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Raavan - Aryavart Ka Shatru (Raavan: Enemy of Aryavarta)
Raavan - Aryavart Ka Shatru (Raavan: Enemy of Aryavarta)
Raavan - Aryavart Ka Shatru (Raavan: Enemy of Aryavarta)
Ebook761 pages6 hours

Raavan - Aryavart Ka Shatru (Raavan: Enemy of Aryavarta)

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About this ebook

WITHOUT THE DARKNESS, LIGHT HAS NO PURPOSE.

WITHOUT THE VILLAIN, WHAT WOULD THE GODS DO?

INDIA, 3400 BCE.

A land in tumult, poverty and chaos. Most people suffer quietly. A few rebel. Some fight for a better world. Some for themselves. Some don?t give a damn. Raavan. Fathered by one of the

most illustrious sages of the time. Blessed by the Gods with talents beyond all. Cursed by fate to be tested to the extremes.

A formidable teenage pirate, he is filled with equal parts courage, cruelty and fearsome resolve. A resolve to be a giant among men, to conquer, plunder, and seize the greatness that he thinks is his right.

A man of contrasts, of brutal violence and scholarly knowledge. A man who will love without reward and kill without remorse.

This exhilarating third book of the Ram Chandra series sheds light on Raavan, the king of Lanka. And the light shines on darkness of the darkest kind. Is he the greatest villain in history or just a man in a dark place, all the time?

Read the epic tale of one of the most complex, violent, passionate and accomplished men of all time.

LanguageEnglish
Release dateDec 1, 2022
ISBN9789356296480
Raavan - Aryavart Ka Shatru (Raavan: Enemy of Aryavarta)
Author

Amish Tripathi

Amish is a 1974-born, IIM (Kolkata)-educated banker-turned-author. The success of his debut book, The Immortals of Meluha (Book 1 of the Shiva Trilogy), encouraged him to give up his career in financial services to focus on writing. Besides being an author, he is also an Indian-government diplomat, a host for TV documentaries, and a film producer.  Amish is passionate about history, mythology and philosophy, finding beauty and meaning in all world religions. His books have sold more than 7 million copies and have been translated into over 20 languages. His Shiva Trilogy is the fastest selling and his Ram Chandra Series the second fastest selling book series in Indian publishing history. You can connect with Amish here:  • www.facebook.com/authoramish  • www.instagram.com/authoramish  • www.twitter.com/authoramish

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    Raavan - Aryavart Ka Shatru (Raavan - Amish Tripathi

    Ravan_Hindi.jpg

    रावण : आर्यवर्त का शत्रु

    आई.आई.एम. (कोलकाता) से प्रशिक्षित, 1974 में पैदा हुए अमीश एक बैंकर से सफल लेखक तक का सफर तय कर चुके हैं। अपने पहले उपन्यास मेलूहा के मृत्युंजय, (शिव रचना त्रय की प्रथम पुस्तक) की सफलता से प्रोत्साहित होकर उन्होंने फाइनेंशियल सर्विस का करियर छोड़कर लेखन पर ध्यान केंद्रित किया। एक लेखक होने के साथ ही, अमीश भारत-सरकार के राजनयिक, टीवी डॉक्यूमेंट्री के होस्ट और फिल्म-प्रोडूसर भी हैं।

    इतिहास, पुराण और दर्शन में उनकी विशेष रुचि है और दुनिया के प्रत्येक धर्म की सार्थकता और ख़ूबसूरती को सराहते हैं। उनकी किताबों की 60 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं और उनका 20 से अधिक भाषाओं में अनुवाद हुआ है। भारतीय प्रकाशन इतिहास में अमीश की 'शिव त्रयी' सबसे तेजी से बिकने वाली सीरीज है और 'रामचंद्र सीरीज' का स्थान दूसरे नंबर पर है। अमीश से संपर्क करने के लिए:

    www.authoramish.com

    www.facebook.com/authoramish

    www.instagram.com/authoramish

    www.twitter.com/authoramish

    अमीश की अन्य किताबें

    शिव रचना त्रयी

    भारतीय प्रकाशन क्षेत्र के इतिहास में सबसे तेज़ी से बिकने वाली पुस्तक शृंखला

    मेलूहा के मृत्युंजय (शिव रचना त्रयी की पहली किताब)

    नागाओं का रहस्य (शिव रचना त्रयी की दूसरी किताब)

    वायुपुत्रों की शपथ (शिव रचना त्रयी की तीसरी किताब)

    राम चंद्र शृंखला

    भारतीय प्रकाशन क्षेत्र के इतिहास में दूसरी सबसे तेज़ी से बिकने वाली पुस्तक शृंखला

    राम – इक्ष्वाकु के वंशज (शृंखला की पहली किताब)

    सीता – मिथिला की योद्धा (शृंखला की दूसरी किताब)

    लंका का युद्ध (शृंखला की चौथी किताब)

    भारत गाथा

    भारत का रक्षक महाराजा सुहेलदेव

    कथेतर

    अमर भारत : युवा देश, कालातीत सभ्यता

    धर्म: सार्थक जीवन के लिए महाकाव्यों की मीमांसा

    '{अमीश के} लेखन ने भारत के समृद्ध अतीत और संस्कृति के विषय में गहन जागरूकता उत्पन्न की है।'

    —नरेन्द्र मोदी (भारत के माननीय प्रधानमंत्री)

    '{अमीश के} लेखन ने युवाओं की जिज्ञासा को शांत करते हुए, उनका परिचय प्राचीन मूल्यों से करवाया है...'

    —श्री श्री रवि शंकर

    (आध्यात्मिक गुरु व संस्थापक, आर्ट ऑफ़ लिविंग फाउंडेशन)

    '{अमीश का लेखन} दिलचस्प, सम्मोहक और शिक्षाप्रद है।'

    —अमिताभ बच्चन (अभिनेता एवं सदी के महानायक)

    'भारत के महान कहानीकार अमीश इतनी रचनात्मकता से अपनी कहानी बुनते हैं कि आप पन्ना पलटने को मजबूर हो जाते हैं।'

    —लॉर्ड जेफ्री आर्चर (दुनिया के सबसे कामयाब लेखक)

    '{अमीश के लेखन में} इतिहास और पुराण का बेमिसाल मिश्रण है... ये पाठक को सम्मोहित कर लेता है।'

    —बीबीसी

    'विचारोत्तेजक और गहन, अमीश, किसी भी अन्य लेखक की तुलना में नए भारत के सच्चे प्रतिनिधि हैं।'

    —वीर सांघवी (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार)

    'अमीश की मिथकीय कल्पना अतीत को खंगालकर, भविष्य की संभावनाओं को तलाश लेती है। उनकी किताबें हमारी सामूहिक चेतना की गहनतम परतों को प्रकट करती हैं।'

    —दीपक चोपड़ा

    (दुनिया के जाने-माने आध्यात्मिक गुरु और कामयाब लेखक)

    ‘{अमीश} अपनी पीढ़ी के सबसे ज़्यादा मौलिक चिन्तक हैं।’

    —अर्नब गोस्वामी (वरिष्ठ पत्रकार व एमडी, रिपब्लिक टीवी)

    ‘अमीश के पास बारीकियों के लिए पैनी नज़र और बाँध देने वाली कथात्मक शैली है।’

    —डॉ. शशि थरूर (सांसद एवं लेखक)

    '{अमीश के पास} अतीत को देखने का एक नायाब, असाधारण और आकर्षक नज़रिया है।'

    —शेखर गुप्ता (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार)

    ‘नये भारत को समझने के लिए आपको अमीश को पढ़ना होगा।’

    —स्वप्न दासगुप्ता (सांसद एवं वरिष्ठ पत्रकार)

    ‘अमीश की सारी किताबों में उदारवादी प्रगतिशील विचारधारा प्रवाहित होती है: लिंग, जाति, किसी भी क़िस्म के भेदभाव को लेकर... वे एकमात्र भारतीय बैस्टसेलिंग लेखक हैं जिनकी वास्तविक दर्शनशास्त्र में पैठ है—उनकी किताबों में गहरी रिसर्च और गहन वैचारिकता होती है।’

    —संदीपन देब (वरिष्ठ पत्रकार एवं सम्पादकीय निदेशक, स्वराज्य)

    ‘अमीश का असर उनकी किताबों से परे है, उनकी किताबें साहित्य से परे हैं, उनके साहित्य में दर्शन रचा-बसा है, जो भक्ति में पैठा हुआ है जिससे भारत के प्रति उनके प्रेम को शक्ति प्राप्त होती है।’

    —गौतम चिकरमने (वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)

    ‘अमीश एक साहित्यिक करिश्मा हैं।’

    —अनिल धाड़कर (वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)

    ॐ नम: शिवाय

    ब्रह्मांड भगवान शिव के समक्ष सिर झुकाता है।
    मैं भी भगवान शिव के समक्ष सिर झुकाता हूँ।

    तुम्हारे लिए,

    मैं डूब रहा था,

    दुख में, क्रोध में, हताशा में।

    तुम मुझे खींचकर शान्ति की खुली हवा में ले गयीं,

    भले ही कुछ पल के लिए,

    केवल मेरी बातों को सुनकर।

    और जब मैं कहता हूँ तो ये केवल शब्द नहीं हैं,

    उनमें रहेगी हमेशा मेरी मौन कृतज्ञता,

    तुम्हारे साथ हमेशा रहेगा मेरा मूक प्रेम।

    "जब किसी व्यक्ति को महायश का असाधारण सौभाग्य प्राप्त होता है,

    तो दुर्भाग्य की वापसी उसके दुखों की गहनता को बढ़ा देती है।

    —कल्हण, राजतरंगिणी में

    आपमें से कौन महान बनना चाहता है?

    आपमें से कौन सुख की सभी सम्भावनाओं को गँवा देना चाहता है?

    क्या यह यश इसके योग्य भी है?

    मैं रावण हूँ।

    मैं यह सब कुछ चाहता हूँ।

    मुझे ख्याति चाहिए। मुझे शक्ति चाहिए। मुझे सम्पत्ति चाहिए।

    मुझे पूर्ण विजय चाहिए।

    भले ही मेरा यश मेरे दुख के साथ-साथ चले।

    महत्वपूर्ण पात्र एवं क़बीले

    अकंपन : एक तस्कर, रावण के निकटतम सहयोगियों में से एक

    अरिष्टनेमी : मलयपुत्रों के सेनापति, विश्वामित्र का दाहिना हाथ

    अश्वपति : उत्तर-पश्चिम साम्राज्य कैकेय के राजा, दशरथ के घनिष्ठ मित्र, कैकेयी के पिता

    इन्द्रजीत : रावण और मन्दोदरी का पुत्र

    कुबेर : लंका का प्रमुख-व्यापारी

    कुम्भकर्ण : रावण का भाई; एक नागा

    कुशध्वज : संकश्या का राजा; जनक का छोटा भाई

    कैकेसी : ऋषि विश्रवा की पहली पत्नी; रावण और कुम्भकर्ण की माँ

    क्रकचबाहु : चिल्का का प्रान्तपाल

    खर : लंका की सेना का अधिपति; समीची का प्रेमी

    जनक : मिथिला के राजा; सीता के पिता

    जटायु : मलयपुत्र प्रजाति का अधिपति; सीता और राम का नागा मित्र

    दशरथ : कोशल के चक्रवर्ती राजा और सप्त सिन्धु के सम्राट; राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के पिता

    नागा : विकृतियों के साथ जन्मी मानव प्रजाति

    पृथ्वी : टोडी गाँव का एक व्यापारी

    भरत : राम के सौतेले भाई; दशरथ और कैकेयी के पुत्र

    मन्दोदरी : रावण की पत्नी

    मर : भाड़े का हत्यारा

    मरीच : कैकेसी का भाई; रावण और कुम्भकर्ण का मामा; रावण के निकटतम सहयोगियों में से एक

    मलयपुत्र : छठे विष्णु प्रभु परशुराम की प्रजाति

    राम : सम्राट दशरथ और उनकी सबसे बड़ी पत्नी कौशल्या पुत्र; चारों भाइयों में सबसे बड़े, जिनका विवाह बाद में सीता से हुआ

    रावण : ऋषि विश्रवा का पुत्र; कुम्भकर्ण का भाई; विभीषण और शूर्पणखा का सौतेला भाई

    लक्ष्मण : दशरथ के जुड़वाँ बेटों में से एक; राम के सौतेले भाई

    वशिष्ठ : अयोध्या के राजगुरु; चारों राजकुमारों के गुरु

    वायुपुत्र : पूर्ववर्ती महादेव भगवान रुद्र की प्रजाति

    वाली : किष्किंधा का राजा

    विभीषण : रावण का सौतेला भाई

    विश्रवा : एक सम्मानीय ऋषि; रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा के पिता

    विश्वामित्र : छठे विष्णु परशुराम की प्रजाति मलयपुत्र के प्रमुख, राम और लक्ष्मण के अस्थायी गुरु भी

    वेदवती : टोड़ी गाँव की निवासी; पृथ्वी की पत्नी

    शत्रुघ्न : लक्ष्मण के जुड़वाँ भाई; दशरथ और सुमित्रा के पुत्र; राम के सौतेले भाई

    शूर्पणखा : रावण की सौतेली बहन

    शोचिकेश : टोड़ी गाँव का भूस्वामी

    समीची : मिथिला की नागरिक और सुरक्षा प्रमुख; खर की प्रेमिका

    सीता : मिथिला के राजा जनक और रानी सुनयना की पुत्री; मिथिला की प्रधानमंत्री भी जिनका विवाह बाद में राम से हुआ था

    सुकर्मण : टोड़ी गाँव का निवासी; शोचिकेश का पुत्र

    हनुमान : नागा और वायुपुत्र प्रजाति के सदस्य

    कथा विन्यास पर एक टिप्पणी

    इस पुस्तक को चुनने और मुझे अपनी सबसे महत्वपूर्ण चीज़ : समय, देने के लिए शुक्रिया।

    मैं जानता हूँ कि आपमें से बहुत लोग बहुत धैर्य के साथ राम चन्द्र शृं।खला के तीसरे भाग के रिलीज़ होने की प्रतीक्षा करते रहे हैं। देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ, और मुझे आशा है कि यह किताब आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी।

    आपमें से कुछ लोग सोच रहे होंगे कि मैंने इसका नाम रावण : आर्यवर्त का अनाथ से बदल कर रावण : आर्यवर्त का शत्रु करने का फ़ैसला क्यों किया। मैं बताता हूं। रावण की कहानी लिखते हुए मुझे उस व्यक्ति के बारे में कुछ बातें समझ आयीं। रावण जब बच्चा था तभी से उसके मन में उन परिस्थितियों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा भर गया था, जिनमें वो ख़ुद को पाता था। वो किसी हद तक अपनी नियति का नियन्ता था। शुरू में मुझे महसूस हुआ कि रावण को अपनी मातृभूमि से दूर कर दिया गया था और इस तरह, इस मायने में, वो अनाथ था। मगर जैसे-जैसे मेरे दिमाग़ में कहानी बुनती गयी, मुझे महसूस हुआ कि वो फ़ैसले सोच-समझकर लिए गये थे जो उसे उसकी मातृभूमि से दूर ले गये थे। उसने अनाथ की भूमिका में ढाले जाने की अपेक्षा शत्रु बनना चुना था।

    जैसा कि आपमें से कुछ लोग जानते होंगे, मैं कहानी कहने की हाइपरलिंक नाम की शैली से प्रभावित हूँ, जिसे कुछ लोग बहुरैखिक कथानक कहते हैं। इस तरह के कथानक में बहुत सारे पात्र होते हैं; और एक सूत्र उन सबको साथ लाता है। राम चन्द्र शृं।खला में तीन मुख्य पात्र राम, सीता और रावण हैं। प्रत्येक पात्र के अपने जीवन-अनुभव हैं जो उन्हें वो बनाते हैं जो वो हैं, और प्रत्येक के जीवन में अपना एडवेंचर, और दिलचस्प बैकस्टोरी है। आख़िरकार, सीता के अपहरण के साथ उनकी कहानियाँ एक होती हैं।

    तो हालांकि पहले भाग ने राम की कहानी को और दूसरे ने सीता की कहानी को खोजा था, तीसरा रावण की ज़िन्दगी को खँगालता है, और फिर तीनों एक चौथी पुस्तक से एकाकार होकर एक कहानी बन जायेंगे। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि रावण सीता और राम दोनों से कहीं अधिक आयु का है। वास्तव में, राम का जन्म उस दिन हुआ था जब रावण ने एक निर्णयात्मक लड़ाई लड़ी थी—राम के पिता सम्राट दशरथ के विरुद्ध। इसलिए यह पुस्तक काल में और पीछे जाती है, अन्य मुख्य पात्रों—सीता और राम—का जन्म होने से पहले।

    मैं जानता था कि बहुरैखिक कथानक में तीन किताबें लिखना जटिल और समय-खपाऊ मामला है, मगर मैं स्वीकार करूँगा कि यह बहुत उत्तेजना भरा था। मुझे आशा है कि आपके लिए भी यह उतना ही फलदायक और रोमांचकारी अनुभव होगा जितना मेरे लिए रहा है। राम, सीता और रावण को पात्रों के रूप में समझने से मुझे उनकी दुनियाओं में रहने, और षड्यन्त्रों और कहानियों की उस भूलभुलैया को खोजने में मदद मिली जो इस महागाथा को प्रकाशित करती हैं। इसके लिए मैं वाक़ई अनुग्रहीत महसूस करता हूँ।

    चूँकि मैं एक बहुरैखिक कथानक पर चल रहा था, इसलिए मैंने पहली पुस्तक (राम: इक्ष्वाकु के वंशज) के साथ ही दूसरी पुस्तक (सीता: मिथिला की योद्धा) में भी ऐसे संकेत छोड़े हैं जो तीसरी पुस्तक की कहानियों से जुड़ते हैं। यहाँ आपके लिए अनेक आश्चर्य और पेंच हैं, और बहुत से आगे आयेंगे!

    मुझे आशा है कि आपको रावण : आर्यवर्त का शत्रु पढ़ने में आनन्द आयेगा। कृपया नीचे दिये गये मेरे फ़ेसबुक पेज, इंस्टाग्राम, या ट्विटर अकाउंट पर सन्देश भेज कर मुझे बतायें कि आप इसके बारे में क्या सोचते हैं।

    स्नेह,

    अमीश

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    www.twitter.com/authoramish

    आभार

    ये आभार 2019 में तब लिखा गया था, जब यह किताब प्रकाशित हुई थी। मैं रावण—आर्यवर्त का शत्रु का ये संस्करण छापने वाली टीम का आभार व्यक्त करना चाहता हूँ। हार्पर कॉलिंस की टीम: स्वाति, शबनम, आकृति, गोकुल, विकास, राहुल, पॉलोमी और उदयन के साथ उनका नेतृत्व करने वाले प्रतिभाशाली अनंत। इन सभी के साथ शुरू हुए इस सफर के प्रति मैं बहुत उत्साहित हूँ।

    ये दो साल बहुत बुरे बीते हैं। इस कठिन दौर में मैंने इतने दुख और कष्ट भोगे हैं जितने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखे। कभी-कभी तो मुझे महसूस हुआ जैसे मेरी सारी ज़िन्दगी बिखरी जा रही है। मगर ऐसा नहीं हुआ। मैं उस दौर से निकल आया। इमारत अभी भी मज़बूत है। इस किताब के लेखन ने चुम्बक का सा काम लिया। और अभी आगे मैं जिन लोगों के प्रति आभार व्यक्त करूँगा, वो मेरा सम्बल रहे हैं; क्योंकि उन्होंने मुझे सँभाले रखा है।

    मेरे ईश्वर, प्रभु शिव। उन्होंने इन पिछले दो सालों में मेरी जम कर परीक्षा ली है। मुझे आशा है कि अब वो इसे थोड़ा आसान कर देंगे।

    वो दो व्यक्ति जिन्हें मैंने जीवन में सबसे ज़्यादा सराहा है, पुराने समय के मूल्यों, जीवट और मान-सम्मान वाले व्यक्ति; मेरे श्वसुर मनोज व्यास और मेरे जीजा जी हिमांशु रॉय। अब ये दोनों ही ऊपर स्वर्ग से मुझे देख रहे हैं। आशा है वो मुझ पर गर्व कर सकेंगे।

    मेरा दस वर्षीय बेटा नील; और जब मैं कहता हूँ, मेरे बेटे जैसा श्रेष्ठ न कोई था और न कभी होगा! तो तुम एक पिता के जज़्बात को माफ़ कर देना।

    कहानी में सहयोग देने के लिए मेरी बहन भावना; मेरे भाई अनीश और आशीष। हमेशा की तरह, पहला प्रारूप उन्होंने ही पढ़ा। उनके दृष्टिकोण, सम्बल, स्नेह और प्रोत्साहन अनमोल हैं।

    अपने शेष परिवार : उषा, विनय, शरनाज़, मीता, प्रीति, डोनेटा, स्मिता, अनुज, रूटा को उनकी सतत आस्था और प्रेम के लिए। और मेरी प्रसन्नता में अपना योगदान देने के लिए मैं अपने परिवार की अगली पीढ़ी का भी आभार व्यक्त करना चाहूँगा : मितांश, डेनियल, एडेन, केया, अनिका और आश्ना।

    मेरे प्रकाशक वैस्टलैंड के सीईओ गौतम और मेरी सम्पादक कार्तिका और संघमित्रा। अगर मेरे परिवार के इतर कोई ऐसा है जो इस प्रोजेक्ट के सबसे क़रीब है, तो यही तीनों हैं। ये लोग दक्षता, विनम्रता और गरिमा का अनोखा मेल हैं। मेरी कामना है हम एक लम्बी पारी साथ खेलें। वैस्टलैंड की शेष शानदार टीम : आनन्द, अभिजीत, अंकित, अरुणिमा, बरानी, क्रिस्टीना, दीप्ति, धवल, दिव्या, जयशंकर, जयंती, कृष्णकुमार, कुलदीप, मधु, मुस्तफ़ा, नवीन, नेहा, निधि, प्रीति, राजू, संयोग, सतीश, सतीश, शत्रुघ्न, श्रीवत्स, सुधा, विपिन, विश्वज्योति और अन्य। ये प्रकाशन जगत की शानदार टीम हैं।

    अमन, विजय, प्रेरणा, सीमा, और मेरे ऑफ़िस के मेरे अन्य सहयोगी। जो मेरे अन्य कार्यों को सँभाल लेते हैं जिससे मुझे लिखने के लिए समय मिल जाता है।

    हेमल, नेहा, कैन्डीडा, हितेष, पार्थ, विनीत, नताशा, प्रकाश, अनुज और ऑक्टोबज़ की बाक़ी टीम, जिन्होंने इस किताब का मुखपृष्ठ डिज़ाइन किया है, और बहुत शानदार काम किया है। उन्होंने ट्रेलर भी बनाया और किताब की अनेक सोशल मीडिया गतिविधियों का प्रबन्ध करने में सहायता की। एक उत्कृष्ट, रचनात्मक और प्रतिबद्ध एजेंसी।

    मयंक, श्रेया, सरोजिनी, दीपिका, नरेश, मार्वी, स्नेहा, सिमरन, कीर्ति, प्रियंका, विशाल, दानिश और मो’ज़ आर्ट टीम, जिन्होंने मीडिया सम्बन्धों और किताब के लिए मार्केटिंग समझौतों को अंजाम दिया। वो एक एजेंसी ही नहीं, परामर्शदाता भी हैं।

    सत्या और उनकी टीम जिन्होंने लेखक के नये फ़ोटो लिये जिन्हें इस पुस्तक के अन्दरूनी कवर पर लगाया गया है। उन्होंने एक साधारण से विषय को बेहतर बना दिया।

    कैलेब, क्षितिज, संदीप, रोहिणी, धाराव, हिना और उनकी अपनी टीम जिन्होंने अपने व्यवसाय, क़ानून और मार्केटिंग परामर्श से मेरे काम को सम्बल दिया।

    संस्कृत की उत्कृष्ट विद्वान मृणालिनी जो मेरे साथ मेरी रिसर्च पर काम करती हैं। उनके साथ मेरी चर्चाएँ बहुत ज्ञानपूर्ण होती हैं। उनसे मैंने जो सीखा है, उसने कई सिद्धान्त विकसित करने में मेरी मदद की है जो इन किताबों में शामिल होते हैं।

    आदित्य, मेरी किताबों के जोशीले पाठक जो अब एक मित्र और तथ्यों के जाँचकर्ता बन गये हैं।

    और अन्त में, मगर विशेष रूप से, आप पाठकगण। मैं जानता हूँ कि इस किताब में बहुत देरी हो गयी है। इसके लिए मैं दिल से माफ़ी चाहता हूँ। ज़िन्दगी मुझे लेखन से दूर ले गयी थी। मगर अब वापस ले आयी है। और यहाँ से मैं डगमगाऊँगा नहीं। आपके धैर्य, स्नेह और साथ के लिए धन्यवाद।

    अध्याय 1

    3400 ईसा पूर्व, सालसेट द्वीप, भारत का पश्चिमी तट

    वह आदमी घोर पीड़ा से चिल्ला पड़ा। उसे पता था कि उसकी मौत बहुत पास है। उसे बस कुछ ही देर और चुप रहना होगा। उसे रहस्य छिपाये रखना था। यह करना ही था। बस कुछ देर और।

    उसने स्वयं को पत्थर का कर लिया। मन ही मन वह लगातार मन्त्र जप रहा था। अथाह शक्ति का मन्त्र। वह मन्त्र जो उसकी पूरी जनजाति जपती थी। मलयपुत्रों की जनजाति।

    जय श्री रुद्र... जय परशु राम... जय श्री रुद्र... जय परशु राम।

    उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं। अपने आततायी की मौजूदगी को नकारने के लिए।

    मुझे शक्ति दो, प्रभु। मुझे शक्ति दो।

    उसका उत्पीड़क उसके ऊपर खड़ा अगला वार करने की तैयारी कर रहा था। तभी उसे निर्ममता से पीछे खींच लिया गया था। एक स्त्री द्वारा।

    उसने क्रोध से फुफकारते हुए कहा। खर, इससे बात नहीं बन रही है।

    लंका की सेना की एक टुकड़ी का सेनापति खर उस स्त्री की ओर मुड़ा। समीची। उसकी बचपन की प्रेयसी। कुछ वर्ष पहले तक समीची उत्तर भारत के एक छोटे से राज्य मिथिला की प्रधानमन्त्री के रूप में कार्य करती थी। लेकिन कुछ समय पहले उसने अपना पद छोड़ दिया था और उसका अता-पता मालूम करने में जुट गयी थी जिसने उसे नियुक्त किया था। वो राजकुमारी जिसकी उसने सेवा की थी : सीता।

    खर ने भी धीरे से जवाब दिया। यह मलयपुत्र सख़्तजान है। यह टूटेगा नहीं। हमें किसी और तरीक़े से जानकारी हासिल करनी होगी।

    इतना समय नहीं है!

    समीची की फुसफुसाहट में शीघ्रता का खुरदुरापन था। खर जानता था कि वो सही कह रही है। जो जानकारी उन्हें चाहिए थी, इस समय उसको पाने का सबसे अच्छा सम्भावित स्रोत यही था। जानकारी कि सीता, उनके पति राम, देवर लक्ष्मण और उनके साथ मौजूद सोलह मलयपुत्र सैनिक कहाँ छिपे हुए थे। खर यह भी जानता था कि यह जानकारी निकलवाना कितना अहम है। यह समीची के वास्तविक स्वामी का अनुग्रह पाने का सुअवसर था। वो जिसे वो इराइवा कहती थी, लंका का राजा रावण।

    मगर यह अधिक देर जीवित नहीं रहेगा। खर का स्वर नर्म था। निराशा से भरा। मुझे नहीं लगता यह बोलेगा।

    मुझे कोशिश करने दो।

    समीची उस मेज़ की ओर बढ़ी जहाँ मलयपुत्र बँधा हुआ था। उसने झटके से मलयपुत्र की धोती खींचकर एक ओर फेंक दी। और फिर लंगोट भी खींच दिया। वो दीन-हीन प्राणी अब पूरी तरह नग्न और लज्जा से कराह रहा था।

    खर भी सहम-सा गया था। समीची... यह...

    समीची ने तीखी निगाह से खर को देखा। वो चुप हो गया।

    भय से मलयपुत्र की आँखें फट गयी थीं। जैसे उसे आगामी पीड़ा का आभास हो गया था। उत्पीड़कों की भी कुछ नैतिकता होती थी। लेकिन स्पष्ट रूप से समीची का उस पर चलने का कोई इरादा नहीं था।

    फिर समीची ने पास ही पड़ा एक हँसिया उठा लिया। एक ओर से वो बेतहाशा पैना था, और दूसरी ओर से दांतेदार। अधिकतम पीड़ा देने के लिए बना क्रूरतम हथियार। हाथ में हँसिया लिए वो शिकंजे की ओर बढ़ी। उसने हँसिये को ऊपर उठाया, अपनी उँगली में चुभोकर रक्त निकलने देते हुए उसने उसकी तेज़ धार को महसूस किया। तुम बकोगे। विश्वास करो। तुम बकोगे, वो ग़ुर्राते हुए मलयपुत्र की टाँगों के बीच हँसिया ले गयी। ख़तरनाक ढंग से निकट।

    धीरे-धीरे, आराम से उसने हँसिये को आगे बढ़ाया जिससे उसने त्वचा को भेद दिया। नर्म त्वचा को काटा और चीथ डाला। अंडकोश में गहरे धँसाते हुए। शरीर के उस बिन्दु पर अधिकाधिक पीड़ा पहुँचाते हुए जहाँ तन्त्रिका-शीर्ष परपीड़क मात्रा में उपस्थित थे।

    मलयपुत्र चिल्ला उठा।

    वो चीख़ पड़ा था, इसे रोकने की याचना कर रहा था।

    इस बार वो अपने देवताओं के नाम नहीं ले रहा था। अब बात उनके बस से बाहर हो चुकी थी। अब तो वो अपनी माँ को पुकार रहा था।

    खर तभी जान गया था। मलयपुत्र बोलेगा। बस कुछ ही समय की बात है। वो टूट जायेगा। और बोलेगा।

    लंका का राजा रावण और उसका छोटा भाई कुम्भकर्ण आरामदेह कुर्सियों पर बैठे थे जो विख्यात पुष्पक विमान की दीवार के पास फ़र्श से जुड़ी थीं।

    रावण चुप बैठा था। उसका बदन तनावग्रस्त था। उसने अपने लटकन को कसकर पकड़ रखा था—वो लटकन जो उसके गले में पड़ी सोने की ज़ंजीर में पड़ा था। यह मानव उँगलियों की दो हड्डियों से बना था जिनके ऊपरी हिस्सों को सावधानीपूर्वक सोने की कड़ियों से कसा गया था। अनेक भारतीयों के बीच यह मान्यता थी कि कुछ दुर्दान्त राक्षसी योद्धा अपने वीर शत्रुओं की लाशों से काटे गये स्मृतिचिह्न पहनते हैं। ऐसा करने से उनके अन्दर अपने मृत शत्रु की शक्ति आ जाती है। रावण के प्रति घोर निष्ठावान लंका के सैनिक भी मानते थे कि रावण के गले में पड़ा लटकन एक पुराने शत्रु के हाथ से काटकर बनाया गया है। केवल कुम्भकर्ण सच जानता था। केवल वही जानता था कि जब रावण उस लटकन को कसकर पकड़ता है, जैसे अभी पकड़े हुए था, तो इसका क्या मतलब होता है।

    अपने बड़े भाई को उसके मौन मनन में छोड़कर कुम्भकर्ण ने पुष्पक विमान में निगाह घुमाई। शिखर की ओर संकरे होते शंकु के आकार का लंका का यह उड़न-वाहन महाकाय था। आधार के निकट बनी झरोखों जैसी इसकी अनेक खिड़कियाँ मोटे काँच से बन्द थीं, मगर धातु के पटों को खोल दिया गया था। सुबह के सूरज की धुँधली-सी रोशनी अन्दर आ रही थी, जिससे विमान का अन्दरूनी हिस्सा प्रकाशमान हो गया था। यद्यपि विमान अधिकांशत: ध्वनिरोधक था मगर विमान के ऊपर लगे मुख्य घूर्णक की तेज़ आवाज़ निरन्तर आ रही थी। इसी में विमान के आधार के निकट लगे अनेक छोटे घूर्णकों का शोर भी घुल गया था, जो इस उड़न-यन्त्र को दिशा देने और उसकी पार्श्व गतिविधियों को नियन्त्रित करने में सहायता करते थे।

    विमान का अन्दरूनी हिस्सा लम्बा-चौड़ा और आरामदेह तो था, मगर साज-सज्जा नाममात्र को थी। एकमात्र सजावट विमान के अन्दरूनी शिखर पर बना एक बड़ा-सा चित्र था, जहाँ शंकु एक बिन्दु तक पतला होता गया था। वो एक रुद्राक्ष का चित्र था। एक विशाल भूरा, अंडाकार रुद्राक्ष; इसका शाब्दिक अर्थ रुद्र का आँसू था। महादेव भगवान रुद्र के सभी अनुयायी रुद्राक्ष की माला धारण करते थे या अपने पूजाकक्ष में इसे रखते थे। इस चित्र में एक विशिष्ट रुद्राक्ष को दर्शाया गया था जिसमें केवल एक ही खाँचा था। इस छोटे-से मूल बीज को, जिसे देखकर यह चित्र बनाया गया था, एकमुखी रुद्राक्ष कहा जाता था। यह बहुत ही दुर्लभ रुद्राक्ष था, इसे हासिल कर पाना बहुत मुश्किल था और यह बहुत महँगा था। रावण के महल में उसके निजी पूजाकक्ष में भी सोने के धागे में पिरोया हुआ रुद्राक्ष रखा था।

    इस चित्र के अलावा विमान अनलंकृत और सूना था—शानो-शौकत की अपेक्षा सैन्य वाहन अधिक था। रूप-रंग पर क्रियाशीलता को वरीयता देने के कारण पुष्पक विमान आराम से सौ से अधिक यात्रियों को खपा सकता था।

    कुम्भकर्ण ने सन्तोष के साथ देखा कि विमान में अनुशासित घेरों में और सारे में फैले हुए सैनिक मौन बैठे हैं। वो अभी-अभी भोजन करके चुके थे। भलीभाँति विश्राम और भोजन करके वो युद्ध के लिए तैयार थे। बस कुछ ही घंटों में वो सालसेट द्वीप पर उतरने वाले थे। वहाँ, जैसा कि कुम्भकर्ण को बताया गया था, समीची उनकी इस इच्छित जानकारी के साथ प्रतीक्षा कर रही थी कि अयोध्या के राजकुमार राम, उनकी पत्नी सीता, छोटे भाई लक्ष्मण और सोलह मलयपुत्र सैनिकों ने कहाँ शिविर लगाया है।

    लंका के सैनिकों को विश्वास था कि वो अपने शक्तिशाली राजा रावण की बहन शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने जा रहे हैं जिसे लक्ष्मण ने घायल कर दिया था। हालाँकि सौन्दर्यात्मक शल्यचिकित्सा उसकी नाक के घाव के चिह्न को तो दूर कर देती, मगर चेहरे की रूपकीय हानि का बदला तो केवल रक्त से ही लिया जा सकता है। सैनिक ये जानते थे। वो ये समझते थे।

    मगर उनमें से किसी ने भी यह सोचने का प्रयास नहीं किया कि रावण के सौतेले छोटे बहन-भाई राजकुमारी शूर्पणखा और राजकुमार विभीषण इतनी दूर, गहन दंडकारण्य में अयोध्या के निष्कासित और तुलनात्मक रूप से शक्तिहीन राजकुमारों के साथ कर क्या रहे थे।

    वो एकदम मूर्ख हैं, अन्तत: रावण ने शुष्कता से और स्वर को धीमा रखते हुए कहा। रावण और कुम्भकर्ण के आसनों को ऊपर लगी एक छड़ से लटके पर्दे से आंशिक तौर पर अलग कर दिया गया था। इस अभियान पर मुझे उन्हें भेजना ही नहीं चाहिए था।

    राम और उनके लोगों के साथ हुई विफल भेंट और परिणामस्वरूप हुई झड़प के बाद विभीषण शूर्पणखा और अपने लंकाई सैनिकों को लेकर शीघ्रता से सालसेट वापस चला गया था, जो कि भारत के पश्चिमी तट पर लंका का द्वीपीय दुर्ग था। वहाँ से रावण के पुत्र इन्द्रजीत के नेतृत्व में उन्होंने लंका वापस जाने के लिए नौका ले ली थी। उनके विफल अभियान की सूचना मिलते ही जितने सैनिक पुष्पक विमान में आ सके, उन्हें लेकर रावण तुरन्त लंका से चल पड़ा था।

    कुम्भकर्ण ने गहरी सांस ली, और अपने बड़े भाई की ओर देखते हुए कहा, अब यह बात पुरानी हो चुकी है, दादा।

    दोनों जड़बुद्धि हैं। विभीषण और शूर्पणखा अपनी मूर्ख असभ्य माँ पर गये हैं। एक सीधा-सादा-सा काम भी नहीं कर सकते।

    रावण और कुम्भकर्ण दोनों ऋषि विश्रवा और उनकी पहली पत्नी कैकेसी के पुत्र थे। विभीषण और शूर्पणखा भी ऋषि विश्रवा की सन्तान थे, मगर उनकी दूसरी पत्नी क्रेटीस से, जो भूमध्यसागर के नॉसोस द्वीप की यूनानी राजकुमारी थीं। रावण को अपने सौतेले भाई-बहन से कभी कोई लगाव नहीं रहा था, मगर पिता के देहान्त के बाद उसकी माँ कैकेसी ने उसे उन्हें अपनाने के लिए विवश कर दिया था।

    हर परिवार में कुछ मूर्ख होते ही हैं, दादा, कुम्भकर्ण ने मुस्कुराकर अपने भाई को शान्त करने की कोशिश करते हुए कहा। मगर फिर भी वो परिवार का अंग हैं।

    मुझे तुम्हारी बात सुननी चाहिए थी। उन्हें भेजना ही नहीं चाहिए था।

    अब इसे भूल जाएँ।

    कभी-कभी मुझे लगता है कि—

    हम इसे सँभाल लेंगे, दादा, कुम्भकर्ण ने बात काटी। हम विष्णु का अपहरण करेंगे और फिर मलयपुत्रों के पास कोई विकल्प नहीं रहेगा। वो हमें वो सब दे देंगे जो हम चाहते हैं। जिसकी हमें आवश्यकता है।

    रावण मुस्कुराया और उसने अपने भाई का हाथ थाम लिया। मैंने तुम्हें कष्ट के अलावा और कुछ नहीं दिया है, कुम्भ। हमेशा मेरा साथ देने के लिए धन्यवाद।

    कुम्भकर्ण ने अपने भाई का हाथ दबाया। नहीं, दादा। कष्ट तो मैंने आपको दिया है, अपने जन्म से ही। आपके कारण ही मैं जीवित हूँ। मैं आपके लिए प्राण भी दे दूँगा।

    बकवास! तुम अभी जल्दी नहीं मरने वाले। न मेरे लिए। न किसी और के लिए। तुम बुढ़ापे की मौत मरोगे, अनेक, अनेक वर्ष बाद, जब तुम हर उस स्त्री के साथ शयन कर चुकोगे जिसके साथ शयन करना चाहोगे और जी भर के मदिरापान कर चुकोगे!

    कुम्भकर्ण जो पिछले अनेक वर्षों से पूर्ण ब्रह्मचारी था और मद्यपान त्याग चुका था, हँस पड़ा। हम दोनों की ओर से आप ही यह पर्याप्त कर लेते हैं, दादा!

    तेज़ हवाएँ पुष्पक विमान को थपेड़े मार रही थीं। विमान थरथराने और डगमगाने लगा था। किसी भीमकाय राक्षसी बालक के हाथों में पकड़े खिलौने की तरह। मूसलाधार बरसात हो रही थी। वो झरोखों के मोटे काँच के पार पानी को बरसते देखते रहे।

    भगवान रुद्र की शपथ, किसी वाहियात विमान हादसे में मरना मेरी नियति नहीं हो सकती!

    रावण ने दो बार अपनी कुर्सी में लगे शारीरिक शिकंजे को जाँचा जिसने उसे सुरक्षित रूप से कुर्सी से बाँधा हुआ था। कुम्भकर्ण ने भी। इन शिकंजों को ख़ासतौर से शरीर के पूरे ऊपरी भाग पर प्रतिरोधक बल को फैलाने के लिए बनाया गया था। उनकी जंघाएँ भी कस गयी थीं।

    लंका के सैनिकों ने भी विमान के फ़र्श और दीवारों पर लगे सामान्य शिकंजों से स्वयं को बाँध लिया था। अधिकांश सैनिक ख़ुद को और अपने पेट के भीतर चल रही हलचल को शान्त रख पा रहे थे। मगर विमान में पहली बार यात्रा कर रहे कुछ सैनिक प्रचुरता से उल्टियाँ कर रहे थे।

    कुम्भकर्ण रावण की ओर मुड़ा। यह बेमौसमी तूफ़ान है।

    तुम्हें ऐसा लगता है? रावण ने मुस्कुराते हुए पूछा। संकटकाल में उसका जुझारूपन और मुखर हो जाता है।

    कुम्भकर्ण ने मुड़कर उन चारों विमानचालकों को देखा जो नियन्त्रकों पर अपना पूरा शारीरिक बल लगाते हुए हवाओं के विरुद्ध विमान को दिशा देने के लिए उपकरणों के साथ जूझ रहे थे।

    बहुत बलपूर्वक नहीं! गरजती हवाओं के पार अपनी आवाज़ पहुँचाते हुए कुम्भकर्ण ने चिल्लाकर कहा। उत्तोलक टूट गये तो हम बेमौत मारे जायेंगे।

    चारों व्यक्ति कुम्भकर्ण की ओर मुड़े जो शायद इस समय जीवित सर्वश्रेष्ठ विमान चालक था।

    हवाओं से इतना मत जूझो कि नियन्त्रक टूट ही जाये, कुम्भकर्ण ने आदेश दिया। इसे बहने दो। मगर बहुत शिथिल भी मत होना। बस विमान को सीधा रखो तो सब ठीक रहेगा।

    चालकों ने उत्तोलकों को थोड़ा ढीला छोड़ा तो विमान लहरा गया और हवाओं के साथ और अधिक तेज़ी से झूलने लगा।

    तुम यह चाह रहे हो कि मैं उल्टी कर दूँ? रावण ने मुँह बनाते हुए कहा।

    उल्टी करने से किसी की जान नहीं जाती, कुम्भकर्ण ने कहा। मगर विमान हादसा यह काम अच्छे से कर देगा।

    रावण ग़ुर्राया, उसने एक गहरी सांस ली और अपनी आँखें बन्द कर लीं। उसने हाथ के शिकंजे को और कसकर पकड़ लिया था।

    वैसे, इस तूफ़ान का एक लाभ भी है, कुम्भकर्ण ने कहा, ये गरजती हवाएँ घूर्णकों के शोर को दबा देंगी। उन पर हमला करते समय हमारे पास उन्हें चौंका देने का लाभ होगा।

    रावण ने आँखें खोलीं और कुम्भकर्ण को देखा, उसकी भँवें सिकुड़ गयी थीं। तुम्हारा दिमाग़ ठीक है? हम उनसे एक के मुक़ाबले पाँच अधिक हैं। हमें चौंकाने का लाभ नहीं चाहिए। हमें बस सुरक्षित उतरना है।

    युद्ध छोटा और निर्णयात्मक था।

    लंका की ओर से कोई हताहत नहीं हुआ था। मलयपुत्रों के सेनापति जटायू और उनके दो सैनिकों के अलावा सब मारे गये थे या बुरी तरह आहत हुए थे। मगर राम, लक्ष्मण और सीता लापता थे।

    कुम्भकर्ण तीनों को ढूँढ़ने के प्रयासों का प्रबन्ध करने निकला, तो रावण एक मलयपुत्र सैनिक को घूरता खड़ा था जो धरती पर पीठ के बल पड़ा था। वो अभी भी जीवित तो था, मगर बमुश्किल। हर खरखराती सांस के साथ वो अपनी मौत के और नज़दीक जा रहा था।

    उसके शरीर के आसपास गाढ़ा रक्त जमा हो गया था, जिसने मिट्टी को तर और हरी घास को बदरंग कर दिया था। उसकी जांघों की मांसपेशियों को काट दिया गया था। लगभग अस्थि तक। अनेक कटी हुई धमनियों से रक्त फूटा पड़ रहा था।

    रावण तकता रहा। हमेशा की तरह, धीमी मौत के इस दृश्य से वो सम्मोहित-सा था।

    वो कुम्भकर्ण की आवाज़ सुन रहा था।

    जटायू द्रोही है। मलयपुत्रों के साथ मिलने से पहले वो हममें से एक था। मुझे परवाह नहीं कि तुम उसके साथ क्या करते हो। सूचना हासिल करो, सेनापति खर।

    जी, प्रभु कुम्भकर्ण। खर और उसकी प्रेमिका समीची जानकारी और बल के साथ अपनी योग्यता साबित कर चुके थे। उसने प्रणाम किया और अपने स्रोत की ओर बढ़ गया।

    रावण ने मलयपुत्र पर ध्यान केन्द्रित किया। उसका रक्त तीव्रता से बह रहा था। वो उसके पेट पर लगे एक छोटे से घाव से बहता मालूम दे रहा था। मगर रावण देख सकता था कि वो घाव गहरा है। गुर्दे, यकृत, पेट सबको काट दिया गया था। शरीर से निकलते रक्त के कारण उस सैनिक का शरीर पीड़ा से मरोड़े खा रहा था और कंपकंपा रहा था।

    कुम्भकर्ण के शब्द फिर से उसके अवचेतन को भेद गये।

    मुझे सात दल चाहिए। हर दल में दो लोग होंगे। सारे में बिखर जाओ। वो दूर नहीं गये होंगे। अगर वो राजकुमार या राजकुमारी मिल जाएँ, तो ख़ुद मत उलझना। तुममें से एक आदमी वापस आकर हमें सूचित करेगा, जबकि दूसरा उनका पीछा करता रहेगा।

    रावण ने फिर से मलयपुत्र की ओर ध्यान दिया। उसकी बाईं आँख बाहर निकल आयी थी। शायद हाथ में शेर का गुप्त पंजा पहने लंका के किसी सैनिक ने निकाली होगी। आंशिक रूप से कटा आँख का ढेला नेत्रीय तन्त्रिका के सहारे गड्ढे से बाहर लटका हुआ था। रक्तरंजित, बेरंग सफ़ेद ढेले से धीमे-धीमे रक्त टपक रहा था।

    मलयपुत्र का मुँह खुला था, उसका सीना ज़ोरों से धड़क रहा था। हवा भरकर अपने शरीर में प्राणवायु पहुँचाने के लिए संघर्षरत। जीवित रहने की बेतहाशा कोशिश करते हुए।

    आत्मा अन्तिम पल तक शरीर में अटके रहने के लिए क्यों अड़ी रहती है? तब भी जब मौत स्पष्ट रूप से बेहतर विकल्प होती है?

    दादा, कुम्भकर्ण ने उसके दिवास्वप्न को तोड़ते हुए पुकारा। रावण ने मौन रहने के लिए अपना हाथ उठाया। कुम्भकर्ण ने आदेश का पालन किया।

    लंका का राजा मलयपुत्र के शरीर से धीरे-धीरे निकलते जीवन को तकता रहा। उसकी सांस लगातार खरहरी होती जा रही थी। जितनी ज़ोर से वो सांस लेता, उतनी ही तेज़ी से उसके बेशुमार घावों से रक्त फूट पड़ता।

    छोड़ दो...

    अन्तत:, बहुत तेज़ ऐंठन हुई। मरते हुए आदमी के मुँह से अन्तिम, उथली-सी सांस निकली। पल भर के लिए सब थम गया था। वो अपनी आँखें खोले पड़ा था, त्रस्त-सा। दोनों मुट्ठियाँ कसकर बन्द थीं। उँगलियाँ विचित्र से कोण पर मुड़ गयी थीं। शरीर ऐंठा हुआ था।

    और फिर, धीरे-धीरे, वो शिथिल पड़ने लगा।

    कुछ पल बीते, फिर रावण अपने सामने पड़े शव की ओर से मुड़ गया। क्या कह रहे थे? उसने कुम्भकर्ण से पूछा।

    वो दूर नहीं गये होंगे, कुम्भकर्ण ने कहा। खर शीघ्र ही जटायू से सारी जानकारी निकाल लेगा। हम विष्णु को ढूँढ़ लेंगे। हम उन्हें जीवित पकड़ लेंगे।

    और राम-लक्ष्मण का क्या?

    हम पूरा प्रयास करेंगे कि उन्हें चोट न पहुँचे। और उन्हें ऐसा लगे कि उन्होंने शूर्पणखा के साथ जो किया था, यह उसका ही बदला है। आप विमान में जाकर प्रतीक्षा करना चाहते हैं?

    रावण ने सिर हिला दिया। नहीं।

    मुझे सीता को देखने दो, रावण ने कहा।

    "दादा, इतना समय नहीं है। राजा राम

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