्धी दर्शन है। विशेषकर आठवें, नौवें, पन्द्रहवें एवं सोलहवें अध्याय में गूढ़ ज्ञान है, जिसे सभी मनुष्यों को अर्जित करना चाहिए। यह विश्व का एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें मृत्यु के पश्चात आत्मा की यात्रा का वर्णन है। इसमें मनुष्यों के लिए ग्राह्य ही नहीं अपितु त्याज्य कर्मों पर भी प्रकाश डाला गया है, जो इस पुराण को अन्य पुराणों से एक विशेष स्थान प्रदान करता है।
गरुड पुराण के प्रेतकल्प में मृत्यु से लेकर वर्षभर तथा उसके उपरान्त सन्तान द्वारा किए जाने वाले क्रिया-कर्मों के विधि-विधान का भी वर्णन है। इसमें यमलोक, पाताललोक तथा नरकलोक के रहस्यों का भी गूढ वर्णन है। इसमें कर्मों का फल, उनके नियम, मोक्ष एवं पाप कर्मों के प्रतिफल के साथ ही सन्मार्ग पर चलने का सन्देश भी समाहित है। इसमें भगवान विष्णु के अनेक कथानक, स्तुतियां, उक्तियां, प्रवचन तथा उपदेश इहलोक अर्थात मृत्युलोक को परलोक से जोड़ते हैं। इसका वाचन मृतक को सद्गति ही नहीं प्रदान करता, अपितु उसके परिजनों को मृत्युजनित वेदना से उबारता भी है। इसी प्रकार अन्त्येष्टि व श्राद्ध कर्म मृतक के परिजनों को शोक में सहभागी बनाकर शोकसंतप्त परिवार को दुःख सहने की सामर्थ्य भी देते हैं।
यह ग्रन्थ पूरे पृथ्वीलोक में सामाजिक तथा पारिस्थितिकीय व्यवस्था को बनाए रखने की प्रेरणा देता है। इस पुराण में धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, कर्मकाण्ड तथा पारिस्थितिकीय पहलुओं पर भी व्याख्यान हैं। सामान्यतया इसका वाचन व श्रवण मृत्यु से दस दिनों के मध्य मृतक की सद्गति हेतु होता है, परन्तु अन्य तिथियों में इस ग्रन्थ के पठन-पाठन व श्रवण सम्बन्धी प्रचलित भ्रान्तियां निराधार, निर्मूल व अज्ञानता का प्रतिफल हैं। इस ग्रन्थ का वाचन व श्रवण अत्यन्त पुण्यकारी ही नहीं, अपितु इहलोक में मंगलकारी व परलोक के लिए मुक्तिदायक है। इसीलिए गरुड पुराण में भी कहा गया है-पुराणं गारुडं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् । शृण्वतां कामनापूरं श्रोतव्यं सर्वदैव हि॥ (श्रुतिफल-11) अर्थात यह गरुड पुराण बड़ा ही पवित्र और पुण्यदायक है। इसका श्रवण पापनाशक एवं सुनने वालों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। अतः इसका सदैव श्रवण करना चाहिए।
इस पुराण का पठन-पाठन करना, घर पर रखना या उपहार स्वरूप इसका वितरण करना कल्याणकारी है। इस ग्रन्थ में ज्ञान का अपार भण्डार है। अतः सभी को श्रद्धापूर्वक इसे पढ़कर, सुनकर और समझकर ज्ञान अर्जित करना चाहिए, यह शास्त्र सम्मत है।
अनिवार्य संस्कार : इसके अतिरिक्त गरुड पुराण जहां धर्म, शुद्धता, शुचिता व सत्य आचरण पर बल देता है, वहीं इसमें पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, सदाचार, संस्कार, मूल्यों तथा कर्मों के शुभ व अशुभ फलों, आत्मा का प्रेतयोनि में जाने, उस योनि से निवृत्त होने एवं प्रेतात्मा द्वारा सगे-सम्बन्धियों को दिए जाने वाले सम्भावित कष्टों तथा धर्माचरण से च्युत जनों के आचार-विचार दूषित होने और उनके दुष्कर्म किस प्रकार से उन्हें अकाल मृत्यु तथा दुःख की ओर धकेलते हैं, आदि का उल्लेख भी है। हिन्दू धर्म के सोलह संस्कारों में तीन जन्म से पूर्व, बारह जीवनकाल में तथा एक संस्कार मृत्यु के उपरान्त किया जाने वाला अन्तिम अर्थात अन्त्येष्टि कर्म है, जिसका सम्बन्ध दाहसंस्कार व अन्य अनुष्ठानों से है। ‘मत्स्यपुराण के अनुसार मृत्यु से बारह दिनों तक मृतक की आत्मा अपने आवास व सगे-सम्बन्धियों के आस-पास ही रहती है। मृतक की आत्मा अन्त्येष्टि कर्म का संचालन कर रहे पुरोहित के शरीर में भी देवरूप में प्रवेश करती है। शास्त्रों के अनुसार मृतक की आत्मा गरुड पुराणकी कथा को सुनती है जिससे कि उसे मुक्ति मिल सके। ‘पितृमेधसूत्र’ के अनुसार जिस प्रकार मनुष्य को जीवन में संस्कार के निर्वहन से जय मिलती है, उसी प्रकार मरणोपरान्त किए जाने वाले अन्त्येष्टि संस्कार के निर्वहन से मृतक को स्वर्ग प्राप्त होता है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए दो संस्कार ऋणस्वरूप हैं जिन्हें करना अनिवार्य है, पहला-जन्म से सम्बन्धित जातकर्म और दूसरा-अन्त्येष्टिकर्म।
वैराग्य एवं साक्षी भाव : गरुड पुराण के अनुसार चार अवस्थाओं में मनुष्य को अच्छे विचार आते हैं-गर्भ में, रुग्णता में, श्मशान में और भगवान की कथा सुनते समय । यदि ये विचार सदा के लिए स्थिर और दृढ़ हो जाएं तो मनुष्य भवबाधा से मुक्त हो जाता है। ये वैराग्य उत्पन्न करते हैं। साक्षी भाव संसार में निलिप्त होकर रहने से है। यही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। इस ग्रन्थ की रचना मृतक के लिए ही नहीं, अपितु जीवित मनुष्यों के कल्याण तथा उन्हें गूढ़ ज्ञान प्रदान करने के उद्देश्य से हुई है। यह एक श्रोतव्य शास्त्र है तथा एक सजीव ग्रन्थ है, क्योंकि यह सदियों से प्रायः हिन्दुओं की मृत्यु के उपरान्त पुरोहितों द्वारा सुनाया जाता रहा है। मृतक के निमित्त विद्वज्जनों, वेदपाठियों, पुरोहितों, गुरुजनों, निर्धनों, सच्चरित्र तथा सादा जीवन व उच्च विचार वाले साधु-सन्तों को दान देने हेतु भी यह उत्तम ग्रन्थ है।
गरुड पुराण में प्रेतयोनि से निवृत्ति व नरक से बचने के उपायों में प्रमुख उपाय दान-पुण्य, पिण्डदान तथा श्राद्ध कर्म बताये गए हैं। इसमें आत्मज्ञान पर भी बल दिया गया है और कहा गया है कि परमात्मा में निष्ठापूर्वक ध्यान लगाना आत्मज्ञान का सरल उपाय है। इसमें यह भी कहा गया है कि मनुष्य को अपने मन तथा इन्द्रियों पर संयम रखना चाहिए। इस पुराण में ज्ञानी तथा धर्मपरायण मनुष्य को बिना कर्मकाण्ड किए भी सद्गति व परलोक में उच्च स्थान प्राप्त होने की बात बतायी गई है।
गरुड पुराण में गूढ़ प्रश्न : गरुड पुराण में जीवन एवं मृत्यु विषयक गूढ़ प्रश्नों का तात्त्विक समाधान दिया गया है। इस पुराण में गरुड ने भगवान विष्णु से मृत्यु से सम्बन्धित अनेक जिज्ञासाओं का समधान मांगा है, यथा
(जीव मनुष्यत्व को कैसे प्राप्त होता है? वह मृत्यु को कैसे प्राप्त होता है? हे देवों में श्रेष्ठ ! शरीर में आश्रित होकर कौन मरता है?॥ इन्द्रियां कहां जाती हैं? मृत शरीर कैसे अस्पृश्य हो जाता है? पृथ्वीलोक में किए कर्मों का फल मनुष्य कहां भोगता है?॥ मरा हुआ प्राणी अतिवाहिक शरीर (परलोक तक ले जाने वाला सूक्ष्म शरीर) में कैसे आश्रय लेता है? मृत मनुष्य के शरीर को पुत्र क्यों कन्धे पर ले जाता है और पौत्र शव को अग्नि देने वाला क्यों होता है?॥ हे प्रभो! समय आने पर मनुष्य मर जाता है, मनुष्य अनित्य है, मरते समय जीव कहां से निकल गया होता है? वह छिद्र तो मुझे नहीं दिखता॥ हे नाथ! शरीर में स्थित पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये पंचमहाभूत और मन कहां जाते हैं?॥ शरीर में स्थित पांच कर्मेन्द्रियां और पांच बुद्धीन्द्रियां कहां जाती हैं? ये प्राणादि पांच वायु कैसे विनाश को प्राप्त होते हैं?॥)
(हे जनार्दन! शरीर में स्थित लोभ, मोह, तृष्णा, काम और अहंकार ये पांच चोर कहां जाते हैं। देह के नष्ट होने पर धर्म या अधर्म जो कुछ अन्य सुकर्म हैं, वे और विविध दान भी कहां जाते हैं?॥ लोगों के दोषों की विचित्रता और मृत्युविषयता को देखकर पूछने में इच्छुक होकर आया हूं। मृत्यु क्या है? वह विचित्रता कैसे आती है?॥ जिसकी विधिपूर्वक मृत्यु होती है और मृत्यु के बाद भी जिसकी विधिपूर्वक वर्षपर्यन्त क्रिया होती है, वह दुर्गति में नहीं पड़ेगा। यह बात मैंने ऋषियों से सामान्यतया सुनी है, उसके विशेष ज्ञान के लिए हे प्रभो! मैं यह पूछता हूं। हे इन्द्र के भाई! मरते हुए मनुष्य का क्या कृत्य है? दान क्या है? मृत्यु और शवदाह के बीच का विधान क्या है? शवदाह का विधान क्या है?॥ मृत जीव दूसरे शरीर में तत्काल पहुंचता है अथवा विलम्ब से पहुंचता है? यमपुरियों में चलते हुए जीव के निमित्त वर्षपर्यन्त की जाने वाली प्रेतक्रिया कौन-सी है?॥ दुर्मरण और पंचकादि में मरने वाले मनुष्य का क्या प्रायश्चित है? अनुग्रह कीजिए। मेरे अज्ञान को