अभिलाषा
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इस पुस्तक को लिखने का कारण यह है कि समाज में मानसिक रोग से पीड़ित लोग जो अपनी महत्वाकांक्षाओं को इस हद तक अपने मन में बिठा लेते हैं कि अपने सारे रिश्ते-नाते बर्बाद कर खुद को दोषी मानते हैं और अपना पूरा जीवन दूसरी आकांक्षाओं में बिता देते हैं, भले ही शुरुआत वे महत्वाकांक्षा को दूसरा रास्ता न देकर या उसमें सुधार न करके करते हैं। हर इंसान अपने सपनों को पूरा करना चाहता है लेकिन हम अपनी कुछ गलत महत्वाकांक्षाओं के सपनों को पूरा करने के लिए मंजिल की तलाश में कई ऐसे रास्ते अपनाते हैं, हमें नहीं पता होता कि यह रास्ता और मंजिल सही है या गलत। बस...नशे में रहो. मदहोशी में डूबे रहने के कारण हमें अपने सपने पूरे होते नहीं दिखते, हम यह अंदाजा भी नहीं लगा पाते कि खुद को नुकसान पहुंचाने या अपने रास्ते या मंजिल से भटक जाने का हमारे प्रियजनों पर क्या प्रभाव पड़ता है, या समय का अंदाजा हम नहीं लगा पाते। तब तक वे हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं. हमारी किताब की मुख्य पात्र अभिलाषा के साथ भी यही हुआ, उनकी यात्रा में जो लोग स्वेच्छा से उनके साथ शामिल हुए और जिन्हें वह अपने जीवन में शामिल करना चाहती थीं, वे सभी अपनी महत्वाकांक्षाओं में इतने डूबे हुए हैं कि अंत में एक रचना कर बैठते हैं। स्वयं के लिए दुविधा. अलग-अलग लड़ाइयाँ लड़ना, अच्छी और बुरी दोनों।शायद यह आज के समाज का एक अलग रूप है जो ज्यादातर बड़े शहरों में देखने को मिलता है, जिसे हमने "डिप्रेशन" का नाम दिया है, इसीलिए आम भाषा में ऐसे लोग आदतन अपनी जिंदगी से परेशान होने की बात कहते हैं। "मुझसे बात मत करो, मैं उदास हूँ!"
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अभिलाषा - ए प्रशांत गंधर्व
Volume 1
(भविष्य काल)
ब्र ह्मा जी ने जब दुनिया रची उस वक़्त द्वंद सिर्फ़ आसमान में हुआ करते थे, धीरे-धीरे ये धरती की ओर अवतरित हुए। त्रेता युग आते-आते द्वंद आसमान से पृथ्वी पर आये रामायण के रूप में, लेकिन तब तक द्वंद सिर्फ़ मैदान तक ही सीमित थे। द्वापरयुग में द्वंद पृथ्वी से घरों में आये, घर में आने बाद द्वन्दों के कारण महाभारत के रूप में एक और महायुद्ध रचा गया। इस युग कलयुग में सिर्फ़ द्वन्दों की ही चर्चा है और द्वन्दों का ही समागम है। इस युग में द्वंद सब जगह हैं हर मनुष्य के हृदय और दिमाग़ में किसी ना किसी रूप और तौर-तरीके से। इंसान का द्वंद करना एक अहसास बन गया है जिससे वो अछूत नहीं है। कलयुग में इन्ही तमाम द्वन्दों के कारण द्वेष पैदा होने से रोज़ महायुद्ध हर घर, मोहल्ले और देशों में हो रहे हैं, 2 विश्व युद्ध के परिणाम सबके सामने हैं। इस युग में युद्ध देखने समझने के लिए समय या सदी की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है, इसके लिए आप अपने अंतर्मन में चल रहे द्वंद और उसके द्वारा रचित षड्यंत्र के परिणाम की तुलना करके देखिए अगर सत्य को तोलना जानते हो तो। एक का नाश होना तो तय है आपका या आपकी बुद्धि के द्वंद से आपके प्रतिद्वंद्वी का, हालाँकि आपका नाश आपके दीमाग़ में द्वंद पैदा होते ही हो गया जो अपारदर्शी है।
इसी प्रकार के द्वंद को लेकर शिमला में कई वर्षो से मानसिक अस्पताल के चक्कर लगा रही physiatrist (मनोचिकित्सक) डॉ आरती भारद्वाज के पास बैठी अभिलाषा(36), हालाँकि डॉ भारद्वाज के सुझावों से अभिलाषा की ज़िंदगी में अब तक इतना असर तो नहीं पड़ा मगर अभिलाषा को डॉ से बात करना अच्छा लगता है इसीलिए वो अक्सर यहाँ आती रहती है। हमेशा की तरह डॉ ने अभिलाषा का हाल-चाल पूछा और उसकी बात सुनी।
अभिलाषा मुझे लगता है तुम्हें कुछ क्रिएटिव एक्टिविटी की तरफ़ अग्रसर होना चाहिए, तुम पहले भी डांस कर ही चुकी हो तुम्हें अच्छा महसूस होगा
। ये कहकर डॉ मेज़ पर रखी फ़ाइल को बन्द करती है। अभिलाषा कहती है "मैम मैं ऐसी क्या एक्टिविटी करूँ? मेरा डांस कैसे छूटा आप सब जानती हैं फिर भी आप?
नहीं अभिलाषा तुम स्ट्रॉन्ग वीमेन हो तुम ये कर सकती हो, चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी में थिएटर से MA कर लो आबो हवा चेंज होगी तो तुम्हारे लिए अच्छा होगा
ये कहकर डॉ मेज़ पर रखी घंटी बजाती है। चपरासी आता है। डॉ आरती चपरासी को एक पेपर में लिखी दवाइयाँ लाने को कहती है।
डॉ आरती भारद्वाज को अभिलाषा के लिए उसके पिता ने पहली बार मिलवाया था। डॉ भारद्वाज देहरादून की रहने वाली हैं लेकिन वो 66 वर्ष की उम्र में शिमला में अकेले रहकर लोगों का इलाज करती हैं। डॉ आरती के बच्चे अमेरिका में जा बसे जोकि कभी-कभार भारत आते रहते हैं। डॉ आरती का बेटा सोमन दास उससे हमेशा अमेरिका उसके साथ चलने को कहता है मगर आरती उससे कहती है कि मेरा मन शिमला में ही लगता है इस कारण मैं दूसरी जगह जाकर नहीं रह सकती, तुम यहाँ आ जाते हो मुझसे मिलने मेरे लिए यही काफ़ी है।
उनकी बेटी जो पूरी तरह से अमेरिकी हो चुकी थी, उसे भारत आये हुए काफ़ी साल हो चुके हैं। वो अमेरिका जाकर कुछ दिन बाद रौशनी से मिस रोज़ हो चुकी थी। उसके पिछले दिनों बेटा हुआ जिसकी डॉ आरती को कोई जानकारी नहीं थी। (अब तो 7 फ़ेरों की ज़रूरत भारत में भी नहीं पड़ती।)
जिस उम्र में रिटायरमेंट लेकर व्यक्ति को अपने परिवार के साथ रहना चाहिए उस उम्र में डॉ आरती अलग शहर में रहना पसन्द करती हैं क्योंकि उनका अपने पति के साथ काफ़ी साल पहले तलाक हो चुका है। उसके बाद उनके पति ने आँचल नाम की औरत से दूसरी शादी कर ली।
गज़ब है ना जिनका घर ख़ुद उजड़ा पड़ा हो और वो दूसरों को घरोंदा बनाने में मदद कर रहे हैं। ऐसा इसीलिए हो सकता है क्योंकि डॉ आरती ने शुरू से ही मनोचिकित्सक की इल्म हासिल कर इसमें अभ्यास किया, और अनुभव किया हुआ व्यक्ति ही किसी दूसरे को राह दिखाने में ज़्यादा असरदार साबित होता है, या स्वयं ज्ञान की खोज करके।
गौतम बुद्ध जैसे लोग ही त्यागी कहलाये जाते हैं क्योंकि सारा कुछ भोग करके जो एक सपनो के महल में होता है उसके बाद अपना अतुलनीय, ऐश्वर्यवान संसार छोड़कर अद्वैत की तरफ़ जाता है वो ही असल में त्यागी कहलाया जा सकता है वरन जिसकी झोपड़ी में 2 वक़्त का खाना नहीं, उसने कुछ ख़ास भोगा नहीं, वो क्या ही त्यागकर त्यागी कहलाया जाएगा। (परन्तु ज्ञान, महल और झोपड़ी का मोहताज नहीं है।)
अभिलाषा के चेहरे पर एक अलग प्रकार की ख़ुशी है जो उसके चेहरे पर 15 साल पहले हुआ करती थी, जब उसने भरतनाट्यम को मॉर्डन डांस में कॉकटेल करके दुनिया भर में अपना लोहा मनवाया था।
अभिलाषा डॉ आरती से मिलकर केबिन से बाहर जाती है और कार में बैठकर ड्राइवर से घर चलने को कहती है। डॉ आरती के क्लीनिक के बाहर का नज़ारा ही कुछ और था। हसीन वादियाँ सुदंर से पहाड़, डॉ आरती ने यहाँ अपनी ख़ुशी के लिए क्लीनिक बनाया ताकि उनको अकेलपन खले नहीं, और ऐसा नज़ारा देखते-देखते तो कोई भी व्यक्ति स्वर्गलोक जाने के लिए तैयार हो सकता है। डॉ आरती अंदर से दुखी ज़रूर है मगर उन्होंने किसी पशु की बलि के समान ख़ुद को मारना नहीं, क्षत्रिय की भाँति जीवन से लड़कर जीना सीखा है।
भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट द्वारा भगवतगीता में अध्याय 2 के 31वे श्लोक के तात्पर्य में किसी धार्मिक संहिता के श्लोक की व्याख्या दी गयी है, जो इस प्रकार है।
अहवेषु भिथो ड न्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षित:।
युद्धमाना: परं शक्तया स्वर्ग यान्त्यपराङ्मुखाः।।
यज्ञेशु पशवो ब्राह्मन हन्यन्ते सततं द्विजै:।
संस्कृता: किल मंत्रेश्च तेऽपि स्वर्गमवाप्नुमवन ।।
युद्ध में विरोधी ईर्ष्यालु राजा से संघर्ष करते हुए मरने वाले राजा या क्षत्रिय को मृत्यु के अनन्तर वे ही उच्चलोक प्राप्त होते हैं जिनकी प्राप्ति यज्ञाग्नि में मारे गए पशुओं की होती है। अतः धर्म के लिए युद्धभूमि में वध करना तथा याज्ञिक अग्नि के लिए पशुओं का वध करना हिंसा कार्य नहीं माना जाता क्योंकि इसमें निहित धर्म के कारण प्रत्येक व्यक्ति को लाभ पहुँचता है और यज्ञ में बलि दिए गए पशु को एक स्वरूप से दूसरे में बिना विकास प्रक्रिया के ही तुरन्त मनुष्य का शरीर प्राप्त हो जाता है। इसी तरह युद्धभूमि में मारे गए क्षत्रिय यज्ञ संपन्न करने वाले ब्राह्मणो को प्राप्त होने वाले स्वर्गलोक में जाते हैं।
निःशब्द………
अभिलाषा की कार शिमला शहर से थोड़ा बाहर एक आलीशान कॉलोनी में आकर रुकती है। इस कॉलोनी में चुनिंदा ही घर हैं जिनमें से एक अभिलाषा का है और वो सबसे ज़्यादा आलीशान बंगला है।
आलीशान घर के बाहर कार से उतरने के बाद अभिलाषा डोर वेल बजाती है लेकिन कोई दरवाज़ा नहीं खोलता, बैग से चाबी निकालती है और दरवाज़ा खोलकर अंदर जाती है। अभिलाषा थोड़ी हैरान-सी है शायद घर में कोई है नहीं इसीलिए बैग सोफ़े पर रखती है और धीरे से जाकर कमरे का दरवाज़ा खोलती है लेकिन कमरे में भी कोई नहीं होता। अभिलाषा जेब से फ़ोन निकालकर mr. अशोक को फ़ोन करती है।
Hello कहाँ हो?
दूसरी तरफ़ से आवाज़ आती है टहलने आया था।
Okay कहकर अभिलाषा फ़ोन cut कर देती है और बैग से दवाई निकालकर कुर्सी पर बैठकर खाती है।
अभिलाषा अगले दिन ही ज़रूरी सामान लेकर चंडीगढ़ के लिए रवाना होती है। इतने दिन बाद कुछ क्रिएटिव करने की चाह में अभिलाषा का मन पहले से बेहतर है और वो रौनक अभिलाषा के चेहरे पर आसानी से दिख रही है। अभिलाषा के साथ में हमेशा ड्राइवर रमेश रहता है जो काफ़ी लम्बे अरसे से अभिलाषा के साथ है क्योंकि अभिलाषा दिल की नेक औरत है समय-समय पर रमेश के परिवार के लिए ख़ूब मदद करती रहती है और रमेश भी अभिलाषा के लिए हमेशा वफ़ादार रहता है जो अभिलाषा कहती है वो सर झुकाकर क़ुबूल कर लेता है। रमेश की लड़की लक्ष्मी की शादी में 5 लाख रुपये दिए थे अभिलाषा ने, (ग़रीब की मदद के लिए इतनी रक़म उसकी वफ़ादारी ख़रीदने के लिए काफ़ी है, ग़रीब के पास वफ़ादारी के अलावा होता ही क्या है।) रमेश का सारा परिवार अभिलाषा के लिए हमेशा दुआयें माँगता है लेकिन उन बेचारों को क्या पता दुआएँ और दवाएं खुदकुशी करने वालों के लिए काम नहीं आती क्योंकि वो कमबख़्त जीना नहीं चाहते!
ख़ैर अभिलाषा लगभग तीन घंटे के सफ़र के बाद चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी में दाखिल होती है और एडमिशन डिपार्टमेंट में जाकर MA थिएटर का एडमिशन फॉर्म लेती है। फॉर्म भरकर जमा करने के बाद अभिलाषा का मन यूनिवर्सिटी का ऑडिटोरियम देखने का करता है, पास में बैठे व्यक्ति से ऑडिटोरियम का पता पूछकर अभिलाषा जाती है।
कोई भी व्यक्ति किसी कार्य को करके उसके द्वारा शुरुआती जीवन में सफ़लता की सीढ़ियाँ चढ़कर किसी कारणवश छोड़ दे और फिर लम्बे अंतराल के बाद उसको वैसी ही जगह जाने का मौक़ा मिले तो उस शख़्स की जिज्ञासा सबसे पहले उस जगह को देखने की करेगी जिस पर वो वर्षों विराजमान रहा है। यही जिज्ञासा अभिलाषा के मन में भी उठी और इसी जिज्ञासा को अंतर्मन में लिए अभिलाषा ऑडिटोरियम के अंदर दाखिल होती है। अभिलाषा को ऑडिटोरियम का स्टेज देखते ही पुराना समय याद आने लगता है कि कैसे वो स्टेज पर नाचती थी कैसे लोग उसे प्रोत्साहन देते थे, उसे तालियों की वही पुरानी गड़गड़ाहट सुनाई देने लगती है। अभिलाषा कहीं खो सी गयी है तभी रमेश अभिलाषा को तेज़ आवाज़ लगाकर वापस वर्तमान में लाता है।
मैडम आपकी दवाई का वक़्त हो गया है।
ये कहकर रमेश अभिलाषा को दवाई और पानी की बोतल थमाकर चला जाता है। रमेश के जाने के बाद अभिलाषा कुर्सी पर बैठती है और हाथ में रखी टैबलेट को देखती है और टैबलेट फ़ेंक देती है, सिर्फ़ पानी पीती है। काफ़ी लम्बे अरसे के बाद शायद 4 साल के बाद अभिलाषा ने दवाई नहीं खाई है ये उसके लिए काफ़ी आरामदायक माहौल लग रहा है।
स्टेज पर MA 2nd year के बच्चे नाटक की रिहर्सल कर रहे हैं जिन्हें अभिलाषा काफ़ी ग़ौर से देख रही है। उसी ग्रुप से अभिलाषा को एक लड़की स्वाति काफ़ी देर से नोटिस कर रही है कि 'ये टीचर तो है नहीं, इससे बात करके देखूँ कौन है।"
स्वाति अभिलाषा के पास आकर बैठ जाती है और कहती है कि नाटक से पहले रिहर्सल देखना अलाउड नहीं है मैडम, आप कौन हो?
hii i m abhilasha.. new admission
ये कहकर अभिलाषा स्वाति की तरफ़ हाथ बढ़ाती है।
स्वाति हाथ मिलाकर तो ऐसा बोलो ना मैडम ख़ामख़ाँ दीमाग़ में मकड़ी के जाले बनने लगे थे
मकड़ी के जाले?
अभिलाषा बोलती है।
स्वाति बोलती है तू नहीं समझेगी आ तुझे सबसे मिलवाती हूँ.. सुन तेरे को मैं तू तड़ाक बोल रही हूँ तुझे कोई दिक्कत तो नहीं..
अभिलाषा ना में गर्दन हिलाती है।
फिर ठीक है..
ये कहकर स्वाति अभिलाषा को सभी लोगों से परिचय कराती है, तभी अभिलाषा की नज़र स्टेज के 1st विंग की तरफ़ जाती है जहाँ सुन्दर-सा 26 साल का लड़का रमन कुर्सी डालकर प्ले स्क्रिप्ट पढ़ रहा है। रमन दिल्ली में 4 वर्ष से रंगमंच कर रहा है और हबीब तनवीर से प्रेरित होकर रंगमंच को नया आयाम देना चाहता है। रमन अक्सर कहता है कि मुझे थिएटर में पुराना दौर वापस लेकर आना है, आजकल हिंदी थिएटर में कोई टिकना ही नहीं चाहता
कहता तो रमन ठीक ही है आजकल हिंदी रंगमंच के हालात उस गाय के बछड़े के सींग जैसे हो गए हैं जिनको कुछ लोग बछड़े के बचपन में ही दबा देते हैं जिससे सींग बड़े ना हो लेकिन जो पीड़ा गाय के बछड़े को होती है उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता, उसी प्रकार जो क्षति हिंदी रंगमच की हुई है उसका श्रेय ग्रांट नाम की मलाई पर वर्षों से पंजा जमाये महानुभाव गिद्दों को जाता है। इस विषय को अक्सर रमन गोष्ठियों में ले ही आता है चाहें उसे सुनने वाला हो या नहीं, हालांकि इस तरह का उग्र व्यवहार उसका कुछ ही दिनों से हुआ है क्योंकि जनाब का दिल जो टूटा है। 6 साल का था