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Kavi Ke Man Se
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Ebook179 pages45 minutes

Kavi Ke Man Se

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इस कविता-शृंखला के बारे में

आधुनिक हिन्दी कविता की अलग-अलग कई सरणियाँ हमारे सामने हैं। यह कविता शृंखला हिन्दी कविता की उदारवादी धारा है। इस कविता-धारा के पहले सैट में सात कवियों की कविताओं एक-एक संग्रह प्रस्तुत है। विचारधारा मनुष्य के लिए है, मनुष्य विचारधारा के लिए नहीं। जीवन किसी भी विचारधारा से बड़ा है। उसे समझने की कोशिशें बार-बार होती रही हैं, आने वाले समय में भी होती रहेंगी। साहित्य को उदारवादी दृष्टिकोण की ज़रूरत है, जहाँ उन सबका स्वागत और सम्मान हो जो मनुष्यता और मानव-मूल्यों में विश्वास करते हैं। इस शृंखला में प्रस्तुत कवियों के पास अपने-अपने जीवन से अर्जित अनुभवों की समृद्ध संपदा है और उसे कविता में ढालने की कला की अदभुत क्षमता भी। जब यह प्रस्ताव मैंने इंडिया नेटबुक्स के स्वामी श्री संजीव कुमार, जो स्वयं एक कवि हैं, के सामने रखा तो उन्होंने इसके प्रकाशन का दायित्व लेने में तत्काल अपनी सहमति दी। आज प्रकाशन के बिना कहा हुआ रेखांकित नहीं होता। जब यही प्रस्ताव इस काव्य-शृंखला के पहले सैट में आने वाले कवियों के सामने रखा तो उन्होंने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया और शीघ्र ही अपनी-अपनी पांडुलिपियाँ दे दीं। 'कवि के मन से' कविता-शृंखला में प्रस्तुत प्रत्येक कवि ने स्वयं अपनी-अपनी कविताओं का चुनाव किया और उसके साथ ही एक भूमिका प्रस्तुत की है। पहले सैट में सर्वश्री रामदरश मिश्र, प्रमोद त्रिवेदी, कुसुम अंसल, शशि सहगल, दिविक रमेश और संजीव कुमार के साथ ही इस काव्य-शृंखला के प्रस्तावक प्रताप सहगल के कविता संग्रह आपके सामने प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। आप इन कवियों की काव्य-यात्रा की झलक इन संग्रहों में पा सकते हैं। अगले सैट में हम कई और कवियों की कविताओं के साथ प्रस्तुत होंगे।

                                                      प्रताप सहगल

                                                      प्रस्तावक

LanguageEnglish
Release dateApr 29, 2022
ISBN9789393028716
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    Kavi Ke Man Se - Pratap Sehgal

    प्रताप सहगल

    इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड,

    इस कविता-शृंखला के बारे में

    आधुनिक हिन्दी कविता की अलग-अलग कई सरणियाँ हमारे सामने हैं। यह कविता शृंखला हिन्दी कविता की उदारवादी धारा है। इस कविता-धारा के पहले सैट में सात कवियों की कविताओं एक-एक संग्रह प्रस्तुत है। विचारधारा मनुष्य के लिए है, मनुष्य विचारधारा के लिए नहीं। जीवन किसी भी विचारधारा से बड़ा है। उसे समझने की कोशिशें बार-बार होती रही हैं, आने वाले समय में भी होती रहेंगी। साहित्य को उदारवादी दृष्टिकोण की ज़रूरत है, जहाँ उन सबका स्वागत और सम्मान हो जो मनुष्यता और मानव-मूल्यों में विश्वास करते हैं। इस शृंखला में प्रस्तुत कवियों के पास अपने-अपने जीवन से अर्जित अनुभवों की समृद्ध संपदा है और उसे कविता में ढालने की कला की अदभुत क्षमता भी। जब यह प्रस्ताव मैंने इंडिया नेटबुक्स के स्वामी श्री संजीव कुमार, जो स्वयं एक कवि हैं, के सामने रखा तो उन्होंने इसके प्रकाशन का दायित्व लेने में तत्काल अपनी सहमति दी। आज प्रकाशन के बिना कहा हुआ रेखांकित नहीं होता। जब यही प्रस्ताव इस काव्य-शृंखला के पहले सैट में आने वाले कवियों के सामने रखा तो उन्होंने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया और शीघ्र ही अपनी-अपनी पांडुलिपियाँ दे दीं। 'कवि के मन से' कविता-शृंखला में प्रस्तुत प्रत्येक कवि ने स्वयं अपनी-अपनी कविताओं का चुनाव किया और उसके साथ ही एक भूमिका प्रस्तुत की है। पहले सैट में सर्वश्री रामदरश मिश्र, प्रमोद त्रिवेदी, कुसुम अंसल, शशि सहगल, दिविक रमेश और संजीव कुमार के साथ ही इस काव्य-शृंखला के प्रस्तावक प्रताप सहगल के कविता संग्रह आपके सामने प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। आप इन कवियों की काव्य-यात्रा की झलक इन संग्रहों में पा सकते हैं। अगले सैट में हम कई और कवियों की कविताओं के साथ प्रस्तुत होंगे।

    प्रताप सहगल

    प्रस्तावक

    लिखने का कारण प्रताप सहगल

    बयान : एक

    कभी-कभी सोने की प्रक्रिया में कहीं कुछ तेज कौंध जाता है। कौंध धीरे-धीरे तरतीब लेने लगती है और सिलसिलेवार एक के बाद एक गरम-गरम सलाखें दिमाग को दागने लगती हैं.... एक पीड़ा, एक तकलीफ़, एक छटपटाहट। छटपटाहट को को अस्पष्ट चित्र मिलते हैं....चित्रों को आकार, आकारों को शब्द, जुड़ते हुए शब्द-दर- शब्द रचना शक्ल अख्तियार करने लगती है, जैसे एक ताकत, पूरी ताकत के साथ एक हमलावर है और मैं पस्त लेटा हूँ। तकलीफ़ खत्म नहीं होती, आकार बढ़ते चले जाते है, साँसे तेज़ धौंकनी सी चलने लगती हैं और मैं घबराकर उठ बैठता हूँ... खुद को संभालने लगता हूँ। कुलम, कागज़ तलाशने लगता हूँ.... जब तक कुलम काग़ज़ हाथ में आए और दिमाग पर घिरे आकार उन पर छपने लगें, तभी दिमाग से हाथ तक की यात्रा में कहीं कुछ फिसल जाता है...कई अनुभव और मेरे सारे कारनामे आकर जुड़ने लगते हैं..... एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था होते हुए। कभी आसमान, कभी पाताल, कभी देश, कभी दुनिया, कभी मैं कभी तुम कभी बीवी कभी माँ, कभी बाप, कभी दोस्त कभी दुश्मन, कभी परंपरा कभी विद्रोह न जाने एक साथ क्या-क्या उलझने लगता है। उस उलझाव में चेहरा तराशने में कितनी दिक्क्त होती है, इसका अहसास तेजी के साथ मन को कचोटने-काटने लगता है। इसी में कुछ फिसल जाता है। वो जो 'कुछ' फिसल गया था, उसे फिर से पकड़ने की कोशिश करता हूँ. पर वो पूरी तरह से पकड़ में कहाँ आता है। वो फिसला हुआ पूरी तरह से पकड़ में आ जाए.... काश! रचना की आवाज़ आकाश को चीर दे, पर वही हाथ नहीं आता। आता है तो बहुत कम। उसी फिसले हुए को ढूँढने और हासिल को शब्द देने की प्रक्रिया में रचना की शक्ल कुछ की कुछ हो जाती है। जैसी कौंधी थी, वैसी कभी नहीं। बस यही एक दिक्कत है, एक कमजोरी, एक परेशानी, केरा है। नतों से जो काही से जिससे मुक्त होने की इच्छा लगातार बनी रहती है और इसी बजह से कविता लिखी जाती है। कुछ जाता है, कुछ मुक्ति और नही सोध (1981)लिखने का कारण आखिर है क्या? आमंथन का आत्मशोधा आत्मनि या आत्मपीड़ना आत्मग्लानि या आत्मदया। आत्मा या आत्मचिंतन या आत्मदर्शना आत्ममुख या फिर आत्मविश्वास अंदर से बाहर की ओर जाना है या बाहर से अंदर की ओर लौटना सुर को पहचानना है खुद को रेखांकित करना, आनंद की उपलब्धि है आनंद तक पहुंचने की प्रक्रिया, लिखना पीड़ा है या पीड़ा से मुकि लिखने का कारण आखिर है क्या? हर लेखक ने दार्शनिक की मुद्रा अख्तियार कर इसे यक्ष प्रश्न का उत्तर खोजने की कोशिश की है, पर यह प्रश्न है कि आज भी यक्ष प्रश्न है।

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