Vyasa Katha: Mahabharat ki Nitikathayen
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About this ebook
Vyasa-Katha presents fifty-one fables from the Mahabharata. These fascinating and instructive fables are a treasure-trove of practical and political wisdom, moral values, universal truths and philosophy. Animals, birds, reptiles, fish, insects, trees, rivers, directions, life forces, death and time intriguingly teach ancient Indian wisdom. With vivid descriptions and colourful expressions, the fables exemplify the advanced art of storytelling in ancient India.
Author Nityananda Misra contextualises the fables and presents a faithful and unabridged translation. Carrying insights from Nilakantha's commentary and numerous Indian texts, with a beautiful collection of twenty-four illustrations, this is a must-read for children and adults alike.
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Vyasa Katha - Nityananda Misra
१
राजा और कुत्ते
पर्व—आदिपर्व
उपपर्व—पौष्यपर्व
अध्याय—१.३
प्रस्तावना
एक बार उग्रश्रवा सौति नैमिषारण्य में ऋषि शौनक के बारह बरस तक चलनेवाले द्वादश-वार्षिक सत्र में पहुँचे। वहाँ अनेक ऋषि और तपस्वी उपस्थित थे। जब उनसे पूछा गया वे कहाँ से आ रहे हैं, सौति ने बताया वे राजा जनमेजय के सर्पसत्र में गए थे जहाँ वैशम्पायन ने महाभारत की कथाएँ सुनाईं थीं। ऋषियों ने कहा वे सौति से महाभारत सुनना चाहते हैं। सौति ने सबसे पहले संक्षेप में महाभारत का वर्णन किया। फिर उन्होंने राजा जनमेजय और कुत्तों की कथा ऋषियों को सुनाई।
कथा
परीक्षित् के बेटे जनमेजय अपने भाइयों के साथ कुरुक्षेत्र में एक लम्बे यज्ञसत्र का अनुष्ठान कर रहे थे। उनके तीन भाई थे—श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन। जब वे उस यज्ञसत्र में बैठे थे, तब सरमा का बेटा एक कुत्ता आया। जनमेजय के भाइयों ने उसे पीटा। बहुत रोता हुआ वह अपनी माँ सरमा के पास आया।
बार-बार रोते हुए उस कुत्ते से माँ ने पूछा, क्यों रो रहे हो? तुम्हें किसने पीटा?
ऐसे पूछे जाने पर वह माँ से बोला, जनमेजय के भाइयों ने मुझे पीटा।
माँ ने उससे कहा, अवश्य वहाँ तुमने कोई अपराध किया होगा जिसके लिए तुम पिटे होगे!
वह माँ से फिर बोला, मैंने कोई अपराध नहीं किया। न मैंने हविष्य को देखा और न ही चाटा।
१
यह सुनकर उसकी माता सरमा बेटे के दुख से दुखी होकर उस सत्र में गई जहाँ वे जनमेजय अपने भाइयों के साथ लम्बे यज्ञसत्र का अनुष्ठान कर रहे थे।
रिसाई हुई माँ ने वहाँ उनसे पूछा, न मेरे बेटे ने कोई अपराध किया, न हविष्य को देखा और न ही चाटा। फिर इसे क्यों मारा?
जनमेजय और उसके भाई कुछ न बोले। सरमा ने उनसे कहा, इस निरपराध को तुमने पीटा, इसलिए तुमपर एक अनदेखा भय आएगा।
देवताओं की कुतिया सरमा के द्वारा ऐसे फटकारे जाने पर जनमेजय बहुत घबरा गए। उस सत्र के समाप्त होने पर वे हस्तिनापुर लौटे और एक ऐसे अनुरूप पुरोहित को ढूँढने के लिए बड़े प्रयास करने लगे जो इस पाप रूपी कृत्या२ को शान्त कर सके।
उपसंहार
जनमेजय ने ऋषि श्रुतश्रवा और एक साँपिन के बेटे सोमश्रवा को अपना पुरोहित बनाया। महादेव (शिव) की कृत्या को छोड़कर सोमश्रवा दूसरी सभी कृत्याओं को टाल सकते थे। जनमेजय उन्हें अपने साथ ले आए और उन्होंने अपने तीन भाइयों को सोमश्रवा को अपना पुरोहित बनाने की बात बताई। जनमेजय ने अपने भाइयों को बिना सोचे-समझे सोमश्रवा के आदेशों का पालन करने की आज्ञा दी। भाइयों ने वैसा ही किया। सोमश्रवा के अनुष्ठान से सरमा का शाप टल गया।
शिक्षा
नीलकण्ठ के अनुसार इस कथा से यह सीख मिलती है, किसी भी निर्दोष प्राणी पर हिंसा करने से हिंसक को तुरंत दुख प्राप्त होता है। जैसे भीष्म महाभारत (१२.७२.२०) में युधिष्ठिर को बताते हैं, अहिंसा धर्म है और हिंसा अधर्म है।
सरमा के चरित्र से भी सीख मिलती है। सरमा ने पहले जनमेजय से पूछा उसके भाइयों ने कुत्ते को क्यों मारा। जब उसे जनमेजय से कोई उत्तर न मिला (यह एक प्रकार से भूल मानना ही था), तभी उसने राजा और उसके भाइयों को शाप दिया।
किसी भी बुरे कार्य का दण्ड मिलता ही है। यद्यपि जनमेजय ने सोमश्रवा की शक्ति से अनदेखे भय को टाल दिया, तब भी उन्हें एक अनदेखा मानसिक आघात लगा ही जब उन्हें अचानक उत्तङ्क और अपने मन्त्रियों से यह पता चला उनके पिता परीक्षित् की मृत्यु तक्षक नाग के डसने से हुई थी। यह सुनकर जनमेजय बहुत व्यथित हुए थे। इससे पहले उन्हें कभी यह पता नहीं चला था उनके पिता कैसे मरे थे। उन्होंने अपने मन्त्रियों से कहा जब तक उन्हें अपने पिता के मरने के बारे में सब कुछ पता न चलेगा तब तक उन्हें शान्ति नहीं मिलेगी। जब उनके मन्त्रियों ने विस्तार से बताया तक्षक ने उनके पिता को कैसे डसा था, जनमेजय दुख से आतुर होकर रोने लगे।३ उनके भाइयों को भी ऐसा ही दुख हुआ होगा। जनमेजय के देखते-देखते ही उनके तीन भाइयों ने अप्रत्याशित रूप से एक कुत्ते को शारीरिक पीड़ा पहुँचाई। आगे चलकर सरमा का शाप टलने पर भी जनमेजय और उनके भाइयों को अप्रत्याशित रूप से मानसिक व्याधि मिली। सच में, जैसा भगवद्गीता (४.१७) में कहा गया है, कर्म की गति गहन है। मीराबाई ने भी कहा है, करम की गति न्यारी संतो।
२
ब्राह्मण और डोड़हा साँप
पर्व—आदिपर्व
उपपर्व—पौलोमपर्व
अध्याय—१.८ से १.१२
प्रस्तावना
शौनक भृगु ऋषि के वंशज थे। इस कारण से शौनक ने सौति से भृगुवंश का वर्णन करने का अनुरोध किया। सौति ने उपस्थित ऋषियों और शौनक को बताया भृगु ब्रह्मा के पुत्र थे। भृगु के पुत्र थे च्यवन, च्यवन के पुत्र थे प्रमति, प्रमति के पुत्र थे रुरु, रुरु के पुत्र थे शुनक और शुनक के पुत्र थे शौनक। भृगुवंश की कथा कहने के प्रसंग में सौति ने रुरु और डोड़हे साँप१ की कथा सुनाई।
कथा
बहुत पहले स्थूलकेश नाम से प्रसिद्ध एक महान् ऋषि थे। वे तप और विद्या से युक्त थे और सब प्राणियों के हित में निरन्तर लगे रहते थे। इसी समय विश्वावसु नाम से जाने जानेवाले गन्धर्वों के राजा ने मेनका से एक संतान उत्पन्न की। मेनका अप्सरा ने समय आने पर उस गर्भ को स्थूलकेश ऋषि के आश्रम के निकट जन्म दिया। निर्दय और निर्लज्ज मेनका उस गर्भ से जनमी संतान को नदी के तीर पर छोड़ कर चली गई।
उन तेजस्वी महर्षि स्थूलकेश ने निर्जन स्थान में नदी के तीर पर देवताओं की कन्या के समान आभा वाली और अपनी शोभा से जाज्वल्यमान बन्धुहीन कन्या को देखा। कृपा से आविष्ट महान् द्विज महर्षि स्थूलकेश ने उस कन्या को देखकर उसे उठा लिया और उसे पाला-पोसा। वह सुन्दर कन्या उनके मङ्गलमय आश्रम में बढ़ने लगी।
अत्यन्त महान् ऋषि महाभाग स्थूलकेश ने क्रम से उस कन्या के जातक२ आदि सब संस्कार विधिपूर्वक संपन्न किए। सत्त्व गुण से समन्वित वह कन्या प्रमदाओं अथवा सुन्दरियों में वरा अथवा श्रेष्ठ थी, अतः महर्षि ने उसका नाम प्रमद्वरा रखा।
एक दिन धर्मात्मा रुरु आश्रम के स्थान पर उस प्रमद्वरा को देखकर कामदेव के वश में हो गए। फिर उन्होंने अपने मित्रों द्वारा अपने पिता प्रमति भार्गव को सब सुनवा दिया और प्रमति ने यशस्वी स्थूलकेश से उस कन्या को माँगा। तब पिता ने अगले उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में३ ब्याह की तिथि निश्चित करके उस कन्या को रुरु को देने का वचन दिया।
जब विवाह का दिन आने में कुछ ही दिन बचे थे तब सखियों के साथ खेलती हुई वह सुन्दर वर्ण वाली कन्या मार्ग में गहरी नींद सोते हुए और तिरछे-चौड़े फैले हुए एक साँप को नहीं देख पाई। काल से प्रेरित उस कन्या ने उस साँप पर पैर रख दिया। काल के धर्म से प्रेरित उस साँप ने असावधान कन्या के शरीर में अपने विषैले दाँत जमकर गड़ा दिए। साँप की डसी हुई प्रमद्वरा अचानक भूमि पर गिर पड़ी। उसका रंग उड़ गया, उसकी शोभा चली गई, उसके गहने बिखर गए और उसकी चेतना लुप्त हो गई। छूटे हुए बालों वाली प्रमद्वरा अपने मित्रों के लिए दुःखद हो गई। जो सबसे अधिक देखने योग्य थी, प्राणों के बिना वह देखने योग्य नहीं रही। साँप के विष से मारी गई वह कन्या भूमि पर गहरी नींद में सोई जान पड़ती थी। इस अवस्था में भी वह तन्वी बहुत मनोहर दिख रही थी।४
पिता स्थूलकेश और वन में जो अन्य तपस्वी थे उन्होंने कमल की शोभा वाली उस कन्या को बिना हलचल के भूमि पर गिरा हुआ देखा।
तब सब श्रेष्ठ ब्राह्मण कृपा से युक्त होकर वहाँ आए। स्वस्त्यात्रेय, महाजानु, कुशिक, शङ्खमेखल, उद्दालक, कठ, महान् यशस्वी श्वेत, भरद्वाज, कौणकुत्स, आर्ष्टिषेण, गौतम, अपने पुत्र सहित प्रमति और दूसरे वनवासी ब्राह्मण भी वहाँ आए। साँप के विष से मारी गई उस प्राणहीन कन्या को देखकर वे करुणा से युक्त होकर रोने लगे। दुखी रुरु वहाँ से बाहर चले गए। वे सब श्रेष्ठ द्विज तब वहीं बैठ गए।
जब वे महात्मा ब्राह्मण वहाँ बैठे थे, तब अत्यन्त दुखी रुरु एक गहन वन में जाकर रोने लगे। शोक के मारे रुरु बहुत करुण विलाप करते हुए और अपनी प्रिया प्रमद्वरा का स्मरण करके शोक करते हुए यह वचन बोले, मेरा और अपने सभी बन्धु-बान्धवों का शोक बढ़ानेवाली वह पतले शरीर वाली कन्या भूमि पर सो रही है। इससे बढ़कर और कौनसा दुख होगा? यदि मैंने दान दिया है, तप किया है और गुरुओं की ठीक से आराधना की है, तो मेरी प्रिया जी उठे। और यदि मैंने जन्म से लेकर अपने मन को वश में रखा है और व्रतों का पालन किया है तो यह सुन्दरी प्रमद्वरा उठ जाए। यदि सर्वव्यापी, लोकों के स्वामी और असुरों के शत्रु श्रीकृष्ण में मेरी निश्चल भक्ति है तो वह प्रिया जी उठे।
इस प्रकार अपनी भार्या के लिए दुखी होकर रुरु जब विलाप कर रहे थे तब एक देवदूत वन में उनके पास आकर वाक्य बोला। देवदूत ने कहा, हे रुरो! दुख के कारण अपनी वाणी से जो तुम कह रहे हो, वह व्यर्थ है। हे धर्मात्मन्! इसका कारण यह है, जिसकी आयु समाप्त हो गई है ऐसे मर्त्य जीव की आयु फिर नहीं होती। गन्धर्व और अप्सरा की इस दीन-हीन कन्या की आयु चली गई है। इसलिए हे तात, किसी भी प्रकार से मन को शोक में मत लगाओ। इस विषय में पहले ही देवों और महात्माओं ने एक उपाय का विधान किया है। यदि तुम उसे करना चाहते हो तो तुम यहाँ प्रमद्वरा को प्राप्त कर लोगे।
रुरु ने कहा, हे आकाश-मार्ग से जानेवाले! देवों ने कौनसा उपाय बताया है, सच-सच बताइए। उसे सुनकर मैं वैसा ही करूँगा। आप मेरी रक्षा करें।
देवदूत ने कहा, हे भृगु के वंशज! तुम अपनी आयु का आधा भाग इस कन्या को दे दो। रुरो! ऐसा करने पर तुम्हारी भार्या उठ जाएगी।
रुरु ने कहा, हे आकाशगामियों में श्रेष्ठ, मैं अपनी आयु का आधा भाग इस कन्या को देता हूँ। साज-सिंगार, रूप और गहनों से युक्त मेरी प्रिया जी उठे।
तब गन्धर्वराज५ और देवदूत इन दोनों श्रेष्ठ जनों ने धर्मराज यम६ के पास जाकर यह बात कही, हे धर्मराज, यदि आप मान जाएँ तो रुरु की आधी आयु से उसकी कल्याणमयी मृत भार्या प्रमद्वरा जी उठे।
धर्मराज ने कहा, हे देवदूत, यदि तुम रुरु की भार्या प्रमद्वरा को जीवित देखना चाहते हो, तो यह रुरु की ही आधी आयु से युक्त होकर जी उठे।
धर्मराज के ऐसा कहने पर फिर रुरु की आधी आयु से वह श्रेष्ठ वर्ण वाली कन्या प्रमद्वरा फिरसे जी उठी, मानो वह सोई हुई थी। ऐसा केवल अमित तेज से युक्त और बहुत लम्बी आयु वाले रुरु के भाग्य में ही देखा गया, जो भार्या के लिए उनकी आयु के आधे भाग का लोप हो गया।
तब यथेष्ट दिन पर उनके पिताओं ने उनका विवाह कर दिया। फिर एक-दूसरे का हित चाहनेवाले वे दोनों रमण करने लगे। कमल के केसर के जैसी सुन्दर आभा वाली दुर्लभ भार्या को पाकर व्रतों का पालन करनेवाले रुरु ने साँपों के विनाश का निश्चय किया।
सब साँपों को देखते ही वे बहुत कुपित होकर हाथ में दण्ड रूपी शस्त्र लेकर यथाशक्ति मार दिया करते थे। एक बार वे विप्र रुरु एक बड़े जंगल में गए। वहाँ उन्होंने सोता हुआ एक बूढ़ा डोड़हा साँप देखा। तब कालदण्ड के समान अपने दण्ड को उठाकर कुपित विप्र ने उसे मारना चाहा। डोड़हा साँप उनसे बोला, हे तपोधन! मैं आपका कोई अपराध नहीं कर रहा। फिर क्रोध से युक्त होकर और उत्साह में आकर आप मुझे क्यों मार रहे हैं?
रुरु ने कहा, प्राणों के समान मेरी पत्नी को एक साँप ने डस लिया था। हे साँप! उस समय मैंने अपने से यह घोर प्रतिज्ञा की, जब भी जिस-जिस साँप को देखूँगा उसे मैं पक्का मार दूँगा। इसलिए मैं तुम्हें मारना चाहता हूँ। आज तुम अपने जीवन से हाथ धो बैठोगे।
डोड़हा साँप बोला, हे ब्राह्मण! जो साँप मनुष्यों को डसते हैं वे तो और ही हैं। साँपों जैसे दिखने के कारण आपको डोड़हे साँपों को नहीं मारना चाहिए। डोड़हे साँपों का दुर्भाग्य दूसरे साँपों जैसा है, पर सौभाग्य अलग है। उनके दुख दूसरे साँपों जैसे हैं, पर सुख अलग हैं। अतः धर्म के जानकार होकर आपको डोड़हे साँपों को नहीं मारना चाहिए।
तब उस साँप के ऐसे वचन सुनकर रुरु ने उस डोड़हे साँप को कोई डरा हुआ ऋषि मानकर नहीं मारा। और फिर भगवान् रुरु ने उसे शान्त-सा करते हुए कहा, साँप! मुझे विस्तार से बताओ, इस विकृत गति में पड़े हुए तुम कौन हो?
डोड़हा साँप बोला, हे रुरो! मैं पहले सहस्रपात् नाम का ऋषि था। वह मैं एक ब्राह्मण के शाप से साँप बन गया हूँ।
रुरु ने पूछा, हे सर्पराज! रिसाए ब्राह्मण ने क्यों तुम्हें शाप दिया था? और कितने समय तक तुम्हारा यह शरीर रहेगा?
डोड़हा साँप बोला, तात! पहले खगम नाम का एक ब्राह्मण मेरा मित्र था। वह तपोबल से युक्त था पर बहुत कठोर वचन बोलता था। एक बार जब वह अग्निहोत्र करने में लगा था, मैंने लड़कपन में आकर खेल करते हुए तिनकों का साँप बनाकर उसे डरा दिया। उसे मूर्च्छा आ गई। फिर सचेत होने पर वह तपोधन, सत्यवादी और कठोरव्रत ब्राह्मण क्रोध से जलता हुआ-सा मुझसे बोला, ‘जैसे मुझे डराने की इच्छा से तुमने यह बलहीन साँप बनाया, वैसे ही तुम भी मेरे शाप से एक दुर्बल साँप हो जाओगे।’ हे तपोधन! मैं उसकी तपस्या का बल जानता था। मेरा हृदय बहुत उद्विग्न हो गया। उसे तुरंत प्रणाम करके और उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े होकर मैंने कहा, ‘सखे! यह मैंने सहसा आपके विनोद के लिए किया था। हे ब्राह्मण। आप मुझे क्षमा कर दें। इस शाप को लौटा लें।’ फिर मुझे बहुत उद्विग्न मन वाला जानकर बार-बार गरम साँसें भरते हुए बहुत घबराया हुआ वह ब्राह्मण बोला, ‘जो मैंने कहा, वह किसी भी प्रकार से झूठ नहीं हो सकता। हे निष्पाप तपोधन। अब जो मैं वाक्य तुम्हें कहूँगा, उसे सुनो और सुनकर यह वाक्य सदा तुम्हारे हृदय में रहे। रुरु नाम का प्रमति का एक सदाचारी पुत्र होगा। उसे देखकर शीघ्र ही तुम इस शाप से छूट जाओगे।’ ऐसा लगता है तुम वही रुरु हो। तुम प्रमति के पुत्र भी हो। अब मैं अपना स्वरूप पाकर तुम्हारे हित की बात कहूँगा।
उस महायशस्वी उत्तम विप्र ने तब डोड़हे साँप का रूप छोड़कर पुनः अपना दीप्तिमान् स्वरूप पा लिया। और फिर उसने अप्रतिम ओज से संपन्न रुरु से यह वचन कहा, "हे सभी प्राणियों में श्रेष्ठ! अहिंसा परम धर्म है। इसलिए एक ब्राह्मण को कभी भी और कहीं भी किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। इस लोक में ब्राह्मण सदैव सौम्य, वेदों और वेदाङ्गों का जानकार और सभी प्राणियों को अभय७ देनेवाला होता है—यह परम वेदवचन है। अहिंसा, सत्य बोलना, क्षमा और वेदों को धारण करना ब्राह्मण का परम धर्म है—यह निश्चित है। जो क्षत्रिय का धर्म है, वह तुम्हारे लिए इष्ट नहीं है। दण्ड धारण करना,८ उग्र होना और प्रजा की रक्षा करना—यह जो है वह क्षत्रियों का कर्म रहा है। रुरो! मेरी बात सुनो। बहुत पहले जनमेजय के यज्ञ में साँपों की हिंसा हुई थी। उस सर्पसत्र में डरे हुए साँपों की रक्षा भी एक ब्राह्मण द्वारा हुई थी। हे द्विजवर! वह मुख्य ब्राह्मण आस्तीक तपस्या के बल और प्रभाव से संपन्न था और वेदों और वेदाङ्गों में पारंगत था।"
उपसंहार
सहस्रपात् से आस्तीक के विषय में सुनकर रुरु ने उनसे पूछा जनमेजय ने कैसे साँपों की हिंसा की थी, वे क्यों मारे गए थे और आस्तीक ने उन्हें क्यों बचाया था। सहस्रपात् ने रुरु को बताया वे यह पूरी कथा कुछ ब्राह्मणों से सुनेंगे। ऐसा कहकर सहस्रपात् अन्तर्धान हो गए।
शिक्षा
नीलकण्ठ अपनी टीका में कहते हैं प्रमद्वरा से विवाह होने के पूर्व ही रुरु को दुख प्राप्त हुआ था। अपने पिता के वचन मात्र से रुरु ने प्रमद्वरा को अपनी पत्नी माना था। प्रमद्वरा के मरने पर रुरु को बहुत दुख हुआ था। नीलकण्ठ के अनुसार इससे विवाह का दुःखद स्वभाव सूचित होता है। मेरे अनुसार यह कथा विवाह के पूर्व भी भावी जीवनसाथी के प्रति निष्ठा सिखाती है। नीलकण्ठ आगे कहते हैं रुरु का शोक और प्रमद्वरा को पुनर्जीवित करने में उनकी विफलता यह सिखाती है किसी का जीवन महान् महिमा से युक्त हो तो भी आयु का एक अतिरिक्त क्षण भी दुर्लभ है। जिसकी आयु चली गई उसका आयु-लाभ नहीं होता।
नीलकण्ठ के अनुसार रुरु का साँपों के प्रति अत्यन्त रोष यह सिखाता है इच्छा का प्रतिघात होने पर महान् लोग भी क्रोध के आवेश में आकर अविवेक के कारण अधर्म कर बैठते हैं। नीलकण्ठ कहते हैं साँप के पूर्वजन्म की कथा का संदेश यह है—वास्तविक और अधर्म के द्वारा की गई परपीड़ा तो दूर की बात है, विनोद में भी किसी दूसरे को दुख नहीं देना चाहिए।
इस कथा से एक और सीख मिलती है। संसार की दृष्टि में कुछ व्यक्ति विशेषों का दोष भी पूरे समाज अथवा समूह की साख पर कालिख लगा देता है। डोड़हा साँप कहता है, अविषैले डोड़हे साँप दूसरे साँपों की भाँति मनुष्यों को नहीं डसते, पर फिर भी उन्हें विषैले साँपों जैसे ही दोष लगाते हैं।
अन्त में, नीलकण्ठ अपनी टीका में कहते हैं सहस्रपात् द्वारा आस्तीक का उदाहरण देने का संदेश है ब्राह्मण को हिंसा नहीं करनी चाहिए अपितु दूसरों द्वारा जो हिंसा से पीड़ित हैं उनकी रक्षा करनी चाहिए।
३
ऋषि और नागकन्या
पर्व—आदिपर्व
उपपर्व—आस्तीकपर्व
अध्याय—१.१३ से १.१४
प्रस्तावना
रुरु और साँप की कथा सुनाते समय सौति ने आस्तीक द्वारा जनमेजय के सर्पसत्र में साँपों की रक्षा का उल्लेख किया। जब कथा पूरी हुई तो शौनक ने सौति से पूछा जनमेजय ने अपने सर्पसत्र में साँपों की हिंसा क्यों की थी और आस्तीक ने उन्हें क्यों बचाया था। सौति ने तब शौनक को आस्तीक की कथा सुनाई। सौति ने स्वयं यह कथा तब सुनी थी जब उनके पिता लोमहर्षण ने ब्राह्मणों को इसे सुनाया था। उसके पहले यह कथा कृष्ण द्वैपायन व्यास ने नैमिषारण्य के वासियों को कही थी। आस्तीक की कथा कहने के प्रसंग में सौति ने सबसे पहले जरत्कारु ऋषि की कथा सुनाई।
कथा
आस्तीक के पिता प्रजापति के समान प्रभावशाली थे। वे ब्रह्मचारी१ थे। उनका आहार नियत था। वे सदा उग्र तपस्या में लगे रहते थे। उनका नाम था जरत्कारु। वे ऊर्ध्वरेता२ और महान् तपस्वी थे। यायावर३ मुनियों में वे प्रमुख थे। वे धर्म के जानकार और कठोर व्रत का पालन करनेवाले थे। एक बार तपोबल से युक्त वे महान् भाग्यशाली जरत्कारु सारी पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। जहाँ साँझ होती, वहीं मुनि का रैन-बसेरा होता। तीर्थों में डुबकी लगाते हुए वे मुनि सर्वत्र घूमते। महातेजस्वी मुनि ऐसी दीक्षा का पालन कर रहे थे जो अनियत मन वालों के लिए दुष्कर थी। वे मुनि केवल वायु का भक्षण करके बिना आहार और निद्रा के रहते थे। प्रज्वलित अग्नि के समान कान्ति वाले मुनि इधर-उधर घूमते रहते थे।
एक बार घूमते-घूमते उन्होंने अपने पितरों-पितामहों को देखा। वे पितर एक बड़े गड्ढे में पैर ऊपर और मुँह नीचे किए लटक रहे थे। उन पितरों-पितामहों को देखते ही जरत्कारु ने बोला, "आप कौन हैं जो इस गड्ढे में मुँह नीचे किए लटक रहे हैं? आप जिस बीरन घास४ के गुच्छे पर लटके हैं उसे इस गड्ढे में सदा छिपकर रहनेवाले चूहे ने चारों ओर से कुतर दिया है।"
पितरों ने कहा, हम कठोर व्रत वाले यायावर नाम के मुनि हैं। हे ब्राह्मण! हम संतान का क्षय होने से पृथ्वी में नीचे धँसे जा रहे हैं, हम भाग्यहीनों की जरत्कारु नामक एक ही संतान है। वह मन्दभागी तप में ही लगा रहता है। वह मूर्ख पुत्रों को जन्म देने के लिए किसी को पत्नी बनाना नहीं चाहता। इस कारण से संतान के क्षय से हम इस गड्ढे में लटक रहे हैं। दुष्कर्म करनेवालों की भाँति हम उस नाथ के द्वारा ही अनाथ बना दिए गए हैं। हे श्रेष्ठ साधो! तुम कौन हो जो मित्र की भाँति हमारे लिए शोक कर रहे हो? हे ब्राह्मण! हम जानना चाहते हैं। तुम कौन हो जो हमारे सामने खड़े हो? हे श्रेष्ठ सज्जन! तुम हम शोचनीयों के लिए क्यों शोक कर रहे हो?
जरत्कारु ने कहा, आप निश्चित ही पितामहों के साथ मेरे पूर्वज पितर हैं। कहिए, मैं अब क्या करूँ? मैं स्वयं जरत्कारु हूँ।
पितर बोले, तात! तुम यत्नवान् हो। हमारे कुल की संतान के लिए जतन करो। हे समर्थ! तुम्हारे लिए और हमारे लिए यही धर्म है। तात! जो गति पुत्र वाले पाते हैं वह गति न तो धर्म के फलों से लोग प्राप्त करते हैं और न ही अच्छे से संचित तप से। बेटा! इसलिए हमारी आज्ञा से तुम पत्नी ग्रहण करने के लिए और संतान उत्पन्न करने के लिए मन बनाओ और जतन करो। यह हमारे लिए परम हितकर है।
जरत्कारु ने कहा, मैं अपने जीवन के लिए न तो पत्नीग्रहण करूँगा और न ही धन-संचय। पर आपके हित के लिए मैं पत्नीग्रहण करूँगा। यह मैं विधिपूर्वक एक अनुबन्ध पर करूँगा। यदि ऐसा संयोग मिला तो करूँगा, अन्यथा कभी नहीं करूँगा। जो मेरे समान नाम वाली हो और जिसे उसके भाई भिक्षा के भाँति मुझे देना चाहें, उस कन्या से मैं विधिपूर्वक ब्याह करूँगा। विशेषतः मुझ रंक को कौन पत्नी के रूप में कन्या देगा? पर यदि कोई भिक्षा के रूप में देगा तो मैं उसे स्वीकार करूँगा। हे पितामहों! इस प्रकार इस विधि से मैं ब्याह के लिए सदा जतन करूँगा। इससे उलटा कुछ नहीं करूँगा। निश्चित ही ऐसी कन्या के गर्भ से आपको तारने के लिए कोई प्राणी जन्म लेगा। मेरे पितरों! तब आप शाश्वत स्थान पाकर प्रसन्न होंगे।
फिर कठोर व्रत वाले उन ब्राह्मण ने विवाह के लिए पत्नी की इच्छा से पृथ्वी पर विचरण किया पर उन्हें पत्नी नहीं मिली। एक बार किसी वन में जाकर पितरों के वचनों को सुमिरते हुए कन्या-भिक्षा की इच्छा से उन्होंने धीरे-से तीन बार पुकार लगाई, कन्याभिक्षां देहि।
५ तभी नागराज वासुकि अपनी बहन को लेकर उनके पास पहुँचे। पर यह मेरे समान नाम वाली नहीं होगी,
यह सोचकर जरत्कारु ने उसे नहीं स्वीकारा। जो मेरे समान नाम वाली हो और उद्यत हो, मैं ऐसी ही पत्नी को ग्रहण करूँगा,
महात्मा जरत्कारु का मन इस निश्चय पर स्थिर था।
महाज्ञानी और महातपस्वी जरत्कारु ने वासुकि से पूछा, हे सर्प! तुम्हारी बहन का नाम क्या है? सच बताओ।
वासुकि ने कहा, हे जरत्कारो! यह मेरी छोटी बहन जरत्कारु है। मेरे द्वारा दी गई इस सुमध्यमा कन्या को आप पत्नी के रूप में ग्रहण करें। हे द्विजश्रेष्ठ! यह आपके लिए पहले से सुरक्षित रखी गई है। इसे स्वीकार करें।
ऐसा कहकर वासुकि ने वह सुन्दर वर्ण वाली कन्या पत्नी के रूप में जरत्कारु को अर्पित की। और जरत्कारु ने शास्त्रीय विधियों में देखे गए कर्म के अनुसार उसे ग्रहण किया।
उपसंहार
कथा सुनाने के पीछे सौति ने समझाया नागों को पहले उनकी माता कद्रू ने जनमेजय के यज्ञ में अग्नि से जलने का शाप दिया था। उस शाप के निवारण के लिए वासुकि ने अपनी बहन मुनि जरत्कारु को पत्नी के रूप में समर्पित की थी। जरत्कारु और जरत्कारु के ब्याह करने के उपरान्त उनका आस्तीक नाम का पुत्र हुआ। वे आस्तीक ही थे जिन्होंने जनमेजय के सर्पयाग में साँपों को मरने से बचाया था।
शिक्षा
नीलकण्ठ समझाते हैं जरत्कारु ने जिस गड्ढे को देखा वह संसार ही है। उलटे लटकते हुए पितर स्वर्ग में पितरों के प्रतीक हैं जिन्हें सदैव वहाँ से नीचे गिरने का डर लगा रहता है। काल चूहा है और बीरन घास का गुच्छा वंशस्तोम अर्थात् वंशवृक्ष है। तात्पर्य यह है, काल अथवा समय सभी वंशों को खा जाता है। संस्कृत के महान् कवि और दार्शनिक भर्तृहरि वैराग्यशतक में मानो किसी भव्य राजभवन के खँडहर देखते हुए कहते हैं, वह रम्य नगरी, वह महान् राजा, वह सामन्तों का समूह, वह राजा के पास बैठी विद्वानों की परिषद्, वे चन्द्रमुखी सुन्दरियाँ, वह अत्यन्त गर्वित राजकुमारों का दल, वे स्तुति करनेवाले वन्दी-जन, यह सब जिसके वश में होने से अब केवल स्मृतिशेष रह गया है उस काल को नमन है।
नीलकण्ठ की टीका से हम एक और अर्थ भी समझ सकते हैं। संस्कृत में स्तोम शब्द का एक अर्थ प्रशस्ति अथवा स्तुति भी होता है। अतः चूहे द्वारा बीरन घास के गुच्छे को कुतरने का अर्थ है काल सब वंशों की प्रशस्ति अथवा प्रतिष्ठा को खा रहा है। तात्पर्य यह है प्रत्येक कुल की प्रतिष्ठा प्रतिक्षण काल का कलेवा बन रही है, अतः किसी के कुल की भूतकाल में क्या प्रतिष्ठा थी इसका बहुत महत्त्व नहीं है अपितु एक व्यक्ति के वर्तमान समय में क्या गुण हैं इसका महत्त्व अधिक है। स्तोम के प्रशस्ति/स्तुति अर्थ से एक और सूक्ष्म शिक्षा यह मिलती है प्रशस्ति अथवा कीर्ति के समाप्त होने पर पितर स्वर्ग से नीचे गिर जाते हैं। इन्द्रद्युम्न और बूढ़े पशु-पक्षियों की कथा (कथा १६) में मार्कण्डेय यही सिखाते हैं।
जरत्कारु अपने परिवार में अकेले बचे थे, वे अपने पितरों की एकमात्र संतान थे। उनके ब्याह न करने के निर्णय से उनके वंशवृक्ष का लोप हो रहा था और उनके पितर नीचे गिर रहे थे। भगवद्गीता (१.४२) में भी अर्जुन ने कहा है पिण्डक्रिया (श्राद्ध) और जलक्रिया (तर्पण) से वञ्चित होने पर पितर नीचे गिर जाते हैं।
जरत्कारु के नाम और उनके द्वारा अपने समान नाम वाली कन्या को ग्रहण करने के आग्रह में भी एक शिक्षा निहित है। सौति आगे शौनक को जरत्कारु नाम का अर्थ बताते हैं। सौति बताते हैं जरत्कारु नाम का अर्थ है वह जिसने तप से अपने शरीर को क्षीण कर लिया है
।६ मुनि जरत्कारु और उनकी पत्नी जरत्कारु दोनों तपस्या में इतने निरत थे उनके शरीर दुबले और क्षीण हो गए थे। इसका हार्द यह है तपस्या में लगे पुरुष को अपने ही समान तपस्या में लगनेवाली पत्नी का ग्रहण करना चाहिए।
कद्रू, विनता, घोड़ा और साँप (कथा ४)
४
साँप और घोड़ा
पर्व—आदिपर्व
उपपर्व—आस्तीकपर्व
अध्याय—१.२०, १.२२ से १.२३
प्रस्तावना
उग्रश्रवा सौति ने शौनक और ऋषियों को दक्ष की पुत्रियों कद्रू और विनता के बारे में बताया। कद्रू और विनता ब्रह्मा के पोते और मरीचि के बेटे कश्यप की पत्नियाँ थीं। कद्रू ने कश्यप से एक सहस्र नागों को पुत्रों के रूप में माँगा। विनता ने कश्यप से दो ऐसे पुत्र माँगे जो कद्रू के पुत्रों से अधिक बलवान् हों। कश्यप ने कद्रू और विनता दोनों को उनके मनचाहे वर दे दिए।
सौति ने फिर संक्षेप में समुद्र-मन्थन की कथा सुनाई—कैसे देवों और दानवों ने मिलकर समुद्र को मथा और कैसे विष्णु ने मोहिनी रूप लेकर दानवों को अमृत से वञ्चित कर दिया। सौति ने फिर समुद्र-मन्थन में उत्पन्न हुए घोड़े पर लगे कद्रू और विनता के पण की कथा सुनाई।
कथा
समुद्र-मन्थन के समय एक सुन्दर और अतुल्य पराक्रम वाला घोड़ा उत्पन्न हुआ, जिसे देखकर कद्रू ने विनता से ऐसा कहा, हे भद्र महिला! यह उच्चैःश्रवा घोड़ा किस रंग का है? बताओ, विलम्ब मत करो।
विनता ने कहा, यह घोड़ों का राजा श्वेत ही है। शुभे! अथवा तुम क्या मानती हो? तुम भी इसका रंग बताओ, फिर हम यहाँ पण करेंगे।
कद्रू ने कहा, हे मधुर मुसकान वाली! मैं मानती हूँ इसकी पूँछ काली है। हे सुन्दरि! आओ मेरे साथ दासी होने के लिए पण करो!
इस प्रकार वे दोनों परस्पर एक-दूसरे की दासी होने का पण करके और हम कल देखेंगे,
यह कहकर अपने-अपने घर चली गईं।
फिर कपट करने की इच्छा वाली कद्रू ने अपने एक सहस्र पुत्रों को आज्ञा दी, काजल के जैसे काले बाल बनकर घोड़े की पूँछ में घुस जाओ, जिससे मैं दासी न बनूँ।
जिन साँपों ने उनकी बात नहीं मानी, कद्रू ने उन्हें शाप दिया, पाण्डवों के वंशज बुद्धिमान् राजर्षि जनमेजय का सर्पसत्र जब होगा, तब अग्निदेव तुम सबको जला देंगे।
स्वयं पितामह ब्रह्मा ने कद्रू द्वारा दिए गए इस अत्यन्त क्रूर शाप को सुना। यह प्रबल दैव के कारण ही था। साँपों की बहुलता देखकर और प्रजा के हित की कामना से सब देवगणों के साथ ब्रह्मा ने उस शाप का अनुमोदन कर दिया। ये साँप बहुत डसते हैं। ये असह्य पराक्रम और विष से युक्त हैं और बहुत बलवान् भी। इनके तीखे विष के कारण और प्रजा के हित के लिए माता ने इनके साथ ठीक ही किया। दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए ही उनके पास जाना इनका स्वभाव है। जो अन्य जीव भी सदा ऐसे दोषों में लगे रहते हैं, दैव द्वारा उन्हें प्राणों के अन्त तक दण्ड दिया जाता है।
ब्रह्मदेव ने ऐसा बोलकर और कद्रू का आदर करके तब कश्यप को बुलाया और यह बात कही, हे निष्पाप कश्यप! ये जो बहुत डसनेवाले साँप आपने जने हैं, इनका विष बहुत गाढ़ा है और शरीर विशाल है। हे शत्रुओं को तपानेवाले! इनकी माँ ने इन्हें शाप दे दिया है। तात! इस विषय में आपको किसी प्रकार का क्रोध नहीं करना चाहिए। यज्ञ में साँपों का विनाश होगा यह बहुत पहले से पता ही है।
ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्मदेव ने प्रजापति महात्मा कश्यप को प्रसन्न करके उन्हें विष उतारने की विद्या दी।
जब कद्रू ने साँपों को शाप दे दिया, तब उनके शाप से उद्विग्न कर्कोटक नाम के श्रेष्ठ नाग ने माता कद्रू से परम प्रेम से कहा, काजल के जैसा काला बाल बनकर और घोड़े की पूँछ में घुसकर मैं अपने को वहाँ अवश्य दिखाऊँगा। आप पूरी आश्वस्त हो जाएँ।
यशस्विनी कद्रू ने अपने पुत्र को उत्तर दिया, एवमस्तु।
१
इधर नागों ने मिलकर निश्चय किया, हमें उनकी बात माननी चाहिए। यदि उनका मनोरथ पूरा नहीं हुआ, तो स्नेह से रहित हमारी माता हमें जला देंगीं। और यदि वे प्रसन्न हुईं, तो हमारी सुन्दर माता हमें शाप से मुक्त कर देंगीं। इसलिए हम घोड़े की पूँछ अवश्य काली करेंगे।
तब वे सब जाकर घोड़े की पूँछ में बाल बनकर स्थित हो गए। इसी बीच पण करनेवाले वे दोनों सौतें वहाँ आईं। दक्ष की पुत्रियाँ कद्रू और विनता ये दोनों बहनें फिर से पण करके अत्यन्त प्रेमपूर्वक आकाश-मार्ग से जलनिधि समुद्र को देखते हुए महासागर के दूसरे छोर पर गईं। अक्षोभ्य होते हुए भी वह समुद्र अत्यन्त प्रबल वायु से सहसा क्षुब्ध हो उठा था। वह महासागर बहुत ऊँचा शब्द कर रहा था। वह तिमिंगिल से परिपूर्ण और मगरमच्छों से भरा हुआ था। नाना प्रकार के अनेक सहस्रों भयानक जीवों से युक्त वह घोर महासागर अजेय, गम्भीर और अत्यन्त डरावना था। नदियों का स्वामी वह महासागर सभी रत्नों की खान, वरुण का निवास-स्थान और नागों का अत्यन्त रम्य घर था। वह शाश्वत महासागर पाताल तक व्याप्त बाडवाग्नि२ का आवास, असुरों और भयंकर जीवों का आलय और जल का निधान था। अमृत का आकर होने के कारण वह शुभ्र और देवों के लिए भी परम दिव्य था। बहुत पवित्र जल से युक्त महासागर अप्रमेय और अचिन्त्य था। जहाँ-तहाँ सहस्रों बड़ी नदियों से निरन्तर भरा जाता हुआ महासागर अपनी लहरों के साथ नाच-सा रहा था। तरल-से-तरल तरंगों से भरा हुआ वह गहरा और विकसित महासागर आकाश के समान नीले प्रकाश का था। उसके भाग पाताल तक जलनेवाली बाडवाग्नि की लपटों से प्रकाशित थे।
वे दोनों बहनें तुरंत उस गरजते हुए महासागर को पार कर गईं। उस समुद्र को पार करके शीघ्र चलनेवाली कद्रू विनता के साथ घोड़े के पास नीचे उतरीं। तब फिर उन दोनों बहनों ने उस महान् वेगशाली श्रेष्ठ घोड़े को देखा। घोड़ा चाँद की किरणों के जैसे श्वेत था पर उसकी पूँछ काली थी। पूँछ में बहुत सारे काले बालों को देखकर विनता का मुँह लटक गया। कद्रू ने विनता को दासीकर्म में नियुक्त कर दिया। उस समय विनता उस पण को हारकर दुख से संतप्त हो गई और दासीभाव को प्राप्त हुई।
उपसंहार
कद्रू और विनता ने जब पण किया था तब तक विनता के दूसरे अण्डे से गरुड बाहर नहीं आए थे। इससे पहले अधीर होकर विनता ने अपने