Pathik Tum Phir Aana
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अनुक्रम
खंड 1
1 )दुनिया के सबसे बड़े कला संग्रहालय का देश रूस
2) श्रीलंका जहाँ रावण मुखौटों में जिंदा है
3) रेगिस्तान में हरियाली का द्वीप दुबई
4) भूटान द लैंड ऑफ़ थंडर ड्रैगन
5)परियों की कहानियों जैसा शहर बुखारा उज़्बेकिस्तान
6) विश्व धरोहर अंगकोरवाट से चर्चित कंबोडिया
7)साहस और चुनौती का प्रतीक वियतनाम
8) नेफ्रटीटी के देश में मिस्र
खंड 2
9)अब वे कैसे कहेंगे , पथिक फिर आना
10)छत्तीसगढ़ के राजमुकुट पर चमकते हीरे सा बस्तर
11)जो खौफ आंधी से खाते तो
12)नीले सागर पर मरकत से बिखरे हैं अंडमान निकोबार
13)पूर्व का रोम गोवा
14)बाबा आदम और बुल्गारिया की राधिका
15) जादुई महानगर मुंबई
16) प्रवासी पक्षियों की आरामगाह चिल्का लेक
17) दर्रों की घाटी लद्दाख
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Pathik Tum Phir Aana - INDIA NETBOOKS indianetbooks
संतोष श्रीवास्तव
समर्पण
हेमंत के लिये
जो अब सिर्फ मेरा नहीं रहा
पूरी दुनिया का हो गया
अनुक्रम
खंड 1
1 )दुनिया के सबसे बड़े कला संग्रहालय का देश रूस
2) श्रीलंका जहाँ रावण मुखौटों में जिंदा है
3) रेगिस्तान में हरियाली का द्वीप दुबई
4) भूटान द लैंड ऑफ़ थंडर ड्रैगन
5)परियों की कहानियों जैसा शहर बुखारा उज़्बेकिस्तान
6) विश्व धरोहर अंगकोरवाट से चर्चित कंबोडिया
7)साहस और चुनौती का प्रतीक वियतनाम
8) नेफ्रटीटी के देश में मिस्र
खंड 2
9)अब वे कैसे कहेंगे , पथिक फिर आना
10)छत्तीसगढ़ के राजमुकुट पर चमकते हीरे सा बस्तर
11)जो खौफ आंधी से खाते तो
12)नीले सागर पर मरकत से बिखरे हैं अंडमान निकोबार
13)पूर्व का रोम गोवा
14)बाबा आदम और बुल्गारिया की राधिका
15) जादुई महानगर मुंबई
16) प्रवासी पक्षियों की आरामगाह चिल्का लेक
17) दर्रों की घाटी लद्दाख
खंड 1
हर सफर आवाज देता है मुझे
आ कि सदियों का खजाना देख ले
––––––––
दुनिया के सबसे बडे कला सँग्रहालय का देश रूस
**************************************
पुश्किन की कविता ,जिसे महसूस कर रही हूँ उनके देश रूस में———
मद्धिम चाँद, छाया के आलिंगन में
निशा-बादलों की पहाड़ी पर चढ़ता है
और उदास वन-प्रान्तर में
अपना धूसर प्रकाश फैलाता है।
सफ़ेद सूनी सड़कों पर
जाड़े के अनन्त विस्तार में
मेरी त्रोइका भागी जाती है,
और उसकी घण्टियाँ उनीन्दी,
थकी-थकी बजती चलती हैं।
मॉस्को का परिचित सा लगता हवाई अड्डा शेरेमेत्येवो (svo) भव्य और आधुनिकीकरण में बेमिसाल ........9:00 बजे सुबह हमारी फ्लाइट ने लैंड किया था और अब मैं 28 साहित्यकारों के दल सहित होटल मैक्सिमा इरबिस की ओर एयर कंडीशंड बस से रवाना हो रही थी। मैं इस देश की मेहमान नहीं बल्कि मुसाफिर थी। भारत रूस मैत्री के एहसासों से भरी। देख रही थी विश्व के सबसे बडे देश रूस की राजधानी मॉस्को की धूप से नहाई सड़कों, हरे-भरे दरख्तों को ।मॉस्को दुनिया के उन बड़े शहरों में से एक है जहाँ का रात्रिकालीन सौंदर्य ,आकाश छूती इमारतें ,संग्रहालय और दुर्लभ कलाकृतियों का सुना सुनाया आकर्षण मुझे यहाँ तक खींच लाया था। सोवियत संघ जब टुकड़ों में नहीं बंटा था और जब मुझे पुश्किन ,रसूल हमजातोव जैसे लेखकों का देश और लेनिनग्राद शहर देखने की चाहत थी।
एक दिशानुमा की तरह विश्व मैत्री मंच मुझसे जुड़ा था। उसी के छठवें अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में हम मॉस्को आए थे ।
बहरहाल होटल पहुँचकर कमरों में व्यवस्थित होकर हम शाम की तैयारियों में जुट गए ।सम्मेलन में हमारे विशिष्ट अतिथि थे दिशा फाउंडेशन मॉस्को के अध्यक्ष डॉ रामेश्वर सिंह,
डॉ सुशील आज़ाद एवं डॉ विनायक जिनके कर कमलों द्वारा सम्मेलन का उद्घाटन हुआ। इस सत्र की मुख्य अतिथि डॉ माधुरी छेड़ा , अध्यक्ष आचार्य भगवत दुबे एवं विशिष्ट अतिथियों द्वारा डॉ विद्या चिटको, डॉ रोचना भारती, डॉ प्रमिला वर्मा, संतोष श्रीवास्तव एवं कमलेश बख्शी की पुस्तकों का विमोचन हुआ ।
अनुपमा यादव के कुशल अभिनय की एकल नाट्य प्रस्तुति तथा विनायक जी के द्वारा गाई अहमद फराज की गजल ने समा बांध दिया ।
यह सम्मेलन भारत मॉस्को वैश्विक साहित्य की दिशा में एक नई पहल के रूप में दर्ज किया गया।
रात्रि कालीन भोज होटल के डाइनिंग रूम में ही था ।पूरा रशियन व्यंजनों वाला। वैरायटी तो लगी पर स्वादिष्ट नहीं। इतने देशों की यात्रा की है पर भारतीय व्यंजनों के क्या कहने ।अब तो विदेशी भी भारतीय भोजन के शौकीन हो गए हैं।
सुबह नाश्ते के बाद हम मॉस्को सिटी टूर के लिए रवाना हुए । मुझे पुश्किन संग्रहालय मास्को विश्वविद्यालय देखने थे ।मॉस्को की खूबसूरत सड़कों से बस न जाने कहाँ भागी जा रही थी। गाइड बता रहा था मॉस्को के बारे में।वह इतनी जल्दी जल्दी बोल रहा था कि शब्दों को पकड़ना मुश्किल था। बस जहाँ रुकी वहाँ से रंग बिरंगे फूलों भरे रास्ते से हम एक पहाड़ी की ओर बढ़े ।यह पहाड़ी मस्कवा नदी के दाहिने किनारे पर समुद्र सतह से 80 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और स्पैरो हिल के नाम से जानी जाती है। स्पैरो हिल
ऐसा ऑब्जरवेशन प्लेटफार्म है जहां से मास्को यूनिवर्सिटी, luzhniki स्टेडियम, लेनिन स्टेडियम, naryshkin baroque towers इत्यादि मैं साफ-साफ देख रही थी। नदी के तट की दीवार से टिकी।
सामने एक तख्त था जिस पर बांस का मंडप था। मंडप पर सफेद कबूतर लाइन से बैठे थे। कबूतरों का मालिक पर्यटकों को उनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए आमंत्रित कर रहा था जो उसकी कमाई का साधन थे। हवा में ठंडक और नदी के जल की बूंदें थीं। स्पैरो हिल पर हम लंच के समय तक रुके ।
भारतीय रेस्तरां में भोजन के उपरांत हम lzmailovo बाजार गए ।यह स्ट्रीट मार्केट है। जहाँ सेकंड हैंड चीजें बिकती हैं ।यानी रूसियों द्वारा उपयोग में लाने के बाद कबाड़ी को बेची गई वस्तुएं। ऐसे बाजार अमूमन हर देश के शहरों में होते हैं। कुछ सुंदर आकर्षक वस्तुएं भी थीं। जिन्हें सोविनियर के तौर पर खरीदा जा सकता था। गर्म कपड़े, स्वेटर ,शॉल ,कोट ,इनर इत्यादि खूब बिक रहे थे ।यह बाजार सस्ता भी था।
होटल में लौटते हुए रास्ते में डिनर के लिए रुके ।तब तक मॉस्को रात्रि कालीन सौंदर्य से जगमगा उठा था। सड़कों पर चहल-पहल बढ़ गई थी। थकान ने घेर लिया था। बिस्तर पर पहुंचते ही नींद ने अपने आगोश में ले लिया।
क्रेमलिन की ओर जाते हुए मैंने सोचा था कि क्रेमलिन रूस का एक शहर है लेकिन वह शहर नहीं बल्कि डेढ़ मील की परिधि में त्रिभुजाकार दीवारों से घिरा विशाल परिसर है जिसके अंदर भव्य इमारतें रूस की नौकरशाही की भव्यता की अनुभूति कराती हैं।
सामंतवादी युग में रूस के विभिन्न नगरों में जो दुर्ग बनाए गए थे वे क्रेमलिन कहलाते हैं। इनमें प्रमुख दुर्ग मास्को, नोव्गोरॉड, काज़ान और प्सकोव, अस्त्राखान और रोस्टोव में हैं। ये दुर्ग लकड़ी अथवा पत्थर की दीवारों से बने थे और रक्षा के निमित्त ऊपर बुर्जियां बनी थीं। ये दुर्ग मध्यकाल में रूसी नागरिकों के धार्मिक और प्रशासनिक केंद्र थे, फलत: इन दुर्गों के भीतर ही राजप्रासाद, चर्च, सरकारी भवन और बाजार बने थे।
आजकल इस नाम का प्रयोग प्रमुख रूप से मास्को स्थित दुर्ग के लिये होता है। जो 1492 ई. के आसपास गुलाबी रंग की ईटों से बना था।
इसके भीतर विभिन्न कालों के बने अनेक भवन हैं जिनमें कैथिड्रेल ऑव अज़ंप्शन नामक गिरजाघर की स्तूपिका सब भवनों में सबसे ऊँची है। इसका निर्माण 1393 ई. में आरंभ हुआ था। इसके भीतर के अन्य प्रख्यात भवन हैं-विंटर चर्च (यह भी 1393 में निर्मित हुआ था) और कंवेट ऑव अज़म्पशन (जो 1300 के आसपास का है)। इस मठ का द्वार गोथिक शैली का है जो 1700 ई. के आसपास रोमन काल में बना था। अधिकांश राजप्रासाद रिनेंसाँ काल के हैं और अधिकांशत: उन्हें इतालवी शिल्पकारों ने बनाया था। इनमें उन लोगों ने रिनेंसाँकालीन वास्तुरूपों को रूसी रुचि के अनुरूप ढालने का प्रयास किया है। ग्रैंड पैलेस नामक राजप्रासाद रास्ट्रेली नामक इतालवी बोरोक वास्तुकार की कृति है। 1812 में जब नेपौलियन ने मास्को पर आक्रमण किया उस समय यह प्रासाद अग्नि में जलकर नष्ट हो गया। उसके स्थान पर अब 19 वीं सदी के पूर्वार्ध में बना एक सादा भवन है।
क्रेमलिन का दृश्य बाहर से अद्भुत जान पड़ता है।
1917 से पूर्व यह सोवियत विरोधी शक्तियों का गढ़ था। साम्यवादी शासन के समय यह सोवियत समाजवादी गणतंत्र का केंद्र था। जिन भवनों में किसी समय राजदरबारी रहते थे उनमें आज सोवियत सरकार के अधिकारी निवास करते थे।
पास में ही रेड स्क्वायर है जहाँ राष्ट्रीय अवसरों पर रूसी सैनिक प्रदर्शन होते हैं। इसी स्क्वायर में लेनिन की समाधि है।
क्रेमलिन घूमने में काफी वक्त लगा। भूख लग आई थी। भारतीय रेस्तरां पहुंचते आधा घंटा और लग गया। 3:30 बजे सेंट पीटर्स बर्ग जाने के लिए हमें सेप्सन स्टेशन से बुलेट ट्रेन लेनी थी। इसीलिए मैक्सिमा होटल से हमने सुबह ही चेक आउट कर लिया था ।लंच शीघ्रता से लेना पड़ा ।हमारी गाइड लरीसा बहुत हेल्पफुल और हंसमुख थी ।खूबसूरत तो थी ही।
बुलेट ट्रेन की यात्रा अविस्मरणीय थी। पूरे डिब्बे में हमारा ही ग्रुप था । पाँच छः रशियन भी थे जिन्हें हमारी अंत्याक्षरी आदि खेलने पर आपत्ति थी। आखिर 7 घंटे का सफर मौन रहकर तो काटा नहीं जा सकता। अटेंडेंट ने शालीन शब्दों में रशियन मुसाफिरों की दुविधा बताई ।चाय कॉफी अन्य पदार्थ स्नैक्स वगैरा सर्व किए जा रहे थे ।हमें जो लेना है ले सकते थे पर पेमेंट करके। चाय के बाद हम बातों में मुब्तिला हो गए ।अब हमारे ठहाके उन्हें डिस्टर्ब कर रहे थे। मजबूरन चुप रहना पड़ा । मित्रों के बीच खामोशी की पीड़ा उस दिन जानी।
सेंट पीटर्सबर्ग स्टेशन पहुंचते रात हो गई थी। बस से होटल की ओर जाते हुए शहर की जगमगाती खूबसूरती पर फिदा हुए बिना नहीं रहा गया ।लेकिन होटल कम्फिटल लिगोवस्की ने उदास कर दिया। होटल सेंट पीटर्सबर्ग के प्राचीन इलाके में असुविधा पूर्ण था। 6 मंजिल के होटल में लिफ्ट तक नहीं थी। रिसेप्शन भी किसी दुकान का काउंटर लग रहा था। होटल देखकर सबका डिनर के लिए जाने का मूड भी चला गया ।लरीसा सब को मना थपा कर डिनर के लिए ले गई|
प्राचीन इलाका पुराने रूस की याद दिला रहा था। पथरीली सड़कें और साधारण बल्कि गरीब दिखते लोग। वैसे हर एक शहर में पुराना इलाका पुराने ही रूप में होता है ।नानबाईयों की दुकानें लाइन से थीं। चर्च स्कूल सब प्राचीन समय के ।स्ट्रीट लाइट भी लैंप की थी।
लरीसा ने बताया सुबह नाश्ते के बाद हम सिटी टूर के लिए निकलेंगे ।
अपने कमरे में पहुंचकर मैंने डायरी में लिखा—
रसूल हमजातोव मैं तुम्हारे देश में हूँ। यह प्राचीन जगह मुझे खींच रही है दागिस्तानी पहाड़ों की गहराइयों में। जहाँ हरे भरे वन प्रांतर के किनारे बसे पहाड़ी गाँव का त्सादा में तुमने जन्म लिया और तुम से जाने कितनी रचनाओं ने जन्म लिया ।मैं उन रचनाओं का छोर पकड़े इस शहर के प्राचीन काल को जी रही हूँ।
सेंट पीटर्सबर्ग शहर की एक खास पहचान है. एक बेहद खूबसूरत शहर जिसकी स्थापना पीटर द ग्रेट ने की थी।सेंट पीटर्सबर्ग शहर रूस की इम्पीरियल (शाही) राजधानी था।
इसी वजह से यह एक सांस्कृतिक केंद्र है और यहाँ रूस के सांस्कृतिक आकर्षणों की भरमार है।
लरीसा ने बताया -मैडम सेंट पीटर्सबर्ग घूमने के लिए कम से कम 1 सप्ताह चाहिए। यहाँ 200 से अधिक संग्रहालय, 100 थियेटर , 114 कंसर्ट हाल ,70 पार्क ,417 गैर सरकारी सांस्कृतिक संस्थान और 5830 दर्शनीय सांस्कृतिक स्थल हैं। कजान कैथेड्रल यहां के विशाल कैथेड्रल में से एक है जो 1801 -1811 में बनकर तैयार हुआ जिसका डिज़ाइन आर्किटेक्ट एंड्री वोरोनिखिन ने किया था।
"लरीसा, यहाँ की इमारतों में से कुछ विश्व धरोहर में भी शामिल की गई है न?
"जी हाँ मैम,सेंट पीटर्सबर्ग के कई ऐतिहासिक केंद्र और स्मारकों को यूनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल किया गया है। सेंट पीटर्सबर्ग में दुनिया के सबसे बड़े कला संग्रहालयों में से एक हेरमिटेज़ है। कई विदेशी वाणिज्य दूतावास, बैंकों और व्यवसायों के सेंट पीटर्सबर्ग में कार्यालय हैं।
फिनलैंड की खाड़ी भी शहर के मुहाने पर है।यहाँ नहर नेटवर्क द्वीपों और नेवा नदी डेल्टा के तटों में फैला हुआ है। नेवा सर्दियों में चार महीने के लिए जम जाती है। जून के अंत की रात सफेद रात कहलाती है। मशीनरी, जहाज निर्माण, वाहन, रबर, रसायन शास्त्र, पेपरमेकिंग, जूते, कपड़ा, खाद्य जैसे विभिन्न उद्योग हैं। रूस ही क्रांतिकारी श्रमिक आंदोलन का केंद्र था ।1905 में खूनी रविवार की घटना हुई और रूसी क्रांति की शुरुआत हुई। जार सेना ने शांतिपूर्ण मजदूरों तथा उनके बीबी-बच्चों के एक जुलूस पर गोलियाँ बरसाई, जिसके कारण हजारों लोगों की जान गईं। इस दिन चूँकि रविवार था, इसलिए यह खूनी रविवार के नाम से जाना जाता है।
सुनकर मन उदास हो गया। हर देश का श्रमिक ,किसान शोषण और अत्याचार का शिकार है।
समय हो गया था लंच का,। लरीसा द्वारा बताई इस कहानी के बाद तो बिल्कुल भी मन नहीं था लंच का। पर आदमी मशीन ठहरा।
लंच के बाद हम द स्टेट हरमिटेज म्यूजियम की राह पर थे। लरीसा इस शहर की जानकारी दे रही थी-" सेंट पीटर्सबर्ग नेवा नदीके तट पर स्थित रूस का एक प्रसिद्ध नगर है। यह रूसी साम्राज्य की पूर्व राजधानी थी। सोवियत संघ के समय में इसका नाम बदलकर लेनिनग्राद कर दिया गया था। जिसे सोवियत संघ के पतन के बाद पुन: बदलकर सेंट पीटर्सबर्ग कर दिया गया है।
अब यह सोवियत रूस की सांस्कृतिक राजधानी है ।यहां का हरमिटेज म्यूजियम संगमरमर पर सोने की अद्भुत कलाकृतियों से बेहद समृद्ध इतिहास को समेटे एक ऐसा महल कम संग्रहालय है जिसमें 400 कमरे हैं जो तीन मंज़िलों और पांच अलग अलग इमारतों में फैले हुए हैं।"
हरमिटेज संग्रहालय पहुँचते ही लगा जैसे मैं परीलोक में प्रवेश कर रही हूँ। सोने की वस्तुएं ,मूर्तियां, अद्भुत शिल्प के नमूने ,बेमिसाल कलाकृतियां ,अपार समृद्धि का परिचय देता महल ....इतना विशाल भूल भुलैया भरा कि खो जाने का खतरा ......कुछ ही घंटे में महल देखना असंभव...... इसे तो कई कई दिन लग जाएंगे देखने में। महल का परिसर सैलानियों से खचाखच भरा था। सभी फोटो खिंचवाने के मूड में थे ।हम सीढ़ियां उतर ही रहे थे कि हमारी सहयात्री प्रमिला वर्मा के पर्स की चेन किसी ने खोल ली। वह जेबकतरी महिला थी। रूस के बारे में सुना था कि यहाँ चोरी, जेब काटना, पासपोर्ट, करेंसी आदि उड़ा ले जाने की घटनाएँ आम हैं। जिप्सियों का बोलबाला है ।जिनका यही काम है ।सीढ़ियां उतरकर लंबा चौड़ा बेहद खूबसूरत उद्यान था। उद्यान में आधा घंटा गुजार कर हम नेवा नदी पर क्रूज़ की सैर के लिए चल दिए। क्रूज़ नेवा नदी और नहरों के बीच से गुजरता है। आसपास का रूसी स्थापत्य वेनिस की याद दिलाता है। लगता है जैसे सब कुछ पानी पर ही हो। एंखोव ब्रिज ,ब्रिज विद गोल्डन ग्राईफन्स ,ज्वेल्स ऑफ द सिटी ,इसाक कैथेड्रल ,चर्च जाने कितने ......सैनिकों का कोर्ट मार्शल जहाँ हुआ ऐसी खून भरी वारदातों की याद दिलाता वो स्थल ......ओह,खुशी, रोमांच और वहशी वारदातों की एक साथ अनुभूति कराता क्रूज़ का सफर अब समाप्ति की ओर था ।शाम भी ढल चुकी थी ।कहीं चमकीली ,कहीं धूमिल रोशनी रात के दबे पांव आने का संकेत थी।
सुबह खुशनुमा थी ।डाइनिंग रूम में मैं चाय पी रही थी। नाश्ते का बिल्कुल भी मन न था। अर्पणा ने मेरे लिए चीज़, फल, सलाद, पनीर ,सॉस से भरी सैंडविच बनाकर पैक करके दी। वह न बोल सकती थी ,न सुन सकती थी। इशारे से बताया बस में खा लेना
अच्छा लगा उसका इस तरह मेरा खयाल रखना।
इस यात्रा में मैं खट्टे मीठे तजुरबों से गुजर रही थी। हमारे यही तजुरबे तो हमें कितना कुछ सिखा देते हैं। सेंट इसाक कैथेड्रल बेहद भव्य ,शानदार था ।इस चर्च के ऊपर चढ़कर सेंट पीटर्सबर्ग का नजारा बेहद शानदार दिखता था ।इस चर्च की तर्ज पर मुंबई में भी चर्च हैं जो इसी की तरह भव्य और शानदार हैं ।
लरीसा को लंच का समय खूब याद रहता है। वह किसी को शिकायत का मौका नहीं देती।
मैम वोदका पिएंगी आज की रात डिनर में ? क्योंकि यह आखिरी रात है आपकी हमारे देश में ।कल तो आप अपने देश लौट जाएंगी।
और मेरे जवाब का इंतजार किए बिना बोली- आपको पता है यहाँ रूसी वोदका म्यूजियम है। मैं आपको वह जगह भी दिखाना चाहती हूँ जहाँ रासपुतिन का कत्ल हुआ था ।
उसकी आँखे बस की खिड़की के पार हरे भरे खेतों पर टिकी थीं। लगभग 4:00 बजे हम पीटरहॉफ पहुँचे जो फिनलैंड की खाड़ी के दक्षिणी तट पर बसा है। खूबसूरत पार्क और महल हाइड्रोफोलिस जो किंगडम ऑफ फाउंटेंस कहलाता है फिनलैंड की खाड़ी पर स्थित है। पीटरहॉफ महल में ही 18वीं सदी में जर्मनी के साथ रूस की शांति सन्धि हुई थी।
यात्रा की समाप्ति, थकान, विदाई का अवसाद....... छूट रहा है मॉस्को ,सेंट पीटर्सबर्ग .......यहाँ गुजरा पूरा सप्ताह स्मृतियों में कैद है ।तमाम फोकस की गई वस्तुएं ,स्थल ,रशियन लोग ,प्यारी लरीसा ।हम भारत के लिए उड़ान लेने पुलकोवो एयरपोर्ट पर हैं। पीछे छूट रहे हैं गोर्की, चेखव, टॉलस्टॉय, पुशकिन, फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की ,रसूल हमजातोव और कितने ही कलम के सिपाही। 1902 में गोर्की के घर के सामने ज़ार ने पहरा लगाया था। गोर्की श्रमिकों का चहेता कलमकार था ।उस पर बरसाई गई गोलियों को मजदूरों ने झेला था ।वह मजदूरों की पीड़ा का लेखक था। जब ज़ार की गोलियां मजदूरों की शांतिमयी हड़ताल पर बरसी थीं गोर्की के विद्रोह और दर्द से भरे तेवरों वाले लेख की वजह से ज़ार ने उसे जेल में डाल दिया था। गोर्की की यादों को सहेजा है रूस ने। लेखकों की कद्र रूसी जानते हैं तभी तो यहाँ की फिजाओं में शब्द लिखे हैं। जिन्हें समेटे हवा मेरे हवाई जहाज के संग संग उड़ रही है।
वादा, अपने देश पहुँचकर तुम्हें लिखूंगी रूस!!
श्रीलंका, जहाँ रावण मुखौटों में ज़िन्दा है
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अभी कल ही कविता की चार पंक्तियाँ दिमाग में आई थीं- सीता तुम लोकगीतों में हो| राम धर्म में हैं, राजा हैं| तुम सीता मैया हो| तुम्हारी कहानी हर औरत की कहानी है..........और आज श्रीलंका के जयवर्दनपुरे विश्वविद्यालय से अंतरराष्ट्रीय शोध काँन्फ्रेंस का न्यौता मिला|
११ अक्टूबर को मुम्बई से चेन्नई और १२ को चेन्नई से कोलम्बो के सिरिमारो भंडारनायके अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर हमारा दल सुबह २.३० बजे पहुँचा| दल में थे प्रोफ़ेसर व्यास, श्रीमती व्यास शोधार्थी निशान्त सक्सेना, शैलजा सक्सेना और मेरी अंतरंग दोस्त कवयित्री मधु सक्सेना| सभी रायपुर से आये थे| टूर गाइड और ड्राइवर (ड्राइवर ही गाइड होते हैं) रवीन्द्र हमारे नाम की तख़्ती लिए मुस्कुराता खड़ा था| अमेरिकन डॉलर को श्रीलंकन करेंसी में कन्वर्ट कराके एयरपोर्ट की बेहद मीठी कॉफ़ी पीकर जो चालीस श्रीलंकन रुपए यानी बीस भारतीय रुपयों की थी हम श्रीलंका के सबसे ठंडे हिल स्टेशन नुवाराइलिया की ओर रवाना हुए|एयरपोर्ट से बाहर आते ही नज़रें सामने लगे विज्ञापन पर पड़ीं- मलेरिया मुक्त श्रीलंका में आपका स्वागत है|पढ़कर अच्छा लगा| पूछने पर रवीन्द्र ने बताया- "श्रीलंका में शिक्षा भी फ्री है और इलाज भी|यह सकारात्मक नज़रिए का संकेत था|
मुम्बई से ११ तारीख़ की रात ७.५० का चेन्नई के लिए प्लेन था और चेन्नई से रात एक बजे कोलंबो का तो सारी रात रतजगा हुआ| रतजगे की थकान की वजह से गाड़ी आरामदायक नहीं लगी।जो भी पूछताछ करनी थी वो निशान्त और व्यासजी ही करते रहे| एयरपोर्ट से हाईवे द्वारा हमारी ६ सीटर गाड़ी नुवाराइलिया की ओर जा रही थी| हाईवे की सुन्दरता नियॉन लाइट में जगमगा रही थी| कई देशों के राष्ट्रीय झंडे लगे थे| भारत का तिरंगा भी लहरा रहा था| श्रीलंका का झंडा केशरी, हरा और लाल... लाल पर बना पीला शेर जो कटार लिये था... शेर के सिर और पैर की ओर एक-एक पत्ता बना था| झंडा चारों ओर पीली पट्टी से युक्त था| झंडे को यहाँ सिंहकोडिया कहते हैं| जैसे हमारा तिरंगा| यहाँ केलानी नदी बहती है जिसे कोलंबो की जीवन रेखा माना जाता है| यह नदी नुवाराइलिया पर्वत से ही निकलती है| नुवाराइलिया समुद्र सतह से २००० मीटर की ऊँचाई पर एक ऐसा पहाड़ी नगर है जहाँ नेल्लु पुष्प चौदह वर्षों में एक बार खिलता है इसीलिए इसका नाम नुवाराइलिया पड़ा|
१२ अक्टूबर- नुवाराइलिया नगर में प्रवेश करते ही ठंड ने हमें दबोच लिया| सुबह के साढ़े आठ बजे थे| कोहरा और बर्फ़ीली ठंडक| उफ़... गरम कपड़े तो लाये ही नहीं| होटल ‘हेवन सेवन’ पहाड़ पर था| चेक इन टाइम दोपहर १२ बजे था| हमारे पहुँचने तक रूम भी ख़ाली नहीं हुए थे, लिहाज़ा दो ढाई घंटे| ४ डिग्री तापमान में बिना गरम कपड़े के इंतज़ार में ठिठुरते रहे और गर्म चाय पी-पी कर ठिठुरन सहते रहे| आसपास का दृश्य बेहद लुभावना था| चाय बागानों का सीढ़ीदार सिलसिला... जैसे पर्वतों से चाय के पौधे धीरे-धीरे उतर रहे हों| रंग बिरंगे फूलों से लदे पौधे कायनात ने खुले हाथों लुटाए थे|
मेरी घड़ी में भी ग्यारह बजे थे और स्थानीय समय भी ग्यारह ही था| पहले श्रीलंका और भारत के समय में आधे घंटे का फ़र्क़ था पर अव दोनों का समय एक जैसा ही है| इंतज़ार की घड़ियाँ ख़त्म हुईं और मुझे और मधु को एक कमरा नसीब हुआ| गरम पानी से नहाना थकान उतारने का बेहतरीन विक़ल्प साबित हुआ| धीरे-धीरे नींद भी आने लगी| डेढ़ घंटे की नींद ने तरोताज़ा कर दिया| दोपहर डेढ़ बजे लंच के लिए तराई में उतरे जहाँ ये पर्वतीय शहर घना बसा है| कोई अच्छा रेस्तराँ नहीं दिखाई दिया| थक हार कर जिस जगह प्रवेश किया वह बहुत साधारण होटल था| दोसा, वड़ा, साँभर, इडली दक्षिण भारतीय भोजन था| मैंने दोसा मँगवाया| साँभर बिल्कुल ठंडा था जो छोटी बाल्टी में उसने लाकर दिया| चम्मच काँटा कुछ नहीं| साँभर के लिए कटोरी भी कई बार माँगने पर मिली| चम्मच नहीं देने की वजह होटल मालिक ने बताई कि चम्मच तो नॉनवेज होटलों में होती है| फिर देर तक मेरी कुर्सी से चिपका बतियाता रहा जिसकी वजह से मैं संकोचवश ठीक से खा नहीं पा रही थी|
यहाँ हिन्दी भाषा किसी को नहीं आती| तमिल और सिंहली भाषा ही बोली जाती है| संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेज़ी ही प्रचलित है|
हम ग्रेगरी लेक के किनारे से गुज़र रहे थे| बहुत तेज़ हवा थी| सड़क और झील के बीच सात आठ फीट के घने पेड़ों का झुरमुट था| कहीं थोड़े से जल में कमलिनी खिली थी तो कहीं कुमुदनी| रवीन्द्र हमें अशोक वाटिका ले आया| मैं रोमांचित थी| देख रही हूँ त्रेता युग की अशोक वाटिका| कहते हैं रावण का महल यहाँ से चालीस किलोमीटर दूर था| जिस पर्वत से छलाँग लगाकर हनुमान सीताजी के पास अशोक वाटिका में आए थे वह पर्वत ऐसा लग रहा था जैसे हनुमानजी लेटे हों| जिस पेड़ के नीचे सीताजी बैठी थीं और जहाँ हनुमान ने उन्हें रामजी की भेजी अँगूठी दी थी अब वहाँ राम सीता लक्ष्मण का मंदिर है जो दक्षिणी स्थापत्य का कुछ-कुछ मीनाक्षी मंदिर जैसा है| पुजारी बता रहा था कि वो जो मंदिर से लगी जलधारा बह रही है वहाँ देखिए उभरी चट्टान पर हनुमानजी के पैरों के निशान जिन्हें अब पीली रेखा से दर्शनीय बना दिया गया है| चट्टान में धँसे निशान अद्भुत, रोमांचकारी थे| पुजारी से ही पता लगा कि श्रीलंका में रावण का एक भी मंदिर नहीं है वह मात्र मुखौटों में जिंदा है जो रामकथा को मंचित करते समय और लोक नृत्यों में कलाकार लगाते हैं| पूरे विश्व में केवल मानसरोवर और थाईलैंड में रावण का मंदिर है| अशोक वाटिका में बीचोंबीच मंदिर है और आसपास ऊँचे-ऊँचे घने दरख़्त... वन का आभास देते... कुछ सूखे पेड़ थे जिनकी सफ़ेद पड़ गई छाल मनमोहक लग रही थी| सीता के वास के दौरान निश्चय ही यह जगह फलों से लदे दरख़्तों और फूलों की रंग बिरंगी छटा से मनोहारी रही होगी| कहाँ अयोध्या... कहाँ श्रीलंका... सहज कल्पना असंभव है|
वापसी में रास्ता चाय बागानों से हरा-भरा बेहद खूबसूरत था| पर्वतों पर बादल उतर आए थे| हलकी से धुँध थी| जिसमें सड़क के दोनों ओर रंग बिरंगे लकड़ी, पत्थर या सीमेंट के मकान, बगीचों से गुज़रते हुए हम न्यू बाज़ार स्ट्रीट आ गये थे जो यहाँ का मुख्य बाज़ार है... तरह-तरह के फल... जैसे मैंने कंबोडिया, वियतनाम में देखे थे| सब्जियाँ... लम्बी लौकीनुमा चायनीज़ पत्ता-गोभी... ब्राउन कलर की ककड़ियाँ और किंग कोकोनट का तो क्या कहना| एक नारियल में एक डेढ़ लीटर पानी तो रहता ही है| ५० श्रीलंकन रुपयों का एक नारियल| हम लोग हर एक वस्तु के दाम को भारतीय रुपयों से आँकते बेहद खुश थे क्योंकि भारतीय एक रूपया यहाँ के दो रुपयों के बराबर जो था| नुवारा इलिया की ठिठुरती ठंड का मुकाबला करने के लिए स्वेटर की कई दुकानें देखीं... फिर लगा आज की रात ही तो रुकना है यहाँ, स्वेटर का बोझ सारे सफ़र में ढोना पड़ेगा| लिहाज़ा हमने मूँगफलियाँ ख़रीदीं और डिनर वही दोसा, मैदू वड़ा वगैरह का लेकर होटल लौटे| सुबह दस बजे कैंडी के लिए प्रस्थान था लिहाज़ा गर्म कंबल में दुबक गये... पलकों पर नींद की दस्तक थी और बाहर गला देने वाली ठंड का पहरा|
१३ अक्टूबर- सुबह ब्रेकफ़ास्ट के बाद हम कैंडी की ओर रवाना हुए| खूबसूरत नुवाराइलिया छूट रहा था| पहाड़ से वैली में उतरना बड़ा रोमांचक था| वैली में बसे छोटे-छोटे गाँव सूरज की गर्मी से अँगड़ाई लेते जाग रहे थे| कैंडी समुद्र सतह से ६०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है... रवीन्द्र बता रहा था... "यहाँ रेसकोर्स, विक्टोरिया पार्क, गोल्फ़ के मैदान जो संख्या में ६ हैं ३ क्रिकेट ग्राउंड हैं| दो इंटरनेशनल एयरपोर्ट हैं मार्तला और सिरिमानो भंडारनायके... महेन्द्र राज नेशनल एयरपोर्ट है|
हम इन सभी स्थलों से गुज़र रहे थे| एयरपोर्ट को छोड़कर.....
हर जगह चाय के नयनाभिराम बाग़ान थे|
चाय यहाँ की मुख्य खेती होगी?
जी मैडम, चाय, मसाले और सब्ज़ियाँ भी जो यहाँ बहुतायत से होते हैं|
एक खूबसूरत पॉइंट पर गाड़ी रुकवाकर हमने फोटो खींचे और चढ़ाई पर ट्रैकिंग करते हुए जहाँ पहुँचे दूर-दूर तक सिर्फ चाय ही चाय के बागान जैसे हरे रंग का गुदगुदा गलीचा बिछा हो| कहते हैं यहाँ चाय और पर्वतीय स्थलों की खोज अंग्रेज़ों ने की| जबकि यहाँ के पूर्वी और पश्चिमी तटीय इलाके हरे और पीले नारियल के वृक्षों से मालामाल हैं| चाय बागानों के बीच में कई झरने चट्टानों से अलमस्त उतरते हैं झरझर करते| आगे चलकर स्ट्रॉबेरी के खेत मिले| खेत से लगी हुई स्ट्रॉबेरी शॉप जहाँ स्ट्रॉबेरी से तैयार जैम, जैली, जूस आदि मिलता है| प्रवेश में एक पोस्टर ऐसा लगा है जिसके बड़े से गोल छेद में अपना चेहरा फिट करके फोटो खिंचवाओ तो ऐसा लगता है जैसे नीली जींस और लाल चैक की बुश्शर्ट पहने बहुत विशाल स्ट्रॉबेरी लिए हम खड़े हैं| सबने मज़े-मज़े में फोटो खिंचवाई|
कोथमाले में स्थित हनुमंता मंदिर की ओर जाते हुए एक लम्बी सुरंग से गुज़रे... जब तक आँखें अँधेरे की अभ्यस्त होतीं कि सुरंग ख़त्म हो गई| देवदार, चीड़ के लम्बे दरख़्तों की घनी छाँव में से सूरज की किरणें हीरे जैसी चमक रही थीं| ठंडी हवाओं में चीड़ की खुशबू थी| हनुमंता मंदिर के लिए नंगे पाँव ८५ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं| प्रवेश द्वार पर विशाल दरवाज़े मंदिर की भव्यता का संकेत दे रहे थे| ब्राउन दरवाज़े पर छोटी छोटी पीतल की घंटियाँ थीं| दरवाज़े के बायीं ओर राम सीता लक्ष्मण की मूर्तियाँ तथा दाहिनी ओर शिवजी की मूर्ति और मूर्ति के साथ ही शिवलिंग भी था| सफ़ेद संगमरमर के मंदिर में| ८ फीट ऊँची काले ग्रेनाइट से बनी हनुमानजी की मूर्ति थी| लंका में प्रवेश के दौरान इस पर्वत पर हनुमानजी ने विश्राम किया है| अब यहाँ उनका मंदिर है| मंदिर के सामने डैम है| डैम का हरा, नीला, सफ़ेद पानी स्थिर सा लगा... जल सतह या तो हवा से झिलमिलाती या परिंदों के पंखों से| डैम के उस तरफ़ वही पर्वत था जो अशोक वाटिका से दिखा था| लेटे हुए हनुमानजी जैसी आकृति वाला| मैं डैम की ओर जाने वाली सीढ़ियों से उतरकर लचीले लॉन पर चलती रही| क्यारियों में रंग-बिरंगे फूल खिले थे| पूरा मंज़र किसी चित्रकार द्वारा बनाए लैंडस्केप जैसा था|
चाय बागानों को देख-देख कर मन में सवाल उठता रहा था कि चाय तैयार कैसे होती है| सो हम चाय फैक्टरी देखने आये| सफ़ेद और ग्रे कलर की विशाल टी फैक्टरी में सबसे पहले ग्राहकों, पर्यटकों का स्वागत चाय से किया जाता है| हमें भी बिना दूध की चाय पेश की गई| हॉल विदेशी सैलानियों से भरा था| काँच के पार्टीशन के उस पार का व्यू बेहद खूबसूरत था| चाय के शोरूम में तरह-तरह की चाय ब्लैक टी, ग्रीन टी, सिल्वर टी, नार्मल टी| कारखाने में तरह-तरह की मशीनें... हर मशीन का अलग काम| चाय की पत्ती को हर मशीन से गुज़रना होता है| टूटना, पिसना, छनना होता है तब जाकर बनती है चाय| एक ही पौधे से पाँच पत्तियों सहित फुनगी तोड़ी जाती है| वो भी सूरज ढलने के पहले वरना पत्तियाँ मुरझा जाती हैं| सबसे ऊपर की पत्ती से सिल्वर टी, बीच की दो पत्तियों से ग्रीन टी और आख़िरी की दो पत्तियों से ब्लैक और नॉर्मल टी बनती है| वेनीला चाय वेनीला की खुशबू लेकर ही पैदा होती है| यहाँ से तैयार चाय का २५ प्रतिशत देश में रखा जाता है बाकी ७५ प्रतिशत विश्व के विभिन्न देशों में निर्यात किया जाता है|
दोपहर ढल रही थी| आसमान में कहीं-कहीं बादल छाए थे| वैसे